शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

अमेरिकी आक्रामकता आशान्वित करने वाला

 

अवधेश कुमार

निश्चय ही यह असाधारण स्थिति है और इसमें भारत के लिए आशान्वित तथा आश्वस्त होने का कारण भी है। जिस तरह परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में चीन की भूमिका के खिलाफ तथा भारत के पक्ष में अमेरिका खुलकर सामने आया है उसकी उम्मीद बहुत कम लोगों को रही होगी। यह तो सभी मानते थे कि अमेरिका सहित इस समूह के 48 में से ज्यादादतर प्रमुख सदस्य भारत को इसमें शामिल करने के लिए प्रयास कर रहे हैं, किंतु अमेरिका इतनी आक्रामक कूटनीति का वरण करेगा यह आम कल्पना से परे है। सच कहा जाए तो भारत ने तो केवल निराशा प्रकट की है एवं चीन से कहा है कि संबंध नहीं बिगड़े इसके लिए जरुरी है कि उसके हितों का भी ध्यान रखा जाए। यह एक सामान्य और स्पष्ट कूटनीतिक संदेश है। लेकिन अमेरिका ने तो कह दिया है किसी एक देश के विरोध से वह ऐसा नहीं होने देगा कि भारत सदस्य न बने। अमेरिका के राजनीतिक मामलों के उपमंत्री टॉम शैनन ने कहा कि अमेरिका एनएसजी में भारत का प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। यानी वह हर हाल में उसको इसका सदस्य बनवाकर रहेगा। बस एक देश के चलते परमाणु व्यापार पर बनी अंतरराष्ट्रीय सहमति को नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसे सदस्य (चीन) को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।

कूटनीति की दुनिया में यह अत्यंत ही कड़ा वक्तव्य है तथा इससे चीन कठघरे में खड़ा ही नहीं होता उसे एक प्रकार से चुनौती भी दी गई है कि आपके विरोध के बावजूद भारत को एनएसजी का सदस्य बनाया जाएगा। अमेरिका के इस शीर्ष राजनयिक ने दुख जताया कि सियोल में समूह की सालाना बैठक में उनकी सरकार भारत को सदस्य बनाने में सफल नहीं रही। भारत की दावेदारी को अमेरिका ने जिस आधार पर सही करार दिया है वह है नाभिकीय अप्रसास के प्रति उसकी भूमिका। नाभिकीय अप्रसार के क्षेत्र में भारत को विश्वसनीय और महत्वपूर्ण शक्ति बताते हुए शैनन ने कहा कि हम इस बात पर प्रतिबद्ध हैं कि भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल हो। उनके शब्द हैं,‘हमारा मानना है कि हमने जिस तरह का काम किया है, नागरिक नाभिकीय समझौता, भारत ने जिस तरीके से खुद को नियंत्रित किया है, वह इसका हकदार है। भारत को इस समूह में शामिल किया जाए। इसके लिए अमेरिका लगातार काम करता रहेगा। देखा जाए तो एक प्रकार से भारत को एनएसजी का सदस्य बनाने की जिम्मेवारी अमेरिका ने ले ली है। हालांकि उसने कहा कि हम आगे बढ़ें, भारत और अमेरिका मिल बैठकर विमर्श करें कि सोल में क्या हुआ, राजनयिक प्रक्रिया पर नजर रखें, जो महत्वपूर्ण है और देखें कि अगली बार सफल होने के लिए हम और क्या कर सकते हैं।

यानी जब एनएसजी की अगली बैठक हो उसके पहले हमारी पूरी तैयारी रहे ताकि सिओल की पुनरावृत्ति न हो। यह एक व्यावहारिक सुझाव है और भारत को अमेरिका के साथ मिलकर इस दिशा में काम करने में समस्या नहीं आनी चाहिए। कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि अरे अमेरिका तो हर हाल में भारत को चीन के खिलाफ खड़ा करना चाहता है, इसलिए वह आक्रामक तो होगा ही। इसमें थोड़ी सत्यता है। मसलन, अपने इसी बयान में शैनन ने कहा कि भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता का वाहक है और दक्षिण चीन सागर में चीन जो कर रहा है वह पागलपन है। अमेरिका चाहता है कि हिंद महासागर में भारत बड़ी भूमिका निभाए। इसमें हम यहां विस्तार से नहीं जा सकते। किंतु क्या चीन दक्षिण चीन सागर को लेकर जिस तरह का अड़ियल और विस्तारवादी रवैया अख्तियार किए हुए है वह किसी संतुलित और शांति चाहने वाले राष्ट्र की भूमिका है? कतई नहीं। दक्षिण चीन सागर पर उसके दावे के कारण पूर्वी एशिया के देशों से उसने भयानक टकराव मोल ले लिया है। आज पूर्वी एशिया का एक भी देश चीन के साथ नहीं है। जापान से लेकर दक्षिण कोरिया, वियतनाम, फिलिपिन्स यहां तक मलेशिया एवं सिंगापुर तक उसके खिलाफ हैं। यह है चीन की स्थिति। उसके खिलाफ भय का आलम है और इस कारण एशिया प्रशांत के देश उससे निपटने का रास्ता तलाश कर रहे हैं। जो लोग यह कहते हैं कि भारत की चीन विरोधी भूमिका उचित नहीं है वे इस बात का जवाब दें कि चीन जो अरुणाचल में करता है क्या हमें वह स्वीकार है? वह जो अक्साई चीन में कर रहा है वह हमारे लिए किसी हालत में स्वीकार करने का कारण बन सकता है? नहीं।

चीन बिना किसी की परवाह किए हुए एक विस्तरवादी भूमिका में है, भारत के साथ उसका सीधा सामना है और उसके मंसूबे पर हर हाल में रोक लगना आवश्यक है। चीन इस बात पर अडिग है कि किसी सूरत में भारत के अंतरराष्ट्रीय कद एवं प्रभाव का विस्तार नहीं होने देना है। पीछे की छोड़ भी दे ंतो पिछले एक वर्ष की उसकी भूमिका को देख लीजिए, कभी वह आतंकवाद के मामले पर अंतरराष्ट्रीय मचं पर भारत के खिलाफ चला जाता है, कभी पाकिस्तान के साथ खड़ा हो जाता है। जैसे-जैसे भारत का कद और प्रभाव बढ़ने लगा है उसे लगता है भारत दरअसल, उसके महाशक्ति बनने के मंसूबे को तोड़ देगा। एनएसजी में उसका भारत के विरोध में इस सीमा तक जाना आखिर क्या साबित करता हैं? ऐसे में यह भारत के राष्ट्रीय हित में है कि उन देशों के साथ मिलकर काम करें जो चीन के ऐसे रवैये से पीड़ित हैं या उसके विरोधी हैं। हिन्द महासागर में हमारे अपने सामरिक हित हैं और यहां अगर दुनिया की बड़ी शक्तियां मानतीं हैं कि भारत बड़ी भूमिका निभाए तो यह हमारी नीति के अनुकूल है। यह आकांक्षा भारत की लंबे समय से है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषित कर दिया है कि हम हिन्द महासागर में अपनी भूमिका निभाने को तैयार हैं। चीन ने एनएसजी में जो कर दिया उसके बाद ऐसा क्या बचता है कि हम उन देशों के साथ खड़े न हों जो हमारी मदद को तैयार हैं? सच यही है कि सिओल में अंतिम समय में तो ऐसा हो गया था कि भारत का विरोध करने वाले देश भी साथ देने को तैयार हो गए थे और चीन अकेला अड़ा रह गया।

अमेरिकी बयान के बाद भी चीन की प्रतिक्रिया भारत के अनुकूल नहीं है। उसने कहा कि अमेरिकी अधिकारी को तथ्यों का ही पता नहीं हैं। एनएसजी की सालाना बैठक में केवल इस बात पर चर्चा हुई कि नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न करने वाले देश की सदस्यता के वैधानिक, राजनीतिक एवं तकनीकी मामलों पर चर्चा हुई। इसके साथ वह इस तथ्य को छिपा रहा है कि जब भारत की सदस्यता का प्रस्ताव आया तो उसी ने अड़ंगा लगाया और पांच घंटे की बहस के बाद चर्चा इस दिशा में मुड़ गई। तो चीन एकपक्षीय वार्ता कर अभी भी भारत विरोधी अपने रुख को सही ठहराने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में हमारा राष्ट्रीय हित क्या है इस पर विचार करिए और फिर निष्कर्ष निकालिए। जो देश हमारे साथ डटकर खड़ा है हम उसका साथ लें या जो विरोध कर रहा है उसके साथ खड़े हों? वैसे अमेरिका जैसे देशों का विरोध अनेक देशों के लिए अपनी नीति निर्धारित करने का आधार बन जाता है। सिओल में भारत के समर्थन में उतने अधिक देशों के आने के पीछे भारत की कूटनीति के साथ अमेरिका का खुलेआम मिला समर्थन ही था। चीन की इस कारण समस्या बढ़ भी गई है। उसे उम्मीद थी कि कम से कम एक तिहाई सदस्य भारत के खिलाफ हो जाएंगे। ऐसा नहीं हो पाया। खबर है कि चीन ने एनएसजी में बातचीत में अहम भूमिका निभाने वाले अपने मुख्य राजनयिक वांग कुन को हटा दिया है। बताया गया है कि चीन के नेता एनएसजी में भारत के खिलाफ देशों का समर्थन जुटाने में नाकाम रहने से वांग से नाराज हैं।

तो कुल मिलाकर चीन का रवैया हमारे सामने हैं। हालांकि अभी उसे दक्षिण चीन सागर पर हेग (नीदरलैंड्स) के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में अपने विरोधी फैसले का सामना करना पड़ सकता है। फिलीपीन्स ने दक्षिण चीन सागर में चीन के बढ़ते दखल को लेकर मामला दायर किया था। चीन मानता है कि अगर हेग में फैसला उसके खिलाफ आया तो भारत इसे इस्तेमाल करेगा।  भारत यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन ऑन लॉ ऑफ द सी का हवाला देकर चीन के विरोध में खड़ा हो सकता है। संभव है हेग न्यायालय उसे फिलिपिन्स की जमीन लौटाने को कहे। इसलिए अभी से उसने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की कार्रवाई को ही गैरकानूनी कहना आरंभ कर दिया है। इसके खिलाफ वह जोरदार अभियान चला रहा है। किंतु वह है अकेले। हमारे लिए और अमेरिका के लिए यह मौका होगा जब हम चीन को दबाव में लाने की रणनीति अपनाएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

 

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