अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के बारे में चर्चा के लिए सबसे अच्छा शीर्षक होगा वो 49 दिन। वस्तुतः 28 दिसंबर 2013 को रामलीला मैदान के शपथ से 14 फरबरी को विधानसभा में भाषण और फिर पार्टी मुख्यालय से इस्तीफा की घोषणा तक के 49 दिन ऐसे थे, जिन्हें राजनीति में कई कारणों से याद किया जाएगा। अगर थोड़े शब्दों में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि वे जिस तरह हंगामें और हल्लाबोल शैली में आए उसी तरह की शैली में गए तथा जाने के बाद भी उसी शैली को बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पूर्व वे कहते थे कि आयकर में आयुक्त पद पर थे करोड़ों कमा सकते थे, लेकिन उसे छोड़कर केवल देश के बचाने के लिए राजनीति में आए हैं। अब वे कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री बना रह सकता था, लेकिन हम राजनीति को बदलने के लिए व्यवस्था को बदलने के लिए मुख्यमंत्री पद कुरबान कर रहे हैं। क्या वाकई यह कुरबानी है? यानी सत्ता में आने को भी महान उद्देश्य एवं कं्राति की शुरुआत साबित करना और जाने को भी। अपने अंतिम भाषण मंे अरविन्द केजरीवाल ने ऐलान किया कि अब क्रांति संसद में होगी। तो क्या यह मान लिया जाए कि दिल्ली विधानसभा में उन्होंने जो किया वह कं्राति का पहला चरण था?
आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के हल्लाबोल महौल से जरा बाहर निकलकर निरपेक्ष तरीके से विचार करिए और कुछ प्रश्नों का उत्तर तलाशिए। क्या किसी ने मुख्यमंत्री या सरकार से इस्तीफा मांगा था? क्या समर्थन देने वाली कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लिया था? क्या विपक्षी भाजपा ने ऐसी स्थिति पैदा की थी जिससे सरकार का काम करना मुश्किल हो जाए? या फिर सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदांेलन जनता का खड़ा हो गया था जिससे मजबूर होकर उसे जाना पड़ा? इन सारे प्रश्नों का उत्तर है, नहीं। कांग्रेस का समर्थन रणनीतिक था, किंतु उसने कभी शासन में बाधा नहीं डाली। यहां तक कि राष्ट्रमंडल खेलों की जांच के आदेश, 1984 दंगों की जांच के विशेष जांच दल के गठन की अनुशंसा, केन्द्रीय मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने ...के बावजूद कांग्रेस ने केवल आलोचना की, लेकिन समर्थन वापसी की चेतावनी तक नहीं दी। जिस मोहल्ला सभा यानी स्वराज विधेयक एवं जन लोकपाल की केजरीवाल बात कर रहे थे उसका भी सीधे कोई विरोध नहीं था। केवल निर्धारित विधि के अनुसार प्रक्रियागत प्रश्न उठाए गए थे। मोहल्ला सभा का तो विरोध भी नहीं था। जन लोकपाल विधेयक के वित्तीय पहलू हैं एवं इसमंे दूसरों को सजा देने के भी प्रावधान थे, इस नाते आप विधायकों को छोड़कर शेष सभी विधायकों का, उप राज्यपाल का मत था कि इसे सीधे विधानसभा पटल पेश नहीं किया जा सकता। इस विषय पर इतनी बहस हो चुकी है कि ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं। लेकिन दिल्ली विधानसभा कार्यवाही प्रक्रिया को समझने वाले यह स्वीकार करेंगे कि उसे पहले उप राज्यपाल के पास भेजा जाना चाहिए था।
यह संभव नहीं कि केजरीवाल एवं उनके साथियों को इसका ज्ञान नहीं था। पर उनका इरादा कुछ और था। दरअसल, यह कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाली कुटिल रणनीति थी। केजरीवाल एवं उनके साथियों की महत्वाकांक्षा दिल्ली तक सीमित नहीं था, वे तो देश की शासन चलाने का सपना पाल रहे हैं। दिल्ली को तो वे केवल देश जीतने की युद्धभूमि के रुप में इस्तेमाल करना चाहते थे। इसकी उपयोगिता उनके लिए थी, क्योंकि यहां कोई भी कदम सुनियोजित तरीके से उठाने पर मीडिया के द्वारा सीधे देशव्यापी प्रचार मिलता था। यदि यही कार्य वे दूसरे राज्य में करते तो उसे ऐसा प्रचार नहीं मिलता। आम आदमी पार्टी की इवेंट प्रबंधन कुशलता, प्रचार तंत्र के इस्तेमाल तथा उसके अनुरुप भूमिका निभाने की कला पर कोई प्रश्न नहीं उठ सकता। छोटे से छोटे कदम को महाक्रांति बताकर प्रचारित करना तथा दूसरे दलांे का उपहास उड़ाने में उन्हें महारथ हासिल है और इस समय दूसरे दलों के नेता उनसे इस मामले में मुकाबला करने में सफल नहीं हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं कि केजरीवाल एवं उनके रणनीतिकारों ने सुनियोजित तरीके से सब कुछ किया। विधानसभा का सत्र उनने स्वयं आयोजित किया। उसमें सबसे पहले अपने समर्थकों के बिजली शुल्क माफ करने के लिए सब्सिडी की मांग पारित कराई, फिर अपना भाषण दिया जिसमें संकेत दे दिया कि यह अंतिम सत्र है। आम आदमी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति में ही यह तय हुआ होगा कि यही दो मामले पर जिसे पहले पूरा प्रचार दिया जाए, भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के लिए जनलोकपाल को प्राथमिकता घोषित करते हुए ऐसी स्थिति अपनाएं जिसमें कांग्रेस, भाजपा, राज्यपाल सब एक पाले में नजर आएं और उसे आधार बनाकर इस्तीफा देते हुए स्वयं को शहीद बनाने की कोशिश की जाए। यही उन्होंने किया है। इसके पहले गैस मूल्य मामले पर मुकेश अंबानी, वीरप्पा मोईली, मुरली देवड़ा आदि पर प्राथमिकी दर्ज करना और कुछ नहीं केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता जताना था, क्योंकि मामला पहले से उच्चतम न्यायालय में है। तो पहले मामले को गरमाया गया, युद्ध जैसी स्थिति बनाई गई, राज्यपाल, केन्द्र सरकार, कांग्रेस, भाजपा, दिल्ली पुलिस सबसे सीधा टकराव.......इन सबको मीडिया कवरेज मिलना ही था। भारत के किसी भी राज्य की सरकार को इतना प्रचार नहीं मिला, जितने इन 49 दिनों में अरविन्द केजरीवाल एवं उनकी सरकार को मिला। मुख्यमंत्री केजरीवाल कह रहे थे कि इस मुद्दे पर अगर हमारी सरकार जाती है तो फिर हम दिल्ली मेें 50 स्थानों पर विजीत होकर लौटेंगे। लेकिन उन्होंने अपने भाषण में ही यह साफ भी कर दिया कि उनका लक्ष्य संसद में जाना है। इसके लिए वे काम करने जा रहे हैं।
जरा भाषण के कुछ पहलुओं पर गहराई से विचार करिए। विपक्ष एवं कांग्रेस दोनों उन्हें गैर अनुभवी, संविधान व निहित प्रक्रियाओं को न मानने वाला कहते थे। उसका जवाब उन्हांेने दिया कि हम नए थे, पर संसद में मिर्च स्प्रे तथा यहंा विधानसभा में माईक तोड़ने, कागज फाड़ने तथा मंत्री के मेज पर चूड़ियां रखना संसदीय व्यवस्था में कहां की मर्यादा है। यह तो संविधान में नहीं लिखा। आप विधानसभा और संसद को मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा कहते हो तो कोई मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा में हल्ला करने नहंी जाता वहां धर्म पुस्तकें नहीं फाड़ता। दरअसल, वे देश में यह संदेश दे रहे थे कि हमको उपदेश देने वाले लोकतंत्र के मंदिर को स्वयं अपवित्र करते हैं, ये स्वयं लोकतंत्र विरोधी है। प्रश्न है कि क्या दिल्ली एवं देश की जनता वाकई अरविन्द केजरीवाल एवं आम आदमी पार्टी की बातों को उसी तरह लेगी जैसी वे कल्पना कर रहे हैं? क्या उनका दोहरा रवैया जनता के सामने नहीं आएगा? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि यह पार्टी काम से ज्यादा अपने प्रचार, विपक्षियों, विरोधियों के प्रति हिकारत की अमर्यादा दिखाने में अपना ज्यादा समय गंवाती है?
विधानसभा में जब केजरवील विपक्ष को आरोपित कर रहे थे तो कुछ सदस्यों ने यह प्रश्न उठाया कि आपके लोग जब हम पर चिल्लाते हैं, फब्तियां कसते हैं, आप उप राज्यपाल को कांग्रेस का एजेंट कहते हैं, हमें भ्रष्ट कहते हैं तब ये उपदेश याद नहीं रहते। दिल्ली में उनको वोट देने वाले बड़ी संख्या में वे लोग थे जिनके लिए जन लोकपाल मायने नहीं रखता था। उनके लिए बिजली शुल्क में कमी, महंगाई कम होना, पानी की उपलब्धता, शिक्षालयों में बच्चांे के नामांकन आसान होना, अध्ययन बेहतर, अस्पतालों में आसानी से बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिलना, सरकारी काम आसानी से हो जाना, ... आदि सर्वोपरि थे। इसके अलावा केजरीवाल ने ठेके पर काम करने वाले तथा अस्थायी कर्मचारियों का मुद्दा जोर शोर से उठाया...उनके साथ न्याय का वायदा किया था। लोग ये अवश्य सोचेंगे कि आखिर केजरीवाल की प्राथमिकता में ये काम थे ये नहीं? ऐसा नहीं है कि उनने कोई काम नहीं किए। बिजली कंपनियों का कैग से अंकेक्षण कराना एक बड़ा निर्णय था। 670 लीटर मुफ्त पानी का आदेश भी ठीक था। किंतु इससे एक लीटर आगे बढ़ने पर पूरा शुल्क अखड़ने वाला था। बिजली बिल घटाने का निर्णय अधूरा ही रहा और इसके बाद उनने कोई काम पूरा नहीं किया। जो कुछ उनने किया वे सारे एनजीओ के एजेंडे थे। आप सरकार ने जैसी जिद़ पकड़ी थी, जैसी हठधर्मिता अपनाई उससे कोई सार्थक परिवर्तन नहीं हो सकता है। संसदीय प्रणाली में यह संभव नहीं कि सरकार जो विधेयक लाए उसे उसी अनुसार स्वीकार कर लिया जाए। उसमें संशोधन आते हैं, उनमें कई स्वीकार होते हैं, कई अस्वीकार, कई बार वे संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए जाती है जिसमें सभी दलों के सदस्य होते हैं। आप को यह स्वीकार ही नहीं था कि उनके विधेयक की विहित प्रक्रिया के तहत मंजूरी मिले या उसमंे कोई संशोधन हो। यह फासीवादी सोच व आचरण है जिसकी संसदीय व्यवस्था मंे कोई स्थान नहीं। लेकिन उनने सब कुछ जब पहले से तय कर रखा था तो फिर उसी रास्ते पर उन्हें आगे बढ़ना था।
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