बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

इस दीपावली श्री की आंतरिक गरिमा का अभ्युदय करें

उमेश कुमार साहू

प्रतिवर्ष दीपावली पर भारत माता एक नए प्रकाश पुंज के अवतरण की प्रतीक्षा करती है। ऐसा प्रकाश पुंज जो उसकी सौ करोड़ से अधिक संतानों के घर-आंगन के साथ उनके मन-आंगन में उजियारा फैला सके। हजारों साल से चले आ रहे ज्योति पर्व पर देश की दीवारें तो जगमगा जाती हैं, पर माटी के सभी पुतलों (आज के इंसान) को माटी के ये दीप अभी तक पूरी तरह से आलोकित नहीं कर पाए। असत्य पर सत्य की विजय के अभिनंदन और समृद्घि की कामना के पर्व दीपावली पर अपसंस्कृति के बढ़ते हुए आक्रमण ने सामाजिक विवेक के माथे पर चिंता की रेखाएं उकेर दी हैं। दीपावली के आगमन से कई दिन पूर्व लोग घरों की साफ-सफाई में लग जाते हैं। खील-बताशे, दीये, रूई, फुलझडिय़ां-पटाखे आदि खरीदने में व्यस्त हो जाते हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें या मूर्तियां खरीदी जाती हैं, लेकिन ऐसे घर अब कम रह गए हैं, जहां दीपावली की पूजा पर उचित विधि-विधान अपनाया जाता हो, जो दीपावली के वास्तविक कर्म को जानते हों। देवी-देवताओं की आराधना करने की इच्छा लोगों को शायद इसलिए होती है कि वह इन देवी-देवताओं से मनोवांछित फल पाने की कामना करते हैं, पर आधुनिक समय में बिखरते जीवन मूल्यों और नए सांस्कृतिक व भौतिक प्रलोभनों के कारण लोग इन देवी-देवताओं की आराधना तक भूल गए हें।

ऐसे में त्यौहार मनाना सिर्फ देखा-देखी और रूढ़ि के अलावा कुछ भी नहीं। आज देश में समृद्घि जिस कदर बढ़ती जा रही है, उसी के अनुपात मेें यह त्यौहार उतना ही रंग-बिरंगा और शोर-शराबे भरा तथा भोंडा व अश्लील भी बनता जा रहा है। बेशुमार खरीददारी, नये-नये डिजायनों के कटे-फटे कपड़े, भव्यतम पार्टियां और जबरदस्त चकाचौंध को देखकर दीपक आज आंसू बहाकर रह जाता है।

दीपावली, जो देश का सबसे बड़ा त्यौहार है आज सबसे बड़ी रूढ़ि बन चुकी है। रूढिय़ां स्मृतियों को जीवित रखती है, लेकिन दीपावली राष्ट्रीय स्मृति-लोप का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम दीए जलाते है और अंधेरा बढ़ता जाता है। पिछले वर्षों में उपभोक्तावाद ने ऐसी अपसंस्कृति फैलायी है, जो सांस्कृतिक घटनाओं और वस्तुओं के सहज आनंद और उसके सामाजिक अर्थों को नष्ट कर उन्हें व्यावसायिक हितों के लिए सतही तौर पर इस्तेमाल में ला रही है। अब दीपावली का पूंजीकरण हो गया है। अब इस पर्व को भी उद्योग के रूप में देखा जाने लगा है। आतिशबाजी-पटाखे, रोशनी और प्रकाश उद्योगों की वजह से यह त्यौहार ध्वनि व पर्यावरण प्रदूषण तथा जान-माल की हानि का प्रमुख कारण बन गया है। महंगे पटाखों में जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे न जाने कितने ही भूखों का पेट भरा जा सकता है, कितने ही नंगे तन को ढंका जा सकता है। अब ज्योतिपर्व सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह गया है। परंपरागत प्रवाह की लीक में बहते असंख्य दीप अवश्य जलते हैं, किंतु इनकी ज्योति अंतर्मन को प्रकाशित नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप आंतरिक अंधकार गहराता जाता है और हमारी कुंठित आशाएं मानसिक विकृति की दशा में बहती जा रही है। आधुनिकता और भौतिकवाद के दौर में नैतिकता, मर्यादा एवं मूल्यों का पथ अंधकार में विलीन होता जा रहा है। इससे उपजी कुंठा व्यक्तिगत जीवन में अर्द्धविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में बिखराव के साथ चारों ओर अराजकता, आतंक एवं अशांति के रूप मेें परिलक्षित हो रही है। जीवन की अंधेरी राहों से गुजरते हुए आम लोगों को दीपोत्सव कितना आलोकित कर सकता है, यह बड़ा ही कंटीला और रहस्यमय प्रश्न है।

अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार हर रोज, हर कहीं प्राय: सभी को चुनौती देते घूम रहे हैं। उनकी नाक में नकेल डालने का साहस किसी में नहीं हैं। वर्तमान परिस्थितियां सचमुच जटिल हैं। किन्तु हमें जरूरत है बस थोड़ी सी समझदारी और ढेर सारे आत्मविश्वास की।

ज्योति पर्व तभी हमारे मन में और जीवन में कोटि-कोटि दीपों का प्रकाश स्थापित करने में समर्थ होगा, जब हम अपने अंदर के अंधकार को साफ कर उसे अकलुष बनाएं। साथ ही यह समझें कि शील से प्राप्त लक्ष्मी ही देवभूमि भारत और यहां की संस्कृति को अभीष्ट है, अत्याचारों से बनी सोने की लंका नहीं। दीपावली एकता, प्रेम और सद्भावना का पर्व है। आइए हम सभी एक-एक दीप प्रज्वलित करें ताकि उत्सव में प्रेम और उत्साह का समन्वय हो, श्री के साथ आंतरिक गरिमा का अभ्युदय हो। (विभूति फीचर्स)

फिर उड़ी महिला आरक्षण की धज्जियां

अंजनी सक्सेना

हमारे देश में महिला आरक्षण के नाम पर बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं। आरक्षण के बाद चुनाव जीतकर आयी महिलाओं की संख्या बताकर महिला सशक्तिकरण को जमकर उछाला जाता है लेकिन असलियत में इस आरक्षण की जमकर धज्जियां बिखेरी जाती हैं। इस बार यह कारनामा हुआ है विदिशा नगर पालिका में। विदिशा नगरपालिका में इस बार का अध्यक्ष पद महिलाओं के लिए आरक्षित है लेकिन यहां की राजनीति ही कुछ ऐसी है जहाँ महिलाओं को राजनीति करने ही नहीं दी जाती है।

विदिशा वह नगर है जहाँ आजादी के समय से ही महिलाएं शिक्षित रही है। यहां की महिलाएं मतदान में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेती हैं। पचास और साठ के दशक में भी यहाँ अनेक महिलाएं अध्ययन और अध्यापन कार्य में संलग्न थी। यहाँ की महिलाएं आज भी डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, बैंकर, लेखक, पत्रकार सब कुछ बन रही है लेकिन यहां राजनीति में वे मात्र कठपुतली ही प्रतीत होती हैं क्योंकि जब उन्हें अधिकार देने की बात आती है तो उन्हें इतना मजबूर, लाचार और बेबस कर दिया जाता है कि वे राजनीति छोडऩे को ही विवश हो जाती हैं।

ताजातरीन मामला यहां की नगरपालिका अध्यक्ष प्रीति शर्मा का है, जिन्होंने अपना स्वास्थ्य ठीक न होने की बात कहकर अपने अध्यक्षीय प्रभार नपा के वर्तमान उपाध्यक्ष संजय दिवाकीर्ति को सौंप दिए हैं। वैसे न तो प्रीति शर्मा (वस्तुत: इनका नाम आपको हर जगह प्रीति राकेश शर्मा ही लिखा दिखाई देगा फिर चाहे वह नपा अध्यक्ष के कक्ष के बाहर लगी नाम पट्टिका हो या नगर पालिका भवन के ऊपर लगा बड़ा सा नाम पट्ट) ने अपनी बीमारी बताई है न ही उन्होंने यह बताया है कि उन्होंने अपना प्रभार कब तक के लिए उपाध्यक्ष को सौपा है।

वैसे विदिशा की राजनीति में महिला नपाध्यक्ष द्वारा अपना प्रभार उपाध्यक्ष को सौंपने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले विदिशा नगर पालिका की महिला पहली महिला अध्यक्ष सरोज जैन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। स्नेही, मृदुभाषी, व्यवहारकुशल और पारंगत वकील के रूप में प्रतिष्ठित सरोज जैन भी यहां राजनीति नहीं कर पायी और अंतोत्गत्वा उन्होंने भी अपने सारे प्रभार उपाध्यक्ष बसंत कुमार जैन को सौंप दिए और बाद में राजनीति से सन्यास ले लिया।

विदिशा नगरपालिका में प्रदेश के वित्तमंत्री रहे राघवजी भाई की पुत्री ज्योति शाह भी अध्यक्ष रहीं। उनके पिता कुशल राजनीतिज्ञ थे तो यहां किसी दूसरे को राजनीति करने का अवसर नहीं मिला और उन्होंने अपना कार्यकाल अपने पिता की छत्रछाया में पूरा तो किया। लेकिन राघव जी भाई के पद से हटते ही ज्योति शाह भी विदिशा के राजनीतिक परिदृश्य से लगभग बाहर हो गयी। वैसे तो विदिशा की सांसद भाजपा की तेजतर्रार नेता सुषमा स्वराज भी रहीं लेकिन उनके कार्यकाल में भी यहां महिला आरक्षण के नाम पर मात्र खानापूर्ति ही होती रही। नगर निगम नगर पालिका, नगर पंचायत और ग्राम पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए सरकार की ओर से निसंदेह निरंतर प्रयास हो रहे हैं लेकिन सरकार के इन प्रयासों की राजनेताओं द्वारा जमकर धज्जियां बिखेरी जा रही हैं। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ये नेता अपने घर की महिलाओं को महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों से चुनाव लड़वा देते हैं फिर चुनाव के बाद ये महिलाएं कठपुतली बन जाती हैं। ऐसी ही कठपुतली के रुप में सुशीला मोहर सिंह भी विदिशा की विधायक रह चुकी हैं। पहले कठपुतली सरकार चलाने वाले ऐसे नेता शासकीय कार्यक्रमों में तक निर्वाचित प्रतिनिधि की जगह खुद ही पहुंच जाते थे फिर नियमों में संशोधन के बाद जब इन लोगों पर थोड़ा बहुत अंकुश लगा तो अब नगरपालिका में अध्यक्ष प्रतिनिधि और पार्षद प्रतिनिधि जैसे पदों का सृजन करवाया गया और और ये स्वयं अध्यक्ष या पार्षद के बगल में बैठकर निर्देश देते या हस्ताक्षर कराते दिखाई देते हैं। यह भी बड़ा ही हास्यास्पद लगता है कि एक नगरपालिका पार्षद, जिसके वार्ड की सीमा मात्र एक या दो किलोमीटर की परिधि में होती है उसे ही अपने लिए एक पार्षद प्रतिनिधि रखना पड़ता है।

कुल मिलाकर यहां बात किसी महिला की अक्षमता की नहीं है यहां बात सिर्फ पुरुषों के रुतबे और राजनीतिक वर्चस्व की है, अन्यथा जब कोई महिला आपरेशन सिंदूर की कमान संभाल सकती है, राष्ट्रपति के रुप में सारे देश का दुनियाभर के सामने प्रतिनिधित्व कर सकती है,तो क्या एक शहर की नगरपालिका को नहीं चला सकती । यदि एक महिला देश के वित्तमंत्री के रूप में देश की अर्थव्यवस्था संभाल सकती तो क्या नगरपालिका के वित्तीय मामले नहीं सम्हाल सकती?

यहां चर्चा का विषय यह नहीं है कि विदिशा की नगरपालिका की राजनीति में क्या हुआ,क्यों हुआ, कैसे हुआ,कौन चुप है, कौन मुखर है या किसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर महिला नगरपालिका अध्यक्ष के अधिकारों को कुर्बान किया गया। यहां विचारणीय यह है कि महिला आरक्षण के नाम पर एक महिला को आगे करके फिर राजनीति की बलि वेदी पर कुर्बान कर दिया गया।

राजनीति में महिलाओं को कब तक कुर्बानी देनी पड़ेगी? क्या आज भी महिलाएं इतनी कमजोर हैं कि वे हर बार राजनीतिक बिसात पर स्वयं को न्यौछावर करती रहेगी? नियमों को तोड़मरोड़ कर महिला आरक्षण की धज्जियां उड़ाने से बेहतर तो यही होता कि यहाँ से महिला आरक्षण ही समाप्त कर दिया जाता ताकि राजनेता संपूर्ण स्वच्छंदता से अपनी राजनीति कर सकें और यहां की महिलाएं राजनीति से दूर रहकर दूसरे क्षेत्रों में अपने दम खम का परचम लहराएं। (विभूति फीचर्स)

तमसो माँ ज्योतिर्गमय का संदेश देता दीपावली का पर्व

सुषमा जैन

उल्लास एवं समृद्धि का प्रतीक तथा भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सर्वोपरि पर्व दीपावली का कारवां वैदिक युग की ज्ञान ज्योति से चलकर, ऐतिहासिक अंधकारों को चीरता तथा मुगलकाल की संकरी गलियों से गुजरता हुआ आजादी के खुले आंगन और घरों में प्रवेश कर चुका है। चाहे गांव-देहात हो या शहर, महानगर, गली-मोहल्ला हो या फिर बहुमंजिला अपार्टमेंट, क्या बूढ़े और बच्चे सभी के चेहरे पर कार्तिक का महीना एक अलग प्रकार की खुशियों से लबालब चमक लेकर आता है। सभी के तन-मन खिलखिला उठते हैं। कन्या कुमारी से लेकर कश्मीर तक, बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक नवरात्रि से शुरू हुआ यह हर्षोल्लास दीपावली तक अपने चरम पर होता है। यद्यपि युग-युगांतर से जलते आ रहे दीपक और दीपावली के स्वरूप में पौराणिक काल से लेकर अब तक भिन्न-भिन्न काल परिवेश और परिस्थिति के अनुसार अनेकानेक परिवर्तन आये हैं। फिर भी आज किस प्रकार यह पर्व अपव्यय और दुर्घटनाओं के पर्व के रूप में जाना जाने लगा है, वैसी स्थिति पहले कभी नहीं रही। आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व दीपावली की रौनक देखते ही बनती थी। भारी धन के अपव्यय के साथ धूमधड़ाकों की दीपावली मनाते नहीं देखा जाता था। प्रसन्नता व्यक्त करने का एक निराला ही तरीका होता था।

चारों ओर झिलमिलाते दीपों की एक के बाद एक अनंत पंक्तियां, मुस्कराते नन्हें बालक, घर-आंगन को लीपती-पोतती रंग बिरंगे परिधानों में सजी कुलवधुएं, अपनी शोखियों और चंचलताओं से नवजीवन उड़ेलती तथा घर के कोने-कोने को दीपों की रोशनी से प्रकाशित करती नव बालाएं, यौवन की देहरी का स्पर्श करती हुई कंदीलों और रंगोली की प्रतिस्पर्धा में लगी यौवनाएं, अपनी आंखों में अनगिनत सपने संजोये और अनजानी उत्सुकताओं को मन में समेटे मस्ती का आलम संजोये नवयुवक तथा अपने वर्तमान को भूलकर अतीत के साथ हास्य-विलास की स्मृतियों को सजाते हुये कभी बेटे के साथ हंसकर तो कभी पौत्र के साथ खेलकर दीपोत्सव मनाते वृद्ध। आबाल वृद्ध, नर-नारी सभी प्रसन्नता पूर्वक सामूहिक रूप से इस पर्व का आनंद लेते थे।

दीपावली पूजन का मूल उद्देश्य यही रहा है कि चारों ओर सुख-समृद्धि, खुशहाली समरसता और ज्ञान का प्रकाश फैले। इसके लिये यह कामना की जाती थी कि मानव समाज के लिये बड़े नहीं भले लोगों की जरूरत है। इसलिये धन की देवी मेहरबान हो और वे अधिक से अधिक धर्म-कर्म कर सकें। पर आज स्थिति बिल्कुल उलट गई है। लोग केवल अपनी स्वार्थपूर्ति तक ही सिमट कर रह गये हैं। अधिक से अधिक धन प्राप्त कर दुनिया भर की सुखसुविधाएं जुटाना ही एक मात्र लक्ष्य बन गया है। जिससे समाज में गैरबराबरी की खाई बढ़ती जा रही है। कहीं खुशियों के अनगिनत दीप जलते है, तो अधिकतर जगहों पर गम और अभावों का अंधेरा पसरा हुआ है। उसी देश के लोग कुछ समय से मनोरंजन तथा बढ़-चढ़कर अपनी हैसियत दिखाने के लिये करोड़ों रुपयों के पटाखे फूंक डालते हैं। जिससे न केवल असंख्य लोग वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से पीडित हो जाते हैं, बल्कि उनका दूषित हवा में सांस तक लेना मुश्किल हो जाता है। ऊपरी दिखावे को सामाजिक प्रतिष्ठा मान लिये जाने के कारण ही मिट्टी के दीयों का स्थान भारी मात्रा में बिजली की झालरों ने ले लिया है। खील बताशों के स्थान पर महंगे-महंगे तोहफे दिये जाने लगे हैं। पड़ोसियों की होड़ में लोग टिड्डी दल की तरह बाजार पर टूटकर अनावश्यक वस्तुएं भी खरीद डालते हैं। जिससे गृह बजट को संतुलित करने में कई माह लग जाते हैं। यह सारा उपक्रम व्यक्ति की औकात का घटिया प्रदर्शन मात्र है। जुएं को तो जैसे सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। क्योंकि उसके खिलाफ आवाज उठाने वाला मध्यम वर्ग आज स्वयं अपनी दमित इच्छाओं और कुंठाओं को सहलाने लगा है। यह वह मध्यमवर्ग है जो अपने से समृद्ध को ललचायी नजरों से देखता है और अपने से पीछे वालों को तिरस्कार से। कभी सामाजिक परिवर्तन का औजार बना यह वर्ग आज आत्मकेंद्रित बनता जा रहा है।

प्रत्येक वर्ष दीपोत्सव पर हम माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं कि वे अपनी कृपा हमें दें। परंतु सब व्यर्थ चला जाता है। देवी प्रसन्न नहीं होती, बल्कि कुपित होती है। आखिर कुपित क्यों न हो? कहीं लक्ष्मी स्वरूप कुलवधू को दहेज की बलिदेवी पर कुर्बान किया जा रहा है तो कहीं उसे जन्म लेने से पूर्व ही मौत के घाट उतारा जा रहा है। देखा जाय तो देवी आज भी पूरी तरह क्रुद्ध ही है। कहीं दरिद्रता का तांडव नृत्य हो रहा है तो कहीं बाहुबलियों और धनपशुओं के हाथ पांव फैलते जा रहे हैं। करूणा के लिये कोई स्थान नहीं बचा है। अंधकार प्रकाश को निगल रहा है, रात दिन को डस रही है, कोई भूख से मर रहा है, तो कोई प्यास से तड़प रहा है। कहीं बाढ़ से लोग बेघर हो रहे हैं तो कहीं भूकंप से छाती दहल रही है तथा कहीं आतंकवाद का जिन्न निर्दोषों और मासूमों को ग्रास बनाता जा रहा है। ऐसे में हमारे राष्ट्र की शान और प्राण संस्कृति के गौरव को किस प्रकार बरकरार रखा जा सकेगा? यह चिंता और चिंतन का विषय है। जीवन में उजाले की इच्छा हर कोई रखता है। पर इस उजाले की सार्थकता तभी है जब इसकी रौनक मन के अंदर और बाहर समान रूप से हो। जबकि हो यह रहा है कि बाहर दीप आदि जलाकर उजाला तो कर दिया जाता है, लेकिन हमारी आत्मा काजल की कोठरी और मन मलिन ही बना रह जाता है। जब अंतर में छल, कपट, राग, द्वेष, ईर्ष्या, आडंबर और वैचारिक कलुषता भरी हो, ऐसे में क्या बाह्य दीपों का जलाना मात्र ही दीपावली को सार्थक बना पायेगा? प्रत्येक धर्म ने यही संदेश दिया है कि हम धन का सदुपयोग करें। उन लोगों को भी अपनी खुशी में भागीदार बनायें जो अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। इसलिये जकात या दान की नीवें रखी गई। वास्तविकता तो यह है कि हमने लक्ष्मी के विराट स्वरूप को अपने अंतर्मन में बसाया ही नहीं। जिस लक्ष्मी को हम सर्वोपरि मान बैठे हैं वह तो तृष्णा या लोभ है और जब मन में तृष्णा जन्म ले लेती है तो मन का अशांत होना आवश्यक हो जाता है।

वर्तमान का भवन निर्माण अतीत की नींव पर ही किया जाता है। प्रत्येक राष्ट्र एवं जाति अपने बीते युग की स्मृतियां सुरक्षित रखने का प्रयास करती हैं। दीपावली मनाते हुये हम सिर्फ हम नहीं रह जाते, बल्कि अपने को एक पूरे इतिहास के साथ जोड़ते हैं। एक स्मृति-परंपरा को पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हैं। आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्ण चर्तुदशी की रात्रि में पावापुर नगरी में भगवान महावीर का निर्वाण हुआ। निर्वाण की खबर सुनते ही सुर, असुर, मनुष्य, गंधर्व आदि बड़ी संख्या में वहां एकत्र हुये। रात्रि अंधेरी थी, अत: देवों ने रत्नों के दीपकों का प्रकाश कर निर्वाण उत्सव मनाया और उसी दिन कार्तिक अमावस्या के प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में उनके प्रधान शिष्य इंद्रभूति गौतम को ज्ञान लक्ष्मी की प्राप्ति हुई। तभी से प्रतिवर्ष उक्त तिथि को दीपावली का आयोजन होने लगा। यही नहीं भगवान राम के अयोध्या आगमन पर स्वागत हेतु सजाई गई दीपमाला को भी दीपावली की परंपरा से जोड़ा गया। इस प्रकार यह महापर्व भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय वातावरण में पूरी तरह पगकर प्रेरणास्त्रोत प्रमाणित हुआ है।

दुर्भाग्य से आज हमारे देश की छाती पर बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग जमते जा रहे हैं जो तन से तो भारतीय है, परंतु मन से पूरे विदेशी, जिनके लिये राष्ट्रीयता और भारतीयता अक्षरों के संयोग के सिवा और कुछ भी नहीं है, जो न अपने पूर्वजों के प्रति कोई सम्मान रखते हैं और न अपने धर्म और उत्सव के प्रति। इसका परिणाम हम सभी को भुगतना पड़ रहा है। यही कारण है हम सभी के अंतर में गहरा अंधकार भरा पड़ा है। हम उसे शत्रु मानकर भयभीत हो रहे हैं और उससे डरकर बाहर के प्रकाश की ओर भाग रहे हैं। यह बाह्य भौतिक प्रकाश उस प्रकाश तक कभी नहीं ले जा पायेगा जिस प्रकाश का अर्थ ''तमसो मा ज्योर्तिगमय" वाक्य में छिपा है।

दीपावली सांस्कृतिक चेतना का मापदंड भी है और राष्ट्रीय एकता की साक्षी भी। गणेश बुद्धि के देवता हैं और लक्ष्मी संपदा की देवी। संपत्तिवान की अपेक्षा बुद्धिमान होना अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि धन का उपार्जन न्याय नीति के आधार पर हो और उसका उपयोग करने में भी विवेकशीलता से काम लिया जाये तभी वास्तविक सुख और समृद्धि आती है। दीपावली मूल रूप से सहृदयता, आपसी भाईचारे और मिठाई के रूप में आपस में मिठास पैदा करने का पर्व है। दरिद्रता के अंधकार में जीने वाले लोगों के घरों में, दिलों में हम प्रकाश की एक किरण भी जला पायें तो समझो कि हमने दीपोत्सव का उद्देश्य सार्थक कर लिया। ठीक ही तो है कि अंधेरे को क्यों धिक्कारें, अच्छा है कि एक दीप जला लें। (विनायक फीचर्स)

राहुल पांडेय बने एनसीपी (एसपी) से शकरपुर वार्ड-202 के अध्यक्ष

संवाददाता

नई दिल्ली। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (पक्ष शरदचंद्र पंवार) ने आज दिल्ली संगठन में एक महत्वपूर्ण नियुक्ति की घोषणा की है। पार्टी के प्रदेश संयोजक इंजीनियर डी. सी. कपिल ने जानकारी देते हुए बताया कि श्री राहुल पांडेय को वार्ड संख्या-202, करपुर का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है।

यह नियुक्ति आज दिनांक 15 अक्टूबर 2025 से तत्काल प्रभाव से लागू मानी जाएगी। श्री कपिल ने श्री राहुल पांडेय को नई जिम्मेदारी के लिए शुभकामनाएं देते हुए कहा कि उनकी सक्रियता, संगठन के प्रति समर्पण और क्षेत्र में जनसेवा के अनुभव को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है।

प्रदेश संयोजक ने विश्वास व्यक्त किया कि श्री राहुल पांडेय अपने नेतृत्व में संगठन को और मजबूत करेंगे तथा स्थानीय स्तर पर पार्टी की नीतियों और विचारधारा को जनता तक प्रभावी ढंग से पहुंचाएंगे।

नई जिम्मेदारी मिलने पर श्री राहुल पांडेय ने पार्टी नेतृत्व के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि वे पूरी निष्ठा और ईमानदारी से जनता की सेवा और संगठन के विकास में योगदान देंगे।










 

रसो वै स:, अर्धसत्य को पूर्ण समझने की अभिलाषा

शिव शंकर द्विवेदी

पूर्णसत्य के सम्बन्ध में किसी की अभिलाषा हो सकती है कि वह माधुर्य को परमसत्ता के साथ जोड़ कर समझे और परमसत्ता को रसो वै स: के रूप में स्वीकार करे,किन्तु ऐसी परिभाषा अथवा स: अर्थात् पूर्ण सत्ता के विषय में इस प्रकार का बोध निश्चित रूप से अर्धसत्य बोध की ही श्रेणी में है, हां अर्धसत्य होते हुए भी यह एक अच्छा सत्य अवश्य है,शुभ सत्य अवश्य है क्योंकि शान्ति के लिए वातावरण का मधुवत् होना ही चाहिए होता है। किन्तु दृश्यमान जगत् केवल मधुवत् नहीं है। यहां अशान्ति भी है और अशान्तिकारक परिस्थितियां भी हैं। हमें इन्हीं के मध्य रहना है। यही कारण था कि परम लोक व्यवस्थापक के रूप में श्रीकृष्ण की अपेक्षा थी कि लोग सुख-दु:खात्मक परिस्थितियों में समभाव से रहते हुए अपेक्षित कर्म करें। लोग सुख-दु:खात्मक परिस्थितियों के मध्य रहते हुए भी वह करें जो लोकहित में लोक व्यवस्थापक की अपेक्षा हो।

उक्त स्थिति में हमसे अपेक्षा भी होती है कि हम जब कभी अभिलाषा और अपेक्षा में द्वन्द्व का अनुभव करें तब अभिलाषा को त्याग कर के अपेक्षा के साथ होने का विनिश्चय करें,यही श्रीराम के जीवन चरित्र से शिक्षा मिलती है और भीष्म पितामह को युद्ध भूमि से हटाने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में सुदर्शन चक्र को धारित करके यही संदेश दिया है कि प्रतिज्ञा जैसी अभिलाषा को लोकहित में त्याग कर आगे बढ़ा जा सकता है और बढ़ा जाना ही चाहिए।

रसो वै स: को पूर्ण सच मानते हुए जो लोग कर्मच्युत होते हैं वे किसी भी रुप में आदरणीय और आचरणीय नहीं रह जाते हैं। श्रीकृष्ण रसो वै स: को पूर्ण सच मानकर चलने वाले रासलीला में मस्त गोप-गोपियों को त्याग कर जब आगे बढ़े तो वह गोप-गोपियों की ओर पलट कर देखना भी उचित नहीं समझे जबकि वह अर्जुन के सारथी बने।

यहां कोई यह प्रश्न कर सकता है कि प्रतिज्ञा अभिलाषा कैसे हो सकती है?अभिलाषा में स्वहित रहता है जबकि प्रतिज्ञा अन्तरात्मा की आवाज से सम्बद्ध होती है।

उक्त के सम्बन्ध में स्थिति यह है कि प्रतिज्ञा के लिए किसी से कोई अपेक्षा नहीं करता है अपितु प्रतिज्ञा व्यक्ति स्वेच्छा से करता है और उसको पूरा करने लिए वह सब कुछ दांव पर लगा देता है जबकि अपेक्षा लोकहित में लोक व्यवस्थापक द्वारा निर्धारित की जाती है जिसके लिए व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है वह वही करे जो उससे अपेक्षित है। व्यक्ति अपेक्षा के अनुसार कार्य करने या न करने के लिए स्वतंत्र होता है जबकि प्रतिज्ञा में बाध्यता है। यदि कोई किसी काम को करने की प्रतिज्ञा करता है तो वह उसे करने के लिए बाध्य भी होता है। प्रतिज्ञा अभिलाषा की श्रेणी में इस आधार पर भी समझी जाती है क्योंकि प्रतिज्ञा के विषयों का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है जबकि अपेक्षा के विषयों का निर्धारण लोकहित में लोक व्यवस्थापक द्वारा किया जाता है। अत एव अपेक्षा अभिलाषा नहीं है जबकि प्रतिज्ञा अभिलाषा हो जाती है।

उक्त पर यह कहा जा सकता है कि प्रतिज्ञा न तो अपेक्षा है,न ही अभिलाषा है अपितु भीष्म प्रतिज्ञा या उस जैसी प्रतिज्ञा कारक परिस्थितियों में प्रतिज्ञा विशुद्ध कर्तव्य हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में प्रतिज्ञाएं किसी बाह्य दबाव में नहीं होती हैं अपितु तत्कालीन परिस्थितियों में प्रतिज्ञाएं आत्मा की बुलंद आवाज हो जाती हैं।

उक्त के सम्बन्ध में यही समझना उपयुक्त है कि भीष्म पितामह ने जो प्रतिज्ञा की थी उसके लिए किसी ने उनसे अपेक्षा नहीं की थी जबकि श्रीराम के वनवास के लिए राजा दशरथ की अपेक्षा थी। अत एव कोपभवन जब श्रीराम ने कैकेई के समक्ष प्रतिज्ञा की कि वह राजाज्ञा का पालन करेंगे तब श्रीराम ने कोई अभिलाषा नहीं व्यक्त की थी अपितु राजाज्ञा के पालन हेतु एक नागरिक के रूप में अपने प्रास्थिति का बोध कैकेई को कराया था। इसके विपरीत भीष्म पितामह ने स्वविवेक से सुनिश्चित किया था कि वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे,सत्यवती के संततियों की रक्षा करेंगे,हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठने वाले की सुरक्षा करेंगे और इसके लिए वह प्रतिज्ञा बद्ध हुए। यह उनका स्वयं का निर्णय था न कि किसी की अपेक्षा थी कि वह उक्त प्रकार की प्रतिज्ञाएं करें। उन्होंने स्वयं सुनिश्चित किया कि इस प्रतिज्ञा से खुश होकर सत्यवती के पिता जी सत्यवती का विवाह महाराज शान्तनु से कर देंगे। इसके विपरीत श्रीराम एक नागरिक की हैंसियत से बाध्य थे कि वह कैकेई के समक्ष राजाज्ञा के पालन हेतु वचन बद्ध हों।इस प्रकार स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि श्रीराम ने वनगमन की जो प्रतिज्ञा की थी वह अपेक्षा थी जबकि भीष्म पितामह ने जो प्रतिज्ञाएं की थीं वे अभिलाषाएं थीं।

भीष्म पितामह की प्रतिज्ञाओं को अभिलाषा की श्रेणी से पृथक करने के प्रयास में यह समझाया जा सकता है कि भले ही किसी ने उनसे उक्त प्रतिज्ञाओं की अपेक्षा नहीं की थी किन्तु स्वयं उनकी अंतरात्मा ने अपेक्षा की थी वह उक्त प्रकार की प्रतिज्ञाएं करें। वैसे भीष्म की जगह आप होते तो क्या विकल्प चुनते?

उक्त पर यदि पूर्वाग्रह रहित होकर विचार करें तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती है कि अभिलाषाएं भी अन्तरात्मा से ही सम्बन्धित होती हैं जबकि अपेक्षा का सम्बन्ध अन्तरात्मा से नहीं होता है। अपेक्षा के विषय किसी भी स्थिति में अन्तरात्मा से सुनिश्चित नहीं होते हैं। उनके अनुसार कार्य करने या न करने का निर्णय भी अन्तरात्मा के आवाज की अपेक्षा नहीं रखते हैं जबकि विवेक की अपेक्षा रखते हैं क्योंकि अपेक्षा के अनुसार कार्य करने या न करने की स्वतन्त्रता है जबकि अभिलाषा तो बाध्यता होती है और प्रतिज्ञाओं का पालन भी इसी कारण बाध्यता की श्रेणी में शामिल होता है क्योंकि प्रतिज्ञाएं अभिलाषा होती हैं न कि अपेक्षा।

यह समझना कि अभिलाषा में व्यक्तिगत स्वार्थ निहित होता है,अंतरात्मा की आवाज में अपना स्वार्थ अनुपस्थित होता है। अन्तरात्मा की आवाज से उद्भूत प्रतिज्ञाएं ईश्वरेच्छा को समर्पित होती हैं। उसकी राजी में रजा की स्थिति है,अंतरात्मा की आवाज सुनना और उसके अनुसार आचरण करना अभिलाषा नहीं प्रतिज्ञा है।

उक्त के सम्बन्ध में यही समझना उपयुक्त है कि अन्तरात्मा की आवाज के आधार पर प्रतिज्ञाएं करना सात्विक प्रवृत्ति का कार्य है किन्तु इस आधार पर इसे अपेक्षा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। रावण ने भी जो आचरण किया था उसके लिए भी उसकी अन्तरात्मा ने ही प्रेरित किया होगा। मन की आवाज आवश्यक नहीं है कि सदैव सबके लिए शुभप्रद ही हो किन्तु अपेक्षा सदैव लोकहित में ही होती है। यही कारण रहा है कि श्रीकृष्ण ने अपेक्षा के अनुसार कार्य करने की ओर उन्मुख होने के पूर्व यह परखने का दायित्व उन्मुख होने वाले को ही सौंपा है कि वह सुनिश्चित करे कि उससे जो अपेक्षा की जा रही है वह लोकहित में है या नहीं। यदि भीष्म पितामह ने कौरवों की ओर से युद्ध में सेनापति बनने के निर्णय के पूर्व यह समझने का प्रयास किया होता कि कौरवों की ओर से युद्ध करना लोकहित में है या नहीं? तो संभव था कि वह कौरवों की ओर से युद्ध न करते क्योंकि कौरव तो राज्य के लिए युद्ध कर रहे थे जबकि एक योद्धा से अपेक्षा होती है कि वह व्यवस्था के लिए युद्ध करे। किन्तु भीष्म पितामह प्रतिज्ञाओं को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध थे ऐसे में उन्होंने इस विषय में सोचना भी उचित नहीं समझा।

जहां तक यह पूछना कि प्रतिज्ञाओं के प्रति मैं क्या करता ?तो इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यही है कि मेरे आदर्श श्रीकृष्ण होते न कि भीष्म पितामह। ऐसे में मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि यदि संभव हो तो वह शक्ति और प्रेरणा दें कि मैं अर्जुन बनने की ओर उन्मुख हो सकूं और अपेक्षाओं एवं अभिलाषाओं के द्वन्द्व से द्वन्द्वातीत होकर अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हो सकूं जैसे श्रीराम अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हुए थे।
(लेखक संयुक्त सचिव (सेवानिवृत्त), उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ हैं।)
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