शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

सिद्धू के विद्रोही होने का अर्थ

 

अवधेश कुमार

नवजोत सिंह सिद्धू की मानें तो उन्होंने इसलिए राज्यसभा से त्यागपत्र दिया, क्योंकि उन्हें बार-बार कहा गया कि पंजाब की ओर आपको देखना नहीं है। तत्काल पंजाब चुनाव की दृष्टि से देखें तो भाजपा को इससे होने वाल क्षति का अनुमान न हो ऐसा नहीं हो सकता। अप्रैल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिद्धू को राज्यसभा सदस्यता स्वीकारने के लिए कहा था और उन्हें बाजाब्ता मनोनित कराया गया था। इसके पीछे सोच यही थी कि नवजोत और उनकी पत्नी नवजोत कौर मान जाएंगे तथा आगामी चुनाव में उनका उपयोग किया जा सकेगा। दरअसल, नवजोत सिंह सिद्धू ज्यादा मुखर होकर नहीं बोलते थे लेकिन उनकी पत्नी जो कि पंजाब में मुख्य संसदीय सचिव थीं, लगातार बयान दे रहीं थीं कि भाजपा अकाली दल से रिश्ता तोड़कर अकेले चुनाव लड़े। उन्होंने एक बार तो यह भी कह दिया कि अगर भाजपा अकाली दल के साथ चुनाव लड़ती हैं तो वो गठबंधन की उम्मीदवार नहीं होंगीं। इस बयान से ही पंजाब भाजपा में खलबली मच गई थी। सिद्धू दंपत्ति अकाली दल से नाराज हैं और उसका साथ नहीं छोड़ने तथा अपनी बात नहीं माने जाने से भाजपा नेतृत्व से असंतुष्ट हैं यह कोई भी देख सकता था। अंततः उसकी ही परिणति पति द्वारा राज्यसभा से तथा पत्नी द्वारा विधानसभा से त्यागपत्र देेने के रुप में सामने आया है।

यह कोई साधारण कदम नहीं है। विधानसभा का कार्यकाल तो कुछ समय के लिए बचा है लेकिन राज्यसभा में नवजोत सिंह सिद्धू के पास पूरे छः वर्ष का समय था। कोई संासदी यू ही नहीं छोड़ता। जाहिर है, नवजोत सिंह ने काफी सोच-समझकर और रणनीतिक कदम के रुप में इस्तीफा दिया है। उनका ट्विट देखिए। वे कहते हैं कि सही और गलत की लड़ाई में तटस्थ नहीं रहा जा सकता। सही गलत चुनना था। पंजाब का हित सबसे उपर है। ... प्रधानमंत्री के आदेश पर राज्यसभा स्वीकार किया था लेकिन यह बोझ बन गया था। साफ है कि सिद्धू ने पंजाब की जनता को इसके द्वारा संदेश दिया है कि उन्होेंने प्रदेश के हित के लिए राज्य सभा से त्यागपत्र दिया है। यह बयान अकाली और भाजपा दोनों के खिलाफ है। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने कहा है कि अकाली और भाजपा के गठबंधन मंें पंजाब का हित नहीं हो रहा है, इसलिए उनको राज्य सभा छोड़नी पड़ी है। यह विधानसभा चुनाव में उनका सबसे बड़ा दांव होगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जैसे ही सिद्धू के त्यागपत्र के बाद उन्हें सैल्यूट किया उनलोगों को भी पूरा माजरा समझ में आ गया जो पंजाब की राजनीति पर नजर नहीं रख रहे थे।

तो साफ है कि नवजोत सिंह और आम आदमी पार्टी के बीच बातचीत हो रही है। अगर वे आम आदमी पार्टी में जाते हैं तो केवल विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए तो नहीं ही। फिर राज्यसभा इससे तो बेहतर ही था। वास्तव में पंजाब में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में इजाफा दिख रहा है, पर उसके पास एक विश्वसनीय सिख्ख चेहरा का अभाव है। यह अभाव सिद्धू दूर कर सकते हैं। हालांकि अभी कुछ कहना कठिन है, क्योंकि आप नेताओं ने आरंभिक उत्साह के बाद चुप्पी साध ली है। किंतु वो आप की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होते हैं तो पार्टी ज्यादा बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर सकती है। उन्हें प्रदेश के लिए राज्य सभा की सदस्यता त्यागने वाला नेता कहकर प्रचारित करने से पार्टी का पक्ष और सबल होगा। पंजाब के लोगों के सामने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर प्रकाश सिंह बादल और कैप्टन अमरींदर सिंह से अलग एक ताजा चेहरा होगा, जिसकी ओर आकर्षण हो सकता है। सिद्धू के बोलने का अंदाज लोगों पर जादूई प्रभाव डालता है। भाजपा उनका प्रचार में अलग-अलग राज्यों में उपयोग करती थी। गुजरात विधानसभा चुनाव में स्वयं नरेन्द्र मोदी ने उनका पूरा उपयोग किया था। उनका चेहरा जाना पहचाना है तथा उन पर किसी तरह के भ्रष्टाचार का दुराचरण का कोई आरोप नहीं है।

पंजाब पर नजर रखने वाले जानते हैं कि इस समय अकाली दल के पक्ष में माहौल नहीं है। पार्टी पर कई प्रकार के आरोप हैं और अरविन्द केजरीवाल ने मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार को बड़ा मुद्दा बनाकर पहले से अकाली दल को रक्षात्मक बनने को मजबूर करने की रणनीति अपनाया हुआ है। चूंकि सिद्धू उसी गठजोड़ से निकले हैं, इसलिए यही आरोप यदि वो लगाएंगे तो इसका असर ज्यादा हो सकता है। इसके विपरीत अकाली के पास सिद्धू पर आरोप लगाने के लिए क्या होगा? भाजपा उन्हें क्या कहेगी? नैतिक दृष्टि से यह ठीक है कि अगर सिद्धू को यही करना था तो उन्हें राज्य सभा स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी। संभव है उन्हांेंने आम आदमी पार्टी से मोलभाव करने के इरादे से राज्य सभा की सदस्यता ले ली हो ताकि इसे छोड़ने के एवज में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी ली जाए। तो भाजपा कह सकती है कि उन्होंने विश्वासघात किया है या भाजपा ने उनको नहीं छोड़ा लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए अपनी पार्टी को लात मार दिया...। क्या इससे मतदाता प्रभावित होंगे? इस समय ऐसा लगता नहीं।

हालांकि सिद्धू दो बार सांसद रहने के बावजूद कभी गंभीर नेता के तौर पर अपने को साबित न कर सके। उनकी छवि अरुचि से राजनीति में आने वाले व्यक्तित्व की रही। वो संसद में जाने से ज्यादा अपने टेलीविजन कार्यक्रमों को ही महत्व देते रहे। दूसरी ओर इससे उनकी लोकप्रियता एक बड़े वर्ग के बीच बनी रही। यह लोकप्रियता चुनाव मंें उनके काम आ सकती है। पिछले लोकसभा चुनाव मंे कोई विश्वसनीय सिख्ख चेहरा न होने के बावजूद आप ने चार सीटें जीत कर सबको हैरत मंें डाल दिया। अगर लोकसभा चुनाव परिणाम को देखें तो भाजपा को 8.70 प्रतिशत एवं अकाली को 20.30 प्रतिशत यानी कुल मिलाकर 29 प्रतिशत मत मिला था। यह उस समय का प्रदर्शन है जब पूरे उत्तर भारत में मोदी की लहर चल रही थी। वैसे सिद्धू ने उस समय भी चुनाव प्रचार नहीं किया था। वे तब भी अकाली से अलग होकर चुनाव की वकालत कर रहे थे और परिणाम में अकालियों ने अरुण जेटली को अमृतसर से चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर उनको ही चुनाव से बाहर कर दिया। इसका गुस्सा उनके अंदर होना स्वाभाविक था। कोई कहे कि इसका असर भाजपा के वोटों पर नहीं पड़ा तो यह गलत होगा। अरुण जेटली की पराजय सामान्य घटना नहीं थी। खैर, लोकसभा चुनाव में भाजपा अकाली केे समानांतर आम आदमी पार्टी को 30.40 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 33.10 प्रतिशत मत मिला था। विधानसभा अनुसार पार्टियों की स्थिति के आलोक में देखें तो कुल 117 स्थानों पर भी ऐसे ही विभाजित जनादेश था। इसमें भाजपा को 16, अकाली दल को 29, कांग्रेस को 37 तथा आप को 33 स्थानों पर बढ़त थी। यहां भाजपा अकाली को बढ़त थी लेकिन बहुमत से 14 सीटें कम।

कम से कम इस समय यह कल्पना नहीं की जा सकती कि अकाली और भाजपा लोकसभा चुनाव से बेहतर प्रदर्शन कर लेंगे। उसमें भी सिद्धू के विरोध में और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनकर सामने आने के बाद तो इनके वोट में सेंध लगना ही है। चूंकि सिद्धू भाजपा की प्रदेश राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं थे, इसलिए पार्टी के ज्यादा लोग उनके साथ चले जाएंगे यह संभव नहीं, किंतु भाजपा के ंअंदर अकाली को लेकर असंतोष है और इसका लाभ वे उठाने की कोशिश करेंगे। वैसे सिद्धू अगर आप का चेहरा बनते हैं तो कांग्रेस के लिए भी परेशानी हो सकती है। कांग्रेस कह रही है कि सिद्धू के भाजपा छोड़ने का मतलब लोग भाजपा से नाराज हैं। लेकिन सिद्धू ने कांग्रेस की चिंता भी बढ़ा दी है। कांग्रेस को भय यह लग रहा है कि लोग तीनों चेहरे की तुलना करेंगे तो संभव है कैप्टन से ज्यादा महत्व सिद्धू को दे दें। ऐसा हुआ तो अकालियों के विरुद्ध सत्ता विरोधी रुझान का लाभ उठाकर सत्ता में वापसी का सपना टूट जाएगा। इसलिए वे भी सिद्धू को अपने पाले में लाने की बात कर रहे हैं। किंतु भाजपा के लिए तो यह बहुत बड़ा आघात है। सिद्धू किसी कीमत पर अकाली के साथ राजनीति नहीं करेंगे यह साफ हो चुका था। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व द्वारा उनसे पंजाब की राजनीति पर सतत विस्तारपूर्वक चर्चा ही नहीं की गई। अगर उनसे नियमित चर्चा की जाती तो ऐसा कदम उठाने में उनको हिचक होती।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208 

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