शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

याकूब अपनी नियति को प्राप्त हुआ

 

कोई नहीं कह सकता कि उसके साथ न्यायिक प्रक्रिया में कमी रह गई

अवधेश कुमार

जब उच्चतम न्यायालय ने एक बार डेथ वारंट को कानूनी रुप से सही करार दिया तो फिर याकूब रज्जाक मेमन की फांसी में महाराष्ट्र सरकार के सामने कोई समस्या नहीं थी। लेकिन ये भारत देश है यहां ऐसे नामचीन लोग हैं, वकील हैं जो इतनी आसानी से याकूब जैसे महान व्यक्ति को फांसी पर चढ़ने नहीं देने वाले थे। पूरा देश विस्मय से देख रहा था कि आखिर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दूसरी दया याचिका खारिज किए जाने के बाद वकीलों की पूरी फौज मीडिया को लेकर किस तरह मुख्य न्यायाधीश के एचएल दत्तू के दरवाजे आधी रात पहुंच गई। मुख्य न्यायाधीश को रात में फिर एक पीठ गठित करनी पड़ी, जिसने देर रात करीब तीन घंटे सुनवाई की और इनके दांव को नकार दिया। हम यह तो मानते हैं कि किसी निर्दोष के साथ हमारी न्यायिक प्रक्रिया में अन्याय न हो, इसके लिए वकीलों को कानूनी संघर्ष करना चाहिए। लेकिन यहां तो मामला ही अलग था। वकीलों का एक समूह इस तरह दिन रात एक किए हुए था मानो याकूब मेमन कोई ऐसा महान व्यक्तित्व हो जिसने इस देश या मानवता के लिए इतना बड़ा काम किया था कि उसे बचाना हर हाल में जरुरी था। इसके पूर्व कभी इस तरह आधी रात को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पीठ गठित कर सुवनाई करानी नहीं पड़ी थी।

तो याकूब के मामले में यह एक अभूतपूर्व स्थिति निर्मित की गई थी। निस्संदेह, यह अवांिछत, अनावश्यक और आपत्तिजनक भी था। खैर, इसके बाद कोई यह नहीं कह सकता कि यााकूब को न्यायालय में अपने बचाव का जितना अवसर मिलना चाहिए था नहीं मिला। इसके विपरीत जितना अवसर शायद नहीं हो सकता था उतना उसके लिए वकीलों ने पैदा किया। हालांकि हर बार उनके दांव विफल रहे। रात में सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के एक फैसले को आधार बनाते हुए इन वकीलों ने कहा कि दया याचिका खारिज होने के कम से कम 14 दिन बाद ही किसी को फांसी दी जा सकती है। इससे पहले याकूब के वकीलों की फौज ने अपनी याचिका में दो बातें कहीं थी- क्यूरेटिव पीटिशन पर दोबारा सुनवाई होनी चाहिए और मौत का वारंट जारी करने का तरीका गलत था। 5 घंटे 45 मिनट की सुनवाई के बाद न्यायालय ने कहा कि न तो क्यूरेटिव पीटिशन पर दोबारा सुनवाई की जरूरत है और न ही मौत का वारंट जारी करने में कोई गलती हुई है। न्यायालय ने साफ कहा कि याकूब के मामले में सभी कानूनी प्रक्रिया सही तरीके से अपनाई गईं। यही नहीं तीन न्यायाधीशों वाली पीठ के अध्यक्ष दीपक मिश्रा ने आदेश में कहा कि मौत के वारंट पर रोक लगाना न्याय का मजाक होगा। इससे कड़ी टिप्पणी औश्र क्या हो सकती है? जरा सोचिए, उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय बड़ी पीठ जिसे न्याया का मजाज करार दे रहा था उसे ये नामचीन वकील न्यायिक मान रहे थे। तो फिर इनके लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए?

 रात में तो खौर इतिहास ही बन गया। सुनवाई के लिए अदालत कक्ष का अभूतपूर्व रूप से रात में खोला जाना इनकी पहल पर ही हुई। अगर नहीं खोला जाता तो ये शायद उच्चतम न्यायालय पर भी कोई आरोप लगा देते। तीन बजकर 20 मिनट पर शुरू हुई सुनवाई करीब दो घंटे तक चली। मुख्य न्यायाधीश ने न्यायाधीश दीपक मिश्र, जे ए राय और जेपी पंत की उसी पीठ को मामले को सौंपा जिसने दिन में सुनवाई की थी। यहां न्यायालय ने क्या कहा इसे देखिए- राष्ट्रपति द्वारा 11 अप्रैल 2014 को पहली दया याचिका खारिज किए जाने के बाद दोषी को काफी समय दिया गया जिसकी सूचना उसे 26 मई 2014 को दी गई थी। ......अभियुक्त को इसका पूरा समय सरकार ने दिया जिससे कि वो अपने परिजनों से अंतिम मुलाकात कर सके तथा शेष जो भी जेल में रहते हुए बंधनों के अंदर करना हो कर सके।इसके बाद आप निष्कर्ष निकालिए कि इन वकीलो की फौज का पक्ष कितना मजबूत था। इतने बड़े-बड़े वकील थे तो इन्हें कानून, मौत के वारंट की प्रक्रिया आदि का ज्ञान नहीं हो ऐसा तो हो नहीं सकता। इसलिए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है आखिर ये ऐसा क्यों कर रहे थे?

पहले उच्चतम न्यायालय ने मौत के आदेश को आजीवन कारावास में परिणत करने की याचिका खारिज कर दी थी। उसके बाद पुनरीक्षण याचिका, फिर सुधारात्मक याचिका....भी अस्वीकृत हुई। सुधारात्मक याचिका के पूर्व राष्ट्रपति ने दया यायिका खारिज कर दी थी। न्यायालय से लेकर राष्ट्रपति तक को याकूब से कोई निजी दुश्मनी तो थी नहीं। सच तो यह था कि तमाम कोशिशें किसी तरह मौते को टालने की रणनीति का अंग था ताकि बाद में उसे किसी तरह बचा लिया जाए। आखिर राजीव गांधी हत्याकांड के अभियुक्तों को उच्चतम न्यायालय ने देरी का आधार बनाते हुए मृत्युदंड से मुक्त कर ही दिया। तो रणनीति के तहत ही महाराष्ट्र के राज्यपाल के यहां दया याचिका गई। उनने ठुकरा दी। एक ओर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई चल रही थी दूसरी ओर फिर  राष्ट्रपति के यहां दया याचिका भेज दी गई। कोई व्यक्ति इस तरह सारे फैसलों के बाद याचिका दर याचिका डालता रहे और न्यायालय उसकी सुनवाई करता रहे, राष्ट्रपति उस पर हमेशा एक ही कार्रवाई करने को विवश रहें तो यह वाकई न्याय प्रक्रिया का मजाक ही होगा। इसलिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लिखित राय की जगह गृहमंत्री को ही बुला लिया, सौलिसिटर जनरल को भी बुलाया और वही खारिज करने का फैसला कर लिया।  ऐसी याचिकाओं में इसी तरह फैसला होना चाहिए। इसलिए यह कहना होगा कि उच्चतम न्यायालय ने भी आगे की बजाय रात में ही सुनवाई एवं फैसले की बिल्कुल सही नीति अपनाई एवं राष्ट्रपति ने भी। सच कहंें तो इन दोनों कदमों से न्यायिक प्रक्रिया मजाक बनने से बची। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि याकूब को अपने बचाव के पर्याप्त मौके दिए गए। इसने आगे कहा कि कल आदेश सुनाते हुए भी हमें टाडा अदालत द्वारा 30 जुलाई को फांसी देने के लिए 30 अप्रैल को जारी किए गए मौत के वारंट में कोई खामी दिखी ही नहीं।

यह बड़ी अजीब स्थिति है। आखिर एक व्यक्ति, जो भारत पर पहले श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों का अभियुक्त था, जिसका अपराध प्रमाणित हो चुका था...उसके बाद उसके पक्ष में खड़ा होने वालों को क्या कहा जा सकता है? वकीलों के साथ 291 तथाकथित नामचीन लोगों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा कि इसे ही दया याचिका मानकर विचार किया जाए। क्यों भाई? क्या आपको अपनी न्यायिक प्रक्रिया पर विश्वास नही है जो मानता है कि मौत की सजा विरलों में विरलतम मामले में ही दी जा सकती है? उसी न्यायालय ने 10 लोगों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला, केवल एक की मौत बरकरार रखी थी। जाहिर है, इसके खिलाफ एकदम पुख्ता सबूत के बगैर उच्चतम न्यायालय ऐसा फैसला कर ही नहीं सकता था। याकूब के लिए मोर्चाबंदी करने वाले पता नहीं क्यों भूल रहे थे कि मुंबई पर हमला मतलब भारत पर हमला था। हमारे देश पर हमले के अपराधियों के साथ कैसा सलूक किया जाना चाहिए? ये यह भी भूल गए कि जो 257 लोग उस हमले में मारे गए उनके परिवार की तथा जो 713 घायल हुए उनकी मानसिक दशा क्या होगी? उनका कोई मानवाधिकार नहीं था या है? कहा गया कि उसने स्वयं आत्मसमर्पण किया। अपने परिवार को कराची से लाने की पहल की। हालांकि मुकदमे के दौरान याकूब ने इसका जिक्र नहीं किया, फिर भी इसे कुछ समय के लिए स्वीकार कर लंें तो इससे उसका अपराध कम हो जाता है? क्या कोई आत्मसमर्पण कर दे तो उससे कानून में उसकी सजा पर असर पड़ने का कोई प्रावधान है? तो फिर उसके लिए छाती पीटने वाले आखिर क्या संदेश दे रहे थे। अगर असदुद्दीन जैसे कुछ नेता इसे सांप्रदायिक रंग देकर अपना राजनीतिक एजेंडा पूरा कर रहे थे या कर रहे हैं तो ये सारे लोग उसको बल प्रदान कर रहे थे।

वास्तव में यह तो मुंबई हमले मामले की त्रासदी है कि इसके दो मुख्य अभियुक्त दाउद इब्राहिम और याकूब के बड़े भाई टाइगर मेमन को आज तक पकड़ा नहीं जा सका। यह न्यायिक प्रक्रिया तभी पूरी होगी जब इन दोनों को भी पकड़कर कानून के कठघरे में खड़ा किया जाए। निश्चित मानिए, अगर कभी ऐसा हुआ तो इन वकीलों की तथा बुद्धिजीवियों का समूह उसके पक्ष में भी खड़ा हो जाएगा। ये वकील इतने महंगे हैं कि इन्हें कोई आम आदमी अपने मुकदमे की पैरवी के लिए लेने की कल्पना भी नहीं कर सकता। आखिर इसके पूर्व किसी पीड़ित के लिए इनको एक साथ इस तरह खड़े होते नहीं देखा गया। इतने महंगे फीस वाले वकीलों को इसमें पारिश्रमिक कहां से आ रहा था? इनका निहित एजेंडा क्या था? इन प्रश्नों का उत्तर देश को मिलना चाहिए। खैर, जो भी हो कम से कम इसके बाद कोई मानसिक संतुलन वाला यह नहीं कह सकता कि याकूब के साथ न्यायिक प्रक्रिया मे कहीं कोई कमी रह गई।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

 

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