बुधवार, 31 मार्च 2021

मोदी की बांग्लादेश यात्रा के मायने

अवधेश कुमार

अगर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव नहीं होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो दिवसीय बांग्लादेश यात्रा का विश्लेषण निश्चय अलग दृष्टिकोण से किया जाता। चुनाव है और पश्चिम बंगाल के मतदाताओं के किसी तरह बांग्लादेश में मोदी की गतिविधियों से प्रभावित होने की संभावना है तो उस दृष्टिकोण से देखा जाएगा । मोदी जब बांग्लादेश के सत्खीरा स्थित शताब्दियों पुराने 51 शक्तिपीठों में से एक जेशोरेश्वरी काली मंदिर में पूजा अर्चना कर रहे थे, सोने और चांदी के मुकुट चढ़ा रहे थे और वो लाइव भारत में दिख रही थी तो फिर विरोधी और विश्लेषक यह टिप्पणी करेंगे ही कि बंगाल के हिंदू मतदाताओं को लुभाने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं। उसी तरह अगर उन्होंने मतुआ समुदाय के आध्यात्मिक गुरु हरिचंद ठाकुर के जन्म स्थान गोपालगंज स्थित ओरकांडी मंदिर में पूजा अर्चना के बाद उनको संबोधित किया तो उसका संदेश इस पार आना ही है। आखिर मतुआ महासंघ बांग्लादेश से ज्यादा पश्चिम बंगाल में सक्रिय है। बांग्लादेश मतुआ महाआयोग के अध्यक्ष पद्मनाभ ठाकुर  हों या हरिचंद ठाकुर के वंश के सदस्य सुब्रतो ठाकुर उनका प्रभाव पश्चिम बंगाल के मतुआ समुदाय पर निसंदेह है । सुब्रतो ठाकुर बांग्लादेश में काशियानी उपज़िला परिषद के अध्यक्ष हैं।

मतुआ नामशूद्र समुदाय का प बंगाल की सात लोकसभा सीटों और 60-70 विधानसभा सीटों पर प्रभाव है। मोदी ने अपने संबोधन में जिस बोडो मां  यानी वीणापानी देवी से मुलाकात की चर्चा की उनके जीवनकाल में मतुआ समुदाय की राजनीति उनके संकेत से संचालित होती थी। स्वयं ममता बनर्जी ने भी मतुआ समुदाय को साधने की कोशिश की। बोडो मां के सबसे बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर को बनगांव लोक सभा सीट से उम्मीदवार बनाया और वे जीतकर 2014 में सांसद बने। अक्तूबर, 2014 में जब उनकी मृत्यु हो गई तो उनकी पत्नी ममता ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारा और वह भी सांसद बनी । जो शांतनु ठाकुर ओरकांडी  मंदिर में मोदी के साथ थे वे अभी बनगांव से भाजपा के सांसद हैं। उन्होंने ही अपनी चाची ममता ठाकुर को हराया। भाजपा ने उनके के छोटे भाई सुब्रत ठाकुर को  गाईधाट विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया है। संभव है मोदी ने ओरकांडी ठाकुरबारी से बंगाल चुनाव को भी साधने की कोशिश की हो। यह नहीं भूलिए की विभाजन के बाद उस पार रह गए मतुआ लोगों के बीच कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था। मूल प्रश्न यह है कि क्या प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का वहां जाना, जेशोरेश्वरी मंदिर में पूजा करना कूटनीति की दृष्टि से सही कदम नहीं था ? बिल्कुल था। कूटनीति का अर्थ केवल आर्थिक, सामरिक राजनीतिक द्विपक्षीय अंतर्संबंध नहीं है। सभ्यता - संस्कृति, अध्यात्म, नस्ल आदि इसके ज्यादा सबल पक्ष हैं। दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया आदि में भारतीय कूटनीति तभी सफल होगी जब भारत के नेता संस्कृति- सभ्यता, धर्म और अध्यात्म के तंतुओं को जोड़ने की प्रबल कोशिश करेंगे। मोदी ने अब तक इस भूमिका को प्रखरता से निभाया है। वैसे भी बांग्लादेश हो या पाकिस्तान अगर वहां  हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन हैं, इनके उपासना स्थान वहां है, हमारे देव स्थानों के कुछ मुख्य केंद्र वहां सदियों पुराने हैं तो उन सबका ध्यान भारत के अलावा और कौन रख सकता है ?

भारत और नेपाल के बाद हिंदुओं की सबसे ज्यादा आबादी आज भी बांग्लादेश में है। मोटा- मोटी आकलन है कि एक करोड़ 70 लाख हिंदू वहां हैं । बांग्लादेश के निष्ठावान नागरिक होते हुए भी वे लोग हमेशा अपने ऊपर भारत से अपनत्व वाले हाथ तथा संकट में साथ की उम्मीद करते हैं। मोदी जब जून 2015 में बांग्लादेश की पहली यात्रा पर गए थे तब भी उन्होंने ढाकेश्वरी मंदिर और रामकृष्ण मठ की यात्रा की थी और उसका गहरा प्रभाव हुआ। इस समय भी उनकी यात्रा का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि बांग्लादेश सरकार ने जेशोरेश्वरी तक जाने की सड़कें बेहतर कर दी, वहां गेस्ट हाउस रेस्ट हाउस बने, मंदिर और आसपास के भवनों का जीर्णाेद्धार हुआ..... । ऐसा ओरकांडी ठाकुर बारी में भी देखा गया । हरिचंद ठाकुर की जयंती पर हर साल बारोनी श्नान उत्सव मनाया जाता है जिसमें भाग लेने के लिए भारत से भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस यात्रा को आसान बनाने की मांग बरसों से थी और मोदी ने इसे पूरा करने का वायदा किया। प्रधानमंत्री ने वहां एक प्राइमरी स्कूल तथा लड़कियों के मिडिल स्कूल को अपग्रेड करने के साथ कई घोषणाएं की जिनका असर वहां की सरकार और प्रशासन पर भी हुआ होगा। आने वाले समय में बांग्लादेश सरकार की ओर से वहां के संपूर्ण हिंदू समुदाय,मंदिरों, मतुआ समुदाय आदि के लिए कई कार्य किए जाएंगे । यह भी न भूलें कि गोपालगंज जिले के ही तुंगीपाड़ा में बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की समाधि है। मोदी वहां जाने और श्रद्धा सुमन अर्पित करने वाले किसी विदेशी सरकार के पहले मुखिया बने हैं । क्या इसे भी चुनाव से जोड़कर देखा जा सकता है

राजनीतिक नजरिए से हम मोदी के इन कार्यक्रमों को चाहे चुनाव की चासनी में डाल दें या फिर एक हिंदू हृदय सम्राट बनने की आकांक्षा का प्रतीक मान लें, भविष्य के भारत की दृष्टि से इन कदमों के बेहतर परिणाम होंगे। वैसे भी मोदी की यात्रा के दौरान द्विपक्षीय सहयोग के विभिन्न क्षेत्रों में पांच सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर हुए। प्रधानमंत्री ने अपने ट्वीट में ही स्पष्ट किया कि भारत और बांग्लादेश ने आपदा प्रबंधन, खेल एवं युवा मामलों, व्यापार और तकनीक जैसे क्षेत्रों में सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए हैं। विदेश सचिव हर्षवर्धन सिंहला ने कहा कि दोनों नेताओं के बीच तीस्ता मुद्दे पर चर्चा हुई। प्रधानमंत्री ने शेख हसीना को कहा कि भारत तीस्ता जल बंटवारे संबंधी समझौते को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है और इसके लिए जो भी हित धारक हैं उन सबसे परामर्श किया जा रहा है। भारत ने फेनी नदी के जल बंटवारे के लिए मसौदे को जल्द अंतिम रूप देने का अनुरोध भी किया। दोनों प्रधानमंत्रियों ने वर्चुअल ही कई परियोजनाओं का संयुक्त रूप से उद्घाटन किया। इनमें भारत-बांग्लादेश सीमा पर तीन नई सीमायी हाटें और ढाका न्यू जलपाईगुड़ी के बीच नई यात्री रेल मिताली एक्सप्रेस शामिल है। इसका महत्व इस मायने में है कि भारत ने बंगबंधु की जन्मशती और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की स्वर्ण जयंती के मौके पर शुरू करने की घोषणा की ।

वास्तव में मोदी की बांग्लादेश यात्रा में जनता से सरकार तक संबंधों को सुदृढ़ करने तथा दूरगामी परिणामों वाला बनाने के कारक सम्मिलित थे। बांग्लादेश की जनता को भावनात्मक तौर पर जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री के वहां जाने के पूर्व शेख मुजीबुरर्हमान को गांधी शांति पुरस्कार-2020 प्रदान करने की घोषणा हो गई थी। मोदी ने जब अपने हाथों से शेख हसीना को यह पुरस्कार सौंपा तो वहां उपस्थित लोग भाव विह्वल नजर आ रहे थे। इसी तरह कोविड-19 टीका का12 लाख खुराक तथा भारत की ओर से 109 एंबुलेंसों की चाबी सौंप कर मोदी ने बांग्लादेश के लोगों को संदेश दिया कि उनका संबंध दिलों तक फैला है। तो मोदी की इस यात्रा को भारतीय विदेश नीति के एक व्यापक प्रभावी कार्यक्रमों के रूप में देखा जाना चाहिए। अगर बांग्लादेश की स्वतंत्रता घोषित करने की स्वर्ण जयंती है और उसमें भारत के प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित किए गए तो उन्हें जाना ही चाहिए था। भारत में चुनाव है इसका ध्यान रखते हुए बांग्लादेश ने आयोजन तो किया नहीं। चूंकि चुनाव है इसलिए प्रधानमंत्री वहां जाएं ही नहीं इससे बड़ी आत्मघाती सोच कुछ हो ही नहीं सकती। मोदी ने अपने भाषण में भारत और बांग्लादेश को मिलकर विश्व में जिस निर्णायक और प्रभावी भूमिका की बात की वह लंबी वैश्विक साझेदारी की सोच है। मोदी को भी पता है कि बांग्लादेश में मजहबी कट्टरपंथियों तथा जिहादी आतंकवादियों की एक बड़ी फौज विकसित हो गई है। ये समस्या अकेले बांग्लादेश की नहीं हमारी भी है और हमें मिलकर ही इनका समाधान करना होगा। बांग्लादेश भी उभरती हुई आर्थिक शक्ति है। उसकी आजादी में मुख्य भूमिका के कारण आज भी एक बड़ी आबादी का भारत के प्रति भावनात्मक रिश्ता है। उसे लगातार मजबूत करते रहने की आवश्यकता है। चीन की बांग्लादेश में आर्थिक और रक्षा संबंधी गतिविधियां हमारे लिए चिंता और चुनौतियां हैं लेकिन केवल उन पर फोकस करने वाली कूटनीति से हम सामना नहीं कर सकते। राजनीतिक - आर्थिक - सामरिक के साथ-साथ सभ्यता - संस्कृति, नस्लीय एकता का संदेश देने वाले पहलुओं पर पूरा फोकस करते हुए ही हमारा संबंध ज्यादा विश्वास के साथ सुदृढ़ हो सकता है। मोदी ने बांग्लादेश की यात्रा से इन्ही लक्ष्य को पाने की कोशिश की है।

अवधेश कुमार, ई:30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली : 110092, मोबाइल #9811027208, 8178547992


बुधवार, 24 मार्च 2021

यह रक्षक के भक्षक बनने का मामला है

अवधेश कुमार

किसी को कल्पना नहीं रही होगी मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया के सामने जिलेटिन वाली स्कॉर्पियो मिलने का मामला इतना बड़ा बवंडर पैदा कर सकता है। पहले इसे आतंकवादियों की करतूत माना गया राजधानी के तिहार जेल में बंद इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकवादी से उसके तार जोड़े गए। छापे में उसके बैरक से दो मोबाइल फोन बरामद हुए जिसका प्रयोग वही करता था। कहा गया कि अंबानी को लिखा पत्र उसी का था। अब इस पर कोई बात नहीं कर रहा है। पूरा मामला घूम कर मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार के ईर्द-गिर्द खड़ी हो गई है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए के हाथ में आते ही मामला जिस ढंग से परत दर परत खुलता और विस्फोटक बनता जा रहा है वह किसी को अचंभित करने के लिए पर्याप्त है। मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त परमवीर सिंह द्वारा गृह मंत्री अनिल देशमुख पर लगाया गया आरोप कि उन्होंने सचिन वाझे को हर महीने 100 करोड़ वसूली के लिए कहा था असाधारण है। अगर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और महाअघारी सरकार के मुख्य रणनीतिकारों ने मान लिया था कि परमवीर सिंह को आयुक्त के पद से हटाने तथा पुलिस प्रशासन में कई फेरबदल के बाद मामले की आंच राजनीतिक नेतृत्व नहीं पहुंचेगी तो उनकी यह सोच गलत साबित हो रही है। परमवीर इस समय भी महानिदेशक स्तर के अधिकारी हैं। इतना बड़ा अधिकारी अपने गृह मंत्री पर बिना किसी आधार और प्रमाण के ऐसा आरोप नहीं लगा सकता। निस्संदेह परमवीर पर भी प्रश्न खड़ा है कि पुलिस आयुक्त के रुप में उनका कर्तव्य क्या था? उन्होंने अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया लेकिन यह पूरे मामले का एक पहलू है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में अपने किस्म की यह पहली घटना होगी। इसके पहले शायद ही कोई बड़ा पुलिस अधिकारी अपने गृह मंत्री के विरुद्ध आरोपों के पुलिंदा के साथ सामने आया हो।

वास्तव मैं परमवीर के आरोपों का मूल स्वर यही है कि मंत्री के आदेश पर मुंबई पुलिस का एक महकमा पूरी तरह आपराधिक गतिविधियों में ही संलीप्त था। इस दौरान अनेक बड़े मामलों को गलत मोड़ दिया गया। अगर आप पत्र को देखें तो उसमें जिस तरह का विवरण है उसे आसानी से झुठलाया नहीं जा सकता। मसलन, वे कह रहे हैं कि देशमुख  अपने सरकारी आवास पर सचिन बाझे और कई पुलिस अधिकारियों को बुलाते थे। इसमें ह्वाट्सऐप चौट का उल्लेख है। कायदे से गृह मंत्री के स्तर पर सचिन बाझे जैसे असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर या एपीआई स्तर के अधिकारी के साथ बैठक करने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। पूर्व पुलिस आयुक्त अगर कह रहे हैं कि वसूली महीनों से हो रही थी तो इसे कैसे खारिज किया जा सकता है? इसमें करीब 1750 पब और बार का जिक्र है और उनके अनुसार जिसे बताते हुए गृहमंत्री कह रहे हैं कि उनसे प्रति महीना दो से तीन लाख लिए जाएं तो 40 लाख के आसपास प्रति महीना इकट्ठा हो जाएगा। इसमें एसीपी सोशल सर्विस ब्रांच, संजय पाटिल का जिक्र है जिसे उन्होंने घर पर बुलाकर हुक्का पार्लर से वसूली पर बात की। देशमुख के निजी सचिव मिस्टर पांडे की उपस्थिति का भी इसमें जिक्र है। देशमुख का खंडन पर्याप्त नहीं है।  दादरा और नागर हवेली के सांसद मोहन डेलकर की मौत के मामले में गृह मंत्री की ओर से लगातार आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज करने के दबाव तक के अति गंभीर आरोप भी हैं।

कुल मिलाकर पूरे मामले के कई पहलू हो जाते हैं। आरंभ में इस घटना की जांच महाराष्ट्र आतंक विरोधी दस्ते एटीएस को दिया गया था। परमवीर के आरोपों पर आपका चाहे जो मत हों इससे एटीएस की जांच में कोई प्रगति क्यों नहीं हो सकी और एनआईए के आने के बाद क्यों पूरा मामला खुलता जा रहा है इसका जवाब देश को मिल गया है। अगर पुलिस स्वयं ही साजिश में शामिल हो तथा सरकार या राजनीतिक नेतृत्व का उसे किसी तरह का वरदहस्त प्राप्त हो तो फिर  ऐसे ही होगा। बड़े - बड़े पूर्व पुलिस अधिकारियों को यह देखकर चक्कर आ रहा था कि एक निचले स्तर का पुलिस अधिकारी सचिन वाझे आखिर इतने उच्च स्तरों के मामले की जांच कैसे कर रहा था। एनआईए की जांच से इतना तो साफ हो गया है कि पूरे मामले की साजिश पुलिस मुख्यालय तथा सचिन बाझे के घर पर ही रची गई। आगे जांच में मंत्रियों और नेताओं के नाम भी सामने आ जाएं तो आश्चर्य नहीं। मनसुख और उसका परिवार दुर्भाग्यशाली साबित हुआ। उसका स्कॉर्पियो वापस नहीं आएगा यह मालूम होने के बावजूद उसने वाझे को चाबी थमाई। जिस स्थिति में उसकी मृत्यु हुई उसे आत्महत्या मानना किसी के लिए कठिन है। वास्तव में वह इस साजिश का एक मुख्य गवाह हो सकता था, इसलिए यह संदेह अब सच्चाई बनता दिख रहा है कि मनसुख की हत्या कर फेंक दिया गया।

यह पहले से ही लग रहा था कि सचिन बाझे इस मामले में अकेले नहीं हो सकता। इसमें राजनीतिक नेतृत्व और बड़े अधिकारियों की भूमिका होगी। देश के सबसे बड़े उद्योगपति के घर के बाहर जिलेटिन वाली गाड़ी खड़ा कर उसे दबाव में लाने का दुस्साहस एक छोटा पुलिस अधिकारी नहीं कर सकता। इसलिए परमवीर सिंह की शिकायत बेशक इस समय आरोप हैं लेकिन इसमें दम है। वैसे भी बाझे वसूली के मामले में पुलिस सेवा से बाहर हो गया था। उसने पूरी कोशिश की और जब उसकी पुनर्बहाली नहीं हुई तो वह शिवसेना में शामिल हो गया। डेढ़ दशक से ज्यादा समय बाद उद्धव सरकार में पुलिस में उसकी वापसी होती है और वह भी पीआईयू यानी अपराध जांच इकाई में। आप देख लीजिए, टीआरपी में हेरफेर के आरोप, अर्णव गोस्वामी, कंगना रनौत आदि कई बहुचर्चित मामले उसके हाथों ही दिए गए। यह साफ है कि राजनीतिक नेतृत्व का उससे सीधा संपर्क और संवाद नहीं होता या उसे संरक्षण हासिल रहता तो  उस स्तर के अधिकारी को ऐसे मामले नहीं दिए जा सकते हैं। जिस तरह की लग्जरी गाड़ियों का उपयोग करता था वह बड़े पुलिस अधिकारियों के साथ मंत्रियों और नेताओं को भी पता रहा होगा।। इस परिप्रेक्ष्य में परमवीर सिंह का यह कहना सही लगता है कि सीधे गृह मंत्री से संबंध होने के कारण वह कई बार उन्हें भी नजरअंदाज करके काम करता था। यह अलग बात है कि एक पुलिस आयुक्त होकर उन्होंने क्यों यह सब सहन किया इसका जवाब उन्हें देना होगा।

यह इसका एक और पहलू है। चूंकी बड़े से बड़े पुलिस अधिकारियों का कैरियर सरकार के हाथों है, इसलिए वह चाहे - अनचाहे उनके गैर कानूनी और असंवैधानिक आदेशों, इच्छाओं, कदमों, फैसलों का समर्थन करने या उसके अनुसार कार्रवाई करने के लिए मजबूर रहता है। स्वाभिमानी और ईमानदार पुलिस अधिकारी इसका विरोध कर सकता है या ऐसा करने से इंकार कर सकता है लेकिन उसे इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है। उसका स्थानांतरण कर दिया जाएगा या फिर उसे कई तरीकों से उत्पीड़ित किया जाएगा। इसलिए बड़े स्तर के अधिकारी भी राजनीतिक नेतृत्व के सामने नतमस्तक रहते हैं। ज्यादातर आराम से उनके साथ मिलकर हर तरह का काम करते हुए मनचाहा पद, और पदोन्नति पाते हैं। यह हमारी व्यवस्था की बहुत बड़ी त्रासदी है। वास्तव में यह रक्षक के ही भक्षक बन जाने का मामला है। सोचिए, यह कैसी व्यवस्था है जिसमें पुलिस के बड़े अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि उनके जानते हुए उनकी पुलिस गुंडों , दादाओंअपराधियों की तरह वसूली कर सरकार तक पहुंचा रही है, अनेक गैर कानूनी काम कर रही है और वे उसे चुपचाप देखने और सहभागिता करने को विवश हैं?

निश्चित रूप से इस विस्फोटक आरोप के राजनीतिक परिणाम होंगे। उद्धव सरकार का इकबाल अब खत्म मानिए। सारे विवादित और बहुचर्चित मामले एवं पुलिस की कार्रवाइयां संदेह के घेरे में आ गए हैं। यह तो संभव नहीं कि पुलिस और मंत्री के बीच ऐसी या इस तरह की अन्य दुरभीसंधियों की जानकारी महाअघारी के वरिष्ठ नेताओं को बिल्कुल नहीं हो। पत्र में तो मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंचाने का संकेत है। यह भी सवाल उठता है कि इतनी वसूली अगर हो रही थी तो क्या अकेले देशमुख उसे रख रहे थे? आखिर उसमें और किस किस को हिस्सा मिल रहा था? कोई अकेले ऐसा नहीं कर सकता। गलत तरीके से मुकदमों और गैरकानूनी पुलिस कार्रवाइयां अंधेरे में तो हो नहीं रही थी। इसमें दूसरों की भी संलिप्तता निश्चित रूप से है। जो संलिप्त नहीं थे उनने आवाज क्यों नहीं उठाई? सच कहें तो महाअघारी के किसी नेता या मंत्री के लिए इन प्रश्नों का अब वैसा जवाब देना कठिन है जिससे आम लोग सहमत हो सके। जाहिर है, उच्च स्तरीय व्यापक दायरों वाली स्वतंत्र जांच से ही कुछ हद तक सच्चाई सामने आ सकती है। हां, महाराष्ट्र में पुलिस , प्रशासन के साथ राजनीति में बहुआयामी सफाई की आपातकालीन आवश्यकता एक बार फिर रेखांकित हुई है। यहां भी प्रश्न वही है कि आखिर इसे कैसे और कौन अंजाम देगा?

अवधेश कुमार, ई:30, गणेश नगर, पांडव नगर काम्प्लेक्स, दिल्ली : 110092, मोबाइल #9811027208, 8178547992



मंगलवार, 23 मार्च 2021

बुलंद मस्जिद कॉलोनी में बन रही डिस्पेंसरी का दौरा किया दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग चेयरमैन जाकिर खान ने

मो. रियाज़

नई दिल्ली। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान ने बुलंद मस्जिद कॉलोनी में बन रही डिस्पेंसरी का दौरा किया। इसमें मौके पर उनके साथ दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की सदस्य नैंसी बारर्लो, एडवाइजरी कमेटी के सदस्य नियाज अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी, पीस कमेटी के सदस्य फिरदौस अहमद, एडीशनल डायरेक्टर (प्लानिंग) डायरेक्टर जनरल ऑफ हेल्थ सर्विस, सीडीएमओ डिस्ट्रिक्ट नार्थ ईस्ट, सुपरिटेंडेंट इंजीनियर, सिविल सर्कल, एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट नॉर्थ ईस्ट, एसडीम सीलमपुर, एसडीएम हेड क्वार्टर नॉर्थ ईस्ट के प्रतिनिधि आदि मौजूद थे।

बुलंद मस्जिद कॉलोनी में पहुंचने पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान का लोगों ने फूलों या गुलदस्ता देकर स्वागत किया। उसके बाद चेयरमैन जाकिर खान को पूरी डिस्पेंसरी के बारे में सभी विभागों से आए प्रतिनिधियों ने जानकारी द कि कहाँ क्या परेशानी आ रही है और किन कारणों से डिस्पेंसरी का काम रुका हुआ है। चेयरमैन साहब को बताया गया कि यह कार्य फंड न मिलने के कारण रुका हुआ हुआ है। अधिकारियों ने यही बताया कि यहां पर लगभग 70% कार्य पूरा हो चुका है परंतु अभी भी मुख्य कार्य सर्विस रोड, पानी व सीवर की समस्या, पार्किंग का न होना है। उन्होंने बताया कि जो लेआउट प्लान पहले दिया गया था उसमें भी कुछ बदलाव किया गया है जिसके लिए उच्च अधिकारियों से बातचीत चल रही है।

इस मौके पर दिल्ली माइनॉरिटी कमिशन के चेयरमैन जाकिर खान ने सभी अधिकारियों से इस कार्य को जल्द से जल्द पूरा करवाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा कि जहां पर भी उनकी जरूरत हो उन्हें बताएं, हम सब मिलकर अपने स्तर पर ज्यादा से ज्यादा से काम कर सकते हैं जो जिस लायक है वह अपने स्तर पर उस कार्य को करें और कहीं परेशानी आए तो मुझे बताएं, मैं उस कार्य को अपने स्तर पर करवाने की कोशिश करूंगा।

इस मौके पर कॉलोनी के काफी सारे समाजसेवी और आम जनता मौजूद थी जिन्होंने जाकिर खान की तारीफ करते हुए कहा कि यह डिस्पेंसरी लगभग 10 सालों से बन रही है पर अभी तक बन नहीं पाई है। डिस्पेंसरी का काम लगभग 4 वर्ष से ऐसे ही अधूरा पड़ा है जिस कारण लोगों को काफी परेशानी हो रही है अगर यह बन जाती है तो लोगों को इलाज करवाने के लिए दूसरी जगह नहीं जाना पड़ेगा।

अधिकारियों ने भी आश्वासन दिया कि हम आने वाले 8 से 10 महीने में इस डिस्पेंसरी को पूरी तरह से तैयार करवा देंगे ताकि जनता को जो परेशानी हो रही है वह आगे ना हो। इस मौके पर समाजसेवी कमल अरोड़ा, अनिल शर्मा, अब्दुल जब्बार, मोहम्मद जमाल, इजहार सलमानी, फैजी खान, रिहान खान, रिजवान बेकरी वाले, हनीफ उर्फ लल्ला भाई, मन्नान खान आदि लोग मौजूद थे।
































 
 

 

बुधवार, 17 मार्च 2021

फैसले से साबित हुआ बाटला हाउस मुठभेड़ आतंकवादियों के खिलाफ थी

अवधेश कुमार

बहुचर्चित और विवादित बाटला हाउस मुठभेड़ का फैसला आ गया है। दिल्ली के साकेत न्यायालय ने अपराध के दुर्लभों में दुर्लभतम करार देते हुए इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादी आरिज खान को फांसी की सजा सुना दिया है।न्यायालय ने आरिज को दोषी करार देते हुए लिखा है कि अभियोजन द्वारा पेश चश्मदीद गवाहों, दस्तावेजों एवं वैज्ञानिक सबूत उस पर लगे आरोपों को साबित करते हैं। इसमें संदेह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। न्यायालय ने यह भी साफ कहा है कि आरिज व उसके साथियों ने इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की हत्या की थी और पुलिसकर्मियों पर गोली चलाई थी। न्यायालय के अनुसार आरिज खान अपने चार साथियों मोहम्मद आतिफ अमीन, मोहम्मद साजिद, मोहम्मद सैफ एवं शहजाद अहमद के साथ बाटला हाउस में मौजूद था। न्यायालय का फैसला उन लोगों को करारा प्रत्युत्तर है जो शहीद इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के बलिदान को कमतर करते हुए पूरे मामले को पुलिस द्वारा गढ़ा गया एवं मुठभेड़ को फर्जी करार देने का अभियान लगातार चलाए हुए थे। करीब साढ़े 12 वर्षों बाद आया यह फैसला हम सबको उद्वेलित व संवेदित करने के लिए पर्याप्त है। वैसे 25 जुलाई 2013 को न्यायालय ने शहजाद को आजीवन कारावास की सजा देकर बाटला हाउस मुठभेड़ को सही करार दिया था। बावजूद इस पर शोर कम नहीं हुआ। याद करिए 13 सितंबर 2008 को जब दिल्ली में करोल बाग, कनॉट प्लेस और ग्रेटर कैलाश में एक पर एक श्रृंखलाबद्ध धमाके हुए तो कैसी स्थिति बनी थी? उन धमाकों में 30 लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए थे। यह तो संयोग था कि पुलिस ने समय रहते कनॉट प्लेस के रीगल सिनेमा, इंडिया गेट एवं संसद मार्ग से चार बमों को धमाके से पहले बरामद कर निष्क्रिय कर दिया था अन्यथा आतंकवादियों ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

पुलिस के आरोप पत्र और फैसले को देखें तो इसमें पूरी घटना का सिलसिलेवार वर्णन है। पुलिस की जांच से पता लग गया था कि इंडियन मुजाहिद्दीन या आईएम के आतंकवादियों ने इन घटनाओं को अंजाम दिया है और वे सभी बाटला हाउस के एल 18 स्थित फ्लैट नंबर 108 में छिपे हैं। इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की टीम 19 सितंबर 2008 की सुबह सादे कपड़ों में सेल्समैन बनकर आतंकियों को पकड़ने के लिए पहुंची। इन्होंने ज्योंही दरवाजा खटखटाया अंदर से गोली चलनी शुरू हो गई। गोलीबारी में दो आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद सज्जाद मारे गए, मोहम्मद साहब और आरिफ खान भाग निकलने में सफल हो गए जबकि जीशान पकड़ में आ गया। मोहन चंद शर्मा वही शहीद हो गए थे। जैसे ही पुलिस ने लोगों की धरपकड़ शुरू की व्यापक विरोध शुरू हो गया जिसमें राजनीतिक दल, एनजीओ, एक्टिविस्ट, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र संगठन- शिक्षक संगठन शामिल थे। जो मोहन चंद शर्मा बहादुरी से लड़ते हुए हमारी आपकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बलिदान हो गए उनको  दोषी और अपराधी साबित किया जाने लगा। यह भी आरोप लगा कि पुलिस वालों ने ही उनको गोली मार दी। हालांकि ये लोग भी नहीं बता सके कि आखिर आरिज खान है कहां। ग्रेटर कैलाश के एम ब्लॉक मार्केट स्थित पार्क में आरिफ ने ही बम रखा था।

दिल्ली विस्फोट एक व्यापक साजिश का हिस्सा था। योजना बनाकर विस्फोटक तैयार किया गया।  मोहम्मद कैफ एवं खालिद ऊर्फ कोडी ने कर्नाटक के उड्डपी से विस्फोट की कुछ सामग्रियां लाकर दिल्ली में आरिज एवं आतिफ अमीन को प्रदान किया। आरिज एवं साजिद ने लाजपत राय मार्केट और कई बाजारों से विस्फोटक के शेष सामान खरीदे। सोचिए, इनक ये कितने शातिर थे और हिंसा और खून से राजधानी को दहलाने का उन्माद कितना गहरा था। जुनेद का नाम पुलिस के पास नहीं था। मोहम्मद सैफ और शहजाद अहमद ने पूछताछ में उनका नाम लिया। आरिज बाटला मुठभेड़ के बाद एक महीने तक विभिन्न प्रदेशों में छिपता रहा। इसके बाद अब्दुल सुभान कुरैशी ऊर्फ तौकीर, जो इंडियन मुजाहिद्दीन का सह संस्थापक था, के साथ पहचान छुपाकर रहने लगा। दोनों सऊदी अरब भी चले गए लेकिन आई एम के इकबाल भटकल व रियाज भटकल ने पाकिस्तान से उन्हें निर्देश दिया कि भारत जाकर आइएम एवं सिमी को नए सिरे से संगठित करो। इसके बाद दोनों 2018 के मार्च से भारत आने जाने लगे। इसीमें दोनों दबोचे गए।  यह भी ध्यान रखने की बात है कि आरिज एवं कुरैशी को उनके किसी रिश्तेदार ने शरण नहीं दिया था। दोनों भागते फिर रहे थे। वे नेपाल गए जहां उन्होंने जाली दस्तावेजों से नेपाल की नागरिकता प्राप्त की तथा वहां के एक युवक निजाम खान के सहयोग से किराए पर घर ले लिया। उन्होंने वहां मतदाता पहचान पत्र एवं पासपोर्ट भी बनवा लिए तथा नेपाल की एक युवती से शादी भी कर ली।

इस तरह के आतंकवादियों के पक्ष में अगर देश के बड़े लोग खड़े हो जाएं तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता। आज इनके पक्ष में आवाज उठाने वालों से देश चाहेगा कि वे सामने आएं और बताएं कि न्यायालय के फैसले के बाद उनका क्या कहना है। दिल्ली पुलिस की जगह न्यायिक जांच की मांग की जा रही थी। मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक ले जाया गया। इनकी अपील पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दो महीने के भीतर मामले की जांच पूरी करने को कहा था। आयोग ने दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट देते हुए मुठभेड़ को वास्तविक माना। इसके बाद न्यायिक जांच की मांग खारिज कर दी गई। इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। वहां मामला खारिज हो गया। कोई यह नहीं कह सकता कि इस मामले की कानूनी लड़ाई में आरोपितों की ओर से कहीं भी कोई कमी रही। सच तो यह है कि न्यायालय में जितना संभव था वकीलों ने दोषियों को बचाने के लिए पूरी ताकत लगा दी। उदाहरण के लिए आरिज की तरफ से पेश अधिवक्ता ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि इंस्पेक्टर शर्मा को कौन सी गोली लगी है। इसके उत्तर में पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश किया गया जिससे साबित हुआ कि आरिज एवं उसके साथियों द्वारा चलाई गई गोलियों से ही इंस्पेक्टर शर्मा की मौत हुई। यह भी दलील दी गई कि ये तो वहां उपस्थित ही नहीं थे। यहीं पर वैज्ञानिक साक्ष्य के रुप में पुलिस की ओर से आरिज की आवाज के नमूने की जांच रिपोर्ट पेश की गई। इससे पता चला कि घटना के दौरान आरिज ने आतिफ अमीन के मोबाइल नंबर 9811 00 43 09 से कॉल किया था। इससे भी उसके घटनास्थल पर होने की पुष्टि हुई। गिरफ्तार मोहम्मद सैफ ने भी आरिज के होने की बात कबूल की। घटनास्थल से आरिज की तस्वीरें, उसके शैक्षणिक प्रमाण पत्र आदि की बरामदगी को भी चुनौती दी गई लेकिन यह नहीं बता सके कि आखिर पुलिस को ये सब मिला कहां से? इंस्पेक्टर शर्मा के गोली लगने के स्थान, उनके सूराख पर भी प्रश्न उठाए गए। अंततः साबित हुआ कि उनको लगी गोली से बने घाव उनके कपड़े पर हुए सुराख से मेल खाते हैं तथा गिरे आंसू उनके घाव को दर्शाते हैं। वैसे फैसला आने के पहले ही दिल्ली पुलिस के एक अधिकारी करनैल सिंह ने, जो उस समय विशेष शाखा के प्रमुख थे बाटला हाउस एन एनकाउंटर रूदैट शूक द नेशन नामक पुस्तक में इस बात का सिलसिलेवार और विस्तार से जिक्र किया कि किस तरह से दिल्ली धमाकों के सिलसिले में विशेष शाखा को बाटला हाउस में आतंकवादियों के छिपे होने का पता चला था, कैसे कार्रवाई हुई और कैसे एक सही मुठभेड़ को फर्जी करार देने की कोशिश हो रही है।

वास्तव में दिल्ली एवं देश के आम लोगों को पुलिस की जांच पर कोई संदेह नहीं था लेकिन उस वर्ग ने इसे संदेहास्पद बना दिया, जो प्रायः आतंकवादी घटनाओं को संदेह के घेरे में लाता है, पकड़े गए संदिग्ध आतंकवादियों को मासूम बताने के लिए बनावटी तथ्यों और तर्कों का जाल बुनता है तथा पुलिस एवं सरकारों को कठघरे में खड़ा करता है। अभी मामला ऊपर के न्यायालयों में जाएगा। वर्तमान फैसले के आलोक में ऐसे लोगों से फिर निवेदन किया जा सकता है कि सुरक्षा के मामले में राजनीति और तथाकथित विचारधारा के नाम पर इस तरह का वितंडा आत्मघाती हो सकता है।

अवधेश कुमार, ईरू30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल #9811027208, 8178547992


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