शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

हंगर इंडेक्स त्रुटिपूर्ण

अवधेश कुमार

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) रिपोर्ट स्वीकार कर लें तो मानना पड़ेगा एक देश के नाते हम स्वयं को भले भविष्य की महाशक्ति घोषित करें पोषण के मामले में हमारी स्थिति उन देशों से भी खराब है जिनकी संसार में कोई हैसियत नहीं। इस रिपोर्ट में भारत को कुल 121 देशों में 107वें क्रम पर रखा गया है। लेकिन क्या यह रिपोर्ट वास्तविकता को दर्शाने वाली है? ध्यान रखिए भारत को उत्तर कोरिया, इथियोपिया, सूडान, रवांडा, नाइजीरिया और कॉन्गो जैसे देशों से भी पीछे रखा गया है। आप नरेंद्र मोदी सरकार या राज्यों की भाजपा सरकारों के चाहे जितने बड़े आलोचक हो क्या इसे स्वीकार कर लेंगे कि हमारा देश इन देशों से भूख सूचकांक के मामलों में पीछे हैं? निश्चित रूप से इस रिपोर्ट से भारत की छवि धूमिल हुई है। हमारे देश की समस्या है कि गहराई से तथ्यों और आंकड़ों के छानबीन की जगह आनन-फानन में राजनीतिक सोच के अनुसार प्रतिक्रियाएं दे दी जाती है। अगर आप पूरी रिपोर्ट को ठीक से पढ़ें और उसमें देखें कि इनके आंकड़ों का स्रोत क्या है ,इन्होंने गणना कैसे की है और देशों का क्रम कैसे निर्धारित हुआ है तो आप इस रिपोर्ट को अस्वीकार करने के लिए सहज ही तैयार हो जाएंगे।

जीएचआई रिपोर्ट दो एनजीओ आयरलैंड की कन्सर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी की वेल्थुंगरहिल्फे मिलकर तैयार करते हैं । यह तो नहीं कह सकते कि ये दोनों अप्रामाणिक हैं और इनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। किंतु इसके पहले इनके कई कार्यों पर प्रश्न खड़े हुए हैं। इन्होंने जानबूझकर भारत को नीचा दिखाने के लिए ऐसा किया है या नहीं इस पर निश्चित रूप से दो राय हो सकती है। 60 पृष्ठों के पीडीएफ दस्तावेज की तस्वीरें, रंग आदि इतने आकर्षक हैं कि कोई भी इस पर मुग्ध हो जाए। किंतु क्या इतनी ही आकर्षक इसकी रिपोर्ट के तथ्य और रैंकिंग भी हैं? इस सूचकांक को बनाने के लिए इन्होंने 3 डायमेंशन के 4 पैमानों को आधार बनाया है । अंडरनरिशमेंट यानी एक स्वस्थ व्यक्ति को दिनभर के लिए जरूरी कैलोरी नहीं मिलना। इसे हम कुपोषितों की संख्या कह सकते हैं। बाल मृत्यु दर यानी एक हजार जन्म पर 5 वर्ष की उम्र के भीतर मृत्यु के को प्राप्त होने वाले बच्चों की संख्या। चाइल्ड अंडरन्यूट्रिशन यानी पांच वर्ष के ऐसे बच्चे जिन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिलता। चाइल्ड अंडरन्यूट्रिशन में दो श्रेणी हैं- चाइल्ड वेस्टिंग और चाइल्ड स्टंटिंग। चाइल्ड वेस्टिंग यानी 5 वर्ष के बच्चे का अपनी उम्र और कद के हिसाब से बहुत दुबला या कमजोर होना। दर्शाता है कि उन बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिला इस वजह से वे कमजोर हो गए। चाइल्ड स्टंटिंग का मतलब ऐसे बच्चे जिनका कद उनकी उम्र के लिहाज से कम हो। कद का संबंध पोषण से माना गया है। इन तीनों आयामों को बराबर अंश के अनुसार 100 पॉइंट का स्टैंडर्ड स्कोर दिया जाता है।  स्कोर स्केल पर 0 सबसे अच्छा स्कोर होता है और 100 सबसे खराब। भारत का स्कोर 29.1 है। इसे गंभीर स्थिति कहा गया है। पाकिस्तान का स्कोर 26.1 है और वह भी 'गंभीर' स्थिति में है। बांग्लादेश का स्कोर 19.6, नेपाल का 19.1 और श्रीलंका का 13.6 है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत की 16.3% आबादी अत्याधिक कुपोषित है। 19.3% से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं, जिनका वजन उनके कद के हिसाब से कम है। 35.5% बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से काम कद के हैं।

इनके चार मानकों में से तीन तो बच्चों से जुड़े हुए हैं। तो इसे संपूर्ण आबादी के संदर्भ की रिपोर्ट कैसे मान लिया जाए? इनमें भी जिसे चाइल्ड स्टंटिंग रेट कहां गया है उसका आधार आसानी से गले नहीं उतरता । स्टंटिंग क्या है? जैसा ऊपर बताया गया पांच साल के किसी बच्चे के लिए निर्धारित ऊंचाई से दो स्टैंडर्ड-डेविएशन पॉइंट कम वाले बच्चों का प्रतिशत। वहीं चाइल्ड वेस्टिंग रेट यानी पांच साल के किसी बच्चे के लिए निर्धारित वजन से दो स्टैंडर्ड-डेविएशन पॉइंट कम वाले बच्चों का प्रतिशत। अब बच्चों के निर्धारित ऊंचाई के मायने क्या है? विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बच्चों की उम्र के अनुसार एक ऊंचाई निर्धारित की है और उसके आधार पर तय कर दिया गया है कि यह बच्चा कुपोषित है या नहीं। यानी बच्चे का कद निर्धारित नहीं है और वजन भी अपर्याप्त है तो यह राष्ट्रीय भूख का द्योतक मान लिया गया है। इसी को आधार बनाकर कहा गया है कि भारत की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। हालांकि इसमें भारत का भी कुछ दोष है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स बनाने के लिए इनने भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-2021 यानी एनएचएस-5 के आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया है। यह सर्वेक्षण रिपोर्ट भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का तैयार किया हुआ है। इसमें छः लाख घरों से नमूने एकत्रित करने की बात है। इसमें ही लिखा है कि भारत के 36% बच्चे स्टंटेड और 19% बच्चे वेस्टेड हैं। जीएचआई पर हम हाय तौबा मचाएं और अपने रिपोर्ट को स्वीकार करें यह कैसा आचरण है? जाहिर है, हमें हमारे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के रिपोर्ट को कटघरे में खड़ा करना चाहिए था। कारण, इसने भी डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित बच्चों के कद के मानक को स्वीकार कर अपनी रिपोर्ट बना दी। डब्ल्यूएचओ एक चार्ट बनाता है जिसमें बताता है कि किस उम्र के बच्चों की कितनी ऊंचाई और वजन होना चाहिए। इसी में वह स्टैंडर्ड-डेविएशन कट-ऑफ के दो पॉइंट भी देता है। उदाहरण के लिए डब्ल्यूएचओ पांच साल के बच्चे का कद 110.3 सेंटीमीटर बताता है। दो स्टैंडर्ड-डेविएशन पॉइंट काटने के बाद यह  101.6 सेंटीमीटर हो जाता है। स्पष्ट है कि इससे किसी बच्चे का कद यदि कम है तो  स्टंटेड माना जाएगा। तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह एक विचित्र मानक है। यह सामान्य समझ की बात है कि ऊंचाई या कद के निर्धारण में भौगोलिक परिस्थितियां, नस्ल, जाति,अनुवांशिकी आदि की प्रमुख भूमिका होती है।

वास्तव में अंतरराष्ट्रीय मानक एकरूप नहीं हो सकता। अलग-अलग क्षेत्रों, नस्लों,जातियों आदि के हिसाब से इनका निर्धारण किया जाना चाहिए। स्वयं भारत के राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण में इसका ध्यान नहीं रखा गया । जीएचआई पर स्वाभाविक प्रश्न उठाने और इसका विरोध करने के साथ भारत को डब्ल्यूएचओ के मानकों को भी नकारना चाहिए। डब्ल्यूएचओ के मानक नए सिरे से निर्धारित हों तो भूख सूचकांक बनाने वालों के लिए भी उसे स्वीकार करने की विवशता हो जाएगी।

इसके अलावा भी कई ऐसी बातें हैं जो इस रिपोर्ट को खारिज करने के योग्य बनाती है। आप पूरी दुनिया के लिए एक दृष्टिकोण अपना लीजिए और उसके अनुसार मन मुताबिक रिपोर्ट बनाकर उसे पेश कर दीजिए तो यह वैश्विक रिपोर्ट नहीं हो सकती। हम नहीं कहते कि भारत के समक्ष स्वास्थ्यकर आहार यानी पोषण की समस्या नहीं है और हमने संतोषजनक अवस्था प्राप्त कर लिया है। पोषण के मामले में भारत को काफी कुछ करना है। किंतु भूखमरी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने के पहले स्वयं को संपूर्ण विश्व के एक-एक कोने के बारे में जानकारी होने का दावा करने वालों को रुक कर सोचने की आवश्यकता है। किसी भी पैमाने यह कहना कि भारत भूखों का देश है गले नहीं उतर सकता। हमारे यहां राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तरों पर गर्भवती महिलाओं से लेकर बच्चा जनने वाली मां , बच्चे आदि के पोषण के लिए कई कार्यक्रम चल रहे हैं। विद्यालयों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था है। इससे संबंधित जितने कार्यक्रम भारत में हैं उतने कम ही देशों में होंगे । पिछले वर्ष यानी 2021 में 116 देशों की रैंकिंग में भारत का नंबर 101वां तथा 2020 में भारत का स्थान 94वें नंबर पर था। कहने का तात्पर्य कि लगातार यह रिपोर्ट भारत को भूखों का देश बताता रहा है।  एशिया में सिर्फ अफगानिस्तान ही है, जो भारत से पीछे है। वह 109वें पायदान पर है।  पाकिस्तान 99वें, बांग्लादेश 84वें और नेपाल 81वें नंबर पर है। आर्थिक संकट से गुजर रहे श्रीलंका को इसमें 64वें नंबर पर रखा गया है। अब अपने आपसे प्रश्न करिए कि क्या वाकई हम इतने गए गुजरे हैं कि इनसे भी पीछे हैं? आपको उत्तर मिल जाएगा। इसलिए यह प्रश्न उठाना ही पड़ेगा कि आखिर कौन लोग हैं जो इस तरह भारत को नीचा दिखाने वाली रिपोर्ट हलाते हैं?

अवधेश कुमार, गणेश नगर पांडव नगर कंपलेक्स कामा दिल्ली 110092 क्रोमा मोबाइल 98110 27208

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

हिजाब मामला: उच्चतम न्यायालय का जल्दी फैसला आना सबके हित में होगा

अवधेश कुमार


 हिजाब मामले पर उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ का खंडित फैसला इसलिए चिंताजनक है क्योंकि ऐसे विवादों का न्यायिक निपटारा जल्दी होना आवश्यक है। अब चूंकि यह बड़ी पीठ के पास जाने वाला है तो अंतिम फैसला आने में समय लग सकता है। दो न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध दायर याचिकाओं को खारिज कर दिया जबकि न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने स्वीकार करते हुए कहा कि यह अंततः पसंद का मामला है। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शिक्षालयों में हिजाब पर प्रतिबंध का निर्णय खत्म करने से इनकार करते हुए कहा था कि हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है। इसके विरुद्ध 26 याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में आई थी। न्यायमूर्ति गुप्ता ने अपने फैसले में लिखा कि हमने 11 प्रश्न तैयार किया और उनके जवाब याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध गए हैं। उनके अनुसार इस सूची में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं के अधिकार की परिधि और गुंजाइश संबंधी सारे प्रश्न शामिल है। दूसरी ओर न्यायमूर्ति धूलिया ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के एप्रोच को गलत बताते हुए कहा कि उच्च न्यायालय को कुरान की व्याख्या की दिशा में जाना ही नहीं चाहिए था। उनके अनुसार इसमें लड़कियों की शिक्षा सबसे अहम मामला है।

 इन दोनों न्यायमूर्तियों ने जिस तरह का फैसला दिया है उससे इसमें व्यापक संवैधानिक एवं मजहबी अधिकारों के प्रश्न निहित हो गए हैं। हालांकि इसके आधार पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कर्नाटक सरकार से शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक से जुड़े आदेश वापस लेने की मांग उचित नहीं मानी जा सकती। जब कोई फैसला आया नहीं तो जाहिर है कर्नाटक उच्च न्यायालय का फैसला अभी तक लागू है। जब उच्चतम न्यायालय में अंतिम फैसला हुआ ही नहीं तो फिर उच्च न्यायालय के फैसले को अमान्य करार देने का आधार हो ही नहीं सकता। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया द्वारा इसमें धार्मिक प्रथाओं की पूरी अवधारणा को निस्तारण के लिए आवश्यक नहीं मानने के तर्क का उदाहरण देना और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता के तर्कों को खारिज कर देना बिल्कुल गलत होगा। न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्पष्ट कहा है कि उन्होंने मौलिक अधिकार से लेकर निजी स्वतंत्रता का अधिकार, हिजाब पहनना अनिवार्य धार्मिक प्रथा है या नहीं, स्कूल में हिजाब पहनने के अधिकार की मांग छात्र कर सकते हैं या नहीं आदि सभी संबंधित प्रश्नों के जाने और सभी याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध हैं। वास्तव में न्यायमूर्ति गुप्ता ने मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद पर भी विचार किया । मसलन क्या अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार परस्पर अलग है या वे एक दूसरे के पूरक हैं? इनका उत्तर भी याचिकाकर्ताओं के पक्ष में नहीं गया।

वास्तव में जब कर्नाटक ने अक्टूबर 2021 में शिक्षण संस्थानों में हिजाब पर पाबंदी लगाई थी तो कई प्रकार के तर्क दिए गए थे लेकिन सबसे प्रबल मजहबी अधिकार का विषय ही था। यद्यपि कानूनी और संवैधानिक पहलुओं के जानकारों ने इसे उस दृष्टि से पेचीदा बनाया पर एक बड़ा वर्ग मुसलमानों के अंदर यही धारणा बैठाने में कामयाब रहा था कि लड़कियों को शिक्षालय में हिजाब पहनने की अनुमति न देना उनके मजहबी अधिकारों को छीनना है। सच कहा जाए तो ऐसे विषय न्यायालय में जाने ही नहीं चाहिए थे। अगर कोई शिक्षण संस्थान अपने यहां ड्रेस कोड बनाता है तो जो उसे स्वीकार करेगा वह वहां अध्ययन करेगा जो नहीं करेगा वहां नहीं जाएगा। किसी मजहब, जाति, संप्रदाय के छात्र-छात्राओं के लिए किसी शिक्षालय का ड्रेस कोड बदल दिया जाए यह खतरनाक प्रवृत्ति पैदा करेगा। आज मुस्लिम छात्राओं का मामला है, कल हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, यहूदी किसी का मामला आ सकता है। भारत जैसे विविधता वाले देश में अनेक जातियों समूहों का विषय उभर सकता है। अगर इस तरह सबको मौलिक अधिकार व निजी स्वतंत्रता आदि के दायरे में ला दिया जाए तो किसी संस्थान में अनुशासन, नियम आदि लागू हो ही नहीं सकता। कल्पना करिए फिर कैसी अराजकता की स्थिति पैदा होगी।

आज चाहे संवैधानिक अधिकारों की जितनी बात किए जाए, जितनी धाराओं का उल्लेख हम कर दें सच यही है की सामान्य ड्रेस पहनकर स्कूल आने वाली छात्राओं को निश्चित रूप से कुछ गलत इरादे वाले लोगों ने हिजाब पहना कर कॉलेज भेजा था। इसके पीछे कट्टर मजहबी मनोवृति के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता। यह साफ हो गया कि किस तरह कट्टर मजहबी तत्वों ने हिजाब को एक हथियार बनाकर कर्नाटक में अशांति पैदा करने का षड्यंत्र रचा। इसे नजरअंदार कर केवल संवैधानिक, कानूनी, निजी अधिकार, शिक्षा के अधिकार जैसे विषयों में उलझाया जाए तो यह सच की अनदेखी करना होगा जिसके परिणाम अच्छे नहीं हो सकते। अगर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग ने हिजाब के पक्ष में आवाज उठाई  उसके पीछे कोई एक सोच है तो वह इस्लाम है। इसलिए इससे अलग करके इस मामले को नहीं देखा जा सकता। न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा है कि छात्र अपने धार्मिक विश्वास से सेक्यूलर संस्थान में लागू नहीं कर सकते तथा ड्रेस कोड तय करने का अधिकार देने वाला सरकारी आदेश कानून का उल्लंघन नहीं है। इसके पीछे हिजाब को इस्लाम से जुड़ा हुआ बताया गया था जबकि न केवल जस्टिस गुप्ता ने बल्कि कर्नाटक उच्च न्यालय ने स्पष्ट किया और अनेक इस्लामी विद्वान भी कहते हैं कि हिजाब कभी भी इस्लाम का अपरिहार्य नहीं रहा। न्यायमूर्ति गुप्ता का यह तर्क भी गलत नहीं है कि अगर हिजाब को आवश्यक धार्मिक प्रथा मान लिया जाए तो भी सेक्यूलर शिक्षण संस्थान में इसे पहनने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते। सेक्यूलरवाद सभी नागरिकों पर लागू होना चाहिए। किसी एक मजहबी समुदाय को उसके मजहब के रिवाजों के अनुसार खास पहनावे की छूट देना सेक्यूलरवाद की अवधारणा के विपरीत होगा।

न्यायमूर्ति धूलिया के इस तर्क को हम खारिज नहीं कर सकते कि देश में लड़कियों की शिक्षा अहम मामला है। किंतु आखिर वही लड़कियां, जो कल तक सामान्य ड्रेस में आती थी अंततः हिजाब पहनने की जिद पर क्यों आ गई? हिजाब पहने तभी हम शिक्षा ग्रहण करें इस प्रकार की जबकि  के पीछे मजहब की गलत अवधारणा के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। यह भी न भूलिए हिजाब पहनने वाली लड़कियों ने अल्लाह हो अकबर का भी नारा लगाया था।

यह देश के लिए चिंताजनक स्थिति है कि किसी शिक्षालय का एक सामान्य आदेश पूरे देश में मजहबी अधिकारों से लेकर मौलिक अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, शिक्षा के अधिकार और न जाने मानवाधिकार के किन-किन पहलुओं का विषय बन गया। इतने बड़े-बड़े वकील उच्चतम न्यायालय में हिजाब पहनने के पक्ष में खड़े हो गए जिससे लगा कि अगर लड़कियों ने हिजाब नहीं पहना तो देश पर पहाड़ टूट जायेगा। था कि लड़कियां हिजाब पहनकर नहीं आए तो उन्हें नहीं आना चाहिए था और बात खत्म हो जानी चाहिए। इतना छोटा विषय अगर संविधान की व्याख्या तक चला जाए और मजहब के शीर्ष नेताओं सहित भारत के नेता ,बुद्धिजीवी ,पत्रकार, संविधानविद सभी कूद पड़े तो मान लेना चाहिए कि समाज की सोच ज्यादा समस्या ग्रस्त हो चुकी है।  मुस्लिम समुदाय के ही कुछ तत्वों ने आम मुसलमानों में डर पैदा करने की कोशिश की है कि भाजपा सरकार मुसलमानों एवं इस्लाम के विरुद्ध काम कर रही है। यानी हिजाब विवाद पर हम झुक गए तो फिर आगे हमारे अनेक मजहबी अधिकार ऐसे ही खत्म कर दिए जाएंगे। 

तीन तलाक पर उच्चतम न्यायालय के फैसले तथा सं इसके विरूद्ध पारित कानून को इस्लाम के विरुद्ध बताकर लगातार दुष्प्रचार किया गया है। जाहिर है, ऐसे ही तत्वों ने जानबूझकर हिजाब को इतना बड़ा मुद्दा बनाया और आज स्थिति यह हो गई है कि काफी संख्या में लड़कियां विद्यालय नहीं आ रही। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ हो ही नहीं सकता। अच्छा हो कि अभी भी इस की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को सुविधाएं तथा इसे यहीं समाप्त कर दें। हालांकि इसकी उम्मीद कम है पुलिस ने तो फिर माननीय उच्चतम न्यायालय ही जल्दी इसका फैसला कर दे। जो भी फैसला है उसे सभी शिरोधार्य करें। ऐसा न हो कि उच्चतम न्यायालय ने अगर अनुकूल फैसला नहीं दिया तो उसे पलटने के लिए फिर राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश हो।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

धर्म परिवर्तन आस्था का विषय है लेकिन राजनीतिक रैलियों वाली आक्रामकता चिंता पैदा करती है

 अवधेश कुमार

टीवी चैनलों और डिजिटल माध्यमों पर एक साथ कुछ हजार लोगों को यह कहते सुनें कि हम राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भगवान नहीं मानेंगे और उनकी पूजा नहीं करेंगे तो भ अंतर्मन में एक साथ गुस्सा और हैरत के भाव पैदा होंगे। 7 अक्टूबर को राजधानी दिल्ली के अंबेडकर भवन का यह दृश्य निश्चित रूप से हमारे आपके जेहन में लंबे समय तक कायम रहेगा। आयोजकों का दावा है कि 10 हजार दलितों ने हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया है। हमारा संविधान व्यक्ति को अपने इच्छानुसार किसी भी धर्म को त्यागने, अपनाने और उपासना करने की स्वतंत्रता देता है। इस नाते जिन लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया यह उनके व्यक्तिगत आस्था का मामला है। किंतु इसके साथ कुछ दूसरे पहलू भी जुड़े हैं। दो चार लोग या परिवार धर्मांतरण करते हैं तो बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता। हालांकि अंदर प्रश्न उठता रहता है कि इन्होंने अपना धर्म त्याग कर अचानक जिस धर्म से इनका वास्ता नहीं रहा उसे कैसे स्वीकार लिया होगा? वर्तमान धर्म परिवर्तन में भी यह प्रश्न उठ रहा है कि एक साथ इतनी संख्या में लोगों को कैसे हिंदू धर्म अस्वीकार्य लगा और बौद्ध धर्म के प्रति उनकी आस्था घनीभूत हो गई? आयोजन में दिल्ली प्रदेश के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम की सक्रियता ने मामले को ज्यादा विवादास्पद बना दिया है।आयोजन में दिल्ली प्रदेश के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम गौतम की सक्रियता ने मामले को ज्यादा विवादास्पद बना दिया। हालांकि कार्यक्रम के तीसरे दिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा लेकिन गौतम ने पहले अपना बचाव किया और बाद में कहा कि हम किसी धर्म के विरुद्ध टिप्पणी नहीं कर सकते।

कुछ बातें यहां ध्यान रखना जरूरी है।

एक,  पंथ और उपासना पद्धति व्यक्तिगत आस्था का मामला है। किंतु क्या वाकई इस आयोजन को व्यक्तिगत आस्था का मामला मान लिया जाए।

दो, हमारे आपके विश्लेषण पर निर्भर है कि राम कृष्ण ब्रह्मा विष्णु महेश को देवता नहीं मानने और उसकी पूजा न करने की शपथ किसी धर्म धर्म और उपासना पद्धति का अपमान है या नहीं?

तीन, हिंदुओं के बड़े समूह ने इसे अपने धर्म और देवी-देवताओं का अपमान माना है।

चार, हिंदू धर्म इतना उदार और व्यापक है कि इसके अंदर अनेक मत मतांतर रहे हैं और सब को सम्मान प्राप्त हुआ है। शिव के उपासकों ने विष्णु की आलोचना की तो विष्णु के उपासकों ने शिव की और इन दोनों ने काली और दुर्गा की आलोचना की। किसी ने इन सबका सम्मान किया और सब के बीच समन्वय स्थापित किया। इस नाते विचार करें तो हमें इनकी भावना का सम्मान करना चाहिए।

पांच,आयोजकों की भाषा इतनी हैं उदार और विनम्र नहीं है। समारोह में डॉ. अंबेडकर के पड़पोते राजरत्न अंबेडकर ने लोगों को शपथ दिलाई। शपथ के रूप में बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराया जिनमें हिंदू देवी- देवताओं को न मानने और उनकी पूजा करने की बात थी। उनके वक्तव्य में हिंदू धर्म और भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर आक्रामकता भरी हुई है। इनका कहना है कि बाबा साहब अंबेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को स्वयं बौद्ध धर्म स्वीकारने के बाद चंद्रपुर में सामूहिक धर्म परिवर्तन के कार्यक्रम में जो 22 शपथ दिलवाए थे वही हमने दिलवाया है तो इसमें गलत क्या है? हमारे देश में अपने किसी कदम को सही ठहराने के लिए कोई न कोई महापुरुष सामने ला रख दिया जाता है। बाबा साहब ऐसे महापुरुष हैं जिनके नाम पर कुछ भी करो का माहौल हो गया है।

यहां भी कुछ तथ्य देखें।

•बाबा साहब ने 1935 में हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा की थी। किंतु उन्होंने 20 वर्ष बाद बौद्ध धर्म स्वीकार किया। 

  •इसके बाद 1 साल से थोड़ा ही ज्यादा जी सके और 6 दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। 

•यानी वे जिंदा होते तो अपने धर्म परिवर्तन पर उनका क्या मत होता और अभियान को क्या स्वरूप देते यह कहना मुश्किल है।

•बाबा साहब एक राजनीतिक व्यक्ति थे धार्मिक महापुरुष या बौद्ध भिक्षु नहीं। 

उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और अपने साथ लोगों को कराया लेकिन यह धर्म बदलने का मार्ग या आधार नहीं हो सकता। धार्मिक कार्य धर्म क्षेत्र के व्यक्तियों के विचारों और व्यवहारों के द्वारा ही हो सकता है।

• बाबा साहब ने जो प्रतिज्ञाएं दिलाई वो बौद्ध धर्म के अंग नहीं थे। मूल बौद्ध धर्म में तीन ही प्रतिज्ञाएं स्वीकार्य हैं -

बुद्धम शरणम गच्छामि। धर्मं शरणं गच्छामि। संघम शरणम गच्छामि। कोई धर्म बदलेगा तो वह यही तीन प्रतिज्ञाएं स्वीकार करेगा। अंतिम प्रतिज्ञा केवल बौद्ध भिक्षुओं के लिए है।

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू से बौद्ध, जैन, सिख आदि बनने को धर्म परिवर्तन नहीं मानती है। इन पर आपत्ति भी नहीं जताती हैं। कारण, इन्हेः हिंदू धर्म के उपांग के रूप में ही देखती है। किंतु जब यह स्वाभाविक धन परिवर्तन का आयोजन नहीं लगता तो इस पर प्रश्न उठाया जाना चाहिए। ऊंच-नीच छुआछूत निश्चित रूप से हमारे समाज की कोढ है। बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि डॉ आंबेडकर के समय की तरह ही जाति भेद की खाई आज भी बनी हुई है तथा सामाजिक आर्थिक रूप से दलितों की दशा बिल्कुल वैसी ही है। धर्म परिवर्तन राजधानी दिल्ली में हुआ है। यहां आसानी से पता भी नहीं चलता कि हमारे आस पास बैठा हुआ व्यक्ति किस जाति का है। किसी मंदिर में पूजा करने वाले से उसकी जाति नहीं पूछी जाती और पता लगने पर भी उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार नहीं होता। दलितों और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के अनुसार संसद राज्य विधायिका स्थानीय निगाहें से लेकर नौकरियों में आरक्षण मिला है। कहने का तात्पर्य कि बहुत कुछ बदला है। अंबेडकर द्वारा धर्म बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे बड़ा कारण यही था कि हिंदू धर्म को उन्होंने समाज व्यवस्था के साथ जोड़ा और माना कि इसमें रहते हुए दलित समानता का दर्जा नहीं पा सकते। वह प्रयोग सफल नहीं हुआ क्योंकि बौद्ध बनने के बाद भी आम समाज में वे दलित ही बने रहे। आज ऐसी स्थिति नहीं कि इतनी संख्या में दलितों को समाज व्यवस्था से तंग आकर समानता के लिए बौद्ध धर्म अपनाने की आवश्यकता पड़े। हिंदू धर्म के अंदर ही भारी संख्या में दलितों का सामाजिक उत्थान हुआ है और वह सवर्णों के साथ बराबरी और कहीं-कहीं तो उनसे बेहतर स्थिति में हैं । इस नाते यह आयोजन कई प्रकार के प्रश्न और संदेह पैदा करता है।

 •पिछले कुछ समय की इससे संबंधित गतिविधियां चिंता पैदा करने वाली रही है।

  •हाल के समय में हिंदू धर्म के विरुद्ध दलित आक्रामकता की जैसी आवाज निकली है उनमें समाज को जोड़ने का भाव कम और तोड़ने का ज्यादा है। 

• हिंदू मुस्लिम एकता की जगह दलित मुस्लिम गठजोड़ की कोशिश संदेह पैदा करती है।

•दलित मुस्लिम गठजोड़ की आक्रामक धारा पैदा करने की कोशिश हो रही है। 

•यह बाबा साहब के विचार के बिल्कुल विरुद्ध है। उन्होंने इस्लाम धर्म की जैसी तीखी आलोचना की वैसे दूसरे जगह देखने को नहीं मिलती। 

•आजादी के पहले मुस्लिम लीग के साथ दलितों के गठजोड़ को इसका इसी आधार पर उन्होंने विरोध किया था तथा बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले जाने वाले दलितों की दुर्दशा पर भी वह लगातार मुखर रहे।

 कहने का तात्पर्य यह बाबा साहब का नाम अवश्य लें इस समय वर्तमान दलितवाद चाहे और राजनीतिक हो, गैर राजनीतिक या  धार्मिक बाबा साहब के विचारों और व्यवहारों से इनका रिश्ता न के बराबर है । इनकी भाषा आम समाज के प्रति उग्रता और लताड़ से भरी है। समाज सुधार की भाषा ऐसी नहीं हो सकती। इसमें समाज को जोड़ने का भाव नहीं दिखता जो चिंताजनक है। 

वास्तव में आक्रामक दलितवाद और मुस्लिमों के साथ गठजोड़ का मूल उद्देश्य राजनीतिक है। केंद्र से नरेंद्र मोदी और राज्यों से भाजपा सरकार को सत्ता से हटाने के लिए दलित मुस्लिम समीकरण की बात ज्यादा हो रही है। जब उद्देश्य राजनीतिक हो तो उसके पीछे धार्मिक आस्था केवल बहाना हो सकता है। इसके पीछे कुछ अवांछित शक्तियां भी भूमिका निभा रहीं हैं। राजधानी दिल्ली के अंबेडकर भवन के धर्मांतरण समारोह के भाषणों में राजनीति के स्वर ज्यादा थे और धर्म के कम। राजेंद्र पाल  यह कार्यक्रम कराने वाली संस्था द बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया और जय भीम मिशन के राष्ट्रीय संरक्षक हैं। उनके स्वर में भाजपा के विरुद्ध आलोचना ज्यादा हैं। बौद्ध धर्म सत्य, अहिंसा और करुणा का संदेश देता है। अगर आपकी सोच भाषा और व्यवहार में सत्य, अहिंसा ,करुणा नहीं है तो कहा जाएगा कि बौद्ध धर्म अपना भले लिया लेकिन यह कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना का ही विषय है। बौद्ध के अष्टांग मार्ग में सम्यक सोच, सम्यक व्यवहार ,सम्यक समझ, सम्यय भाषा की बात है। 

इतनी बड़ी संख्या में लोगों का हृदय परिवर्तन कर देना असंभव है। इस बात की जांच होनी चाहिए कि आयोजन की पृष्ठभूमि कैसे तैयार हुई और किन बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों ने इनके ह्रदय बदलने के लिए काम किया? वर्तमान दलित एक्टिविज्म ऐसी तिथियों का उल्लेख करता है जो पहले कभी सुना नहीं गया। इस कार्यक्रम की तिथि के रूप में अशोक विजयादशमी लिखा था। इनका मानना है कि अशोक ने जिस दिन कलिंग पर विजय की उसी दिन उसका हृदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध धर्म स्वीकारा। साफ है कि लोगों को लुभाने के लिए ऐसे शब्द गढे जाते हैं। 

आस्था परिवर्तन हृदय का विषय है। आप राजनीतिक भाषा शैली और ऐसे प्रतीकों को अपनाकर किसी के अंतर्मन नहीं बदल सकते। गांधी जी इसी कारण धर्म परिवर्तन के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि समाज सुधार के काम में धर्म परिवर्तन की भूमिका नहीं है। जाहिर है,  धर्म परिवर्तन के पीछे दिए गए तर्कों को स्वीकार करना कठिन है। यह हैरत का विषय है कि सामान्य विवाद व आरोपों पर पत्रकार वार्ताओं द्वारा अपना मत रखने वाली आम आदमी पार्टी इस मामले पर खामोशी बरतती रही। क्यों? क्या गुजरात चुनाव को देखते हुए वह दिल्ली से दलितवाद की ऐसी तस्वीर पेश करना चाहते थे जिनसे दलित मुस्लिम गठजोड़ का एक बड़ा संदेश जाए? केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति को समझने वाले इस पहलू को खारिज नहीं कर सकते। कोई अपनी इच्छा से किसी दूसरे धर्म को अपनाए यह उसका विषय है लेकिन सामूहिक रूप से लोगों को भड़का कर धर्म परिवर्तन को आक्रामक रैली में परिणत करना भयावह दृश्य उत्पन्न करता है । इससे समाज और देश का केवल अहित ही होगा । कुल मिलाकर यह क्षोभ और चिंता का विषय है। धर्म मानव को कर्तव्यों के द्वारा मनुष्यता के उच्चतम शिखर पर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करता है उसे इस तरह राजनीतिक शैली की रैलियां न बनाया जाए यही सबके हित में है। वैसे आर्य समाजी राम, कृष्ण को भगवान नहीं मानते लेकिन महापुरुष मानते हैं। हमारे इतिहास के अनुसार श्री राम इच्छ्वाकू वंश की 65 वीं पीढी थे और महात्मा बुद्ध 123 वीं पीढ़ी। इस नाते वंशावली से भी राम को अपना पूर्वज मानने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। अश्वघोष ने महात्मा बुध की जीवनी लिखी है और उसमें वंशावली मिल गई तो फिर इसको अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं। आखिर अश्वघोष बौद्ध मुनि थे।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर काम्प्लेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया ने लालू प्रसाद को सम्मान पत्र दे ईश्वर से उनके स्वस्थ की कामना की


मो. रियाज़

नई दिल्ली। राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से दिल्ली के पंडारा पार्क स्थित उनकी बेटी सांसद मीसा भारती के निवास पर मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया का एक दल राष्ट्रीय अध्यक्ष मेहंदी हसन मंसूरी व नेशनल जनरल सेक्रेटरी नियाज़ अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी के साथ मिलने पहुंचा। 

मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया का यह दल लालू प्रसाद यादव के घर इसलिए पहुंचा था क्योंकि मंसूरी समाज की शान इस्राइल मंसूरी को बिहार सरकार में राजद ने अपने कोटे से सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री बनाया है।

इस्राइल मंसूरी को बिहार सरकार में मंत्री बनाए जाने पर मंसूरी फेडरशन ऑफ इंडिया ने लालू प्रसाद यादव से मिल उन्हें धन्यवाद देकर एक सम्मान पत्र दिया।

सम्मान पत्र में लालू प्रसाद यादव के लिए लिखा कि महाशय आप देश के महान नेता हैं और आपसे बड़ा कोई सेकुलर नेता नहीं है, आपने वंचित समाज को हमेशा न्याय दिलाया है, साथ ही सत्ता में हिस्सेदारी दी है। हमारे मंसूरी समाज की पूरे देश में 5% और मुस्लिम कौम में 20% की हिस्सेदारी है। इसके चलते आपने पहली बार मंसूरी बिरादरी के जनाब इस्राइल मंसूरी को कांटी विधानसभा से टिकट दिया और उन्हें आपकी वजह से जीत तो मिली ही आपने उन्हें बिहार सरकार में सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री भी बनाया जिसके लिए मंसूरी समाज आपका बहुत आभारी है और हमेशा आभारी रहेगा। मंसूरी फेडरेशन ऑफ इंडिया आपके जज्बे को सलाम करता है और आशा करता है की भविष्य में आपका साथ सदैव मिलता रहेगा।

मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय महासचिव नियाज अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी ने कहा कि लालू प्रसाद जी की तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उनसे लंबी बातचीत नहीं हो सकी पर उन्होंने पूरे मंसूरी समाज को ऐसे ही कार्य करने के लिए कहा जैसे इस्राइल मंसूरी आपने कार्यक्षेत्र के साथ ही अपने समाज के लोगों को लेकर चल रहे हैं।

पप्पू मंसूरी ने आगे बताया कि इस मौके पर मंसूरी समाज की
आन बान शान इस्राइल मंसूरी भी साथ थे। इस दल का नेतृत्व मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया के नेशनल प्रेसिडेंट महेंदी हसन ने किया। उनके साथ नेशनल जनरल सेक्रेटरी नियाज़ अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी, दिल्ली प्रदेश मीडिया प्रभारी यूसुफ मंसूरी, सेक्रेटरी अब्दुल रहमान, इनाम मंसूरी, जनाब आर डी खान साहब, संगम बिहार टीम से बशारत मंसूरी, रशीद मंसूरी, इशाक मंसूरी। गांधी नगर विधान सभा से इसाक मंसूरी, नौशाद मंसूरी, नबीजन मंसूरी, दीपक शर्मा, सदरे आलम, मंसूरी के अलावा काफी तादात में मंसूरी समाज के लोग शामिल थे।

मंसूरी फैडरेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष मेहंदी हसन मंसूरी ने लालू प्रसाद यादव को इस्राइल मंसूरी को कांटी विधानसभा से टिकट देने और उन्हें बिहार सरकार में सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री बनने के लिए आभार जताया और उनके जल्द स्वस्थ होने की ऊपर वाले से प्रार्थना की।



सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

11-10-2022 To 17-10-2022 (15.22)









 

करीब 2 महीने से पत्नी की तलाश में भटक रहा है पति, पुलिस अफसरों से पति ने लगाई गुहार - बच्ची को उसकी मां से मिलवा दो


दिलीप यादव
उत्तर पूर्वी दिल्ली। शास्त्री पार्क थाना क्षेत्र के शास्त्री पार्क ए-ब्लॉक, गली नंबर 9 के घर से सामान लेने मार्केट के लिए निकली 35 वर्षीय लिबगा देवी घर वापस नहीं लौटी। काफी खोजबीन करने के बाद भी जब पता नहीं चला तो पति हरदेव ने शास्त्री पार्क पुलिस को इसकी सूचना दी तो पुलिस ने गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की। लिबगा देवी करीब 2 महीने पहले लापता हुई है पर उसका आज तक कोई सुराग नहीं लगा है। महिला का पति हरदेव अपनी चार वर्षीय बेटी देवांशी के साथ थाने में लगातार चक्कर लगा रहा है पर उसे आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है। बीते रोज भी हरदेव थाने पहुंचा और पुलिस अधिकारियों से गुहार लगाई कि उसकी पत्नी को करीब 2 महीने होने वाले हैं लेकिन उसका अभी तक कोई सुराग नहीं लगा है। पुलिस अधिकारियों से उसने पत्नी को ढूंढ कर बेटी से मिलवाने की गुहार लगाई है। हरदेव ने बताया कि बेटी देवांशी मां की याद में रोती रहती है, लेकिन उसकी पत्नी का कोई सुराग नहीं लग रहा है। इस संबंध में पुलिस को मामला प्रेम-प्रसंग का लग रहा है।
हमारे संवाददाता से बात करते हुए हरदेव ने बताया कि मेरी पत्नी लिबगा देवी झारखंड की रहने वाली है। उसकी उम्र 35 वर्ष है। लिबगा देवी से मेरी शादी लगभग 8 साल पूर्व हुई थी। शादी के बाद मेरी पत्नी ने बेटी देवांशी को जन्म दिया। 
हरदेव ने आगे बताया कि मेरे माता-पिता का निधन हो चुका है और मैं उनकी एकलौती संतान था। मेरे माता-पिता के पास जो जमीन थी उसे कई साल पहले मेरे चचेरे भाई एवं चाचा ने दखलअंदाजी करके उसे पर कब्जा कर लिया जिसकी वजह से मुझे अपना घर छोड़ना पड़ा। बेघर होने पर मैंने अपनी पत्नी को उसके माता-पिता के घर भेज दिया और काम की तलाश में मैं बिहार से दिल्ली आ गया और यहां पर काम की तलाश की। एक दिन मुझे अपने गांव के एक जानकार का पता चला तो मैं उनके पास गया और अपनी परेशानी के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने मुझे अपने पास ही काम पर रख लिया। मैं अब लालकिले के सामने मार्केट में काम करता हूं और उसी से मेरा गुजर-बसर हो रहा है। जब मुझे काम मिल गया तो मैंने अपने जानकार की मदद से ही शास्त्री पार्क में एक किराये का मकान लिया और गांव से अपनी पत्नी लिबगा देवी और बेटी देवांशी को भी दिल्ली ले आया। हम कई वर्षों से शास्त्री पार्क में ही किराये के मकान में रह रहे हैं। मैं मार्केट में काम करके अपना गुजर-बसर कर रहा था कि इसी दौरान यह घटना घट गई है और इस घटना ने मुझे व मेरी बेटी को झकझोर कर रख दिया है। जब से मेरी पत्नी लापता हुई है तब से मेरी बेटी ने खाना पीना बंद की दिया है और मैं भी काम पर नहीं जा पा रहा हूं। मैं काफी परेशान हूं कि चार साल की बच्ची को किसके पास छोड़कर काम पर जाउं। मेरी पुलिस प्रशासन मदद नहीं कर रहा है।








 
 

रविवार, 9 अक्तूबर 2022

अखाड़े के खिलाड़ी मुलायम सिंह यादव मौत को नहीं दे सके पटखनी

मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के सरंक्षक मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है. उन्होंने 82 साल की उम्र में गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में आज (10 अक्टूबर) सुबह 8:16 बजे आखिरी सांस ली. मुलायम सिंह यादव को 22 अगस्त को सांस लेने में तकलीफ और लो ब्लड प्रेशर की शिकायत के बाद मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था, हालांकि उनकी तबीयत में सुधार नहीं हो रहा था और 1 अक्टूबर की रात को आईसीयू में शिफ्ट किया गया था, जहां एक डॉक्टरो का पैनल उनका इलाज कर रहा था. 

मजाल नहीं जो उनकी गिरफ़्त से कोई अपने आपको छुड़ा ले---कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव की जवानी के दिनों में अगर उनका हाथ अपने प्रतिद्वंदी की कमर तक पहुँच जाता था, तो चाहे वो कितना ही लंबा या तगड़ा हो, उसकी मजाल नहीं थी कि वो अपने-आप को उनकी गिरफ़्त से छुड़ा ले.आज भी उनके गाँव के लोग उनके 'चर्खा दाँव' को नहीं भूले हैं, जब वो बिना अपने हाथों का इस्तेमाल किए हुए पहलवान को चारों ख़ाने चित कर देते थे.

मुलायम सिंह यादव के चचेरे भाई प्रोफ़ेसर राम गोपाल ने एक बार बीबीसी को बताया था, "अखाड़े में जब मुलायम की कुश्ती अपने अंतिम चरण में होती थी तो हम अपनी आंखें बंद कर लिया करते थे. हमारी आंखें तभी खुलती थीं जब भीड़ में से आवाज़ आती थी, 'हो गई, हो गई' और हमें लग जाता था कि हमारे भाई ने सामने के पहलवान को पटक दिया है." अध्यापक बनने के बाद मुलायम ने पहलवानी करनी पूरी तरह से छोड़ दी थी. लेकिन अपने जीवन के आख़िरी समय तक वो अपने गाँव सैफई में दंगलों का आयोजन कराते रहे.

जुलाई में पत्नी साधना गुप्ता का हुआ था निधन---इससे पहले मुलायम सिंह यादव की पत्नी साधना गुप्ता का इसी साल जुलाई में निधन हो गया था. फेफड़ों में संक्रमण के चलते उनका गुरुग्राम के एक निजी अस्पताल में इलाज के बाद निधन हुआ था. साधना मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी थीं. उनकी पहली पत्नी मालती देवी का 2003 में निधन हो गया था. मालती देवी अखिलेश यादव की मां थीं. 

1992 में की सपा की स्थापना---मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवंबर 1939 को हुआ था. पांच भाइयों में मुलायम तीसरे नंबर पर थे. मुलायम सिंह ने पहलवानी से अपना करियर शुरू किया. वह पेशे से अध्‍यापक रहे. उन्‍होंने कुछ समय तक इंटर कॉलेज में अध्‍यापन किया. पिता उन्‍हें पहलवान बनाना चाहते थे. फिर अपने राजनीतिक गुरु नत्‍थू सिंह को प्रभावित करने के बाद मुलायम सिंह यादव ने जसवंतनगर विधानसभा सीट से चुनावी अखाड़े से कदम रखा. वह 1982-1985 तक विधान परिषद के सदस्‍य रहे. 

लोहिया आंदोलन---लोहिया आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले मुलायम सिंह यादव ने चार अक्टूबर 1992 में समाजवादी पार्टी की स्थापना की. मुलायम सिंह यादव को राजनीति के अखाड़े का पहलवान कहा जाता था. वह प्रतिद्वंद्व‍ियों को चित करने के माहिर रहे. देश के सबसे बड़े सूबे उत्‍तर प्रदेश की राजनीति में उन्‍होंने वो ऊंचाई हासिल की जो किसी भी नेता के लिए सपना होता है.  उन्‍होंने तीन बार राज्‍य की कमान संभाली. वह देश के रक्षा मंत्री भी बने. उत्‍तर प्रदेश विधानसभा के वह आठ बार सदस्‍य रहे. 

मुलायम सिंह यादव के राजनीत‍िक कर‍ियर पर एक नजर...

साल 1967 में मुलायम सिंह पहली बार विधायक बने. इसके बाद 5 दिसंबर 1989 को पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. मुलायम ने अपना राजनीतिक अभियान जसवंतनगर विधानसभा सीट से शुरू किया. वह सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से आगे बढ़े. 1967, 1974, 1977, 1985, 1989 में वह विधानसभा के सदस्य रहे.  मुलायम सिंह 1989, 1993 और 2003 में यूपी के सीएम रहे. वह लोकसभा के सदस्य भी रहे.

1996 के चुनाव में जीतकर वह पहली बार संसद पहुंचे. इसके बाद 1998 में वह जीत हासिल किए. 1999 के चुनाव में भी उनकी जीत का सिलसिला जा रही. 2004 में वह मैनपुरी से लोकसभा चुनाव जीते. 2014 में वह आजमगढ़ संसदीय सीट और मैनपुरी से चुनाव लड़े और दोनों जगह से ही जीत हासिल किए. सपा के इस दिग्गज नेता की जीत का सिलसिला 2019 के चुनाव में भी जारी रहा और मैनपुरी से जीतकर एक बार फिर संसद पहुंचे.

--मो. रियाज

अलौली प्रखंड के साहसी पंचायत के खानकाह फरीदिया जोगिया शरीफ में पूरी शानों-शौकत से निकाला गया जुलूस-ए-मोहम्मदी

खगड़िया, (दिलीप यादव) । अलौली प्रखंड के साहसी पंचायत के जोगिया शरीफ में मोहम्मद साहब के जन्मदिन पर जुलूस-ए-मोहम्मदी निकाला गया। जिसकी अध्यक्षता खानकाह फरीदिया के गद्दी नशीन हजरत मौलाना बाबू सईदैन फरीदी ने की। इस मौके पर उन्होंने बताया कि पैगंबर-ए-इस्लाम मोहम्मद साहब की यौमे पैदाइश पर रविवार को जोगिया शरीफ में शान के साथ जुलूस-ए-मोहम्मदी निकला। जुलूस में काबा समेत अन्य झाकियां देखते ही बन रही थीं। लोग नात-ए-पाक सुनते हुए रसूले पाक की शान में कलाम पेश करते रहे। जुलूस देर शाम तक जोगिया गांव के विभिन्न मार्गों से होकर गुजरा। सुरक्षा के लिए जुलूस के साथ पुलिस भी तैनात थी। 
रविवार को जिले में मोहम्मद साहब की यौमे पैदाइश पर लोगों ने खुशियों का इजहार किया। मदरसा समदिया महमूदिया नूरूल उलूम में मिलादे पाक की महफिल सजाई गई। इसमें दारूदे सलाम का नजराना पेश करने के बाद लोगों ने शानो-शौकत के साथ जोगिया शरीफ में जुलूस-ए-मोहम्मदी निकाला। जोगिया शरीफ से निकले जुलूस में शामिल लोगों ने नबी की शान में कलाम पेश किए। जुलूस में मक्का व काबा की झांकी भी साथ चल रही थी। जोगिया से निकले सभी जुलूस बाबू सईदैन फरीदी की अगुवाई में शानो शौकत के साथ जुलूसे मोहम्मदी जोगिया गांव होते हुए हरिपुर बाजार पहुंचा।
मौलाना बाबू  सईदैन फरीदी ने बताया के हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म स्थान मक्का है।
आपका नाम रखा मुहम्मद-हज़रत मुहम्मद साहब का नाम उनके दादा अब्दुल मुत्तलिब ने रखा था। जिसका अर्थ है "प्रशंसित"। मुहम्मद नाम अरब में नया था। मक्का के लोगों ने जब अब्दुल मुत्तलिब से नाम रखने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा ताकि सारे संसार में मेरे पोते की प्रशंसा की जाए।
लोग उनसे और क़रीब हो जाते : जैसे-जैसे हज़रत मुहम्मद साहब बड़े हुए उनकी ईमानदारी, नैतिकता और सौम्य प्रकृति ने उनको और प्रतिष्ठित कर दिया। वे हमेशा झगड़ों से अलग रहते और कभी भी अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। अपने इन सिद्धांतों पर वे इतना दृढ़ थे कि मक्का के लोग उन्हें 'अल-अमीन' नाम से पुकारने लगे थे, जिसका अर्थ होता है 'एक भरोसेमंद व्यक्ति'। उनके प्रसिद्ध चचेरे भाई अली ने एक बार कहा था "जो लोग उनके पास आते, उनसे और क़रीब हो जाते ।"
बिलादते रसूल पर कुरान व हदीस के हवाले से एक जामे खिताब फरमाया। सुरक्षा के लिए अतिरिक्त पुलिस बल जुलूस के साथ लगाई गई थी। आमदे रसूल पर हर कोई खुशी मना रहा था। जुुलूस में बाबू सकलैन फरीदी ने पैगंबर ए इस्लाम के बारे में लोगों को समझाया।
इस दौरान जगह-जगह लंगर, सबील लोगों को बांटे जाते रहे। इस मौके पर मौलाना बाबू सालिक हुसैन फरीदी, बाबू सिबतैन फरीदी, अकरम, नावेद आलम,गुलफराज, चांद बाबू, फेदाए रसूल, हरमैन फरीदी, मौलाना मुस्तकीम फरीदी, बहराइन फरीदी, लईक नवाज,उमर अली, मुजम्मिल, साकिर हुसैन, मेराजुल हक, मौलाना जुल्फिकार फरीदी, हाफिज असद इमाम हरिपुर मस्जिद, फैजान अहमद, अबुशामा रजवी, मौलाना मुर्शिद रजवी, सजीम रजवी, शाह आलम, तौफीक फरीदी समेत बड़ी संख्या में अकीदतमंद मौजूद रहे।











 
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