शुक्रवार, 11 मार्च 2016

पांच राज्यों के चुनावों को यूं समझिए

 

अवधेश कुमार

पांच विधानसभा चुनावों का बिगुल बच चुका है। वैसे एक साथ मिलाकर देखें तो कुल 824 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहे हैं, लेकिन इनमें ऐसी राजनीतिक एकरुपता नहीं है जिनसे कि हम इसका कोई एक राजनीतिक अर्थ निकाल सकें। आप इन पांचों राज्यों को मिला दें तो पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल असम से 5 सीटें मिलीं थीं। यानी 824 में उसके पास केवल 5 सीटें हैं। इस आधार पर देखें तो उसके लिए ज्यादा कुछ दांव पर यहां नहीं है। किंतु लोकसभा चुनाव के आधार पर विचार करें तो असम से उसने 14 में से 7 सीटें तथा पश्चिम बंगाल से 2 सीटें जीतीं थीं। इस आधार पर यदि मूल्यांकन करें तो कम से कम इन दो राज्यों में अपने लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को बनाए रखना उसके लिए जरुरी है। इसमें यदि कमी आ गई तो दिल्ली और बिहार की पराजय को एक क्रम में मिलाते हुए माना जाएगा कि भाजपा का जादू वाकई चूक रहा है। लेकिन कांग्रेस के लिए यहां बहुत कुछ दांव पर है। असम और केरल में तो उसके मुख्यमंत्री ही हैं। केरल में हालांकि उसके नेतृत्व में सरकार गठबंधन की है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में इन सारे राज्यों में कुल 170 सीटें जीतीं थीं। कम से कम उस पर अपने पुराने प्रदर्शन को दुहराने की चुनौती है। अगर वह नहीं दुहरा पाई तो निष्कर्ष यह आएगा कि बिहार में भले नीतीश एवं लालू के साथ गठबंधन मंे उसने 27 सीटें पा लीं लेकिन उसके उभार का दौर अभी आरंभ नहीं हुआ है।

वैसे एक साथ मिला लें तो इन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व दिखाई देगा। केरल में हालांकि वामदलों ने कुल 68 स्थान जीते थे, लेकिन माकपा भाकपा को छोड़कर 10 सीटें इनमें भी क्षेत्रीय पार्टियों के हाथों ही था। इसी तरह कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा में 72 में से 34 सीटें क्षेत्रीय पार्टियों के खाते में ही गईं थीं। अगर सारे राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की सीटों को एक साथ मिला दें तो इनकी संख्या 493 होतीं हैं। इसके बाद कहने की आवश्यकता नहीं कि यह चुनाव क्षेत्रीय पार्टियों के वर्चस्व वाला था और राजनीतिक समीकरण इतना नहीं बदला है कि हम मान लें यह स्वरुप बदल जाएगा। इसलिए इन चुनावों के परिणाम से आगे की धारा का संकेत तभी मिलेगा जब कांग्रेस पहले से बेहतर या एकदम बुरा प्रदर्शन करे या फिर भाजपा को बेहतर सफलताएं मिल जाएं। क्या यह संभव है? ध्यान रखिए सत्तारुढ़ राजग में केवल एक सांसद वाली पुड्डुचेरी की ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस शामिल है।

शुरुआत असम से करें। 2011 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भले बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन लोकसभा चुनाव में उसे 14 में से केवल 3 सीटें और 29.60 प्रतिशत मत मिल पाए। इसके समानांतर भाजपा को 7 सीटें और 36.50 प्रतिशत मत मिले। यानी लोकसभा चुनाव में पूरा परिदृश्य बदल गया था। चुनाव की घोषणा के पहले हमने देखा कि किस तरह कांग्रेस में विद्रोह हो गया और उसके नेता तथा विधायक भाजपा में आ रहे थे। भाजपा ने अपने आधार को मजबूत करने के लिए असम गण परिषद, बोडो पीपुल्स फ्रंट तथा दो अन्य जातीय समूह तिवा और सभा से गठबंधन किया है। कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक युनाइटेड फ्रंट से गठबंधन की कोशिश की लेकिन यह परवान नहीं चढ़ सका है। इसने पिछले विधानसभा चुनाव में 18 सीटें जीतीं थीं। लोकसभा चुनाव में 3 सीटें जीतकर इसने अपने को कांग्रेस के बराबर खड़ा कर दिया। हालांंिक इसको वोट केवल 14.8 प्रतिशत ही आए। यह अलग चुनाव लड़ेगी तो इसका नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ेगा। राज्य के अल्पसंख्यक मतों का बंटवारा होगा। वैसे भी 15 वर्ष के शासन के बाद कांग्रेस के संदर्भ में सत्ता विरोधी रुझान कुछ तो होगा ही। इसलिए यहां कांग्रेस, एआइयूडीएफ एवं भाजपा गठबंधन के बीच कड़ी टक्कर होगी। भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सर्वानंद सोनोवाल एवं वर्तमान मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के व्यक्तित्व के बीच भी टक्कर होगी।

पश्चिम बंगाल में पिछले चुनाव में ममता बनर्जी ने कांग्रेस के साथ मिलकर लाल दुर्ग को उखाड़ फेंका था। माकपा वामदलों के साथ किसी तरह वापसी की कोशिश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस व ममता बनर्जी के विरुद्ध माकपा ने वामदलों के मोर्चे में कांग्रेस को शामिल करने का कदम बढ़ाया है। वैसे पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल के 184 सीटों के मुकाबले वामदलों ने केवल 42 सीटें जीतीं थी, लेकिन उसे करीब 39 प्रतिशत मत आए थे जो तृणमूल के बराबर थे। हां, कांग्रेस तृणमूल साथ थी तो कांग्रेस का 9.09 प्रतिशत मत बढ़ जाता है। लोकसभा चुनाव में तृणमूल ने 42 में से अकेल 34 स्थान तथा 39 प्रतिशत मत पाकर सबको पछाड़ दिया। इसमें भाजपा को भी 2 सीटें एवं 16.8 प्रतिशत मत पाए थे। यदि वामदल एवं कांग्रेस मिलते हैं तो मुख्य लड़ाई दोकोणीय होगी, लेकिन कुछ क्षेत्रों में भाजपा इसे त्रिकोणीय बना सकती है। ममता बनर्जी की सरकार के विरुद्व कोई बड़ा असंतोष नहीं दिख रहा है। हालांकि शारदा घोटाला, मालदा आदि घटनाओं को भाजपा उठाएगी। किंतु कुल मिलाकर पिछले विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव की बाजी पलटने का संकेत नहीं दे रहे।

केरल में पिछले विधानसभा चुनाव में ही वाम मोर्चा एवं कांग्रेस नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक मोर्चा के बीच कांटे की टक्कर थी। संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा को यदि 72 स्थान मिले तो वाम मोर्चा को 68। जाहिर है, वाम मोर्चा अवश्य इस अंकगणित को बदलना चाहेगा। लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा ने 20 में से 8 सीटें जीतीं। मुख्यमंत्री ओमन चांडी पर कांग्रेस हालांकि दांव लगा रही है लेकिन सौर घोटाला जैसे भ्रष्टाचार, मोर्चा के अंदर असंतोष और विद्रोह आदि स्थितियां उसके प्रतिकूल जाते हैं। हालांकि वाम मोर्चा की अगुवाई करने वाली माकपा में भी अच्युतानंदन एवं पी विजयन के बीच मतभेद जगजाहिर हैं। भाजपा यहां कभी बड़ी खिलाड़ी नहीं रही, पर स्थानीय निकाय चुनावों में उसे कुछ सफलताएं मिलीं हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उसने 10.30 प्रतिशत मत प्राप्त किया था। इसने भारतीय धर्म जन सेना से गठजोड़ किया है जो वहां के बड़े समुदाय एझवा का दल माना जाता है जिसकी आबादी करीब 30 प्रतिशत है। तो भाजपा गठजोड़ कुछ क्षेत्रों में लड़ाई तिकोणीय बना सकती है और संभव है पहली बार विधानसभा में उसका खाता भी खुल जाए।

तमिलनाडु में पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम और लोकसभा चुनाव दोनों एकतरफा थे। जयललिता के नेतृतव वाले अन्नाद्रमुक एवं एमडीएमके ने मिलकर चुनाव लड़ा। अन्नाद्रमुक को 234 स्थानों में अकेले 150 एवं डीएमडीके को 29 स्थान मिल गए। द्रमुक 23 स्थानों के साथ तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। कांगेस को केवल 5 स्थान मिले। लोकसभा की 39 में से अन्नाद्रमुक ने 37 सीटें जीत लीं एवं द्रमुक का खाता तक नहीं खुला। एक सीट भाजपा एवं एक पीएमके के खाते गया। अन्नाद्रमुक का वोट द्रमुक से करीब दोगुणा था। तो क्या यह स्थिति बदल जाएगी? 1980 से वहां कोई भी सरकार दोबारा सत्ता में नहीं लौटी है। किंतु जयललिता की लोकप्रियता में कमी नहीं दिख रही है। द्रमुक की कमान करुणानिधि स्टालिन को सौंप चुके हैं। कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन हो चुका हैं। किंतु दोनो पार्टियों का वोट एक साथ अन्नाद्रमुक को नहीं छूता है। तो देखें क्या होता है? भाजपा भी एक गठबंधन के साथ उतरेगी। वह कुछ सीटें शायद पा ले लेकिन परिणाम को बदल पाने की स्थिति में शायद ही होगी। पुड्डुचेरी का चुनाव तमिलनाडु से प्रभावित होता है। एन रंगास्वामी ने काग्रेस से अलग होकर चुनाव से पहले 2011 में ही ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस पार्टी बनाई तथा अन्नाद्रमुक तथा वामदलों के गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। एनआर कांग्रेस को अकेले 15 तथा अन्नाद्रमुक को 5 सीटें आईं। दूसरी तरफ द्रमुक, कांग्रेस, पीएमके और वीएमके का गठबंधन था। द्रमुक को केवल 2 तथा कांग्रेस को सात सीटें मिलीं थीं। हालांकि रंगास्वामी ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया था और 36.6 प्रतिशत मत लेकर वहां की एक सीट जीत ली थी। रंगास्वामी की सादगी और सरलता उनकी ताकत है तथा सुशासन के लिए जनता में वे प्रिय हैं। हिन्दू धर्म के उत्वसों पर छुट्टी देकर उन्होंने वहां के बड़े वर्ग को खुश किया है। इसके समानांतर कांग्रेस अपने नेता पूर्व मुख्यमंत्री वी. वैथीलिंगम के नेतृत्व में वापसी की कोशिश कर रही है। वैथीलिंगम की भी लोकप्रियता है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अकेले 26.3 प्रतिशत मत पाया था। अन्नाद्रमुक वहां किसी का खेल बनाने बिगाड़ने की स्थिति में है।

इस तरह पांच राज्यों के चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस के लिए कम से दो राज्यों असम और केरल में तथा एक हद तक पुड्डेचेरी में भी करो या मरो की स्थिति होगी। असम और केरल की पराजय का असर पार्टी के पूरे मनोविज्ञान पर होगा और अगले वर्ष उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब के चुनावों पर इसका असर हो सकता है। प. बंगाल मंे वह कम से कम अपना पिछला प्रदर्शन दुहराने की कोशिश करेगी। तमिलनाडु में द्रमुक पर उसकी आस लगी है। दूसरी ओर भाजपा चार राज्यों में अपनी ताकत बढ़ाने तथा असम में सरकार बनाने के लक्ष्य से चुनाव मैदान में उतर रही है। कांग्रेस की पराजय या उसकी शक्ति में कमी को भाजपा उसकी अलोकप्रियता के रुप में प्रचारित करेगी। हालांकि ये चुनाव मूलतः क्षेत्रीय पार्टियों की जय और पराजय वाले चुनाव ही है। केरल में भी कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन में है तो भाजपा भी। असम में भी क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन है। तमिलनाडु में तो मुख्य लड़ाई ही क्षेत्रीय पार्टियों से है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

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