गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

शास्त्रीय नृत्य सांस्कृतिक धरोहर: डॉ. संदीप कुमार शर्मा

पुस्तक समीक्षा

इस बार डायमंड बुक्स आपके समक्ष लेकर आया है डॉ. संदीप शर्मा की पुस्तक "शास्त्रीय नृत्य सांस्कृतिक धरोहर "। अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमारे देश में नृत्य कला का शुभारंभ दक्षिण भारत से हुआ है। जबकि सभ्यता का विकास हिमालय से हुआ। देवभूमि हिमालय को माना जाता है। दक्षिण भारत में महर्षि अगस्त्य के आगमन के उपरांत ही वहां आर्य सभ्यता का विकास हुआ। सभ्य समाज का गठन हुआ। शिक्षा का विस्तार हुआ। जोवन शैली बदली। विचार बदले और बदल गई दक्षिण भारत की दुनिया ।। दक्षिण भारत में तमिलनाडु ने भरतनाट्यम और केरल राज्य ने कथकली एवं मोहिनीअट्टम शास्त्रीय नृत्य को विकसित किया। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश में कुचिपुड़ी नृत्य, ओडिशा में ओडिसी नृत्य, मणिपुर में मणिपुरी नृत्य, असम में सत्रिया यो सतिया नृत्य एवं सत्रिया नृत्य और उत्तर प्रदेश में कत्थक नृत्य विभिन्न काल खंडों में विकसित हुआ। यही कारण है कि आज हमें दो प्रकार के नृत्य देखने को मिलते हैं- लोकनृत्य और शास्त्रीय नृत्य दोनों ही नृत्य विधाओं में गीत, संगीत और वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। नृतः केवल नृत्य है। जिस में शारीरिक मुद्राओं का फलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं यहाँ आज कल का ऐरोबिक नृत्य है। नृत्य में भाव दर्शन की प्रधानता है। जिस में नृत्य का प्रदर्शन करने वाले मुख, पद, हस्त मुद्राओं का प्रयोग कर भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन करता है। नाट्य में वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है। सृष्टि के कल्याण और व्यवस्थित संचालन के लिए परमपिता परमेश्वर द्वारा सृष्टि के प्रारंभ से ही दिए गए ज्ञान के भंडार को वेद कहा जाता है।

नृत्य धरोहर को भी माना जाना चाहिए। निश्चित रूप से शास्त्रीय नृत्य कालांतर में विकसित हुआ लेकिन उससे पहले। लोकनृत्य परिपक्व अवस्था में मिलता है। मैंने पहले लिखा है कि धरोहर केवल पुरातात्विक इमारतों, प्राचीन साहित्य और अन्य कलाकृतियां ही नहीं होतीं अपितु कुछ धरोहर सदैव गतिशील होती हैं। इसके अन्य उदाहरण भी है किन्तु हम विषय विस्तार में न जाते हुए केवल नृत्य कला की बात करेंगे।

आशा करते हैं कि पाठकों को यह पुस्तक शास्त्रीय नृत्य के दृष्टिकोण से बौद्धिक समृद्धि देगी।

अनुभव और भावनाएँ प्रो. पुष्पिता दुकान -

डायमंड बुक्स इस बार सुप्रसिद्ध प्रवासी लेखिका पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक 'अनुभव और अनुभूतियाँ आपके समक्ष लाया है। 'अनुभव और अनुभूतियों' के इस विशेष संचयन में विश्व के सर्वोच्च शांति गुम्बद, अहिंसा, आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता के अंतरसम्बन्धों को लेकर वैचारिक आलेख है तो दूसरी और पुस्तक के ऑतम आलेखों में क्रम से श्रीराम और सीता के वैश्विक महत्त्व को उकरते हुए अंतर्दृष्टि सम्पन्न विशिष्ट आलेख है। इसके साथ ही पाठकों की पुस्तक में विन्यस्त मेरी दृष्टि की सिद्धि का अभिप्राय तब और अधिक सिद्ध हो सकेगा जब वे अन्तिका से प्रकाशित छिन्नमूल उपन्यास (2016) और किताब पर से प्रकाशित 2015 "भारतवंशी भाषा एवम् संस्कृति" अनुसन्धान मूलक पुस्तकें पढ़ेंगे। अहिंसा, श्रीराम और गीता पर केन्द्रित आलेखों को मैंने विश्व के भारतवंशियों की इन शक्तियों के प्रति प्रेम के कारण ही इस पुस्तक में संजोया है। जिससे वे सम्मान और तृप्ति की अनुभूति कर सके श्रीराम और गीता संस्कृति की शक्ति की वजह से हो वे भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों को बचाने में समर्थ हुए हैं। वस्तुतः भारतीयता के मूल सांस्कृतिक बीज मन्त्रों से ही विश्व के भारवंशियों ने अपने चित्त और चेतना में मनुष्यता का जादुई पर्यावरण रथा रखा है जिसको शक्ति को मैं 23 वर्षों से अपनी रूह में अनुभव कर रही हूँ। जिसके परिणाम रचित आलेख हैं। आशा करते हैं यह पुस्तक पाठकों के मन को भाएंगी।

जातीय जनगणना की राजनीति कितनी कारगर

बसंत कुमार

आज देश मे चुनाव नजदीक आते ही जातीय जनगणना की चर्चा बहुत जोरों पर चल रही है हर राजनीतिक दल अपनी सहुलियत् के हिसाब से जातीय जनगणना के पक्ष विपक्ष मे तर्क दे रहा है आइये इस विषय मे संविधान निर्माता डा आंबेडकर के क्या विचार थे। डा आंबेडकर ने 26 अक्टूबर 1947 को इस विषय में इस प्रकार अपनी राय व्यक्त की, "भारत की जनगणना कई दशकों से जनसांख्यिकी में एक आपरेशन बन कर रह गई है। यह एक राजनीतिक मामला बन गया है ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक समुदाय अधिक से अधिक राजनीतिक शक्ति अपने हाथ मे लेने के लिए किसी अन्य समुदाय की कीमत पर कृतिम रूप से अपनी संख्या अधिक होने का प्रयास कर रहा है। ऐसा लगता है अन्य समुदायों की अधिक लालच की संतुष्टि के लिए अनुसूचित जातियों को एक आम शिकार बनाया गया है जो अपने प्रचार को गणनाकारों के माध्यम से जनगणना के संचालन और परिणामों को नियंत्रित करने मे सक्षम है।" इस समय चारो ओर से मांग उठ रही है कि इस बार की जनगणना जाति बार पर आधारित हो! देश मे जातीय ज नगड़ना1931 मे हुई थी। उसके बाद सरकारो ने जातीय जनगणना को नजर अंदाज किया और विभिन्न समुदायों की सटीक जनसंख्या जाने बिना विभिन्न समुदायों के कल्याण के लिए नीतियां बनाती जा रही है जो गलत है।

पहली जाति जनगणना 1871 में ब्रिटिश शासन के दौरान की गई थी जिसके परिणाम 1972 मे घोषित हुए और इस कब्जे वाले या नियंत्रित सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया था, उस समय से 1931 तक ब्रिटिश सरकार द्वारा जाति जनगणना नियमित तौर पर की जाती रही और हर कोई जनता था कि समाज में विभिन्न जातियों का प्रतिशत क्या है। सन् 1941 मे जनगणना तो हुई पर दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो जाने के कारण जनगणना के आकड़े जारी नही हो पाए।

देश आजाद होने के पश्चात स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना 1951 मे होनी थी लेकिन नेताओ ने तर्क दिया कि भारत अब स्वतंत्र हो गया है और आधुनिक दुनिया और लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है इसलिए जाति जनगणना की कोई अवश्यकता नही है और जनगणना अधिनियम 1948 लागू हुआ और स्वतंत्रता के बाद की जनगणनाएं इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार लागू की गयी और कहा गया की भारत मे अब जातिया अप्रासंगिक हो जायेगी और विभाजन पैदा करने वाली जनगड़ना 1951 मे नही की जायेगी बस एससी/एसटी जनगणना जारी रहेगी क्योंकि उनको आरक्षण देने के प्रावधान थे। देश की राजनीति की यह सबसे बड़ी भूल थी क्योकि देश मे आज भी आदमी की पहचान जाति से होती है और हर भारतीय के गुण या प्रतिभा का मूल्यांकन इस बात पर निर्भर करता है की वह किस जाति मे पैदा हुआ है।

देश में ओबीसी जातियों का कोई आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण और उनके प्रतिनिधित्व की मांग दिन ब दिन बढ़ने के कारण 1979 मे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए मण्डल आयोग की स्थापना की गई। मण्डल आयोग ने ओबीसी की जनसंख्या का प्रतिशत जानने के लिए 1931 के आंकड़ो और कुछ नमूना सर्वेक्षणों का प्रयोग किया और मण्डल आयोग ने सिफारिश की कि ओबीसी के बेहतर विकाश के लिए जाति जनगणना जल्द से जल्द करायी जाए इसके पीछे यह तर्क था कि संशधनो पर सबसे अधिक सवर्णो का कब्जा है और जाति के असली आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये जाते, वर्ष 1991 मे मण्डल आयोग की सिफारिशे लागू की गयी और निर्णय लिया गया कि, 2001 की जनगणना के साथ जातीय जनगणना कराई जाए, क्योंकि जाति जनगणना से यह पता लग जायेगा कि कौन-सा जाति समूह किसका हिस्सा खा रहा है जैसा कि डाॅ. आंबेडकर ने कहा था कि पिछड़ी व वंचित जातिया भ्रामक जनसंख्या का शिकार हो रही है इसलिए देश मे निष्पक्ष जातीय जनगणना कराई जानी चाहिए। उन्होंने संविधान सभा मे कहा था की 26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोध से भरे एक जीवन में प्रवेश करने जा रहे है राजनीति मे हमारे पास समानता होगी जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन असमानता से भरा होगा राज नीति मे हम एक मनुष्य एक वोट के सिद्धांत पर चल रहे है पर अपने सामाजिक और राजनीतिक सोच के चलते जीवन मे एक मनुष्य- एक मूल्य के सिद्धांत का अनुसरण नहीं कर पाएंगे। आजाद भारत मे सरकार ने काका कालेलकर कमेटी और मण्डल आयोग का गठन किया पर इसकी रिपोर्ट आने के बाद कांग्रेस दशकों तक इस पर बैठी रही और इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया पर, 1990 में वीपी सिंह ने इसे लागू कर ओबीसी के 27% आरक्षण का मार्ग प्रसस्थ किया, यह बाबा साहब का ही करिश्मा था कि कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल 'जितनी जितनी है आबादी उतनी उसकी हिस्सेदारी' का नारा लगाकर जातिगत जनगणना का समर्थन कर रहे है।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जातिगत
जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा दूसरी ओर डाॅ. आंबेडकर का कहना था कि जाति अव्यवस्थित है और इससे हिंदू समाज हतोत्साहित होता है और उन्होंने पिछड़ों और वंचितो को जनसंख्या के अनुरूप हिस्सा मिले सदैव इसका समर्थन किया। जब समाज में व्यक्ति अपनी जाति से जाना जाता है तो देश मे किस जाति की कितनी आबादी है यह जानने में हर्ज ही क्या है या तो हम एक जाति विहीन समाज की स्थापना करे या पारदर्शी तरीके से जाति पर आधारित जनगणना होने दे क्योकि ढुलमुल तरीका अपनाने से सामाजिक ताना बाना  नष्ट हो जायेगा।
आज लोकसभा या विधानसभा चुनावों में टिकट देते समय हर राजनीतिक दल टिकट मांगने वालों से उसकी जाति और अपने निर्वाचन क्षेत्र मे प्रत्येक जाति की जनसंख्या पूछती है और हर टिकट मांगने वाला अपने पक्ष के हिसाब से फर्जी आंकड़े पेश करता है जबकि सबको पता है देश में 1931 के बाद कोई जाति की
जनगणना हुई ही नहीं, ऐसे मे बेहतर है कि जाति की जनगणना करा कर इस फर्जी वाड़े से बचा जाए, जब हर पार्टी चुनाव जीतने के लिए जाति जाति खेल रही है तो जाति की जनगड़ना का विरोध का ढोंग क्याें। देश एवं सरकार को फैसला करना होगा कि एक जाति विहीन समाज की स्थापना की जाये या फिर जाति की जनगणना करा कर जिसकी जितनी हो आवादी उसकी उतनी हिस्सेदारी के आधार पर संसाधनों का वितरण करे, वैसे डा अम्बेडकर जाति प्रथा को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप माना था और उसे दूर करने के लिए जीवन पर्यंत प्रयास करते रहे!
(लेखक राष्ट्रवादी विचारधारा के लेखक है और भारत सरकार के पूर्व उप सचिव हैं।)

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