मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

उलेमाओं को सक्रिए राजनीति में आना चाहिए

अब्दुल ग़फ़्फ़ार सिद्दीकी
9897565066

संसदीय चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। पूरे देश का सियासी पारा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। मौजूदा केंद्र सरकार सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल अपने पक्ष में कर रही है, लेकिन ऐसा तो हमेशा से होता आया है, अब कुछ ज्यादा ही बेग़ैरती के साथ किया जा रहा है। जिस तरह से विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर ईडी की छापेमारी हो रही है उससे पता चलता है कि बीजेपी को छोड़कर बाकी सभी भ्रष्ट और भ्रष्टाचारी हैं। इस माहौल से डरकर भ्रष्टाचारी गण भाजपा के चरणों में शरण लेने को मजबूर हैं। देश में विपक्षी गठबंधन आशा की किरण है। यदि देश की न्यायप्रिय जनता भावनाओं के बजाय तर्क से निर्णय ले तो अच्छे दिन वापस आने की प्रबल आशा है।

हर संसदीय चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमानों की स्थिति बेहद नाजुक है। हर राजनीतिक दल उनका वोट मांग रहा है, लेकिन उनके लिए कोई दल संजीदा नहीं है। मुस्लमान जिसे अपना मसीहा समझते हैं वही उनकी पीठ में छुरा घोंप देता है। इसी  बीच हमेशा की तरह मुस्लिम नेतृत्व (अपनी क़यादत )की भी बात उठ रही है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि देश में फासीवादी पार्टियों का गठबंधन "एनडीए" है, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का गठबंधन" इंडिया" है, मगर मुस्लिम राजनीतिक दलों का कोई गठबंधन नहीं है। जब इस प्रकार की एकता की बात की जाती है तो कहा जाता है कि 15 प्रतिशत मुसलमानों की एकता 85 प्रतिशत हिंदुओं को एकजुट कर देगी। अर्थात इसलिए हम एकजुट नहीं हो रहे हैं'  ताकि दूसरा एकजुट न हो जाए ।

मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या राजनीति को लेकर उनकी संकुचित मानसिकता है। उनके दृष्टिकोण से, राजनीति का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। इस दृष्टिकोण ने मुस्लिम उम्माह को सत्ता से वंचित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। मुझे नहीं पता कि यह सिद्धांत क़ुरआन और हदीस के किस पाठ से लिया गया है। मैं तो बस इतना जानता हूं कि पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के मिशन का उद्देश्य अत्याचारी राजनीतिक व्यवस्था को न्याययिक  व्यवस्था से बदलने के अलावा कुछ नहीं था। जो लोग राजनीति को गंदा मानकर हजरत उमर जैसी हुकूमत की उम्मीद करते हैं, वे खुद तो इससे दूर हैं ही और दूसरों की भी हिम्मत तोड़ रहे हैं। जब तक शराफ़त और नैतिकता हाशिए पर रहेगी और लोग पैसे लेकर या बिरयानी खाकर वोट देते रहेंगे, तब तक न कोई क्रांति होगी और न ही कोई मंजर बदलेगा।

मेरी राय है कि सबसे पहले मुस्लिम उम्माह के धार्मिक नेताओं को इस गलत दृष्टिकोण को सुधारना चाहिए जिसका उल्लेख उपरोक्त पंक्ति में किया गया है। उन्हें हर मंच  से कहना चाहिए कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेना और सरकार और सत्ता में आना  उन की मूलभूत  आवश्यकता है और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने वोट के अधिकार का उपयोग करना और सफल होना उन का मौलिक अधिकार है उलेमाओं  के एक समूह को व्यावहारिक राजनीति में भाग लेना चाहिए और यह  सिद्ध करना चाहिए कि इस्लाम धर्म में राजनीति अपराध नहीं है। यद्यपि उलेमा अब भी भाग ले रहे हैं, परंतु वे राजनीति में भाग लेने को धर्म का विषय नहीं मानते। मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी, मौलाना महमूद असद मदनी, आदि  व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय हैं, मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी  की अपनी पार्टियाँ भी हैं। यदि ये सज्जन अपने मंच से मुस्लिम उम्मा को यह विश्वास दिला दें कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपूर्ण क्रांति लाने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी  धर्म की सटीक आवश्यकता है तो यह असम्भव  बात नहीं है कि लोगों का मन बदल जाएगा और ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक उलेमा प्रमुखता से भाग लें । आख़िर वो शख्स जो क़ाज़ी शहर हो सकता है। जो हमें परलोक का मार्गदर्शन कर सकता है वह हमारे सांसारिक जीवन का मार्गदर्शक क्यों नहीं हो सकता?  वास्तव में इंसानों को खुदा से दूर करने और पृथ्वी को  भ्रष्टाचार से भरने के लिए, शैतान ने धर्म और राजनीति को अलग करके और दुनिया की बागडोर अपने हाथों में लेकर यह चाल चली है। पूरी दुनिया में शैतानी व्यवस्था को डर है कि अच्छे, ईमानदार, नेक और धार्मिक लोग सरकार और सत्ता में आकर उनकी मेहनत पर पानी न फेर दें ।इसलिए इबलीस ने अपने कार्यकर्ताओं को अल्लामा इक़बाल के शब्दों में यह सलाह दी है।
मस्त राखो जिक्र-ओ-फिकर-ए-सुभागही में इसे
पुख्ता तर कर दो मिज़ाजे ख़ानक़ाहि में इसे

यह भी जरूरी है कि मुसलमान जिस पार्टी में हों, वहां मुसलमानो की नुमाइन्दगी करें । जब जब वे ऐसा नहीं करते हैं तो क़ौम को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। मुस्लिम लीडरशिप को याद रखना चाहिए कि मुसलमानों ने ही उन्हें नेता बनाया है। कुर्सी मिलने के बाद उन्हें मुसलमानों की समस्याओं से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, उन्हें अपनी क़ौम के मुद्दों को राजनीतिक पार्टियों के मंच पर पूरी ताकत से उठाना चाहिए। जब एक यादव ,एक दलित ,एक ठाकुर अपनी जाति की समस्यायें उठा सकता है तो मुस्लमान कियों नहीं उठा सकते। इस संबंध में देश के अन्य अल्पसंख्यकों से भी सीख लेने की जरूरत है। मुस्लिम प्रतिनिधि अत्यधिक धर्मनिरपेक्षता और दलीय निष्ठा दिखाते हैं यदि हमारे प्रतिनिधि हमारी आवाज नहीं उठाएंगे तो लोकतांत्रिक संस्थाओं में क़ौम के मुद्दे कौन उठाएगा।

सवाल यह है कि वोट किसे दिया जाए? जाहिर है इसके लिए कोई नियम बनाना मुश्किल है। हर संसदीय क्षेत्र की परिस्थितियां अलग-अलग हैं। वोट आप की अपनी धरोहर है आप अपने मत का इस्तेमाल अपनी इच्छा से करें किसी दबाव व प्रलोभन में न करें, जो लोग मौजूदा सरकार की संकीर्ण मानसिकता को समझते हैं और बदलाव की इच्छा रखते हैं वे इंडिया गठबंधन की ही हिमायत करेंगे। मेरी राय है कि जो पार्टियाँ सभी बाधाओं के बावजूद एनडीए के साथ सहयोग करने से बचती रही हैं, उनके उम्मीदवारों को वोट दिया जा सकता है। जिन पार्टियों ने अतीत में एनडीए के साथ मिलकर सरकार बनाई है, उन्हें किसी भी हालत में वोट नहीं दिया जाना चाहिए, भले ही उनके उम्मीदवर मुसलमान ही क्यों न हों। ऐसे निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट न दें जिनका चरित्र संदिग्ध हो और वे स्वार्थी साबित हो सकते हों।

मैं अपने उन मुस्लिम भाइयों से एक बात कहना चाहता हूं जो चुनाव में भाग लेते हैं या भाग लेना चाहते हैं। उन्हें चुनाव और राजनीति में तभी कदम रखना चाहिए जब उनके पास देश और क़ौम के लिए कोई विजन और योजना हो। अन्यथा, किसी और की टांग खींचने या अपनी नाक ऊंची करने की कोशिश में पैसे बर्बाद न करें। आमतौर पर सेवा के नाम पर एक सीट के लिए कई कई मुसलमान खड़े हो जाते हैं, हालांकि उनमें से कुछ जानते हैं कि वे हार जाएंगे, लेकिन अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं। अंधाधुंध पैसा खर्च किया जाता है, मुस्लिम मतदाता भ्रमित हो जाते हैं और कुछ जगहों पर जहां गैर-एनडीए  उम्मीदवार को जीतना चाहिए था, वह हार जाता है।

वर्तमान सरकार ने पिछले दस वर्षों में जुमलेबाज़ी और धार्मिक नफरत बढ़ाने के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है। बेरोजगारी बढ़ गई है, महंगाई दर में वृद्धि हुई  है, किसानों की समस्याएं जस की तस हैं । मुसलमान तो दूर की बात है सरकार से देश का कोई भी वर्ग संतुष्ट नहीं है सिवाय उन लोगों के जो मुस्लिम विरोधी कीटाणुओं से संकर्मित हैं। वे न केवल एनडीए को वोट देने के लिए बल्कि अपनी जान देने के लिए भी तैयार हैं। पिछले संसदीय चुनाव में बीजेपी को 37.76% वोट और उसके गठबंधन एनडीए को 45% वोट मिले थे। यानी उनके ख़िलाफ़ वोट ज़्यादा थे।  दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बीजेपी की जीत में वोटों के बिखराव ने अहम भूमिका निभाई थी।

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