बुधवार, 31 जनवरी 2024

नीतीश जी लें सम्मानजनक विदाई

अवधेश कुमार 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब राजभवन में अपना त्यागपत्र सौंपने जा रहे थे तो वहां किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी। आम जनता की तो छोड़िए यहां उनकी पार्टी जनता दल - यू का भी कोई कार्यकर्ता झंडा लेकर उनका स्वागत करने या उनके पक्ष में नारा लगाने के लिए नहीं था। जिस राष्ट्रीय जनता दल से वे गठबंधन तोड़ रहे थे उसका भी कोई वहां विरोध करने के लिए नहीं था। पत्रकारों पर आम लोगों तक समाचार पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है इसलिए वे वहां उपस्थित थे। अगर पत्रकार वहां नहीं होते तो लगता ही नहीं कि कोई मुख्यमंत्री वाकई त्यागपत्र देने जा रहा है। यह स्पंदनहीन स्थिति ही प्रमाणित करती है कि एक समय सुशासन बाबू का विशेषण पाने वाले नीतीश कुमार ने अपनी भूमिका से स्वयं की कैसी दयनीय अवस्था बना लिया है।

इसमें सामान्य राजनीति तो यही होती कि नीतीश दूसरे दलों के साथ अपने दल में भी अकेले पड़ जाते। किंतु 2013 से वह जब चाहे गठबंधन तोड़ते हैं और दूसरा पक्ष उनका साथ लेने के लिए तैयार रहता है। वे फिर दूसरे पक्ष को छोड़ते हैं और पहला पक्ष उनके साथ आ जाता है। सन् 2005 से बिहार में सत्ता के शीर्ष केंद्र बिंदु वही है। वास्तव में वह अगर स्वयं पलटी मारते हैं तो दूसरे को पलटवाते भी हैं। पलटने और पलटवाने का यह चक्र ऐसा हो गया है जिससे समान्य व्यक्ति के अंदर नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर एक ही भाव पैदा होता है, वह है जुगुप्सा का। बावजूद अगर वह राजनीति में आज भी स्वीकार्य हैं तो इसे उनका राजनीतिक कौशल कहें या वर्तमान विशेषकर बिहार की राजनीति की विडंबना। अब यह बताने की भी आवश्यकता नहीं कि नीतीश और आज भी हृदय से उनके साथ बने हुए नेताओं की न कोई विचारधारा है, न सिद्धांत, न उनकी राजनीति के किसी भी मान्य व्यवहारों के प्रति प्रतिबद्धता ही। वे जिसको छोड़ेंगे उसकी आलोचना करेंगे और यह भी कहेंगे कि दोबारा लौटकर उनके साथ नहीं आऊंगा। अगली बार फिर जिनके साथ जाएंगे उनकी आलोचना करेंगे और यही कहेंगे। अगस्त, 2022 में जब वह भाजपा को छोड़ राजग गठबंधन के साथ गए तो उन्होंने कहा कि मैं मर जाऊंगा लेकिन भाजपा के साथ नहीं आऊंगा। तो क्या यह मान लिया जाए कि अब उन्होंने मृत्यु को प्राप्त कर पुनर्जन्म लिया है? बिहार के दोनों मुख्य दलों भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल उनकी आलोचना सुनकर और स्वयं घोषणा कर कि अब उनके लिए दरवाजे बंद है, फिर दरवाजे खोल देते हैं। राजनीति में रुचि रखने वाले देश के लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा?

सच कहूं तो बिहार और संपूर्ण देश की राजनीति की तस्वीर ऐसी है जिसमें किसी न किसी कारण से पलटने और पलटवाने के चक्र को गति मिल जाती है। इस समय की स्थिति देखिए, सामने लोकसभा चुनाव है और विपक्ष भाजपा के विरुद्ध एकबद्ध होने की कवायद कर रहा है। इस समय भाजपा का मुख्य लक्ष्य स्वाभाविक ही किसी तरह विपक्ष कमजोर करना तथा लोकसभा चुनाव में बड़ी विजय प्राप्त करना है। नीतीश कुमार को अस्वीकार करने के तीन परिणाम आते।  एक, बिहार में लालू प्रसाद यादव परिवार के नेतृत्व में राजद गठबंधन की सरकार बनती। दूसरा, बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू होता, या तीसरा, हारकर नीतीश कुमार फिर राजद गठबंधन के भाग होते। ये तीनों स्थितियां भाजपा के लिए प्रतिकूल होती।  राजद के साथ नीतीश की सरकार के बने रहने का अर्थ आईएनडीआईए गठबंधन का जीवित रहना होता। यह स्पष्ट है कि राजद ने अंतिम समय तक सरकार बनाने की कोशिश की। अगर नीतीश को भाजपा समर्थन नहीं देती तो उन्होंने जिस लचर अवस्था में अपने दल को पहुंचा दिया है उसमें उनके विधायक छोड़कर राजद के साथ जा सकते थे। चूंकि नीतीश कुमार ने ही विपक्षी एकता की शुरुआती कोशिश की और उन्हीं के प्रयासों से बिहार की राजधानी पटना में ज्यादातर विपक्षी दल एक साथ बैठे, इसलिए उनके अलग होने के बाद आम आदमी भी यही मानेगा कि आईएनडीआईए खत्म हो गया। राजनीति में इससे बढ़िया मुंहमांगा अवसर और कुछ हो ही नहीं सकता। यह स्थिति नहीं होती तो शायद भाजपा इस बार उनकी पलटी को अपने समर्थन की ताकत नहीं देती। हालांकि अयोध्या की आभा ने बिहार के वातावरण को बदला है और नीतीश सहित दूसरी पार्टियां और दल भी उससे प्रभावित हुए।

राजनीति की त्रासदी देखिए। 2005 से 2014 तक बिहार की जनता ने राष्ट्रीय जनता दल और लालूप्रसाद यादव परिवार को पांच बार पराजित कर दिया। लालू परिवार के एक-एक सदस्य चुनाव हार गए। राजद विधानसभा में 22 सीटें और 18 प्रतिशत मत तक पार्टी सीमित हो गई। विपक्ष की रिक्तता में यह संभावना बनी कि बिहार में भाजपा और जद- यू के समानांतर कोई नई राजनीतिक शक्ति खड़ी होगी। नीतीश कुमार ने अपनी तथाकथित सेक्युलर राजनीति में नरेंद्र मोदी विरोधी राष्ट्रीय चेहरा बनाने की मानसिक ग्रंथि के कारण बिहार की सकारात्मक राजनीतिक संभावना को उदित होने के पहले ही ग्रहण लगा दिया। अगर नीतीश ने नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए भाजपा का साथ छोड़कर राजग के साथ गठबंधन नहीं किया होता तो इस पार्टी का पूनर्उद्भव की कोई संभावना नहीं थी। परिणाम देखिए इस समय राजद विधानसभा में बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है और नीतीश कुमार की जद-यू तीसरे नंबर की। हालांकि पहली बार भी नीतीश कुमार राजद के साथ 2 वर्ष से ज्यादा नहीं चल सके। उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि लालू प्रसाद यादव परिवार के साथ मुख्यमंत्री की अथॉरिटी का पालन करते हुए सरकार चलाना असंभव है। उनकी पार्टी मंडलवादी होते हुए भी राजद के साथ असहज थी।बावजूद अगर दूसरी बार उन्होंने यही किया तो इसे भूल नहीं अपराध मानना चाहिए। उन्होंने पिछले दिनों विधानसभा में पति-पत्नी संबंधों पर दिए गए वक्तव्य को लेकर कहा कि मैं स्वयं अपनी निंदा करता हूं। इसी तरह उन्हें अपने इस राजनीतिक अपराध की सजा देने की स्वयं तैयारी करनी चाहिए । वे कह रहे हैं कि कुछ ठीक नहीं चल रहा था और इसीलिए हमने बोलना भी बंद कर दिया था। तो क्या ऐसा पहली बार हुआ? 

बिहार की जनता ने आपकी गलतियों को ठुकरा कर फिर से भाजपा जदयू को बहुमत दिया। हालांकि आपसे नाराजगी थी तभी जदयू की सीटें 43 तक सिमट गई। इस भावना को समझते हुए अगर वो सरकार चलाना जारी रखते तो बिहार की राजनीति इस तरह दयनीय तस्वीर नहीं बनती। तेजस्वी यादव ने अपने सधे हुए वक्तव्य में भी कहा है कि 2024 में ही उनकी पार्टी खत्म हो जाएगी।  इतना सच है कि नीतीश कुमार की  मानसिक अस्थिरता के कारण उनकी पार्टी ही दिल से उनके साथ नहीं थी और वैचारिक रूप से पार्टी का बहुमत उनसे अलग हो चुका था। अस्वाभाविक गठबंधन में जाने के कारण उनका मानसिक संतुलन कितना गड़बड़ हो गया था इसके प्रमाण उनके वक्तव्यों और व्यवहारों से लगातार मिलने लगा था। अनेक गंभीर विश्लेषकों ने भी कहना शुरू कर दिया था कि नीतीश कुमार को अब पद से अलग कर मानसिक उपचार के लिए तैयार किया जाना चाहिए । त्यागपत्र देने एवं नए सिरे से शपथ ग्रहण करने पर लंबे समय बाद उनके चेहरे पर हंसी दिखाई दी। उम्मीद करनी चाहिए कि अब यह हंसी बरकरार रहेगी और आगे जब तक शासन में हैं, सकारात्मक राजनीति करेंगे । भाजपा के लिए आवश्यक है कि एक ओर नीतीश कुमार को सम्मानपूर्वक विदाई का रास्ता तैयार करे तो दूसरी ओर पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा करे। 

अयोध्या के श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ जो वातावरण संपूर्ण देश और बिहार में बना है उसमें यह कार्य कठिन नहीं होगा। यह बदला हुआ वातावरण ही है जहां शपथग्रहण समारोह में जय श्रीराम के नारे तो लगे लेकिन नीतीश जिंदाबाद के नहीं । नीतीश के लिए भी एक ही रास्ता है कि वे सम्मान के साथ स्वयं को बिहार के नेतृत्व से आने वाले समय में अवसर तलाश कर अलग करें।

साम्यवाद: अराजकता और अशांति का पूरक

सिद्धार्थ पाराशर

साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसे सरल शब्दों में समझे तो यह एक ऐसे समाज की परिकल्पना करती है जो वर्गविहीन हो, जिसमें निजी आधिपत्य न हो, न कोई जाति व्यवस्था हो समाज में केवल एक जाति मानवता हो, समाज मे उत्पादन सामूहिक तरीक़े से हो, व्यक्ति पर किसी भी प्रकार की कोई पाबंदी न हो, राज्य की तरफ से कोई अंकुश न हो तथा समाज राज्यविहीन। पहली नजर में तो यह विचारधारा देखने में सभी को आकर्षित करती है। अब यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इतनी  लोक लुभावन विचारधारा होने के बावजूद भी आज इसका अस्तित्व शून्य क्यों है? क्योंकि वास्तव में साम्यवादी सरकारों और इस विचारधारा के समर्थकों ने समाज में जितनी हिंसा और अशांति फैलाई है उतनी हिंसा शायद ही किसी अन्य तानाशाही सरकार ने की होगी। विश्व में जहाँ भी साम्यवादी सरकारें बनी उन्होंने सबसे अधिक जिस चीज पर अंकुश लगाया वो है "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता", सभी सरकारों के कार्यकाल में सबसे अधिक नरसंहार हुए और चीजों को छुपाया गया।

अक्टूबर क्रांति जिसमें असंख्य लोगों ने अपनी जान गँवायी और जारशाही का पतन हुआ फिर लेनिन ने रूस में साम्यवादी सरकार की नींव रखी। सत्ता हासिल करने के बाद लेनिन ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए एक बड़ी सेना का गठन किया और फिर जिसने भी उसके विरुद्ध आवाज उठाई उसका दमन किया। इसमे सबसे अधिक दमन उसी सर्वहारा समाज का हुआ जिसको लेनिन ने सबसे अधिक सपने दिखाए थे, सत्ता को बचाने के इस खेल में लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई। 9 अगस्त 1918 को लेनिन ने सामूहिक रूप से अपने 100 विरोधियों को फाँसी दी। इसके कुछ महीने बाद ही उसने एक गुप्त सेना"चेका" बनाई, उसके सैनिकों ने एक बार में 800 किसानों की हत्या कर दी थी। इनका एक ही कार्य था लेनिन के खिलाफ उठी आवाज को खत्म करना। एक आकड़े के अनुसार 1918-1922 के बीच लेनिन के सैनिकों द्वारा 2 लाख लोगों की हत्या कर दी गयी थी ये वही लोग थे जिन्होंने सेना को अनाज नहीं दिया था।

1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने सत्ता संभाली। स्टालिन अर्थात वह इंसान जिसका हृदय इस्पात (स्टील) का बना हो, वो अपने नाम की भाँति ही कठोर था। स्टालिन ने सत्ता हासिल करने के लिए अपनी ही पार्टी के लोगों का दमन किया। सत्ता हासिल करने के बाद अपने खिलाफ उठी हर आवाज को समाप्त करना उसकी फितरत थी। उसने मजदूर संघ, सरकार के सभी विभागों, कला और साहित्य को अपने अधीन किया ताकि कोई उसके विपरीत चीजों को प्रदर्शित न कर सके। 1932-1939 के बीच उसके गलत फैसलो के कारण अकाल पड़ा और 7 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।  सोवियत संघ मे कारखानों के विकास के लिए स्टालिन एक बड़ा टारगेट देता था जिसे पूरा ना करने पर देश का दुश्मन कह कर जेल में डाल देता था। आवाज उठाने पर पार्टी के सेंट्रल कमेटी के 139 में से 93 लोगों को मरवा दिया, सेना के 103 जनरल और एडमिरल में से 81 को मरवा दिया। शासनकाल में साम्यवाद का विरोध करने पर तीस लाख लोगों को ज़बरदस्ती साइबेरिया के गुलाग इलाक़े में रहने के लिए भेज दिया गया था एवं क़रीब साढ़े सात लाख लोगों को मरवा दिया गया था। उसके गलत नीतियों के कारण 50 लाख से अधिक लोगों की मौत हुई।

माओ त्सेतुंग साम्यवाद के एक महत्वपूर्ण विचारक जिसने मार्क्सवादी तथा लेनिनवादी दोनों विचारों को सैनिक नेतृत्व से जोड़कर एक नए विचार माओवाद का प्रतिपादन किया। माओ की नीतियों के कारण कई बार चीन की जनता को अपनी जान गँवानी पड़ी जिसमे सबसे महत्वपूर्ण नीति थी 1958-1962 के दौरान की ग्रेट लीप फॉरवर्ड और साँस्कृतिक क्रांति नामक राजनैतिक और सामाजिक नीति जिसके कारण देश में भयंकर अकाल पड़ा और इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लाखों चीनी लोगों की मौत हुई । फोर पेस्ट कैम्पेन इसी का एक भाग था जिसमें 4 जीवों(मच्छर, मक्खी, चूहा और गौरैया) को मारना था जिसका दाव उल्टा पड़ा और पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ा जिसके कारण पेस्टिसाइड्स की मात्रा में भारी वृद्धि हुई और फसलों का नुकसान हुआ परिणामस्वरूप 1 करोड़ 50 लाख से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी।

ऐसे ही यदि चीन के एक और घटना की चर्चा करें जिसमे साम्यवादी सरकार ने जनता की स्वतंत्रता की धज्जियाँ उड़ा दी थी, 4 जून 1989 के चीन के राजधानी बीजिंग के थियानमेन चौक पर छात्रों के शांतिपूर्ण आंदोलन का दमन। प्रदर्शन को दबाने के लिए चीन की सरकार ने पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (PLA) को उतार दिया था। सेना ने गोली बारूद के द्वारा इस प्रदर्शन को समाप्त किया, इस प्रकरण में 10 हज़ार से अधिक लोगों की जान गयी। आज भी सरकार ने इस प्रकरण से संबंधित किसी भी लेख, डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने लोकतंत्र की प्रतिमा को थियानमेन चौक पर स्थापित की थी, जिसे सरकार ने हमेशा के लिए हटा दिया। प्रेस की स्वतंत्रता की बात करें तो चीन में प्रेस सरकार के अधीन है और हाल ही में Reporters Without Borders नाम की एक संस्था ने बताया है कि चीन में प्रेस की स्वतंत्रता का परिदृश्य काफी चिंतनीय है और उसने चीन को नीचे से चौथे स्थान पर जगह दी।

सलोथ सार जिसे पॉल पॉट के नाम से जानते है ने 1975 के मध्य में कंबोडिया में एक साम्यवादी सरकार का गठन किया तथा 1976-79 के मध्य कंपूचिया का प्रधानमंत्री रहते हुए कंबोडिया को शुद्ध करने का प्रयास किया जिसके कारण 17 से 25 लाख लोगों को अपने जान से हाथ धोना पड़ा । उसने सामूहिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए जबरन लोगों को शहरो से गाँवों की ओर धकेला और बेगार की परियोजनाओं में कार्य करने के लिए बाध्य किया।  इस दास श्रम, कुपोषण, मूलभूत सुविधाओं की कमी, खराब चिकित्सा व्यवस्था और भारी मात्रा में मृत्यु दंड के कारण कंबोडिया की लगभग 21% आबादी को अपनी जान गँवानी पड़ी थी।

इन सभी बातों का जिक्र मैंने इसलिए किया क्योंकि हर बात पर संविधान की दुहाई देने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को पहले ये जानना होगा कि वो जो बार-बार संविधान खतरे में है, आजादी अभी अधूरी है, तानाशाही, लोकतंत्र खतरे में है जैसी तमाम बातें किस हक से बोलते है जबकि वे जिसे अपना आदर्श मानते हैं उन्होंने लोकतन्त्र और जनता के फैसलों का दमन सबसे अधिक किया है। मतलब पाखंड की भी सीमा होती है। खैर चीजों को नकारना, अस्वीकरना साम्यवाद की पुरानी आदत रही है। सभी बातों से यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि साम्यवाद अशांति और अराजकता की जननी है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में परास्नातक में अध्ययनरत हैं।)


http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/