शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2023

आज की कलुसित राजनीतिक दौर में प. दीनदयाल उपाध्याय के मानव दर्शन के सार्थकता

 

बसंत कुमार

आज के राजनीतिक वातावरण में देश और विदेश में हर जगह जाति और धर्म की राजनीति ने पूरे विश्व को अशांत कर रखा है। पूरा विश्व देख रहा है इजरायल, कनाडा में धर्म के नाम पर मार-काट हो रही है। वहीं भारत में देवरिया समेत अन्य जगहों पर जातीय झगड़ों में लोग मारे जा रहे हैं। ऐसे में जनसंघ के संस्थापक सदस्य और जनसंघ के अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता बढ़ जाती है, जिसका केंद्र बिंदु मानव कल्याण है।

90 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् विश्व राजनीति में साम्यवादी समूह का लगभग अंत हो गया और पूरा विश्व आर्थिक उदारवाद और वैश्विकरण की ओर चल पड़ा। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद के इस युग में विश्व आर्थिक विकास एवं पूंजी निर्माण को साध्य मानते हुए विकास की धारणा के इर्द-गिर्द घूम रहा है और हम स्वदेशी विचार धारा से भटकते हुए नजर आ रहे है। हम स्वावलंबन के त्याग और आत्म पूर्ति में लगे हुए है जबकि बहुत पहले आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक पूज्य गुरु गोलवलकर ने स्वावलंबन और आत्म पूर्ति के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा था "हमें स्वयं के संसाधनों पर निर्भर रहना चाहिए। अगर किसी वस्तु की कमी है तो हमें अपने निर्यात से कमाई हुई मुद्रा से आयात करें। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें अपने संसाधनों पर निर्भर रहना चाहिए और आत्म पूर्ति के सिद्धांत पर देश में पर्याप्त उत्पादन हो, हमें किसी प्रकार की कमी न हो। आज हम पाते हैं कि भारत आत्म निर्भरता से हटकर आयात पर निर्भर हो गया है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कृषि भूमि रसायन और विदेशी बीजों के प्रयोग से बंजर तथा कम उत्पादक हो गई है"। पूज्य गुरुजी ने 1970 में स्वदेशी के अंतर्गत दो अवधारणाओं-आत्म निर्भरता व विकेंद्रीकरण को भारतीय परिस्थिति के लिए उपयुक्त माना। उनके अनुसार देश की आर्थिक नीति हमारे राष्ट्र को प्राचीन व सनातन व अध्यात्मिक मूल्यों के साथ संगत होनी चाहिए। गुरु जी के उस समय के विचार आज भी प्रासंगिक है।

प्राचीन भारत में अर्थव्यवस्था पूर्णतः ग्रामीण उद्योगों और कृषि पर आधारित थी पर देश में गुलामवंश की स्थापना के के पश्चत् विभिन्न सल्तनत के शासन काल में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का क्षरण होने लगा। बाद में मुगल काल, ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश इंडिया काल में ग्रामीण अर्थव्यवस्था जिसका मुख्य आधार स्वावलंबन थी, पूरी तरह समाप्त हो गई।

1947 में देश की आजादी के समय पूरा विश्व दो महाशक्तियों के बीच चल रहे शीत युद्ध के कारण आर्थिक व राजनीतिक रूप में साम्यवादी व पूंजीवादी समूहों में बंटा हुआ था, देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के व्यक्तित्व पर पश्चात्य सभ्यता का गहरा प्रभाव था, इस कारण महात्मा गांधी की स्वदेशी और सत्ता के विकेंद्रीकरण की अवधारणा के स्थान पर पश्चिमी अवधारणा से प्रभावित आर्थिक नीतियों को लागू किया गया जिसकी मुख्य विशेषता सत्ता का केंद्रीकरण तथा तंत्र को मजबूत करना था। ऐसे समय में जब हम स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी के दिशा निर्देशित मार्ग से भटक रहे थे तब भारतीय राजनीति में पं. दीनदयाल उपाध्याय का उदय हुआ, जिन्होंने विश्व को ऐसा दर्शन दिया जिसका लक्ष्य मानव का कल्याण था उनका यह दर्शन एकात्म मानववाद के नाम से जाना गया। यह दर्शन जिसका केंद्र बिंदु समाज के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति था, जिसको अंत्योदय के रूप में दीनदयाल जी ने प्रस्तुत किया। उन्होंने देश की सनातन संस्कृति को युगानुकूल प्रस्तुत करते हुए देश को एक प्रगतिशील व सदैव प्रासंगिक रहने वाली विचारधारा प्रस्तुत की। उन्होंने पश्चिमी आयातित सिद्धांतों से परे इस सिद्धांत का प्रतिपादन कर आधुनिक राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा समाज रचना का ऐसा चतुरंगी धरातल प्रस्तुत किया जो राष्ट्र के विकास एवं मानव कल्याण को सुनिश्चित कर पाए। पंडित जी अपने व्यक्तिगत जीवन में मानव कल्याण को अपना साध्य मानते थे, एक बार पंडित जी झांसी से इलाहाबाद गाड़ी से यात्रा कर रहे थे। जूता पालिश करने वाले एक बच्चे ने सामने बैठी एक सवारी से जूता पालिश करवाने का आग्रह किया, उस सज्जन ने उससे पूछा, "क्या तुम्हारे पास जूता चमकने के लिए कपड़ा है" बच्चे ने कहा नहीं तो सज्जन ने पालिश करवाने से मना कर दिया। यह बात पंडित जी सुन रहे थे। उन्होंने बच्चे को बुलाकर अपने अंगोछे से टुकड़ा फाड़कर बच्चे को देते हुए कहा लो साहब का जूता चमका दो। लोगो ने जब उनसे फटे हुए अंगोछे के विषय में जानना चाहा तो उन्होंने सहजता से कहा "अंगौछा थोड़ा छोटा होने से मेरा काम नहीं रुक रहा पर उस छोटे टुकड़े ने उस बच्चे के उस दिन खाने का इंतजाम कर दिया"

यह घटना पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के मूल भावना को दर्शाती है। यदि समाज के संपन्न लोग अपनी अवश्यकताओं में थोड़ी-सी कटौती कर लें तो कोई भूखा नहीं रहेगा। पंडित जी ने अपने एकात्मवाद में व्यक्ति के जीवन में पूर्णता के साथ-साथ संकलित विचार किया है और सभी की भूख मिटाने की चेष्टा की है किंतु यह ध्यान रखा है कि एक की भूख मिटाने के प्रयत्न में दूसरे की भूख मिटाने का मार्ग न बंद हो जाए। उन्होंने व्यक्ति और समाज को समग्रता में देखा है इसलिए व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए केवल भौतिक अर्थात आर्थिक अवाश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं अपितु उसका आत्मिक और बौद्धिक विकास भी आवश्यक है। बिना इसके व्यक्तित्व का संपूर्ण स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता। इसी प्रकार से समाज में भी संपूर्णता के आधार पर विचार करना पड़ेगा।

समाज की भूख मिटाने के साथ-साथ उसकी सांस्कृतिक, आत्मिक और बौद्धिक क्षमता का भी निवारण करना पड़ेगा। समाज रूपी शरीर को हर दृष्टि से स्वस्थ रखना पड़ेगा तभी समाज में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया जा सकता हैं। इसलिए उन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन प्रस्तुत करने से पूर्व सिद्धांत और नीति के अंतर्गत अंत्योदय के लिए समाज में अर्थायाम की बात कही अर्थात वितरण प्रणाली ऐसी हो जो पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति को लाभांवित कर सके। तभी समाज रूपी शरीर के व्यक्तित्व का भौतिक आत्मिक और भौतिक विकास हो सकेगा। अतएव व्यक्ति और समाज दोनों के बारे में समग्रता से विचार करेंगे तभी समाज का चतुर्मुख विकास सम्भव है यही एकात्म मानववाद की मूल अवधारणा है। पंडित जी ने अपनी इस परिकल्पना को जनसंघ के ग्वलियर अधिवेशन में 10 अगस्त 1964 को प्रस्तुत किया और इससे प्रेरणा लेकर वर्ष 1965 में सिद्धांत और नीति नामक दस्तावेज के अंतर्गत पार्टी का मुख्य लक्ष्य रखा गया। इसके अनुसार हमारी संपूर्ण व्यवस्था का केंद्र मानव होना चाहिए और आज भी यही हमारा मुख्य ध्येय बना हुआ है।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उप सचिव हैं।)

M-9718335683

राहुल गांधी के हिन्दू धर्म लेख को कैसे देखें

अवधेश कुमार 

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में शीर्ष सक्रिय नेता राहुल गांधी की पिछले काफी दिनों से एक बहुआयामी व्यक्तित्व की छवि अंकित कराने की कोशिश हो रही है। हिंदू धर्म से संबंधित उनके दो पृष्ठों का आलेख और फिर हरमंदिर साहिब में माथा टेकना, उसी का अंग है। राजनीति में हर नेता को अपनी छवि निर्मित करने के लिए सभी तरह की रणनीति अपनाने की परंपरा है। चूंकि कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का सामना करना है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में स्थापित बहुआयामी छवि और चरित्र वाले नेता सामने हैं ,इसलिए भी राहुल गांधी के रणनीतिकारों की इन कोशिशें को राजनीति की दृष्टि से गलत नहीं कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की भारत सहित विश्व भर ऐसी छवि लोगों के मन में अंकित है जो हिंदुत्व विचारधारा के प्रति दृढ़ है, भारत की विरासत, इतिहास, धर्म, परंपरा सबको मुखर रूप में रखता है तो दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान -विज्ञान, तकनीक, विकास आदि में भी उच्च श्रेणी का व्यवहार और कल्पनाशीलता साबित करता है। भारत में अकेले कोई एक ऐसा नेता नहीं जो राष्ट्रीय स्तर पर उनके समक्ष स्वयं को वैसा साबित कर सके। कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह बात समझ में आई तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। तो क्या राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के समानांतर सही दिशा और गति से आगे बढ़ते देखा जा सकता है?

जहां तक राजनीति का प्रश्न है राहुल गांधी सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी हिंदुत्व प्रेरित विचारधारा के विरुद्ध प्रखर तीखे विरोधी के रूप में सामने आते हैं। उन्होंने हिंदुत्व शब्द की न जाने कितनी बार आलोचना की। वीर सावरकर के विरुद्ध वह लंबे समय से आग उगल रहे हैं। हालांकि आईएनडीआईए का ध्यान रखते हुए वे महाराष्ट्र में शिवसेना -उद्धव, शरद पवार के आग्रह पर इन पर खामोशी धारण किए हुए हैं। उनके सलाहकारों और रणनीतिकारों ने उन्हें अहसास कराया कि आप मोदी के समानांतर तभी राष्ट्रीय नेता हो सकते हैं जब इस विचारधारा के बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर सबसे ज्यादा प्रखर विरोध करते हुए दिखें। उनकी राष्ट्रवाद से लेकर हर उस विंदु पर विचार सामने लाए गए जिसे संघ, भाजपा या उस संगठन परिवार ने देश के समक्ष रखे हैं। 2018 में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव के पूर्व जगह-जगह मंदिरों में गए, उनकी एक जनेऊधारी ब्राह्मण की तस्वीर भी सामने आई और सबसे बढ़कर उन्होंने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की। 2019 लोकसभा चुनाव के साथ वह दौर लगभग खत्म हो गया क्योंकि कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में उसका लाभ नहीं मिला।

उसके बाद से राहुल गांधी की नरेंद्र मोदी और भाजपा के समानांतर राजनीतिक रणनीति का दूसरा दौर शुरू हुआ जिसमें भारत जोड़ो यात्रा सबसे बड़ा प्रयास था। उस दौरान उन्होंने वो सारी बातें रखें जो उनकी दृष्टि में लोगों के अंदर यह भाव पैदा कर सकता था कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस एक ऐसी विचारधारा के प्रति दृढ़ होकर काम कर रही है जो संघ भाजपा विरोधी है। भाजपा के राष्ट्रवाद की काट के लिए उन्होंने चीन की सीमा तक पूरे लद्दाख क्षेत्र की यात्रा की। उनका लेख शायद इसको बताने के लिए है कि हिंदू धर्म को न जानने या हिंदू विरोधी होने कि उनकी छवि झूठी गढी गई है। वैसे हरमंदिर साहिब में राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के बीच भी गए थे। पंजाब की राजनीति में कांग्रेस हाशिए पर है तथा इस समय आईएनडीआईए का भाग होते हुए भी आम आदमी पार्टी के साथ प्रदेश में कांग्रेस का तीखा संघर्ष चल रहा है। यहां इस विषय में विस्तार से जाना जाना प्रासंगिक नहीं होगा।

 राहुल गांधी के हिंदू धर्म पर लिखे लेख की पंक्तियां या शब्दों की कहानी विवेचना भी आवश्यक नहीं है। उन्होंने जो कुछ लिखा है वह सब हिंदू धर्म से ही संबंधित हैं। किंतु कोई कहे कि हिंदू धर्म संपूर्ण रूप से इसमें समाहित हो गया तो उस पर टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। हिंदू धर्म या हिंदुत्व की व्यापकता असीम है। इसकी व्याख्या आप जैसे भी करें उनके बहुतेरे अंश हिंदू धर्म की सोच में फिट होंगे। हिंदू धर्म में आस्तिक - नास्तिक से लेकर संपूर्ण धार्मिक विचारों को नकारने तक की स्वीकृति है। मनुष्य ही नहीं संपूर्ण ब्रह्मांड के चर-अचर, दृश्य -अदृश्य में ऐसा कोई पक्ष नहीं जिस पर किसी न किसी हिंदुत्व के ग्रंथ में गहन चर्चा नहीं है। हिंदू धर्म से संबंधित लेख में उनके विचारों को गलत साबित किया ही नहीं जा सकता। किंतु एक लेख से राहुल गांधी या कोई जनता के अंतर मन में यह छवि स्थापित नहीं कर सकते कि हिंदू धर्म के बारे में उनका ज्ञान सम्पूर्ण है एवं अपने जीवन में उसका शब्दशः पालन करते हैं। इनमें कुछ ऐसे शब्द है जिनका प्रयोग राहुल गांधी के माध्यम से पहली बार हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुत्व या हिंदू धर्म पर राष्ट्रीय चुनावी राजनीति में पदार्पण के बाद कोई लेख लिखा हो यह संज्ञान में नहीं आता। केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों की नीतियों से यह झलकता है कि वो अपनी हिन्दुत्व विचारधारा पर वर्तमान संविधान एवं राजनीतिक-प्रशासनिक ढांचे के तहत कुछ कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने भाजपा के समानांतर स्वयं को हिंदू धर्म एवं विचार के प्रति निष्ठावान साबित करने की कोशिश लंबे समय से की है। वर्तमान समय में ही मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावों में नेताओं के बयान, उनकी वेशभूषा, घोषणाएं, कदमों आदि में यह स्पष्ट दिखाई देता है। बावजूद छवियां बनतीं हैं कि ये बीजेपी की चुनौती में ही ऐसा कर रहे हैं जिसमें स्वाभाविकता का अभाव है।

कांग्रेस के रणनीतिकारों के लिए आवश्यक है कि राहुल गांधी या दूसरे नेता हिंदू, हिंदुत्व, हिंदू धर्म आदि पर भाजपा की प्रतिक्रिया में चरित्र गढ़ते न दिखें। ऐसा अब तक नहीं हुआ है। संभव है इससे भाजपा विरोधियों का कुछ वोट कांग्रेस को मिल जाए लेकिन हिन्दू धर्म केवल वोट का विषय नहीं है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने जब संघ की स्थापना की तो वह अपने क्षेत्र के कांग्रेस के प्रतिष्ठित नेता थे। कांग्रेस के अंदर या बाहर नया राजनीतिक दल बनाकर हिंदू राष्ट्र ,हिंदुत्व की राजनीति कर सकते थे। उन्होंने कभी राजनीतिक दल बनाने की बात तक नहीं की। आधार भूमि ऐसी बनाई कि संघ प्रत्यक्ष रूप से कभी राजनीति में न पड़े। आज भी आरोप जितना लगा दें, मैंने संघ के केंद्रीय नेतृत्व का दलीय राजनीति पर बयान कभी नहीं देखी। वे कभी किसी को वोट डालने या न डालने की अपील नहीं करते। मुद्दों पर पक्ष विपक्ष में अपना मत अवश्य रखते हैं। इसी तरह हिंदू राष्ट्र शब्द प्रयोग करने वाले अनेक संगठन सीधे राजनीति में नहीं गए। हिंदू महासभा जैसे संगठन इसके अपवाद रहे। भारतीय राष्ट्र की दृष्टि से हिंदू धर्म, हिंदू, हिंदुत्व आदि के मायने अत्यंत गंभीर है। राहुल गांधी अगर स्वयं को निष्ठावान हिंदू मानते हैं और उनके लेख हिंदू धर्म की व्याख्या हैं तो भारतीय राष्ट्र के संदर्भ में वह इसे चरितार्थ करने के लिए क्या कर रहे हैं, करेंगे यह भी देश के सामने स्पष्ट होना चाहिए। उदयनिधि स्टालिन और उसके बाद सनातन विरोधी दिए गए बयानों पर राहुल गांधी ने अपना मत अभी तक स्पष्ट नहीं किया है। सबसे बड़ी बात कि राहुल गांधी ने अपने लेख में लिखने का कोई उद्देश्य नहीं बताया है। यानी आपको आज यह लेख क्यों लिखना पड़ा यह भी आना चाहिए था। साधु- संत कभी भी धर्म की व्याख्या कर सकते हैं लेकिन कोई राजनीतिक नेता है तो उसे बताना चाहिए कि वह इस समय क्यों ऐसा कर रहा है? आम धारणा नहीं है कि संघ के देश और विदेश में लंबे समय तक किए गए परिश्रम तथा भाजपा के सत्ता में आने के बाद से हिंदुत्व के पक्ष में निर्मित माहौल को देखकर ही कांग्रेस व दूसरी पार्टियां चुनावी रणनीति की दृष्टि से स्वयं को उसे श्रेणी में उससे अलग सोच के साथ शामिल करने का प्रदर्शन कर रही है। यानी उनका हिंदू धर्म गलत और हमारा सही। इतने गंभीर विषय को केवल राजनीति की प्रतिद्वंद्विता तक सीमित न रहकर उसकी नीतिगत एवं व्यवहारिक स्वीकृति का पक्ष भी सामने लाना चाहिए।



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