अवधेश कुमार
ऐन चुनाव के वक्त पुस्तक बमों के प्रहार के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कांग्रेस को मुकाबले के लिए सामने आना ही था। कांग्रेस ने तो पहले ही औपचारिक तौर पर प्रधानमंत्री के पूव मीडिया सलाहकार संजय बारु की पुस्तक को नकार दिया था। हालांकि नकारों में तथ्यों व तर्काें का सहारा कम लिया गया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वर्तमान मीडिया सलाहकार पंकज पचैरी प्रेस क्लब में मीडिया के सामने 10 साल की उपलब्धियों का लेखा जोखा लाए। उनके सारे तथ्यों व तर्कों का सार केवल यह साबित करना था कि प्रधानमंत्री कतई कमजोर नहीं थे। अगर वे कमजोर होते तो देश 10 वर्षों में इतनी तरक्की नहीं करता। इसके लिए उन्होंने वे सारे आर्थिक आंकड़े पेश किए जो प्रधानमंत्री पहले ही अपनी पत्रकार वार्ता में दे चुके थे। प्रधानमंत्री के आमतौर पर चुप रहने के आरोपों पर पचैरी ने कहा, उन्होेंने बीते 10 साल में करीब 1198 भाषण दिए और करीब 1600 प्रेस वक्तव्य जारी किए। निष्कर्ष यह कि उन्होंने औसतन हर तीसरे दिन बात की। यानी जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री्र ने जनता से संवाद बनाया। उनका कहना था कि मीडिया की दूसरी प्राथमिकताओं के कारण सरकार की उपलब्धियां अक्सर लोगों तक नहीं पहुंचीं। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की इस सफाई से क्या पहले से बनी आम धारणा और दोनों पुस्तकों से हुई इस बात की तथ्यवार पुष्टियां कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी सत्ता के मुख्य केन्द्र नहीं थे, नष्ट हो जाएगी?
इन पुस्तकों में जो सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा होता है वह यह कि आखिर इतने दिनों तक मनमोहन सिंह खामोश क्यों रहे? हम मानते हैं कि चाहे संजय बारु की पुस्तक एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टरः द मेकिंग एंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह हो या पीसी पारेख की क्रूसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर, कोलगेट एंड अदर ट्रुथ में कुछ अतिरंजनाए हैं। इनमें ठोस तथ्यों की जगह कुछ ऐसी बातें हैं जो कि सूत्रों पर आधारित हैं, कुछ ऐसे लोगों द्वारा बताई गईं हैं जो सच हो सकती है और नहीं भी। इसमें लेखकों का अपना नजरिया भी है। पारेख पर कोयला आवंटन घोटाला में कोयला सचिव होने के कारण मामला दर्ज हो चुका है, इसलिए यह भी कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि उनके लिए अपने नजरिए से ऐसे तथ्यों और घटनाओं का विवरण लाना अपरिहार्य था जिनसे वे निर्दोष दिखेे। बावजूद इसके इन पुस्तकों में काफी हद तक सच्चाई नजर आती है। जो सबसे बड़ा सच इनमें नजर आता है, वह प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन सिंह की निर्णय न लेने की विवशता। यानी अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए उन्हें कांग्र्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी पर निर्भर रहना पड़ता था। बारु की मानें तो पुलक चटर्जी को विशेष तौर पर सोनिया गांधी की ओर से प्रधानमंत्री कार्यालय में नियुक्त ही इसीलिए किया गया था ताकि वे वहां नजर रख सकें एवं 10 जनपथ को सारी सूचनाएं दें। पारेख ने हालांकि इस तरह का जिक्र नहीं किया है ,लेकिन यह बताया है कि प्रधानमंत्री जान रहे थे, देख रहे थे कि कोयला आवंटन में खुलेाअम लूट मची है, मंत्री, नेता, सांसद....दलाल खुलेआम तो अपने लिए, रिश्तेदारों के लिए नियमों को ताक पर रखकर आवंटर करवा रहे हैं, अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग हो रही है, पर वे कोई कदम उठा नहीं रहे थे। क्यों?
इसका जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान या पचैरी की पत्रकार वार्ता से नहीं मिलता है। यह कहने भर से कि वे चुप नहीं थे, उनके भाषणों की संख्या बता देना, या फिर यह कि वे संसद में बोलना चाहते थे, पर उन्हें विपक्ष ने बोलने ही नहीं दिया......किसी प्रश्न का समाधान नही होता। आप प्रधानमंत्री हैं तो समय-समय पर निर्धारित कार्यक्रमों में आप भाषण देंगे ही। समय समय पर सरकार के पक्ष या निर्णयों पर प्रेस वक्तव्य जारी होगा ही। यह सामान्य प्रक्रिया है। इन पुस्तकों से यह सवाल उठा ही नहीं है कि प्रधानमंत्री ने कार्यक्रमों में भाषण दिया या नहीं और न यही कि जो सरकार के निर्णय होते थे उसके बारे में सूचनाआंे के लिए प्रेस वक्तव्य जारी किए जाते थे या नहीं? प्रश्न तो यह उठा है कि क्या वे वाकई अपने मंत्रिमंडल के चयन तक के लिए 10 जनपथ के सामने विवश थे? क्या महत्चपूर्ण फाइलों पर प्रधानमंत्री के निर्णय के पूर्व सोनिया गांधी की सहमति जरुरी बन चुकी थी? इसका उत्तर देने का साहस प्रधानमंत्री नहीे कर सकते।
हालांकि सरकार पर पार्टी का अनुशासन लोकतंत्र के लिए उचित व्यवस्था है। लेकिन यहां तस्वीर बिल्कुल अलग थी। मनमोहन सिंह घोषित नेता के तौर पर कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री नहीं बने। कांग्रेस संसदीय दल ने तो सोनिया गांधी को अपना नेता चुना था। लेकिन सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा इतना आक्रामक होकर उछला कि उनके सामने हां और ना की स्थिति पैदा हो गई। सोनिया गांधी ने अपनी ओर से मनमोहन सिंह को आगे किया और उस निर्णय का विरोध कांग्रेस में करने का कोई साहस नहीं कर सकता था। इस नाते मनमोहन सिंह दुर्घटनावश प्रधानमंत्री बने। उन्हें पता था कि उनके हाथों पूरी सत्ता आ नहीं सकती। ध्यान रखने की बात है कि आरंभ में वे जहां जनता के बीच बोलने जाते थे वहां कहते थे कि मैं सोनिया जी का संदेश लेकर आपके पास आया हूं। इसका विपक्ष की ओर से घोर विरोध होता था, मीडिया में भी आलोचनाएं होतीं थीं। बाद में उन्होंने अपना यह जुमला बदला। माना जाता है कि स्वयं सोनिया गांधी ने उनसे कहा कि इससे संदेश अच्छा नहीं जाता है। इस मानसिकता से भरा हुआ व्यक्ति, जिसे पद ही नेता की कृपा से मिल गया हो....वह क्योंकर किसी समय ऐसा दुस्साहस कर दे जिससे उसकी कुर्सी ही खतरे में पड़ जाए। हम मानें या नहीं, किसी को यह अच्छा लगे या कोई नापसंद करे, सत्ता का मुख्य केन्द्र सोनिया गांधी रहीं हैं। संसदीय दल का अध्यक्ष पद उनके लिए सृजित किया गया, फिर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाकर उसका अध्यक्ष उन्हें बनाया गया। कांग्रेस जिन कानूनों को जनहित में बतातीं हैं... उनमें से अधिकांश का प्रारुप तो सलाहकार परिषद द्वारा तैयार करके सरकार के पास भेजा गया। आप अगर याद करेंगे तो अनेक अवसरों पर जब सरकार की ओर से आर्थिक स्थितियों को ध्यान रखते हुए कठोर निर्णय लिए गए, सोनिया गांधी के नाम से तुरत बयान जारी करवाया गया कि वो इससे सहमत नहीं हैं। यही नहीं जो अच्छे निर्णय हुए उसका श्रेय भी परोक्ष रुप से सोनिया गांधी को ही दिलवाने का संदेश बाहर दिया जाता था।
कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन सिंह ने कोई ऐसा काम नहीं किया जो केवल उनका हो यानी स्वतंत्र रुप से उनने निर्णय लिया ही नहीं। लेकिन यह साफ है कि वे ऐसा कोई निर्णय नहीं कर सकते थे, जो सोनिया गांधी या उनकी सलाहकार मंडली को स्वीकार्य नहीं हो। अगर प्रधानमंत्री की चलती तो प्रणब मुखर्जी कभी विता मंत्री नहीं बनते। हालांकि मुखर्जी का 10 जनपथ से भी विश्वास का रिश्ता नहीं था, लेकिन कई कारणों से सोनिया गांधी ने उनका चयन किया। कहा जाता है कि मुखर्जी अपने मंत्रालय में प्रधानमंत्री कार्यालय तक का हस्तक्षेप सहन नहीं करते थे। मुखर्जी ने बाद में अपने कार्यालय में जासूसी तक का आरोप लगाया। सोनिया तो छोड़िए, मनमोहन सिंह को राहुल गांधी और उनके लोगों तथा प्रियंका गांधी तक का ध्यान रखना पड़ता था। यह मनोविज्ञान उन पर हाबी रहा। उनकी जगह कोई भी व्यक्ति होता तो उसकी आत्मा धिक्कारती। लेकिन प्रधानमंत्री का पद इतना बड़ा था कि वे आत्मधिक्कार झेलते हए भी चुप रहे। आगे भी वे चुप ही रहेंगे। जिस दिन उनने 10 जनपथ के संदर्भ में कुछ कहा उनकी शामत आ जाएगी।