बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

'तस्वीर की सियासत' बनाम 'सियासत की तस्वीर'?

निर्मल रानी

देश सरकारी कार्यालयों में  प्रायः राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी,देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के चित्र लगाये जाते हैं। जबकि राज्यों में इनके साथ मुख्यमंत्री व राजयपाल के चित्र भी लगाये जाते हैं। इस व्यवस्था को 'प्रोटोकॉल ' अथवा शिष्टाचार / नवाचार कहा जाता है। शीर्ष पदों पर बैठे लोग समय समय पर अपनी सुविधानुसार या किसी पूर्वाग्रह के चलते स्वेच्छा से इसमें बदलाव भी करते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर आपको झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के कार्यालय में मुख्यमंत्री की कुर्सी के ठीक पीछे मुख्य रूप से केवल उनके पिता शिबू सुरेन का ही चित्र लगा मिलेगा। ज़ाहिर है वे उन्हें ही अपना आदर्श नेता मानते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यालय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के चित्र से आकार में भी बड़ा तथा बिल्कुल मध्य में गुरु गोरखनाथ का चित्र लगाया गया है। अनेक मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों में उनकी अपनी पसंद के आधार पर चित्र लगाये गए हैं। 

दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी जनवरी 2022 में गणतंत्र दिवस से एक दिन पूर्व दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय सहित राज्य के सभी सरकारी कार्यालयों में केवल बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के चित्र लगाने के निर्देश जारी किये थे। उन्होंने अधिकारियों को यह भी निर्देशित किया था कि दिल्ली सरकार के सभी कार्यालयों में किसी अन्य नेता की तस्वीरें प्रदर्शित नहीं की जायें । तब से लेकर पिछले दिनों दिल्ली की सत्ता बदलने तक दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर राज्य के अधिकांश कार्यालयों में महात्मा गाँधी, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति की तस्वीर हटाकर बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के चित्र लगा दिए गये थे। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी कुर्सी के ठीक पीछे बाबासाहेब और भगत सिंह के चित्र लगाये थे जो उनके बाद आतिशी के मुख्यमंत्री काल में भी लगे रहे। 

परन्तु जिस दिन दिल्ली में 27 साल का 'वनवास' ख़त्म कर भाजपा सत्ता में आई व भाजपा की नई मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कार्यभार संभाला उस दिन उन्होंने सबसे पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी के पीछे लगे अंबेडकर और भगत सिंह के चित्रों को हटाकर उनके स्थान पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी,प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति के चित्र लगा दिए। जबकि पूर्व में लगे चित्रों को दूसरी दीवार पर स्थान दिया गया। इसी बात पर आम आदमी पार्टी ने हंगामा खड़ा करते हुये इसे राजनैतिक मुद्दा बना लिया। पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी ने तस्वीर हटाने पर कहा कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिल्ली विधानसभा का नेतृत्व ऐसी पार्टी कर रही है, जो दलित और सिख विरोधी है। भाजपा ने अपना दलित विरोधी रुख़ दिखाते हुए मुख्यमंत्री कार्यालय से बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर और शहीद भगत सिंह के चित्र हटा दिए हैं।” परन्तु तस्वीरों पर सियासत करने वाली 'आप' भी ऐसे सवालों से बच नहीं सकती। आम आदमी पार्टी नेताओं को भी यह बताना पड़ेगा कि उन्होंने अपने कार्यालय से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की फ़ोटो क्यों हटाई थी ? यदि मान लिया जाये की नरेंद्र मोदी उनके घोर विरोधी नेता हैं परन्तु वे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। मान लीजिये कि राजनैतिक पूर्वाग्रह के कारण उन्होंने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र नहीं लगाया परन्तु उन्होंने आख़िर राष्ट्रपति का चित्र क्यों नहीं लगाया गया ? 

जहाँ तक सवाल है तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा मात्र चित्र लगाकर बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह को सम्मान दिये जाने का, तो यदि अरविंद केजरीवाल के वक्तव्यों पर नज़र डालें तो केजरीवाल की बातें तो इन नेताओं के मूल विचारों के बिल्कुल विरुद्ध हैं। मिसाल के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने 27 अक्टूबर 2022 को मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र के माध्यम से यह मांग की थी कि भारतीय नोटों पर गांधी जी के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की तस्वीर भी छपे। उनका कहना था कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को भगवान का आशीर्वाद मिलेगा। विघ्नहर्ता का आशीर्वाद होगा तो अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी। इसलिए मेरी केंद्र सरकार से अपील है कि भारतीय करेंसी के ऊपर लक्ष्मी गणेश की तस्वीर छापें।' क्या केजरीवाल का यह सुझाव बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह जैसे महापुरुषों के विचार सम्मत है ? किसी का चित्र लगाने का अर्थ आख़िर क्या होता है ? केवल उस महापुरुष के समर्थकों या उनके समुदाय को ख़ुश करना या उनके आदर्शों को मानना व उनपर चलना ? बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के जीवन की कौन सी शिक्षा है जिसने केजरीवाल को इस बात के लिये प्रेरित किया कि उन्होंने प्रधानमंत्री को उपरोक्त सलाह दे डाली। वह भी स्वयं एक शिक्षित व राजस्व सेवाओं के अधिकारी होने के बावजूद। हद तो यह है कि प्रधानमंत्री को यह पत्र लिखते समय केजरीवाल ने यह भी लिहा था कि "यह देश के 130 करोड़ लोगों की इच्छा है कि भारतीय करेंसी पर एक ओर महात्मा गांधी व दूसरी ओर लक्ष्मी-गणेश जी की तस्वीर भी लगाई जाए।' केजरीवाल ने 130 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि होने के नाते नहीं बल्कि सही मायने में देश के बहुसंख्य समाज को वरग़लाने के लिये ही 'तस्वीर की सियासत' यह शगूफ़ा छोड़ा था। 

इसी तरह विधान सभा चुनावों की घोषणा से पूर्व दिसंबर 2024 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने एक और ऐसी ही चुनावी फुलझड़ी छोड़ते हुये यह घोषणा कर डाली कि आम आदमी पार्टी के चुनाव जीतने पर मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारों के ग्रंथियों को 18 हज़ार रुपए प्रति माह की सम्मान राशि दी जाएगी। केजरीवाल ने इसे  'पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना' का नाम दिया। इस घोषणा की आलोचना करते हुये भाजपा ने उसी समय यह जवाब दिया था कि 'चुनावी हिंदू केजरीवाल' ने मंदिर और गुरुद्वारों के बाहर शराब के ठेके खोले हैं और उनकी पूरी राजनीति हिंदू विरोधी रही है। यहाँ भी यही सवाल है कि क्या  'पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना' की घोषणा बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह जैसे महापुरुषों की सोच के अनुरूप थी जिनके चित्र उन्होंने अपने कुर्सी के पीछे लगा रखे थे? 

भाजपा भी इसी तरह गांधी व बाबासाहेब अंबेडकर व भगत सिंह जैसे आदर्श पुरुषों के केवल चित्र लगाकर या उनपर ख़ास अवसरों पर माल्यार्पण कर उनके प्रति अपने आदर व सम्मान का दिखावा तो ज़रूर करती है परन्तु हक़ीक़त में वह भी दिखावा मात्र ही है। अन्यथा घोर हिंदुत्ववादी राजनीति  का गांधी व बाबासाहेब आंबेडकर व भगत सिंह जैसे महान देशभक्त मानवतावादी नेताओं से क्या लेना देना ? यह तो धर्म और राजनीति के ऐसे घालमेल को ही विध्वंसक मानते थे। कहना ग़लत नहीं होगा की इसी 'तस्वीर की सियासत' ने ही देश की 'सियासत की तस्वीर' को बदनुमा कर डाला है जिसकी भरपाई महात्मा गांधी व बाबासाहेब , व भगत सिंह जैसे आदर्श पुरुषों के केवल चित्र लगाकर या उन की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर नहीं बल्कि केवल सच्चे मन से उनके बताये हुये रास्तों व उनके आदर्शों पर चलकर ही की जा सकती है?

कल से आरम्भ होंगी बोर्ड की वार्षिक परीक्षाएं- बोर्ड अध्यक्ष

संवाददाता

भिवानी। हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष श्री पंकज अग्रवाल, भा.प्र.से. ने  बताया कि सैकेण्डरी व सीनियर सैकेण्डरी(शैक्षिक/मुक्त विद्यालय) परीक्षा फरवरी/मार्च-2025 के सफल संचालन के लिए शिक्षा बोर्ड ने सभी प्रकार की तैयारियां पूर्ण कर ली हैं।

उन्होंने बताया कि सैकेण्डरी व सीनियर सैकेण्डरी (शैक्षिक/मुक्त विद्यालय) की वार्षिक परीक्षाओं में प्रदेशभर में लगभग 1433 परीक्षा केन्द्रों पर कुल 05 लाख 16 हजार 787 परीक्षार्थी प्रविष्ठ होगें, जिसमें 2,72,421 लडक़े व 2,44,366 लड़कियां शामिल हैं। परीक्षाओं का समय दोपहर 12:30 बजे से 3:30 बजे तक रहेगा। उन्होंने बताया कि सभी पात्र परीक्षार्थियों को प्रवेश-पत्र जारी कर दिए गए हैं। बिना प्रवेश-पत्र के परीक्षा केन्द्र में प्रवेश की अनुमति नहीं होगी।
बोर्ड अध्यक्ष ने बताया कि परीक्षा केन्द्रों के औचक निरीक्षण हेतु 219 उडऩदस्तों का गठन किया गया है, जिसमें बोर्ड अध्यक्ष व बोर्ड सचिव के प्रभावी उडऩदस्तों के अलावा 22 जिला प्रश्र पत्र उडऩदस्ते, 70 उप-मण्डल प्रश्र पन्न उडऩदस्ते, 21 रैपिड एक्शन फोर्स, 08 एस.टी.एफ. एवं 02 नियंत्रण कक्ष उडऩदस्ते गठित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त उप-मण्डल अधिकारी (ना०) के 70 उडऩदस्ते, जिला शिक्षा अधिकारी के 22 उडऩदस्ते एवं उप-सचिव (संचालन) व  सहायक सचिव (संचालन) के उडऩदस्ते भी गठित किये गये हैं, जोकि परीक्षा केंद्रों पर पैंनी निगाहें बनाए रखेंगे। परीक्षाओं की शुचिता, विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए सभी परीक्षा केन्द्रों के आसपास धारा-163 लागू कर दी गई है। परीक्षा केंद्रों के निकट फोटोस्टेट की दुकानें व कोचिंग सेंटर भी बंद रहेंगे।
उन्होंने बताया कि प्रश्र पत्रों पर अल्फा न्यूमेरिक कोड, क्यू आर कोड और हिडन सिक्योरिटी फीचर भी अंकित किए गए हैं। इससे यदि कोई परीक्षार्थी, पर्यवेक्षक, कर्मचारी व अन्य कोई व्यक्ति प्रश्र पत्र की फोटो लेता है तो तुरंत पता लग जाएगा कि प्रश्र पत्र किस परीक्षार्थी का है एवं कहां से आउट हुआ है, जिससे परीक्षाओं के दौरान होने वाली किसी भी प्रकार की अनियमितताओं पर लगाम लगाई जा सकेगी। उन्होंने आगे बताया कि यदि किसी परीक्षा केन्द्र से पेपर आउट होने का मामला पाया जाता है, तो उस केन्द्र के अधीक्षक, पर्यवेक्षक व नकल में संलिप्त परीक्षार्थी के विरूद्ध नियमानुसार सख्त कार्यवाही अमल में लाई जाएगी।
बोर्ड अध्यक्ष ने बताया कि परीक्षा की सुचिता सुनिश्चित करने के लिए इस बार विशेष सुरक्षा प्रबंध किए गए हैं। अधिकतर परीक्षा केन्द्र सीसीटीवी कैमरो की निगरानी में रहेंगे। यह कदम पेपर लीक की संभावना को समाप्त करने और परीक्षा में पारदर्शिता लाने के लिए उठाया गया है। उन्होंने छात्रों को सलाह दी है कि वे तनावमुक्त होकर परीक्षा की तैयारी करें। नियमित रूप से सिलेबस का रिवीजन करें, पुराने प्रश्र पत्र हल करें और स्वस्थ दिनचर्या अपनाएं। उन्होंने कहा कि पढ़ाई के साथ छोटे विराम भी आवश्यक हैं, जो परीक्षा का तनाव कम करने में सहायक होते है।
 इसके अतिरिक्त  शिक्षा बोर्ड द्वारा डी.एल.एड.(रि-अपीयर/मर्सी चांस) की परीक्षाओं का संचालन भी 03 मार्च से करवाया जा रहा हैं। इस परीक्षा में 5,070 छात्र-अध्यापक परीक्षा देंगे।

सरकार की त्रिभाषा नीति पर विवाद दुर्भाग्यपूर्ण

बसंत कुमार

सरकार की त्रिभाषा नीति के तहत अब देश के हर राज्य में मात्र भाषा सहित तीन भाषाएं सिखनी होंगी और इसमें एक भाषा हिंदी हो सकती है। यद्यपि यह तय करने का अधिकार शिक्षण संस्थान के पास होगा कि वे कौन-कौन सी तीन भाषाएं पढ़ाएंगे, सरकार की इस पॉलिसी में यह सिफारिश की गई है कि छात्रों को तीन भाषाएं सीखनी होगी, इस पॉलिसी के अनुसार प्राइमरी कक्षाओं (कक्षा एक से पांचवीं तक) में पढ़ाई मातृभाषा या स्थानीय भाषा में कराई जाए। माध्यमिक कक्षाओं (कक्षा 6 से 10 तक) में तीन भाषाओं की पढ़ाई अनिवार्य होगी। गैर हिंदी भाषी राज्यों में तीसरी भाषा अंग्रेजी या कोई एक आधुनिक भाषा होगी। सेकेंडरी कक्षाओं (11वीं व 12वीं) में स्कूल चाहे तो विदेशी भाषा को विकल्प के रूप में पढ़ा सकेंगे। वहीं गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जा सकेगा। हिंदी भाषी राज्यो में दूसरी भाषा के रूप में अन्य भारतीय भाषाओं जैसे बांग्ला, तमिल और तेलगु भाषा हो सकती है। भारत के दक्षिण राज्यों विशेष रूप से तमिलनाडु में इस पॉलिसी का विरोध हो रहा है क्योंकि वहां पर अभी भी 2 लैंग्वेज पॉलिसी लागू है और तमिलनाडु के स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी ही पढ़ाई जाती है और नई शिक्षा नीति यानि ट्राई लैंग्वेज फार्मूले पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार आमने-सामने आ गई है और केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने तमिलनाडु सरकार से राजनीति से ऊपर उठकर काम करने की सलाह दी है। यहां तक की उनके और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के स्टालिन के बीच इस मामले में जुबानी जंग तेज हो गई है जो बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण हो गई है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आजादी के बाद से ही दक्षिण भारत के राज्यों की राजनीति हिंदी भाषा के विरोध में टिकी रही है और इस बार भी ऐसा दिखायी दे रहा है और केंद्र के ट्राई लैंग्वेज फॉर्मूले का विरोध फिर सामने आ रहा है। जहां केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि नई शिक्षा नीति का पालन तमिलनाडु सरकार द्वारा नहीं किया गया तो तमिलनाडु को समग्र शिक्षा नीति के लिए मिलने वाली 2400 करोड़ की राशि नहीं मिलेगी। तमिलनाडु सरकार को लिखे गए पत्र में केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्पष्ट किया है कि यह किसी के ऊपर किसी भाषा को थोपने का प्रश्न नहीं है क्योंकि विदेशी भाषाओं पर जरूरत से अधिक निर्भरता अपनी भाषा को सीमित करती हैं और यह पॉलिसी इसे दुरुस्त करने का प्रयास है। इसके विरोध में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा है कि तमिलनाडु के लोग इस धमकी को सहन नहीं करेंगे। यदि राज्य को समग्र शिक्षा फंड से वंचित किया गया तो केंद्र को तमिलों के विरोध का सामना करना पड़ेगा।

जहां तक दक्षिण भारत के राज्यो में लोगों के हिंदी बोलने वालों की संख्या का सवाल है तो इसे पहली भाषा के रूप में इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे कम दक्षिण भारत के लोगों की है।, पूर्वोत्तर भारत के लोगों का ऐसा ही हाल है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश के 43.63% लोगों की पहली भाषा हिंदी ही है अर्थात् वर्ष 2011 में 125 करोड़ आबादी वाले देश में 53 करोड़ लोग हिंदी को मातृभाषा मानते थे। इसी जनगणना से यह बात सामने आई कि वर्ष 1975 से वर्ष 2011 के बीच हिंदी भाषियों की संख्या में 6% की वृद्धि हुई है। जहां तक दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा बोलने की बात है लक्षद्वीप में 0.2%, पुडुचेरी में 0.51%, तमिलनाडु में 0.54% और केरल में 0.15% पाई गई। कर्नाटक में 3.29% लोग बोलचाल में हिंदी भाषा का उपयोग करते हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को मिलाकर यह आंकड़ा 3.6% है और उड़ीसा में यह आंकड़ा 2.95% है। दक्षिण की भाँति पूर्वोत्तर में भी हिंदी बोलने वालों की संख्या में काफी कमी पाई गई है। वर्ष 2011 की जनगणना की माने तो सिक्किम में 7.9% और अरुणाचल में यह आंकड़ा 7.09% है? ऐसे ही नागालैंड में 3.18%। लोग हिंदी भाषी है। त्रिपुरा में केवल 2.11% लोग हिंदी बोलते पाए गए, मिजोरम में 0.97% और मणिपुर में 1.11 लोगों को हिंदी भाषी बताया गया और आसाम में यह आंकड़ा, 6.73 पाया गया था।

इन परिस्थितियों में सरकार का त्रिभाषा फॉर्मूला देश की सांस्कृतिक एकता के लिए बहुत सार्थक है। दरअसल नई शिक्षा नीति सतत विकास के लिए सरकार के एजेंडा 2030 के अनुकूल है और इसका उद्देश्य 21वीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुकूल स्कूल और कालेज की शिक्षा को अधिक समग्र, लचीला बनाते हुए भारत को एक ज्ञान आधारित जीवन्त समाज और वैश्विक महाशक्ति में बदलकर प्रत्येक छात्र में निहित अद्वितीय क्षमताओं को सामने लाना है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बहुभाषा वाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए त्रिभाषा सूत्र पर बल देने का निर्णय लिया गया परंतु दक्षिण के कुछ राज्यों ने उन पर हिंदी थोपने के नाम पर इस नीति का विरोध शुरू कर दिया है जो गलत है।

उत्तर दक्षिण के भाषाई विरोध को भांपते हुए संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में राष्ट्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का समर्थन किया था, उनका मानना था कि देश को आजादी के बाद अंग्रेजी को कम से कम 15 वर्षों तक आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा जा सकता है तब तक संस्कृत आम जन मानष में पूरी तरह से स्वीकार्य जनभाषा नहीं हो जाती। वे इस बात से आशंकित थे कि आजाद भारत कहीं भाषायी झगड़े की भेट न चढ़ जाए और भाषा को लेकर कोई विवाद न पैदा हो इसलिए जरूरी है कि राजभाषा के रूप में ऐसी भाषा का चुनाव हो जिसका सभी भाषा भाषी आदर करते हों।

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर यह मानते थे कि सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत है और उन्हें पूरा भरोसा था कि संस्कृत के नाम पर देश के किसी भी भाग में कहीं भी कोई भी विवाद नहीं होगा। डॉ. आंबेडकर ने राज्य भाषा परिषद में अपना, पंडित लक्ष्मीकांत मैत्रे, टीटी कृष्णमाचारी समेत अन्य 15 सदस्यों से हस्ताक्षर युक्त प्रस्ताव पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार के समक्ष रखा और इस प्रस्ताव के तीन मुख्य बिन्दु थे-

1. भारतीय संघ की आधिकारिक भाषा संस्कृत को बनाया जाए।

2. शुरुआती 15 वर्षो तक अंग्रेजी संघ की अधिकारिक भाषा बनी रहेगी।

3. संसद में अंग्रेजी का उपयोग सिर्फ 15 वर्षों के लिए हो इसके लिए कानून बना दें।

पर राजभाषा परिषद ने डॉ. आंबेडकर के प्रस्ताव को नहीं माना और यह निश्चय किया कि अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को प्रतिष्ठित किया जाए और संस्कृत को भारतीय संघ की अधिकारिक भाषा बनाने का डॉ. आंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो सका।

विश्व में संभवतः भारत ही एक ऐसा देश है जहां आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपनी अधिकारिक/ सम्पर्क भाषा विकसित नहीं कर पाए है और ट्राई लैंग्वेज के सवाल पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के स्टालिन के बीच विवाद और दुर्भाग्यपूर्ण है। देश की समृद्धि और एकता के लिए हमे क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर सोचना होगा। यदि 1947 में पंडित नेहरू ने डॉ. आंबेडकर की संस्कृत को अधिकारिक भाषा बनाने की बात मान ली होती आज भाषा के नाम पर यह विवाद नहीं होता पर यह उस समय न हो सका। पर पूरा देश अपनी रुढिवादी सोच को त्यागकर 45% लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिंदी को अपनी सम्पर्क भाषा के रूप में अपना ले जो देश को समृद्ध व एकता के सूत्र में पिरो सके।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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