शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

गुरु गोबिन्द सिंह के योगदान को देश भूल नहीं सकता

 

अवधेश कुमार

देश गुरु गोबिन्द सिंह की 350 वीं जयंती वर्ष मना रहा है। किसी महापुरुष की जयंति या पुण्यतिथि मनाकर हम केवल उसे श्रद्धांजलि नहीं देते, बल्कि उनके जीवन, समाज को उनकी देन, उनकी शि़क्षाओं-रचनाओं से प्रेरणा लेते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह का मूल्यांकन करने में भले कुछ इतिहासकारों ने अन्याय किया है, यहां तक कि उनके पथ का अनुसरण करने का दावा करने वाले भी अनेक लोग उनकी गलत व्याख्या करते हैं, पर इस देश और संस्कृति को उनके महत्वपूर्ण योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। यदि भुलाया जाएगा तो हमसे बड़ा कृतघ्न कोई नहीं होगा। कोई व्यक्ति अपने चारों बेटों के बलिदान के बावजूद अपने सिद्वांत पर अड़े हुए समाज को सही दिशा और नेतृत्व देता रहे यह सामान्य बात है क्या? उनको केवल एक लड़ाका और सैनिक मानने वाले भूल जाते हैं कि उन्होंने अनेक रचनाएं कीं, कई भाषाएं पढ़ीं और सिख्खों को ज्ञान अर्जित करने के लिए वाराणसी जैसे शिक्षण केन्द्रों पर भेजा। वे  हिन्दी, पंजाबी, फारसी, अरबी और संस्कृत भाषा अच्छी तरह जानते थे।

आप उनकी रचानाओं को देखेंगे तो आपको एक साथ एक आध्यात्म में गहरे डूबा, धर्म में गहरी आस्था रखने वाला भक्त, कवि, समाज सुधारक, देश और संस्कृति के प्रति समर्पित सैनिक, कानून विद....यानी बहुविध व्यक्तित्व का दर्शन होगा। सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध उन्होंने ही किया और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) भी पूरा किया। यह बात ठीक है कि उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में देश, धर्म, संस्कृति तथा स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला, पर युद्ध को वो कभी पहला विकल्प नहीं मानते थे। ज़फ़रनामा में उन्होंने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु तेग़बहादुर की शहादत के बाद 9 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठने वाले बालक को क्या ज्ञान रहा होगा। लेकिन उनकी चेतना का जैसे-जैसे उत्तरोत्तर विकास हुआ उन्होंने गहन अध्ययन द्वारा अपना ज्ञान बढ़ाया। उसके पीछे सोच यही रही होगी कि गुरु पद की गरिमा के अनुरुप स्वयं को विकसित करना चाहिए। उसके लिए जो भी आवश्यक था, ज्ञान साधना, भक्ति साधना, युद्ध साधना... सब उन्होंने किया। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों के बीच संतुलन के समर्थक थे। उन्होंने युद्ध की सारी कलाएं सीखीं, अस्त्र चलाना सीखा और अन्य सिक्खों को भी सिखाया लेकिन सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध करने के साथ उन्होंने करुणा और मानवता का पाठ भी पढ़ाया।

आज के जातिभेद को देखिए और कल्पना करिए कि 350 वर्ष पूर्व क्या स्थिति रही होगी। जिन्हें पंज पियारे कहते हैं वे देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे। एक ही कटोरे से उनको अमृत पिलाकर गुरु गोबिन्द सिंह ने जाति तोड़ने और समाज में एकता कायम करने का ऐसा कार्य किया जो एक क्रांतिकारी ही कर सकता था। उसके खिलाफ प्रतिक्रिया भी हुई जिसकी कल्पना उन्हें रही होगी, किन्तु जाति और संप्रदाय का भेद मिटाकर सबको संगठित करने का उनका संकल्प अटूट था। उनका स्पष्ट मत व्यक्त करते हुए कहा कि मानस की जात सभै एक है। उस समय भारतीय समाज एक साथ कई कमजोरियों का शिकार था जिसमें जातिवाद की कट्टरता, संप्रदायों के बीच कटुता, अलग-अलग संप्रदायों का नैतिक और वैचारिक पतन तथा धर्म-अध्यात्म की गलत व्याख्या। इससे समाज भ्रमित और विभाजित था। इस भ्रम को दूर करना तथा समाज की एकता स्थापित करना समय की मांग थी। धर्म के पोंगापंथियों को चुनौती देते हुए उन्होंने आचरण में इसे उतारा तथा अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों तक सही विचार पहुंचाने तथा उनके अंदर बदलाव की विचार बीज बोने की बहुत हद तक सफल कोशिश की।

यह उनकी शिक्षाओं का परिणाम था कि उनकी सैन्य टुकड़ियाँ में आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पण तथा धार्मिक व राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयारी दिखती थी। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानी ख़ालिस (शुद्ध), विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। यानी जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। ख़ालसा का अर्थ समझाते हुए कहा गया है कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया - वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह। गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। साथ ही निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है वही सच्चा ख़ालसा है। गुरु गोबिन्द सिंह इस मयाने में दुनिया में अनूठे गुरु थे जिन्होंने पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा दिया तथा स्वयं उनके शिष्य बन गए।

उन्होंने यह शिक्षा दिया कि मृत्यु सुनिश्चित है और जिस दिन आना है उसे कोई रोक नहीं सकता तो क्यों न न्याय के लिए, धर्म के लिए संघर्ष करते हुए अपनी आयु पूरी की जाए। उन्होंने अपने पिता का बलिदान देखा, पुत्रों का बलिदान भुगता लेकिन पथ से डिगे नहीं। इतिहास में यदि आप सर्वस्व न्यौछावर कर देने की समानता तलाशेंगे तो कुछ गिने-चुने महापुरुष ही गुरु गोविन्द सिंह के समकक्ष आपको दिखाई देंगे। वे अध्यात्म की उंचाई तक पहुंचे हुए व्यक्ति थे जिसने जीवन और मरण का सच जान लिया था। उन्होने अपने धर्म और संस्कृति की महानता को भी गहराई से समझा था, इसलिए औरंगजेब की मजहबी कट्टरता के प्रहार से बचाने को वे कृतसंकल्प थे। सच कहा जाए तो उन्होंने धार्मिक या विस्तार करें तो आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का रास्ता चुना था, अन्यथा तो वे संत थे। यह मानना गलत होगा कि गुरु गोबिन्द सिंह जी का किसी से व्यक्तिगत बैर था। उतनी आध्यात्मिक उंचाई पर पहुंचे व्यक्ति का किसी से बैर हो ही नहीं सकता था। वे सभी प्राणियों को परमात्मा का ही रूप मानते थे। उनको सांप्रदायिक मानने वालों को उनकी यह पंक्ति याद रखनी चाहिए- हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो। यानी हिन्दू हो या तुर्क या कोई सब मानवमात्र हैं। 

तो ऐसे व्यक्ति को बैरभाव छू तक कैसे सकता था। जिस औरंगजेब से उनकी पारिवारिक शत्रुता मानी जानी चाहिए उसे उन्होंने जो पत्र लिखा है उसमें उनका निर्वैर भाव प्रकट होता है। औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र ज़फ़रनामा में लिखते हैं- औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दुःखी नहीं करना चाहिए। तूने क़ुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। यह बात अलग है कि औरंगजेब पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। बहादूरशाह प्रथम से उनकी मित्रता यूं ही नहीं हो गई। जून 1707 में आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई में बहादुरशाह की जीत हुई तो उसके पीछे कारण यह था कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया। बहादुरशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह को आगरा बुलाया। एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी भेंट की। उससे मुग़लों के साथ एक लंबे संघर्ष के अंत की संभावना पैदा हो गई थी। लेकिन परिस्थितियों को कुछ और मंजूर था। कुछ घटनाओं के कारण ऐसा न हो सका।

गुरू गोबिन्द सिंह इतने दूरदर्शी थे कि भविष्य में गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने अपनी मृत्यु को निकट देखकर साफ कर दिया कि उनके बाद कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रन्थ साहिब को अन्तिम गुरु का दर्जा दे दिया। हालांकि सभी गुरुओं ने कुछ पद, भजन और सुक्तियां गढ़े हैं, पर गुरु गोबिन्द सिंह की विद्वता उन्हें सबसे आगे ले गई। इन्होंने कई  ग्रंथों की रचना की ये हैं - सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर, चण्डी चरित्र, दशमग्रन्थ,कृष्णावतार,गोबिन्द गीत, प्रेम प्रबोध,जाप साहब,अकाल उस्तुता,चौबीस अवतार,नाममाला तथा विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन। चण्डी चरित्र इतनी ओजस्वी भाषा में लिखी गई है कि आज भी पढ़ने पर वीरता का भाव पैदा कर देती है। चंडी दीवार उनकी पंजाबी भाषा की एकमात्र रचना है। शेष हिन्दी भाषा में हैं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

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