गुरुवार, 14 नवंबर 2019

दोषी राज्यपाल नहीं राजनीतिक पार्टियां हैं

 

अवधेश कुमार

विरोधियों का यह तर्क मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अगर राज्यपाल दो दिन और प्रतीक्षा कर लेते तो आसमान नहीं टूट पड़ता। हालांकि राष्ट्रपति शासन के अंदर सरकार गठन के लिए बातचीत और गठबंधन की प्रक्रिया पर कोई रोक नहीं है। विधानसभा निलंबित है भंग नहीं। जब भी कोई दल या नेता बहुमत विधायकों की संख्या लेकर आएगा पूरी स्थिति बदल जाएगी। राष्ट्रपति शासन खत्म और विधानसभा अस्तित्व में। फिर विधायकांे का शपथग्रहण और सरकार का गठन। इसलिए इस पर इतना हाय तौबा की आवश्यकता नहीं है। ऐसी हर स्थिति में राज्यपाल को खलनायक बना देना हमारे देश के नेताओं और मीडिया के एक वर्ग के लिए फैशन बन गया है। तर्क ऐसे दिए जाते हैं मानो पार्टियां और नेता तो अपना काम कर रहे थे राज्यपाल ने ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का गला घोंट दिया। निस्संदेह, भारत में अनेक राज्यपालों ने संविधान की भावनाओं को अपमान कर लोकतंत्र का गला घोंटने की भूमिकाएं निभाईं हैं। पर इसके लिए जमीन हमेशा नेताओं और दलों ने ही तैयार किया है। जरा सोचिए, महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना को जनता ने शासन चलाने का बहुमत दिया था। जनादेश के अनुसार अभी तक सरकार गठन हो जाना चाहिए था। अगर ऐसा हो जाता तो राज्यपाल के पास राष्ट्रपति सिफारिश का विकल्प ही नहीं मिलता। शिवसेना की जिद ने पूरी स्थिति पलट दिया। न वह भाजपा के साथ जाने को तैयार है न बहुमत का दूसरा कोई गठबंधन बन पाया। इसमें राज्यपाल के पास एक ही चारा था कि वे क्रमानुसार पहले सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को बुलाकर पूछें कि आप सरकार बनाने की स्थिति में हैं या नहीं? भाजपा के नकारने के बाद उन्होंने शिवसेना से पूछा कि क्या आप सरकार बनाने के इच्छुक हैं और अगर हैं तो आप सक्षम हैं या नहीं? शिवसेना ने इच्छा तो जताई लेकिन उसके पास किसी दूसरे दल के समर्थन का पत्र नहीं था। फिर बारी आई राकांपा की। उसने भी समय नहीं मांगा। राज्यपाल ने उसे 12 नवंबर की रात साढ़े आठ बजे तक का समय दिया। राकांपा ने उसके पूर्व 11.30 बजे ही राज्यपाल से दो दिनों के समय के लिए पत्र लिख दिया। उसके बाद राज्यपाल के सामने साफ था कि सरकार बनने की अभी स्थिति नहीं हैं। उन्होंने करीब 2 बजे केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट दी। मंत्रिमंडल की तत्काल बैठक हुई। तीन बजे फैसला हुआ। राष्ट्रपति पांच बजे पंजाब से वापस आए और फिर उनके हस्ताक्षर से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।

यह है पूरा क्रम। संविधान में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के प्रावधान को लेकर उच्चतम न्यायालय के कई फैसले आ गए हैं। संविधान सभा की बहस में भी इस पर इतना कुछ कहा गया है कि इसके लिए आधार तलाश करने की आवश्यकता नहीं। सामान्य तौर पर राष्ट्रपति शासन को अंतिम विकल्प माना गया है। समय के साथ कुछ परंपराएं भी सुदृढ़ हुए हैं। यदि चुनाव के बाद कोई सरकार बनने की तत्काल संभावना नहीं हो तो फिर कार्यकारी सरकार के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना अपरिहार्य हो जाता है। महाराष्ट्र अभी कार्यवाहक मुख्यमंत्री के अधीन था जो नीतिगत निर्णय नहीं कर सकते थे। इसमें राज्यपाल की कोई जिम्मेवारी बनती है या नहीं? आप चाहे जितनी आलोचना कर दीजिए लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने के अगले दो दिनों में सरकार बनने की बिल्कुल संभावना नहीं थी। राकांपा ने अपनी बैठक के बाद बयान दे दिया था कि उसने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा है और उसके साथ ही कोई कदम बढ़ाएगा। कांग्रेस दो बैठकों के बावजूद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहंुंची थी। उसने बयान जारी किया कि अभी और विचार-विमर्श की जरुरत है। शिवेसना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पहली बार औपचारिक रुप से शरद पवार से होटल में भेंट की तथा सोनिया गांधी को फोन किया। इसका सीधा अर्थ है कि अभी तक शिवसेना की ओर से संजय राउत केवल 175 विधायकों के समर्थन का बयान दे रहे थे राकांपा, कांग्रेस एवं निर्दलीय विधायको का समर्थन पाने की दिशा में कोई कदम उठा ही नहीं था। इस स्थिति को कब तक बनाए रखा जा सकता था?

12 नवंबर को तो आरंभ में कांग्रेस एवं राकांपा में ही आरोप-प्रत्यारोप हो गया। कांग्रेस ने शरद पवार पर स्थिति स्पष्ट न करने का बयान दिया। कांग्रेस के तीन नेता जब राकांपा से बातचीत करने विशेष विमान से मुंबई आए तो लगा कि अब कोई बात बन जाएगी। लेकिन पत्रकार वार्ता में कांग्रेस की ओर से अहमद पटेल ने साफ कहा कि अभी सरकार को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ है। उन्होंने राज्यपाल की राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले कांग्रेस को नहीं बुलाने की तीखी आलोचना की। राकांपा कांग्रेस दोनों साथ चुनाव लड़े थे। इसमें राकांपा बड़ी पार्टी है। राज्यपाल ने उसे बुलाया और उसने बहुमत का कोई आश्वासन नहीं दिया। राज्यपाल बुला सकते थे लेकिन कांग्रेस से बात करने से परिवर्तन क्या आ जाता? कुछ नहीं। वैसे काग्रेस के पास क्षमता थी या वे सरकार बनाने के इच्छुक थे तो राज्यपाल से स्वयं भी मिलने जा सकते थे। अगर राज्यपाल समय नहीं देते तो उनको दोष दिया जा सकता था। वैसे भी कांग्रेस एवं राकांपा दोनों ने पहले दिन से घोषणा किया था कि उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। पत्रकार वार्ता में शरद पवार ने भी कहा कि अभी सरकार बनाने को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ। हमारी शर्तें क्या होंगी, किन मुद्दांे और कार्यक्रमों पर सरकार बनेगी, इन सब पर कोई बातचीत हुई नहीं है। जब अहमद पटेल से पूछा गया कि क्या आप शिवेसना के मुख्यमंत्री का समर्थन करेंगे उन्होंने कहा कि अभी मैंने ऐसा नहीं कहा है। तो आपने निर्णय किया नहीं। आपका कुछ तय ही नहीं है और दोष राज्यपाल को दे रह हैं? राज्यपाल ने आपको आपस में बात करने से नहीं रोका। उन्होंने गठबंधन करने से नहीं रोका। आपको एक निश्चित समय दिया गया। यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर है कि वह कितना समय देते हैं। यह भी आरोप लगाया गया है कि भाजपा को 48 घंटे का समय दिया गया और हमें 24 घंटे का जो भेदभाव है। वैसे भाजपा को शनिवार को कहा गया था और रविवार छुट्टी थी। उसने सोमवार को बता दिया कि शिवसेना साथ रहने को तैयार नहीं इसलिए हम सरकार नहीं बना रहे हैं। कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार करेगा कि 24,48 या 72घंटे में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होने वाला।

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि राज्यपाल को चाहे आप खलनायक बना दें अगले कुछ दिनों तक सरकार बनने की संभावना नहीं है। यहां 1994 के बोम्मई मामला भी लागू नही होता कि बहुमत का फैसल विधानसभा में होना चाहिए। विधानसभा के गठन की स्थिति तो तभी बनेगी जब कोई पक्ष संख्याबल के साथ सरकार बनाने का दावा लेकर आए। सच यही है कि अगर महाराष्ट्र आज चुनाव मंे किसी गठबंधन को बहुमत देने के बावजूद बिना सरकार के है तो इसमें केवल राजनीतिक दलों का दोष है। सिद्धांतहीन और अवसरवादी राजनीति इसका मुख्य खलनायक है। शिवसेना ने जो रंग बदला उसे क्या कहेंगे? शरद पवार ने उसे जिस तरह प्रोत्साहित किया उसे क्या महाराष्ट्र के जनादेश का सम्मान कहा जाएगा? अब कांग्रेस जो कर रही है वह किस नैतिकता के दायरे में आता है? शरद पवार ने शिवेसना को राजग से अलग करवा दिया लेकिन कांग्रेस से बात तक नहीं की हमंें मिलकर सरकार बनाना है। वे कांग्रेस को तैयार कर सकते थे। आपने एक सरकार नहीं बनने दी तो विकल्प तैयार करते। आपने कुछ किया ही नहीं। भले शरद पवार इसे अपनी सफलता मानें यह बिल्कुल अनैतिक एवं गैर जिम्मेवार राजनीति है। मजे की बात यह भी कि रात साढ़े आठ बजे तक का समय था और उन्होंने कांग्रेस नेताओं से बातचीत करने के पहले 11.30 में ही पत्र लिख दिया। क्यों? इस प्रश्न का कोई समाधानपरक जवाब राकांपा के पास नहीं हो सकता। कांग्रेस की चिंता यह है कि एक कट्टर हिन्दूवादी पार्टी शिवसेना के साथ जाकर वह कहीं पाने से ज्यादा खो तो नहीं देगी। इस कारण वह उहापोह में है। राकांपा को ऐसी कोई समस्या नहीं। इसलिए राकांपा एवं कांग्रेस के बीच बात बनने में समय लग रहा है। किंतु किसी दृष्टि से राज्यपाल सरकार गठन में न पहले बाधा थे और न आगे होंगे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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