शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

महान संस्कृति वाले देश के नेता का उद्बोध

 

अवधेश कुमार 

विश्व मंच पर किसी देश के नेता जो कुछ बोलते हैं और जिस तरह बोलते हैं उसी से उस देश की नीति और लक्ष्य का विश्व समुदाय अनुमान लगाता है तथा देश एवं नेता की छवि भी उसी अनुसार निर्मित होती है। तो प्रश्न उठता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में जो भाषण दिया उससे उनकी और देश की कैसी छवि निर्मित हुई? क्या उनका भाषण वाकई ऐसा था जिसने भारत के कद को उंचा किया तथा विरोधी देशों द्वारा जो कुछ भ्रम और गलतफहमी पैदा की गई थी उसे दूर करने में सफल हुआ? कूटनीति का श्रेष्ठ तरीका यही माना जाता है कि यदि कोई विरोधी देश जरुरत से ज्यादा बदनाम कर रहा हो तो भी उसका जवाब दिए और नाम लिए बिना आप अपने देश की भूमिका और सोच को सकारात्मक तरीके से अभिव्यक्त करने तक सीमित रहिए। इससे बिना कहे कि दुश्मन को जवाब मिल जाता है। सफलता का एक सूत्र यह है कि आप किसी को छोटा करने में परिश्रम की बजाय स्वयं को बड़ा बनाने में अपनी क्षमता लगाइए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यही किया है। निर्धारित 15 मिनट से एक मिनट अधिक के उद्बोधन में भारत के कद को इतना उंचा उठा दिया कि उसके सामने पाकिस्तान तो क्या अनेक देश नहीं ठहरते। भारत की ओर से विश्व कल्याण का जो भाव प्रकट किया गया, संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी वैश्विक संस्थाओं में परिवर्तन की जिस दृष्टिकोण से वकालत की गई वैसा किसी नेता की ओर से नहीं किया गया। इतने संक्षिप्त भाषण में भारत राष्ट्र की सम्पूर्ण विश्वदृष्टि या यों कहें ब्रह्माण्डीय दृष्टि उन्होंने रख दी। विश्व मंच पर हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता संस्कृति वाले देश के नेता से ऐसी ही पूरे विश्व समुदाय को प्रेरणा देने वाली , भारत राष्ट्र का व्यापक लक्ष्य स्पष्ट करने वाली तथा सम्पूर्ण विश्व कल्याण के भाव से काम काम करने की भावना वाले उद्बोधन की अपेक्षा थी। पांच वर्ष पहले भी जब मोदी ने महासभा को संबोधित किया था तो इसी तरह वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवंतु सुखिनः की बात रखते हुए संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा था और फिर उन्होंने वर्तमान उद्बोधन से एक और अध्याय उसमंें जोड़ दिया। उस समय के उद्बोधन का ही प्रभाव था कि जब मोदी ने योग दिवस का प्रस्ताव रखा तो कुछ ही दिनों के अंदर 177 देशों के समर्थन से वह पारित हो गया। इस बार उन्होेंने कोई एक नया प्रस्ताव नहीं रखा है लेकिन स्वयं भारत, विश्व समुदाय और संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिए करने का कुछ स्पष्ट सूत्र उन्होंने दे दिया। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि आज दुनिया का स्वरूप बदल रहा है। आधुनिक टेक्नॉलजी, समाज जीवन, निजी जीवन, अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, कनेक्टिवीटी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सामूहिक परिवर्तन आ रहा हैं। इन परिस्थितियों में हम सभी के पास अपनी-अपनी सीमाओं के भीतर सिमट जाने का विकल्प नहीं है। इस नए दौर में हमें बहुपक्षीय होना होगा और संयुक्त राष्ट्र को नई शक्ति और नई दिशा देनी ही होगी।

 एक ओर तो दुनिया की दूरिया सिमट रहीं हैं, सम्पूर्ण व्यवस्था पर इसका असर है, लेकिन ज्यादातर राष्ट्र अपनी सीमाओं के अंदर संकुचित रहते हुए नीतियांें का अनुसरण करते हैं। इससे विश्व को केवल क्षति ही होनी है। इसलिए सभी का हित इसी में है कि सब अपना दायरा व्यापक करें, यह समझें कि परस्परालंबन ही एकमात्र रास्ता है तथा उसी अनुरुप संयुक्त राष्ट्र में परिवर्तन हो। ऐसा कहने के पहले मोदी ने हर व्यक्ति के समझने लायक सरल भाषा में समझाया था कि भारत हमेशा विश्व कल्याण के भाव से ही अपनी भूमिका निभाता रहा है। हर जीव में शिव देखना यानी पूरे ब्रहांड में जो कुछ है सबमें एक ही आत्मत्व यानी ईश्वर का दर्शन करना हमारी संस्कृति का मूलाधार रहा है। जब सभी एक ही तत्व के अंग हैं तो फिर किसी देश से ईर्ष्या, दुश्मनी और यहां तक कि युद्ध करने की मानसिकता का कोई कारण ही नहीं है। उन्होंने युद्ध की जगह बुद्ध देने की बात की। जनकल्याण से जगकल्याण को जोड़ा।ं सामाजिक-आर्थिक विकास तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ सहस्राब्दि लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में भारत क्या कर रहा है इसकी चर्चा उन्होंने की लेकिन इन सबको भी विश्व के उन देशों के लिए प्रेरणा बताया जो अपने यहां गरीबी, बीमारी, गंदगी जैसी समस्याआंे से जूझ रहे हैं। यह सच है कि आज भारत से प्रेरणा लेकर और इसके सहयोग से भी अनेक देश अपने यहां उन अभियानों को चला रहे हैं जो भारत ने किया है।

यहीं पर प्रधानमंत्री प्रश्न करते हैं कि आखिर हम यह सब कैसे कर पा रहे हैं? आखिर नए भारत में बदलाव तेजी से क्यों आ रहा है? फिर उसका जवाब देते हैं कि भारत हजारों वर्ष पुरानी एक महान संस्कृति है जिसकी अपनी जीवंत परंपराए हैं, जो वैश्विक सपनों को अपने में समेटे हुए है। हमारा प्राणत्तव है, जनभागीदार से जनकल्याण। अगर कुछ देश किसी देश या समाज को कुछ देते हैं तो उसके पीछे दयाभाव रहता है। भारतीय संस्कृति इसे अपना कर्तव्य मानती है। इसलिए भारत जो भी प्रयास कर रहा है उसमें कुछ देश तक अवश्य सीमित हैं लेकिन वह सारे विश्व और हर देश के लिए है। हमारे वेद और उपनिषद बताते भी हैं कि उठो और विश्व कल्याण में अपने को लगा दो।

 ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री ने केवल सैद्धांतिक बातें कीं। उन्होंने कुछ ठोस साकार कदमों के उदाहरण भी दिए। इस समय वैश्विक तापमान से हमारे अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है। यह सही है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के आधार पर भारत को इसमें योगदान काफी कम है। लेकिन इसके समाधान के लिए कदम उठाने वालों में भारत एक अग्रणी देश है। एक ओर अगर भारत 450 गीगीवॉट अक्ष्य उर्जा का लक्ष्य पाने के लिए काम कर रहा है तो दूसरी ओर स्वयं पहल करके अंतरराष्ट्रीय सौर संगठन खड़ा किया है। इसके माध्यम से उन सारे देशों को सौर उर्जा अपनाने के लिए प्रेरित और सहयोग किया जा रहा है जहां सूर्य की रोशनी बहुतायत में उपलब्ध हैं। धरती के तापमान से भयावह और विनाशाकारी आपदायें विश्व में पैदा हो रहीं हैं। भारत ने इस स्थिति को देखते हुए कोएलिशन फॉर डिजास्टर रेजिएंट इन्फ्रास्ट्रकर बनाने की पहल की है। इससे दुनिया को जोड़ने की कोशिश हो रही है ताकि पा्रकृतिक आपदाओं से निपटा जा सके। तीसरे, प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ शांति मिशन में सबसे ज्यादा बलिदान भारत ने दिया है। यानी हम केवल कहते नहीं कदम भी उठा रहे हैं क्योंकि हमारे देश का हजारों वर्षों से एक ही लक्ष्य रहा है विश्व कल्याण। लेकिन शांति चाहिए तो फिर आतंकवाद के खिलाफ तो उठना ही होगा। प्रधानमंत्री ने यहां किसी देश का नाम नहीं लिया और कहा कि हमारी आवाज में आतंक के खिलाफ दुनिया को सतर्क करने की गंभीरता भी है और आक्रोश भी। हम मानते हैं कि यह किसी एक देश की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की और मानवता की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। आतंक के नाम पर बंटी हुई दुनिया उन सिद्धांतों को ठेस पहुंचाती है, जिनके के आधार पर संयुक्त राष्ट्र का जन्म हुआ। इस तरह आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान भी है तो मानवता की खातिर। आतंकवाद के खिलाफ मोदी कड़ा वक्तव्य दे सकते थे जिस तरह उन्होनें ह्युस्टन में दिया लेकिन यहां एक नई थीम में ही उसे रखकर दुनिया को प्रेरित करना श्रेष्ठ दर्शन और कूटनीति कही जाएगी।

भारत का लक्ष्य शांति है। मोदी ने 3 हजार वर्ष पूर्व भारत के महान तमिल कवि कण्यन कुंगुनरनार को उद्वृत किया कि यादम उरे, यादमकुडे यानी हम सभी स्थानों के लिए अपनेपन का भाव रखते हैं, और सभी लोग हमारे अपने हैं। यह है भारत की संस्कृति। देश की सीमाओं से परे अपनत्व की यही भावना तो भारतभूमि की विशेषता है। हम गांधी जी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं जिन्होेने सत्य और अहिंसा का उपदेश दिया। फिर उन्होंने स्वामी विवेकानंद के अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद के उस संदेश से अपना भाषण खत्त किया कि हारमनी ऐंड पीस ऐंड नॉट डिसेंशन यानी शांति और सद्भावना। प्रधानमंत्री को पता था कि इमरान क्या बोलने वाले हैं। बिना कहे हुए उनके सारे आरोपों का जवाब भी इस भाषण में निहित था कि हमारे देश के संस्कार में युद्ध, आतंक, वैमनस्व या किसी को पीड़ा देना है ही नहीं। हम तो केवल मानव कल्याण के लक्ष्य से काम करते हैं। अगर दुनिया इन दोनों भाषणों की तुलना करेगी तो पलड़ा किसके पक्ष में झुकेगा यह बताने की आवश्यकता नहीं। थोड़े शब्दों में कहें तो इस भाषण को समग्रता में देखा जाना चाहिए जो भारतीय संस्कृति के अनसार विश्व के लिए प्रेरक, विश्व को भविष्य की दिशा देनेवाला तथा उसमें भारत की भूमिका भी स्पष्ट करने वाला था। इसे एक महान परंपरा वाले राष्ट्र के परिपक्व राजनेता का उद्बोधन माना जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष : 01122483408,9811027208

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/