बुधवार, 28 जुलाई 2021

पेगासस जासूसी कांड को कैसे देखें

अवधेश कुमार

पेगासस जासूसी को लेकर भारत सहित विश्व भर में मचा हंगामा स्वाभाविक है। हमको आपको अचानक पता चले कि हमारे मोबाइल में घुसपैठ कर जासूसी हो रही है तो गुस्सा आएगा। वैसे पेगासस जासूसी का मामला  2019 में ही सामने आ गया था। व्हाट्सएप ने अमेरिका के कैलिफोर्निया के एक न्यायालय में इस सॉफ्टवेयर को बनाने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। आपको यह भी याद होगा कि तत्कालीन सूचना तकनीक मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अक्टूबर 2019 में ही बाजाब्ता ट्विटर पर व्हाट्सएप से इसके बारे में जानकारी मांगी थी। यह अलग बात है कि उसके बाद आगे इस पर काम नहीं हुआ। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि इजरायली कंपनी एनएसओ के पेगासस नाम के इस हथियार का दुनिया की अनेक सरकारें उपयोग करती हैं। पेगासस का कहना है कि वह केवल सरकारी एजेंसियों, सशस्त्र बल को ही प्पेगासस बेचती है। यह सच है तो जहां भी जासूसी हुई उसके पीछे सरकारी एजेंसियों की ही भूमिका होगी। फ्रांस में इस भंडाफोड़ के बाद जांच भी आरंभ हो गया है। हालांकि द गार्जियन और वाशिंगटन पोस्ट सहित विश्व की 16 मीडिया समूहों के इस दावे पर प्रश्न खड़ा हो गया है कि उन्होंने संयुक्त जांच में पेगासस सॉफ्टवेयर से जासूसी कराए जाने वाले सूचना का पर्दाफाश किया है। मानवाधिकार की अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल इसकी अगुआ थी। पहले एमनेस्टी की ओर से दावा किया गया था  कि एनएसओ के फोन रिकॉर्ड का सबूत उनके हाथ लगा है, जिसे उन्होंने भारत समेत दुनियाभर के कई मीडिया संगठनों के साथ साझा किया था।  स्वयं को नॉन प्रॉफिट संस्थान बताने वाली फ्रांस की फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दावा किया था कि वह मानवीय स्वतंत्रता और नागरिक समाज की मदद के लिए गंभीर खतरों का पता लगाने की कोशिश करता है और उनके जवाब ढूंढता है। इस वजह से उसने पेगासस के स्पायवेयर का फॉरेंसिक विश्लेषण किया।

एमनेस्टी  का बयान था कि उसकी सिक्योरिटी लैब ने दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के कई मोबाइल उपकरणों का गहन फॉरेंसिक विश्लेषण किया है। उसके इस शोध में यह पाया गया कि एनएसओ ग्रुप ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की व्यापक, लगातार और गैरकानूनी तरीके से निगरानी की है। फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल को एनएसओ के फोन रिकॉर्ड का सबूत हाथ लगा है, जिसे उन्होंने भारत समेत दुनियाभर के कई मीडिया संगठनों के साथ साझा किया है।अब मीडिया में उसका बयान आया है जिसमें कहा है कि  उसने कभी ये दावा किया ही नहीं कि यह सूची एनएसओ से संबंधित थी। इसके अनुसार एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कभी भी इस सूचि को एनएसओ पेगासस स्पाईवेयर सूची के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया है। विश्व के कुछ मीडिया संस्थानों ने ऐसा किया होगा। यह सूची कंपनी के ग्राहकों के हितों की सूचक है। सूची में वो लोग शामिल हैं, जिनकी जासूसी करने में एनएसओ के ग्राहक रुचि रखते हैं। यह सूची उन लोगों की नहीं थी, जिनकी जासूसी की गई। इसमें कहा गया है कि जिन खोजी पत्रकारों और मीडिया आउटलेट्स के साथ वे कार्य करते हैं, उन्होंने शुरू से ही बहुत स्पष्ट भाषा में साफ कर दिया है कि यह एनएसओ की सूचि ग्राहकों के हितों में है। सीधे अर्थों में इसका मतलब उन लोगों से है, जो एनएसओ ग्राहक हो सकते हैं और जिन्हें जासूसी करना पसंद है। 

इसके बाद निश्चित रूप से केवल भारत नहीं पूरी दुनिया को यह विचार करना होगा कि हम एमनेस्टी इंटरनेशनल के पहले के बयान को सच माने या अब वह कह रहा है सच्चाई उसमें है? जासूसी हमेशा से गूढ़ रहस्य वाली विधा रही है। अब तो एमनेस्टी इंटरनेशनल और फोरबिडेन स्टोरीज पर केंद्रित जांच होनी चाहिए कि उसने पहले किस कारण से वह बयान दिया और अब किन कारणों से उसने अपना बयान बदला है? वैसे एनएसओ ने इसे एक अंतरराष्ट्रीय साजिश कह दिया है। भारत सरकार या भारत सरकार से जुड़ी किसी अन्य संस्था द्वारा उसके सॉफ्टवेयर की खरीदी संबंधी प्रश्न पर एनएसओ का जवाब है कि हम किसी भी कस्टमर का जिक्र नहीं कर सकते। जिन देशों को हम पेगासस बेचते हैं, उनकी सूची  गोपनीय जानकारी है। हम विशिष्ट ग्राहकों के बारे में नहीं बोल सकते लेकिन इस पूरे मामले में जारी देशों की सूची पूरी तरह से गलत है। एनएसओ कह रही है कि इस सूची में से कुछ तो हमारे ग्राहक भी नहीं हैं। हम केवल सरकारों और सरकार के कानून प्रवर्तन और खुफिया संगठनों को बेचते हैं।  हम बिक्री से पहले और बाद में संयुक्त राष्ट्र के सभी सिद्धांतों की सदस्यता लेते हैं। किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रणाली का कोई दुरुपयोग नहीं होता है। उसका यह भी कहना है की उसके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कभी भी किसी के फोन की बातें सुनने, उसे मॉनिटर करने, ट्रैक करने और डाटा इकट्ठा करने में नहीं होता है। अगर पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल फोन की बात सुनने मॉनिटर कर नेट पैक करने या डाटा इकट्ठा करने में होता ही नहीं है तो फिर मोबाइलों की जासूसी कैसे संभव हुई? 

भारत में तो 300 सत्यापित मोबाइल नंबरों की जासूसी होने का दावा किया गया है। इनमें नेताओं ,सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ,वहां के पूर्व कर्मचारी के साथ 40 पत्रकारों के नंबर भी शामिल हैं। विचित्र बात यह है कि इसमें मोदी सरकार के मंत्री का भी नंबर है। कोई सरकार अपने ही मंत्री का जासूसी कर आएगी? पेगासस का उपयोग दुनिया भर की सरकारें करती हैं तभी तो 2013 में सालाना 4 करोड़ डॉलर कमाने वाली इस कंपनी की कमाई 2015 तक 15.5 करोड़ डॉलर हो गई। सॉफ्टवेयर काफी महंगा माना जाता है, इसलिए सामान्य संगठन और संस्थान इसे खरीद नहीं पाते। कंपनी के दावों के विपरीत 2016 में पहली बार अरब देशों में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के आईफोन में इसके इस्तेमाल की बात सामने आई। बचाव के लिए एपल ने आईओएस अपडेट कर सुरक्षा खामियां दूर कीं। एक साल बाद एंड्रॉयड में भी पेगासस से जासूसी के मामले बताये जाने लगे। जैसा हमने ऊपर कहा कैलिफोर्निया के मामले में व्हाट्सएप के साथ फेसबुक ,माइक्रोसॉफ्ट और गूगल भी न्यायालय गई थी । उस समय व्हाट्सएप ने भारत में अनेक एक्टिविस्टों और पत्रकारों के फोन में इसके उपयोग की बात कही। अगर पेगासस मोबाइल की जासूसी करता ही नहीं है तो ये कंपनियां उसके खिलाफ न्यायालय क्यों गई ?  

अनेक विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह मोबाइल उपयोगकर्ता के मैसेज पढ़ता है, फोन कॉल ट्रैक करता है, विभिन्न एप और उनमें उपयोग हुई जानकारी चुराता है। लोकेशन डाटा, वीडियो कैमरे का इस्तेमाल व फोन के साथ इस्तेमाल माइक्रोफोन से आवाज रिकॉर्ड करता है। एंटीवायरस बनाने वाली कंपनी कैस्परस्की का बयान है कि पेगासस एसएमएस, ब्राउजिंग हिस्ट्री, कांटैक्ट और ई-मेल तो देखता ही है फोन से स्क्रीनशॉट भी लेता है। यह गलत फोन में इंस्टॉल हो जाए तो खुद को नष्ट करने की क्षमता भी रखता है। विशेषज्ञों के अनुसार इसे स्मार्ट स्पाइवेयर भी कहा गया है क्योंकि यह स्थिति के अनुसार जासूसी के लिए नए तरीके अपनाता है। 

निश्चित रूप से दावे, प्रतिदावे ,खंडन आदि के बीच हमारे आपके जैसे आम व्यक्ति के लिए सच समझना कठिन है, बल्कि असंभव है। भारत सरकार ने अभी तक इस बात का खंडन नहीं किया है कि वह पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग करती है। इसका मतलब है कि पेगासस स्पाइवेयर भारत सरकार के कुछ या सभी एजेंसियों के पास हैं। देश की सुरक्षा ,आतंकवाद आर्थिक अपराध आदि के संदर्भ में जासूसी विश्व में मान्य है और इसमें कोई समस्या नहीं है। यह अलग बात है कि निजी स्वतंत्रता के नाम पर अनेक कानूनी और राजनीतिक लड़ाइयां लड़ी गई। भारत में ही न्यायालयों के कई फैसले आए। किंतु मोटे  इस पर सहमति है कि देश की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए किसी पर नजर रखना ,उसके बारे में जानकारियां जुटाना आदि आवश्यक है। दुर्भाग्य है कि कई बार एजेंसियों के बड़े-बड़े अधिकारी राजनीतिक नेतृत्व के समक्ष सुर्खरू कहलाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ऐसे लोगों को भी दायरे में ले लेते हैं जो राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर सरकार के विरोधी हैं। अगर कंपनी के दावे के विपरीत वाकई मोबाइल पर बातें सुनना, मैसेज पढ़ना, ट्रैक करना, वहां से डाटा निकालना आदि कइस स्पाइवेयर से संभव है तो हुआ होगा। लेकिन अगर इसके द्वारा देश की दृष्टि से काफी संवेदनशील जानकारियां इकट्ठी की गई हैं तो फिर इसको सार्वजनिक करने के लिए दबाव बढ़ाना किसी के हित में नहीं होगा। इसमें ऐसा क्या रास्ता हो सकता है जिससे कम से कम भारत में जो तूफान खड़ा हुआ है वह शांत हो तथा अपनी जासूसी किए जाने की जानकारी पर क्षुब्ध लोग संतुष्ट हो सकें? इस पर विचार करना चाहिए। साथ ही फोरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल के चरित्र और आचरण को भी ध्यान रखना होगा। अवधेश कुमार, ई-30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स ,दिल्ली-110092, मोबाइल 9821027208



शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति का विरोध औचित्यहीन

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश की नई जनसंख्या नीति पर कई हलकों से आ रही नकारात्मक प्रतिक्रियाएं दुखद अवश्य हैं परअनपेक्षित नहीं। भारत में जनसंख्या नियंत्रण और इससे संबंधित नीति पर जब भी बहस होती है तस्वीर ऐसी ही उभरती है। हालांकि सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री का बयान दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। वे कह रहे हैं कि पहले नेता, मंत्री और विधायक बताएं कि उनके कितने बच्चे हैं और उनमें कितने अवैध हैं। इस तरह की उदंड प्रतिक्रियाओं की ऐसे वरिष्ठ नेता से उम्मीद नहीं की जा सकती। सपा सांसद सफीकुर्रहमान बर्क यदि कह रहे हैं कि कोई कानून बना लीजिए बच्चे पैदा होने हैं वे होंगे, अल्लाह ने जितनी रूहें पैदा कीं हैं वे सब धरती पर आएंगे तो किसी को हैरत नहीं होगी। बर्क ऐसे ही मजहबी और सांप्रदायिक बयानों के लिए जाने जाते हैं। किंतु खुर्शीद कांग्रेस के सेकुलर सभ्य शालीन चेहरा है। लंबे समय से देश में सोचने समझने वालों का बड़ा तबका आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए किसी न किसी तरह की नीति लागू करने की आवाज उठाता रहा है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से दिए जाने वाले भाषण के लिए आम लोगों से सुझाव मांगे तो उसमें सबसे ज्यादा संख्या में जनसंख्या नियंत्रण कानून का सुझाव आया था। तो इसके पक्ष में व्यापक जन भावना है और अर्थशास्त्रियों समाजशास्त्रीय द्वारा लगातार बढ़ती आबादी पर चिंता प्रकट की गई है। प्रश्न है कि जनसंख्या नियंत्रण नीति में ऐसा क्या है जिसके विरूध्द तीखी प्रतिक्रिया होनी चाहिए? क्या वाकई यह एक मजहब यानी मुसलमानों के खिलाफ है जैसा आरोप लगाया जा रहा है?

उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने जब जनसंख्या नियंत्रण नीति का दस्तावेज जारी किया था तभी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से दोष निकालने वालों ने एक-एक शब्द छान मारा। उसमें किसी तरह के मजहब का कोई जिक्र नहीं था और योगी आदित्यनाथ द्वारा जार नीति वही है। इसमें दो से ज्यादा बच्चा पैदा करने पर सरकारी नौकरियों में आवेदन करने का निषेध या सरकारी सुविधाओं से वंचित करने या फिर राशन कार्ड में चार से अधिक नाम नहीं होने का बिंदु सभी मजहबों पर समान रूप से लागू होगा। इसमें कहीं नहीं लिखा है कि केवल मुसलमानों पर लागू होगा। आबादी मान्य सीमा से न बढ़े, उम्र, लिंग और मजहब के स्तर पर संतुलन कायम रहे यह जिम्मेवारी भारत के हर नागरिक की है। विरोध का तार्किक आधार हो तो विचार किया जा सकता है। लेकिन इसे मुसलमानों को लक्षित नीति कहना निराधार है। नीति में वर्ष 2026 तक जन्मदर को प्रति हजार आबादी पर 2.1 तथा वर्ष 2030 तक 1.9 लाने का लक्ष्य रखा गया है। क्या यह एक मजहब से पूरा हो जाएगा? जनसंख्या नियंत्रण के लिए हतोत्साहन और प्रोत्साहन दोनों प्रकार की नीतियां या कानून की मांग की जाती रही है। इसमें दो से अधिक बच्चों को कई सुविधाओं और लाभों से वंचित किया गया है तो उसकी सीमा में रहने वाले, दो से कम बच्चा पैदा करने वाले या दो बच्चा के साथ नसबंदी कराने वालों के लिए कई प्रकार के लाभ और सुविधाओं की बातें हैं। अपनी आबादी के जीवन गुणवत्ता तथा क्षमता विकास किसी सरकार का उद्देश्य होना चाहिए। इसमें बच्चों और किशोरों के सुंदर स्वास्थ्य उनके शिक्षा के लिए भी कदम हैं। मसलन 11 से 19 वर्ष के किशोरों के पोषण, शिक्षा व स्वास्थ्य के बेहतर प्रबंधन के अलावा, बुजुर्गों की देखभाल के लिए व्यापक व्यवस्था भी की जाएगी। नई नीति में आबादी स्थिरीकरण के लिए स्कूलों में हेल्थ क्लब बनाये जाने का प्रस्ताव भी है। साथ ही डिजिटल हेल्थ मिशन की भावनाओं के अनुरूप प्रदेश में अब नवजातों, किशोरों व बुजुर्गों की डिजिटल ट्रैकिंग भी कराने की योजना है। जनसंख्या नियंत्रण केवल कानून का नहीं सामाजिक जागरूकता का भी विषय है और इस पहलू पर फोकस किया गया है। मुख्यमंत्री ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि सामाजिक जागरूकता के लगातार अभियान चलाए जाएंगे और इसकी शुरुआत भी कर दी।

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से लगातार ज्यादा रहा है। वर्ष 2001-2011 के दौरान प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर 20.23ः रही, जो राष्ट्रीय औसत वृद्धि दर17.7ः से अधिक है। इसे अगर राष्ट्रीय औसत के आसपास लाना है तो किसी न किसी प्रकार के कानून की आवश्यकता है। यह कानून इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। हालांकि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति जनसंख्या बढ़ाने की है। एक बच्चा कानून कठोरता से लागू करने वाले चीन को तीन बच्चे पैदा करने की छूट देनी पड़ी है क्योंकि इस कारण वहां आबादी में युवाओं की संख्या घटी है जबकि बुजुर्गों की बढ़ रही है। अनेक विकसित देश इसी असंतुलन के भयानक शिकार हो गए हैं। युवाओं की संख्या घटने का अर्थ काम करने वाले हाथों का कम होना है, जिसका देश की आर्थिक- सामाजिक प्रगति पर विपरीत असर पड़ता है। दूसरी ओर बुजुर्गों की बढ़ती आबादी का मतलब देश पर बोझ बढ़ना है। इसलिए अनेक देश ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहनों की घोषणा कर रहे हैं। भारत में भी इस पहलू का विचार अवश्य किया जाना चाहिए। हम अगर भविष्य की आर्थिक महाशक्ति माने जा रहे हैं तो इसका एक बड़ा कारण हमारे यहां युवाओं की अत्यधिक संख्या यानी काम के हाथ ज्यादा होना है। जनसंख्या नियंत्रण की सख्ती से इस पर असर पड़ेगा और भारत की विकास छलांग पर ग्रहण लग सकता है। किंतु यह भी सही है कि तत्काल कुछ समय के लिए जनसंख्या वृद्धि कम करने का लक्ष्य पाया जाए और उसके बाद भविष्य में ढील दी जाए। चीन ने कहा भी है कि एक बच्चे की नीति से उसने 46 करोड़ बच्चे का जन्म रोकने में सफलता पाई।

यह सच है कि भारत में हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध की आबादी वृद्धि दर लगातार नीचे आई है तो मुसलमानों की और कहीं-कहीं ईसाइयों की वृद्धि दर बढी है। इसमें यह सलाह भी दी जाती रही है कि चूंकी भारत में जनसंख्या नियंत्रण की कठोर नीति लागू करना संभव नहीं, इसलिए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इन्हें तीन बच्चे पैदा करने की प्रेरणा देने के लिए अभियान चलाने की भी सलाह दी जाती रही है। उत्तर प्रदेश में भी हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों की आबादी विस्तार की गति 2011 की जनगणना के 10 साल में घटी तो मुस्लिमों व ईसाइयों की बढ़ी। वर्ष 2001-11 के 10 साल में हिंदुओं की आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार 0.88 प्रतिशत घटी। 2001 की जनगणना में प्रदेश में 80.61 प्रतिशत हिंदू थे, जबकि 2011 की जनगणना में इनकी संख्या 79.73 प्रतिशत रह गई। इसी तरह सिखों व बौद्धों की आबादी .08-08 प्रतिशत तथा जैनियों की आबादी में .25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इसके विपरीत मुस्लिमों की आबादी 0.77 प्रतिशत बढ़ी। वर्ष 2001 की जनगणना में मुस्लिम आबादी 18.49 प्रतिशत थी जो 2011 में 19.26 प्रतिशत हो गई। दस साल पहले जहां ईसाई कुल जनसंख्या के 0.12 प्रतिशत थे वे 0.17 प्रतिशत हो गए। हम चाहे जो भी तर्क दें गैर मुस्लिमों में उनकी आबादी वृद्धि को लेकर व्यापक चिंता है। जिस देश का मुस्लिम मजहब के आधार पर विभाजन हो चुका है वहां इस तरह का भय आधारहीन नहीं माना जा सकता। कुछ कट्टर मजहबी व राजनीतिक नेता आबादी वृद्धि को संसदीय लोकतंत्र में अपनी ताकत का आधार बनाकर उकसाते हैं। शफीकुर्रहमान अकेले नहीं हैं। इनकी आपत्ति का संज्ञान लेना आत्मघाती होगा। ये अपने समाज के ही दुश्मन हैं। वस्तुतः इसका विरोध करने, इस पर प्रश्न उठाने की जगह इसकी आम स्वीकृति का अभियान चलाना हर मजहब के प्रमुख लोगों का दायित्व है। सच कहें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने साहसी फैसला किया है। इसका समर्थन किया जाना चाहिए ताकि दूसरे राज्य भी प्रेरित होकर आगे आएं। हालांकि आबादी में उम्र संतुलन के प्रति लगातार सतर्क रहना होगा ताकि युवाओं की आबादी और उद्यमों हाथों में विश्व के नंबर एक का स्थान हमसे न छीन जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

चुनाव परिणाम के संदेश स्पष्ट हैं

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश जिला पंचायत चुनाव परिणामों ने उन सबको चौंकाया है जो पिछले ग्राम पंचायत चुनाव के आधार पर मान चुके थे कि भाजपा के लिए अत्यन्त कठिन राजनीतिक चुनौती की स्थिति पैदा हो चुकी है। कुल 75 में से 67 स्थानों पर भाजपा के अध्यक्षों का निर्वाचन निश्चित रूप से कई संकेत देने वाला है। चूंकी इस समय प्रदेश में समस्त राजनीतिक कवायद, बयानबाजी, विश्लेषण  आदि अगले वर्ष आरंभ में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से सामने आ रहे हैं इसलिए कई बार हमारे सामने भी जमीनी सच्चाई नहीं आ पाती। ठीक है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को हम विधानसभा चुनाव का ट्रेलर नहीं मान सकते। लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति के कई पहलुओं की झलक अवश्य मिलती है। वैसे ग्राम पंचायतों के चुनाव को भी हम आगामी चुनाव का पूर्व दर्शन नहीं मान सकते थे लेकिन उस समय के बयानों और विश्लेषणों को देख लीजिए। बहरहाल, पंचायत चुनावों के राजनीतिक पहलुओं को समझने के पहले यह ध्यान रखना जरूरी है बसपा इन चुनावों से अपने को दूर रखती है और कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं है नहीं। जाहिर है ,मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था। तो इस समय हमारे सामने इन दो पार्टियों की  ही तस्वीर है।

तो सबसे पहले सपा। सपा ने पूरे चुनाव पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। उसने पुलिस, प्रशासन व चुनाव अधिकारियों पर धांधली के आरोप लगाए हैं तथा इनके विरुद्ध का आयोग में लिखित शिकायत भी की है। अखिलेश यादव अपने बयान में इसे लोकतंत्र का ही अपहरण बता रहे हैं। हम आप इसे जिस तरह लें लेकिन न कोई निष्पक्ष विश्लेषक इसे न स्वीकार करेगा और न आम जनता के गले ही उतरेगा कि अधिकारियों ने धांधली करके भाजपा उम्मीदवारों को जीता दिया है। हम पिछले लंबे समय से भारतीय राजनीति का यह हास्यास्पद दृश्य देख रहे हैं कि जब भाजपा के पक्ष में परिणाम आता है तो विपक्ष ईवीएम का सवाल जरूर उठाता है। इसके विपरीत जहां विपक्ष की विजय होती है वहां ईवीएम पर कोई प्रश्न नहीं उठता यानी वह बिल्कुल सही काम कर रहा होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारी राजनीति में जमीनी वास्तविकता से कटने के कारण शीर्ष स्तर से लेकर नीचे के नेताओं को पता ही नहीं रहता कि आखिर जन समर्थन की दिशा क्या है। चूंकी राजनीतिक दल अपना जनाधार खोने को स्वीकार न कर दोष भाजपा, चुनाव आयोग , ईवीएम के सिर डालते हैं इसलिए वे ईमानदार विश्लेषण नहीं कर पाते और जब विश्लेषण ही नहीं होगा तो फिर जनाधार दुरुस्त करने के कदम भी नहीं उठाए जाते।

वास्तव में इस परिणाम के बाद अखिलेश यादव के साथ सपा के शीर्ष नेताओं को जिले से प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर आपस में बैठकर विश्लेषण करना चाहिए था। इससे उनको वस्तुस्थिति का आभास हो जाता। अभी विधानसभा चुनाव में सात आठ महीने का समय है। इसका उपयोग कर  सांगठनिक और वैचारिक रूप से अपनी पार्टी को चुनाव के लिए बेहतर तरीके से तैयार करने की कोशिश कर सकते थे। जब आप मानेंगे ही नहीं कि समस्या आपकी पार्टी और आपके जनाधार में है तो आपको सच्चाई नहीं  दिख सकती। मीडिया में ऐसे दृश्य सामने आए जब सपा के वरिष्ठ नेता जिला पंचायत चुनाव में अपने ही नेताओं से गिड़गिड़ा रहे थे। क्यों? इसलिए कि वे स्वयं सपा के लिए काम करने को तैयार नहीं थे। कई जगह तो निर्धारित सपा उम्मीदवारों ने नामांकन के समय ही मुंह फेर लिया। अखिलेश यादव को इनके विरुद्ध कार्रवाई तक करनी पड़ी। आखिर यह कैसे संभव हुआ की 21 जिला पंचायतों में भाजपा के अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित हो गए? केवल इटावा में ही सपा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो सके। अगर सपा के उम्मीदवार सामने खड़े हो जाते तो कम से कम निर्विरोध निर्वाचन नहीं होता। जब आपकी पार्टी की ही आंतरिक दशा ऐसी है तो कैसे मान लिया जाए कि धांधली से सपा की पराजय हो गई है? अगर सपा सच्चाई को स्वीकार कर नए सिरे से चुनाव के लिए पार्टी एवं जनता के स्तर पर कमर कसने का अभियान नहीं चलाती तो उसके चुनावी भविष्य को लेकर सकारात्मक भविष्यवाणी करनी कठिन होगी।

निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह परिणाम आत्मविश्वास बढाने वाला है। खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर प्रदेश में पार्टी के अंदर या बाहर जो नकारात्मक धारणा निर्मित हुई या कराई गई थी उस पर जबरदस्त चोट पड़ा है। वैसे तो केंद्र ने पहले ही साफ कर दिया था कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ा जाएगा। बावजूद सत्य से निराभासी लोगों द्वारा कुछ किंतु परंतु लगाया जा रहा था। इस चुनाव परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस भाषा में विजय की बधाई दी है उसने इस पर स्थाई विराम लगा दिया है। उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ इसे योगी के नेतृत्व की विजय करार दिया है। अगर चुनाव में इतना शानदार प्रदर्शन नहीं होता तो योगी का नेतृत्व भले कायम रहता, न केंद्रीय नेतृत्व इस तरह बधाई देता न उनका स्वयं का आत्मविश्वास बढ़ता और न कार्यकर्ताओं में उत्साह पैदा होता। तो जिला पंचायत चुनाव को भले हम आप विधानसभा चुनाव की पूर्वपीठिका नहीं माने लेकिन आत्मविश्वास का यह माहौल योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा को पूरे उत्साह से विधानसभा चुनाव में काम करने को प्रेरित करेगा। किसी भी संघर्ष में चाहे वह चुनावी हो या फिर युद्ध का मैदान आत्मविश्वास और उत्साह की परिणाम निर्धारित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्थिति भविष्य की दृष्टि से भाजपा के पक्ष में जाता है और स्वभाविक ही विपक्ष के विरुद्ध।

यहां से अगर कुछ अप्रत्याशित नकारात्मक स्थिति पैदा नहीं हुई तो हम चुनाव तक भाजपा को गतिशील और आक्रामक तेवर में देख सकते हैं जो उसकी स्वाभाविकता है। पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद यह गुम दिख रहा था। भाजपा की दृष्टि से इस समय उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य देखिए।  योगी के नेतृत्व में प्रदेश पार्टी ईकाई को एकजुट किया जा चुका है, केन्द्रीय नेतृत्व काफी पहले से चुनाव की दृष्टि से सक्रिय है,नेताओं के अलावा पूरे प्रदेश के जिम्मेवार कार्यकर्ताओं से संपर्क-संवाद का एक चरण पूरा हो गया है, विधायकों के प्रदर्शन तथा जनाधार का सर्वेक्षण आधारित अध्ययन भी आ चुका है। विपक्ष इस मामले में काफी पीछे है। विपक्ष के बीच जब एकजुटता नहीं होती तथा वे अपने चुनावी भविष्य को लेकर अनिश्चय में होते हैं तो इसका लाभ सामान्य सत्तारूढ़ पार्टी को मिलता है। उत्तर प्रदेश में अभी सपा, बसपा और कांग्रेस के बयानों को देखें। वे भाजपा के साथ स्वयं भी एक दूसरे को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। जिला पंचायत चुनाव के बाद समय को भांपते हुए जिस तरह का संयम ,धैर्य और बुद्धि चातुर्य का इन्हें परिचय देना चाहिए इनका आचरण उसके विपरीत है। बसपा कह रही है कि कांग्रेस ,भाजपा और सपा के शासन में कभी निष्पक्ष चुनाव हो ही नहीं सकता जबकि बसपा के काल में होता है। कांग्रेस कह रही है कि बसपा भाजपा की बी टीम है। जवाब में बसपा कह रही है कि कांग्रेस के सी का मतलब कनिंग है। 2014 से 2019 तक के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा शीर्षतम बिंदु पर है और शेष दल इतने नीचे हैं कि सामान्य अवस्था में उनके वहां तक पहुंचने की कल्पना नहीं हो सकती । पिछले तीन दशकों में कोई भी पार्टी चुनाव परिणामों में भाजपा की तरह सशक्त होकर नहीं बढ़ी। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों ने यही संदेश दिया है कि कम से कम अभी उसके बड़े पराभव के दौर की शुरुआत नहीं हुई है। विपक्षी दलों ने इन सात वर्षों में वैचारिकता, संगठन और राजनीतिक संघर्ष व अभियानों के स्तर पर संदेश तक नहीं दिया कि वे प्रदेश की राजनीति में भाजपा के वर्चस्व को तसशक्त चुनौती देने से संकल्पित भी हैं। चुनाव के पूर्व कुछ दलों से गठबंधन, जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को साधने आदि नुस्खे विफल साबित हो रहे हैं। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों के बाद भी विपक्ष की ओर से किसी तरह की राजनीतिक प्रखरता और ओजस्विता नहीं प्रदर्शित हो रही, मिलजुल कर मुकाबला करने का संकेत तक नहीं मिल रहा। इसमें यह मान लेना कठिन है कि जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव परिणाम विधानसभा तक विस्तारित नहीं होगा। हां अगर इस चुनाव परिणाम से चौकन्ना होकर सपा,  बसपा जैसी पार्टियां कमर कसकर अभी से प्रखर राजनीतिक अभियान चलाने,मुद्दों पर संघर्ष करने का माद्दा दिखाती तो हल्की उम्मीद पैदा हो सकती थी। जब ऐसा है ही नहीं तो फिर इनके पक्ष में परिणाम आने की कल्पना इस समय नहीं की जा सकती।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली:110092, मोबाइल: 9811027208

रविवार, 4 जुलाई 2021

शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए ने किया डॉक्टरों को कोरोना योद्धा गौरव सम्मान से सम्मानित

मो. रियाज़

नई दिल्ली। कोरोना वायरस के वैश्विक संकट-काल में समाज और देश को बचाने के लिए पूरी ईमानदारी से डाक्टर व उनके सहयोगी लगे रहे। इसी सेवा-निष्ठा के लिए शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए (रजि.) ने डॉक्टरों के साथ-साथ दिल्ली सिविल डिफेंस के वॉलिंटियर्स को कोरोना योद्धाओं को गौरव सम्मान देकर सम्मानित किया।

अभी कुछ दिन पहले भी शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए (रजि.) ने कोरोना काल मे समर्पित स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिसकर्मियों, सफाईकर्मियों, दिल्ली सिविल डिफेंस के वालंटियर्स, बिजली विभाग के कर्मचारियों, समाजसेवियों आदि को उनकी सेवा-निष्ठा के लिए कोरोना योद्धा गौरव सम्मान देकर सम्मानित किया था।

अब तक शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए (रजि.) ने कोरोना महामारी के दौरान अलग-अलग क्षेत्र में अपनी सेवा दे रहे 400 से अधिक कोरोना योद्धाओं को गौरव सम्मान पत्र देकर सम्मानित कर चुकी। आज भी अपने कार्यालय पर शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष संजीव जैन, आरडब्ल्यूए सदस्य मुमताज, विनोद झा, प्रदीप जैन, समाजसेवी जफर हुसैन आदि ने 100 से अधिक डॉक्टरों व दिल्ली सिविल डिफेंस के कोरोना योद्धाओं को गौरव सम्मान पत्र देकर सम्मानित किया। 

विदित हो दिल्ली ने कोरोना के खिलाफ अपनी सबसे मुश्किल जंग कोरोना योद्धाओं के मजबूत इरादे की वजह से ही लड़ी है। दिल्ली के हीरों ने अपने परिवारों की चिंता ना करते हुए दिन-रात बस दिल्ली को सुरक्षित बनाने में जुटे हुए हैं। लेकिन कोरोना वायरस महामारी के संकटकाल में कोरोना योद्धाओं को भी कोरोना के संक्रमण का शिकार होना पड़ा फिर भी इन कोरोना योद्धाओं के हौसलों को पस्त नहीं कर पाया। अपने योद्धाओं का जोश, जुनून और लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के समर्पण का तहे दिल से शुक्रिया और सम्मान देने के लिए ही शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए (रजि.) ने कोरोना योद्धाओं को गौरव सम्मान पत्र देने की शुरुआत की।

इस मौके पर शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष संजीव जैन ने कहा कि हमने तो सिर्फ एक शुरुआत की है ताकि कोरोना योद्धाओं को एक छोटा सा सम्मान दे सकें जिससे यह योद्धा इस कोरोना महामारी की लड़ाई में अपने आप को अकेला न महसूस करें। यह सम्मान उन्हें नई ऊर्जा देगा।

उन्होंने कहा कि हमारी आरडब्ल्यूए आगे भी ऐसे कोरोना योद्धाओं को सम्मानित करती रहेगी जिन्होंने इस वैश्विक संकट-काल में समाज और देश को बचाने के लिए अपने जीवन की भी परवाह नहीं की और लोगों की सेवा की और अब भी कर रहे हैं। हमें जैसे-जैसे कोरोना वायरस महामारी के संकटकाल में सेवा करने वाले कोरोना योद्धाओं का पता चल रहा है। वैसे-वैसे हम उन्हें गौरव सम्मान पत्र देकर सम्मानित कर रहे हैं जिससे उनके हौंसलों में कोई कमी न आ सके।

दिल्ली सिविल डिफेंस के वालिंटियर पवन कुमार ने कहा कि यह सम्मान हम जैसे सिविल डिफेंस के वालिंटियरों को एक नई ऊर्जा देगा और हम और अच्छा करने की कोशिश करेंगे। यह कुछ लोगों के लिए कागज का एक टुकड़ा हो सकता है पर यह हमारे लिए एक बहुत बड़ा सम्मान है। मैं शास्त्री पार्क आरडब्ल्यूए का धन्यवाद करता हूं जिन्होंने मुझे यह सम्मान देकर एक नई ऊर्जा दी है।


 

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

शीर्ष न्यायालय के फैसले से तस्वीर स्पष्ट होगी

अवधेश कुमार

पिछले वर्ष हुए दिल्ली दंगों के तीन आरोपियों देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत और इसके लिए की गई टिप्पणियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिये स्वीकार करना महत्वपूर्ण है। हालांकि शीर्ष न्यायालय ने उनके जमानत को रद्द नहीं किया लेकिन सुनवाई के लिए मामले को स्वीकार करने के संकेत के मायने हैं।  ध्यान रखिए कि तत्काल कोई फैसला या अंतिम मंतव्य न देते हुए भी शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालय के फैसले को देश के किसी भी न्यायालय में नजीर न माना जाए। पूरा मामला गैर कानूनी रोकथाम कानून यानी यूएपीए से जुड़ा है और उच्च न्यायालय ने इस पर भी टिप्पणियां की है। शीर्ष न्यायालय द्वारा ऐसा कहने के बाद अब इस कानून के तहत बंद आरोपियों के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को उद्धृत नहीं किया जाएगा। कभी कोई पक्षकार अवइसका हवाला नहीं दे सकेगा। 15

जून को तीनों आरोपियों को जमानत देने के फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यूएपीए, नागरिकता संशोधन कानून, विरोध प्रदर्शन पर पुलिस प्रशासन के रुख पर काफी तीखी टिप्पणियां की थी। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि सरकार विरोध प्रदर्शन दबाने की चिंता में प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों में फर्क नहीं कर पा रही है। इससे विरोध प्रदर्शन और आतंकवादी गतिविधियों की रेखा धुंधली हो रही है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि हिंसा नियंत्रित हो गई थी और इस मामले में यूपीए लागू ही नहीं होगा।

वास्तव में दिल्ली दंगे और यूएपीए को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय की यह असाधारण प्रतिक्रिया है। दिल्ली पुलिस की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यह मामला महत्वपूर्ण है और इसके देशव्यापी परिणाम हो सकते हैं। जिस तरह कानून की व्याख्या की गई है संभवत: उस पर शीर्ष न्यायालय की व्याख्या की जरूरत होगी। शीर्ष न्यायालय ने यह भी कहा है कि नोटिस जारी किया जा रहा है और दूसरे पक्ष को भी सुना जाएगा। यह स्वाभाविक है, क्योंकि न्यायालय कभी भी एक पक्ष को सुनकर कोई फैसला नहीं दे सकता। इसलिए शीर्ष न्यायालय द्वारा तीनों आरोपियों को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगना न्यायिक प्रक्रिया का स्वाभाविक अंग है। तो जुलाई के तीसरे सप्ताह में होने वाली सुनवाई पर पूरे देश की नजर होगी।

वास्तव में अगर जमानत पर दिए गए उच्च न्यायालय के फैसले को पढें तो ऐसा लगता है जैसे उसने  यूएपीए कानून के तहत विहित प्रक्रिया को काफी हद तक पलटि है। जमानत के लिये दायर याचिका में आरोपियों पर लगे आरोपों पर बात करने के साथ उसने संपूर्ण कानून पर टिप्पणी कर दी है। जिस तरह की टिप्पणियां है उससे लगता है जैसे न्यायालय तीनों आरोपियों को भी दोषी नहीं मानती। जैसा हम जानते हैं शाहीनबाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक मुख्य मार्ग को घेर कर दिए गए धरने का दिल्ली में विस्तार करने के लिए प्रकट आक्रामकता फरवरी में दंगों में परिणत हो गया। इसमें 53 लोग मारे गए जिसमें पुलिसकर्मी भी थे और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए। यह हिंसा उस समय हुई थी जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आए थे। साफ है कि हिंसा के पीछे सुनियोजित साजिश थी ताकि नागरिकता संशोधन कानून के आधार पर सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा सुननी पड़े। आरोपी वास्तविक दोषी हैं या नहीं इस पर अंतिम फैसला न्यायालय करेगा। नागरिकता संशोधन कानून को हालांकि देश के बहुमत का समर्थन प्राप्त था और है लेकिन एक वर्ग उसका विरोधी भी था और आज भी है। किसी लोकतांत्रिक समाज का यह स्वाभाविक लक्षण है। किंतु इसका अभिप्राय नहीं कि हम किसी कानून का विरोध करते हैं तो हमें सड़क घेरने, आगजनी करने, निजी-सार्वजनिक संपत्तियों को किसी तरह का नुकसान पहुंचाने, पुलिस पर हमला करने और इसके लिए अलग-अलग तरीकों से लोगों को भड़काने का भी अधिकार मिल जाता है। यह सब भयानक अपराध के दायरे में आते हैं। दंगों के दौरान लोगों ने देखा कि किस तरह योजनाबद्ध तरीके से कई प्रकार के बम बनाए गए थे, अवैध हथियारों का उपयोग हुआ था, सरकारी निजी संपत्ति संपत्तियां जलाई गई थीं, निर्मम तरीके से हत्यायें हुईं थीं। जाहिर है, इसके साजिशकर्ताओं को कानून के कटघरे में खड़ा कर उनको सजा दिलवाना पुलिस का दायित्व है।

उच्च न्यायालय के सामने नागरिकता संशोधन कानून की व्याख्या का प्रश्न नहीं था। बावजूद उसने लिखा है कि प्रदर्शन के पीछे यह विश्वास था कि नागरिकता संशोधन कानून एक समुदाय के खिलाफ है। जब भी कोई व्यक्ति या समूह आतंकवादी हमला करता है या कोई बड़े नेता की हत्या करता है तो उसका तर्क इसी तरह का होता है कि उन्होंने एक समुदाय, एक समाज, एक व्यक्ति के साथ नाइंसाफी की। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के हत्यारों का तर्क भी तो यही था।  न्यायालय पता नहीं क्यों इस मूल बात पर विचार नहीं कर पाया कि प्रदर्शन के अधिकार में  सड़कों को घेरने, पुलिस से मुठभेड़ करने, हिंसा द्वारा मेट्रो रोकने से लेकर लोगों को मारने और बम फेंकने का अधिकार शामिल नहीं होता। यह तर्क भी आसानी से गले नहीं उतरता कि अगर हिंसा नियंत्रित हो गई तो यूएपीए लागू ही नहीं होगा। अगर हिंसा की साजिश बड़ी हो और उसे पुलिस और खुफिया एजेंसियां विफल कर दें तो क्या उनके साजिशकर्ताओं पर कानून लागू नहीं होता? व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह ने विस्फोट के लिए जगह-जगह बम लगा दिए और पुलिस ने उसे पकड़कर निष्क्रिय कर दिया तो क्या इससे अपराध की तीव्रता कम हो जाएगी?

निश्चय ही उच्चतम न्यायालय का अंतिम फैसला आने के पूर्व हम कोई निष्कर्ष नहीं दे सकते। न्यायिक मामलों में पूर्व आकलन की गुंजाइश नहीं होती। बावजूद कुछ संकेत मिलता है। वस्तुतः उच्च न्यायालय का भी अपना सम्मान है। उच्चतम न्यायालय उसके फैसले पर नकारात्मक टिप्पणी करने या माननीय न्यायाधीशों के बारे में ऐसी कोई टिप्पणी करने से प्रायः बचता है जिससे   उनके सम्मान को किसी तरह धक्का पहुंचे। हमने देखा है कि उच्च न्यायालय के फैसलों को रद्द करते हुए भी उच्चतम न्यायालय ज्यादातर मामलों में केवल मुकदमे के गुण-दोष तक ही अपनी टिप्पणियां सीमित रखता है। यही इस मामले में भी दिख रहा है। शाहीनबाग धरने को लेकर उस समय भी उच्चतम न्यायालय ने तीखी टिप्पणियां की थी। न्यायालय ने सड़क घेरना, आवाजाही को बंद करना आदि को अपराध करार दिया था। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया जिनमें आंदोलनकारियों के धरना प्रदर्शन के अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि कानून और संविधान की सीमाओं के तहत ऐसा किया जाए तथा सड़कों पर चलने वालों या उनके आसपास के दुकानदारों के अधिकार का भी ध्यान रखा जाए। न्यायालय ने यहां तक कहा है कि अगर वे सड़कों, गलियों या ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करते हैं तो पुलिस को उसे खाली कराने का अधिकार हासिल हो जाता है। उच्च न्यायालय ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है। निश्चित रूप से आगे की सुनवाई में यह विषय भी सामने आएगा। सांप्रदायिक और कुत्सित वैचारिक सोच के आधार पर सुनियोजित हिंसा, आतंकवाद आदि भारत नहीं संपूर्ण विश्व की समस्या है। ऐसे मामलों के आरोपियों पर विचार करते समय न्यायालय सामान्यतः अतीत, वर्तमान और भविष्य के संपूर्ण  परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखता रहा है। पिछले दो दशकों में हुई ऐसी हिंसा के मामलों में आए फैसलों और टिप्पणियां इसके प्रमाण हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा  अंतिम मंतव्य देने से स्थिति स्पष्ट हो जाएगी तथा सांप्रदायिकता हिंसा, आतंकवाद आदि फैलाने के साजिशकर्ताओं से कानूनी स्तर पर मुकाबला करने वाली एजेंसियों के सामने भी स्पष्ट तस्वीर होगी।

अवधेश कुमार, ई:30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली :110092, मोबाइल :9811027208

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