शनिवार, 2 सितंबर 2023

चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थानों के नए नाम रखने के संदर्भ में भारत और चीन के संबंधों का 1949 से लेकर आज तक का ब्यौरा

कर्नल शिवदान सिंह
अभी कुछ दिन पहले चीन ने अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थानों के नाम बदलकर उन्हें दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया है ! जिसे भारत सरकार ने कठोर शब्दों में नकार दिया है ! इन स्थानों में 2 आबादी वाले शहर, दो भूभाग, पांच पहाड़ी चोटिया और दो नदियां हैं और यह उसने तब किया है जब अभी कुछ दिन में ही चीन के रक्षा मंत्री जनरल ली संगफू भारत में होने वाली शंघाई सहयोग संघ की बैठक में हिस्सा लेने के लिए आने वाले हैं। इसके अलावा वहां के विदेश मंत्री कुयङ्ग्गंग भी भारत का दौरा मई में करने वाले हैं! इससे सिद्ध होता है कि चीन भारत को अरुणाचल के लिए आंखें दिखाने की कोशिश कर रहा है! अपने पड़ोसी देशों की भूमियों पर कब्जा करने की प्रक्रिया चीन में 1949 मैं उस समय प्रारंभ हुई जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन लागू हुआ तथा माओ चीन के प्रमुख बने।  माओ ने चीनी जनता को अपना शक्तिशाली रूप दिखाने के लिए विस्तार वादी नीति अपनाई जिसके द्वारा उसने धीरे-धीरे 14 पड़ोसी देशों जिनमें भूटान नेपाल वर्मा और सोवियत संघ के बहुत से देश शामिल थे। इसके लिए उसने अपने झूठे इतिहास का सहारा लिया और कमजोर पड़ौसी देशों की भूमियों पर कब्जा कर लिया। इसी प्रक्रिया के अनुसार जब चीन ने 1950 में तिब्बत पर कब्जा किया तब वहां की मोहिनबा जाति के लोगों ने पलायन करके भारत के अंदर अरुणाचल में शरण ली ये बोद्ध धर्म के अनुयाई हैं और दलाई लामा को अपना शासक मानते हैं। इसको देखते हुए चीन ने जिस भी क्षेत्र में मोइनबा जाति के लोगों ने शरण ली उन्हीं को चीन ने दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताना शुरू कर दिया। ऐसा ही पाकिस्तान ने 1947 में जम्मू कश्मीर में किया थाऔर दावा किया की कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुल आबादी पाकिस्तान में मिलना चाहती है। जबकि जम्मू कश्मीर की तरह अरुणाचल प्रदेश भी भारत का हिस्सा वैधानिक पद्धति से घोषित किया गया था भारत तिब्बत और चीन की सीमाओं के निर्धारण के लिए भारत के अंग्रेजी शासकों ने 1914 में शिमला में भारत तिब्बत और चीन के बीच में एक लंबी बैठक का आयोजन किया जो पूरे 2 महीने चली इस बैठक में तिब्बत के प्रतिनिधि ने तिब्बत- भारत सीमा पर मैक मोहन रेखा को मान्यता प्रदान की। परंतु चीन ने भारत चीन सीमा के लद्दाख क्षेत्र के लिए इस रेखा को मान्यता प्रदान नहीं की। यह प्रसिद्ध मैकमोहन रेखा है जिसका निर्धारण काफी सोच-समझकर किया गया था यह उसी प्रकार था, जिस प्रकार जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए निर्धारित नियमों के अनुसार इस राज्य का विलय भारत में हुआ था। जम्मू-कश्मीर के विलय के लिए वहां के शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी स्वीकृति प्रदान की थी इसी प्रकार तिब्बत भारत सीमा के लिए तिब्बत के मान्यता प्राप्त प्रतिदिन सहमति दी थी उस समय तिब्बत स्वतंत्रता और उनके प्रतिनिधि को सीमा के बारे में सारे अधिकार प्राप्त है। परंतु 1949 में जैसे ही माओ सत्ता में आए उन्होंने पड़ोसी देशों से चीन और तिब्बत द्वारा की गई सारी संधियों को नकार दिया और कहां कि अब चीन इतिहास के आधार पर अपनी सीमाएं पड़ोसी देशों के साथ निर्धारित करेगा।
1950 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के लिए उसकी आलोचना पूरे विश्व के गैर कम्युनिस्ट देशों ने की परंतु इस समय भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस विषय पर चुप्पी साध ली और एक प्रकार से चीन के तिब्बत पर कब्जे को स्वीकृति प्रदान कर दी। पंडित नेहरू माओ से संबंध बढ़ाकर विश्व में अपनी लोकप्रियता बढ़ाना चाहते थे। इसके लिए भारत ने चीन के साथ अपने संबंधों को और प्रगाढ़ करने के लिए 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें मुख्य सिद्धांत थे... दोनों देश एक दूसरे की सीमाओं को मान्यता प्रदान करेंगे, एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे और दोनों एक दूसरे को बराबर का समझेंगे। इसके साथ साथ सीमा पर शांति बनाई जाएगी। पंचशील समझौते के बाद पूरे देश में हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे लगाए जाने लगे और पूरे देश में यह संदेश देने की कोशिश की गई कि भारत और चीन अब भाइयों की तरह है। परंतु चीन ने इस नारे की भावना के अनुसार कभी भी भारत को भाई नहीं समझा और हर हर समय वह भारत को धोखा देने की योजनाएं बनाता रहा। इसी संधि के साथ-साथ भारत ने चीन के साथ 4 महीने की गहन मंत्रणा के बादआपसी व्यापार के लिए एक और संधि पर पंडित नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने हस्ताक्षर किए, जिसका नाम था तिब्बत (चीन का क्षेत्र) और भारत के बीच व्यापार और आदान-प्रदान की संधि। यह महत्वपूर्ण संधि थी क्योंकि पुराने समय में दक्षिणी तिब्बत और भारत के बीच व्यापार का मार्ग यहीं से जाता था। इस प्रकार इस संधि के द्वारा भारत ने चीन के तिब्बत पर कब्जे को और भी ज्यादा मान्यता प्रदान कर दी और विश्व को दिखा दिया कि भारत चीन के साथ है।
चीन के द्वारा तिब्बत पर कब्जे को वहां की जनता ने स्वीकार नहीं किया और तिब्बत में लासा और इसके चारों तरफ विद्रोह की लपटें फैल गई 1959 मैं जब दलाई लामा को जब लगा की चीन उन्हें गिरफ्तार कर सकता है। तब सिक्किम के रास्ते पैदल चलकर भारत में शरण ली ! यहां पर भारत सरकार ने उन्हें आदर पूर्वक राजनीतिक शरण प्रदान की और हिमाचल के धर्मशाला में उन्हें बसा दिया। हालांकि भारत सरकार चीन के साथ अपने संबंध और भी मजबूत करना चाहती थी परंतु चीन हमेशा भारत के प्रति द्वेष की भावना रखता रहा और सोचता था कि तिब्बत मैं विद्रोहियों को अमेरिका भारत के रास्ते ही मदद दे रहा है। दलाई लामा ने तिब्बत के शासक होने की पोजीशन भारत में प्रवेश करने के केवल 2 दिन बाद ही तिब्बत पर चीन के कब्जे के विरोध में संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव पेश कर दिया। राष्ट्र संघ में इस प्रस्ताव पर काफी बहस हुई और दलाई लामा के प्रस्ताव को बहुमत से पारित कर दिया गया परंतु इस कार्यवाही में भारत ने उदासीन रुख ही अपनाया। नेहरू ने देश की लोकसभा में बयान दिया की इस विषय पर भारत दलाई लामा के साथ नहीं है। इस प्रकार भारत ने दलाई लामा के विरुद्ध चीन को अपना सहयोग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिया। पंडित नेहरू अपनी इस कार्रवाई के बाद यह सोचने लगे थे किचीन अब कभी भी भारत पर हमला नहीं करेगा और भारत चीन सीमा सुरक्षित रहेंगी। मगर शुरू से ही चीन इस सीमा पर आक्रमक कार्रवाई करता रहा और लद्दाख सेअरुणाचल तक फैले अक्साई चीन के 38000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर दावा ठोकता रहा। चीन की सैन्य तैयारियां और संसाधनों को देखकर तत्कालीन भारतीय सेना प्रमुख जनरल थिमैया ने बार-बार प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनॉन को सेना के लिए संसाधन जुटाने के लिए आग्रह किया परंतु नेहरू, कृष्णा मेनन और बी के मौलिक की तिकड़ी ने कभी भी जनरल थिमैया के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे निराश होकर जन थिममैया ने 1959 मैं अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। मौलिक इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख थे और नेहरू के करीबी थे जिसके कारण पूरे रक्षा मंत्रालय में उनका बोलबाला था। इसी कारण मलिक ने सेना के जमीनी स्तर के अधिकारियों को सीधे आदेश देने शुरू कर दिए। मौलिक की मुख्य जिम्मेदारी सरकार के लिए बाहरी देशों की इंटेलिजेंस एकत्रित करना था, और चीन अपने आक्रमक रुख के कारण मौलिक का मुख्य केंद्र था। इसलिए मौलिक उत्तर पूर्वी सीमा पर अग्रिम पोजीशन के रूप में भारत और चीन के बीच में नो मैंस लैंड कहे जाने वाले स्थानों पर सेना की छोटी-छोटी चौकियां स्थापित कर दी, जिसका सेना ने भारी विरोध किया परंतु उनके विरोध को दरकिनार करके यह चौकियां स्थापित की गई। इन चौकियों के द्वारा चीन ने सोचा शायद भारत आक्रमक रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए इससे पहले कि भारत चीन पर हमला करें उसने अचानक अक्टूबर 1962 में भारत पर हमला कर दिया। जिसमें मेजर शैतान सिंह ने लद्दाख के रेजांगला मेंअपने केवल 100 सैनिकों से चीन के 1200 सैनिकों को मार कर चीन को आगे बढ़ने से रोका। इसी प्रकार की वीरता भारतीय सेना ने चीन के विरुद्ध हर मोर्चे पर दिखाइ परंतु संसाधनों की कमी और पुरानेहथियारों और तोपखाने तथा वायु सेना की मदद उपलब्ध ना होने के कारण भारतीय सेना को बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा और इस हमले के द्वारा चीन ने 38000 वर्ग किलोमीटर में फैले अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। जिस पर वह आज तक जमा हुआ है। इसके बाद 1967 में चीन ने सिक्किम पर कब्जा करने के लिए नाथूला पर हमला किया। मगर यहां पर 17 डिवीजन के जीओसी जनरल सगत सिंह ने चीन को करारा जवाब देते हुए पीछे धकेल दिया। हालांकि रक्षा मंत्रालय और सेना के वरिष्ठ अधिकारी चीन को कड़ा जवाब देने के पक्ष में नहीं थे फिर भी जगत सिंह ने इसकी परवाह न करते हुए अपनी जिम्मेदारी को पूरा करते हुए सिक्किम की रक्षा की। जिसके कारण पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी कॉरिडोर या चिकननेक कहे जाने वाले क्षेत्र की रक्षा की अन्यथा चीन का इरादा सिलीगुड़ी सिलीगुड़ी कॉरिडोर पर कब्जा करके पूरे पूर्वी राज्यों असम नागालैंड अरुणाचल मणिपाल इत्यादि को भारत से अलग अलग करना था। इसके बाद भी यदा-कदा चीन के आक्रामक रुख के कारण सीमा पर दोनों देशों के बीच में झड़पें चलती वही अरुणाचल का सपना पूरा करने के लिए 1986 में चीन ने सोम द्रोङ्ग छु नामक घाटी में हेलीपैड बनाने की कोशिश की जिसको भारतीय सेना ने जनरल सुंदर जी की कमांड में चीन के इस इरादे को नाकाम कर दिया और चीन को एक संदेश दिया की वह भविष्य में इस तरह की हरकत ना करें।
1962 के युद्ध मिली हार के बाद पूरे देश में इस युद्ध में उन कारणों का पता लगाने की मांगे उठी जिनके कारण भारत को इस हार को देखना पड़ा तथा उसका इतना बड़ा भूभाग चीन के कब्जे में चला गया। इसके लिए रक्षा मंत्रालय ने सेना के दो वरिष्ठ अधिकारी जनरल हेंडरसन और ब्रिगेडियर भगत को उन कारणों को पता लगाने के लिए एक जांच आयोग के रूप में नियुक्त किया। इन दोनों अधिकारियों ने लगन और ईमानदारी के साथ देशवासियों को सच्चाई बताने के लिए सीमाओं पर जाकर के इसकी जांच की और उन्होंने पाया कि इस युद्ध में रक्षा मंत्रालय और राजनीतिक हस्तक्षेप भी था जिसके कारण ना तो सेना युद्ध के लिए तैयार थी और ना ही चीन सीमा पर संचार के साधन जैसे सड़क पुल सुरंगे इत्यादि हीं थे। इसके अलावा वायु सेना के विमानों के उतरने के लिए वहां पर कोई लैंडिंग ग्राउंड भी नहीं थे। रिपोर्ट के इन संवेदनशील तथ्यों को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित करके इसे सार्वजनिक करने से मना कर दिया। देश की पार्लियामेंट में भारतीय जनता पार्टी के अरुण जेटली ने इस रिपोर्ट की मांग उठाई थी जिसे सरकार ने नहीं माना। विडंबना देखिए कि जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तब उन्हीं अरुण जेटली ने इस रिपोर्ट को गोपनीयता के नाम पर सार्वजनिक करने से मना कर दिया था। अभी तक रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय में गोपनीयता के कारण पड़ी हुई है और देशवासियों को इतनी बड़ी हार के कारणों का पता नहीं लग पाया है।
इसके बाद भारत-चीन के बीच में तनाव कम करने के लिए उच्च स्तरीय प्रतिनिधि मंडलों के बीच में बातचीत ओं का दौर शुरू हुआ जिससे सीमाओं पर तनाव कम किया जा सके। इसी बातचीत के चलते 1996 में एक दूसरे के प्रति विश्वास बहाने बढ़ाने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए जिसमें भारत के प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव और चीन के प्रधानमंत्री ने स्वयं हस्ताक्षर किए थे और इस समझौते के अनुसार सीमा पर दोनों देशों की सेनाएं अग्रिम क्षेत्रों में बगैर हथियारों के साथ गस्त करेंगी। इसी समझौते का नतीजा था कि गलवान में भारतीय सैनिक बगैर हथियारों के गए परंतु चीनी सैनिक अपनी धोखा देने की आदत के अनुसार कटीले तार लगे हुए डंडों के साथ आए। परंतु फिर भी भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों से ही लाठी-डंडे छीन कर उनका मुकाबला किया और उन्हें मौत के घाट उतारा। तवांग में भारतीय सैनिकों ने पहले से ही अपने आप को चीन की इस चाल का जवाब देने के लिए तैयार किया हुआ था। जिसके कारण तवांग में भारतीय सेना ने चीनी सैनिकों की बुरी तरह से पिटाई की जिसमें बहुत से चीनी सैनिक मारे गए। इस प्रकार अब चीन को कड़ा संदेश चला गया है कि यह भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है और भारत 20 वीं सदी का आर्थिक और सैनिक दृष्टि से सशक्त भारत है। इसी कारण अब सेना को आधुनिकतम हथियार सीमाओं पर चौकसी रखने के लिए इलेक्ट्रॉनिक संसाधन और संचार के माध्यमों को उपलब्ध करा कर चीन को संदेश दे दिया गया है।
तथ्यों के विश्लेषण से यह साफ हो जाता है की 50 और 60 के दशक में भारत सरकार ने चीन की हरकतों को पहचानने में बहुत बड़ी भूल की जिसके कारण चीन ने आराम से तिब्बत और अक्साई चिन के बड़े क्षेत्रफल कब्जा कर लिया ! विपक्षी दलों के द्वारा भारतीय सेना की कार्यशैली पर टिप्पणियां सैनिकों के मनोबल को प्रभावित करती हैं। जैसे कांग्रेस पार्टी पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक को ही झूठा मानती है। इसके साथ साथ गलवान और तवांग की मुठभेड़ों पर भी शक कर रही है। भारतीय सीमा पर कुछ क्षेत्रों में चीनी हरकत को कुछ राजनीतिज्ञ यह मान रहे हैं कि चीन ने भारत के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया है। परंतु यह सत्य नहीं है, भारतीय सेना मजबूती से चीन की हर चाल का जवाब देने में सक्षम है और चीन अब भारत की । इंच भूमि पर भी कब्जा नहीं कर सकता है।
आक्रमक स्वरूप का ध्यान करना चाहिए जिसके कारण चीन भारत के 38000 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा किए हुए हैं और तत्कालीन सरकार ने तिब्बत के ऊपर चीन को स्वीकृति देकर एक प्रकार से चीन को तिब्बत का असली शासक के रूप में मान्यता प्रदान की थी।
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