गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

उम्मीद रखिए, इस अंधियारी रात की भी सुबह होगी

अवधेश कुमार

निसंदेह जिस पर विपत्ति आती है उसका दर्द वही जानता है। हम सब महसूस कर सकते हैं लेकिन भुगतना तो उन्हीं को पड़ता है। जिनको भुगतना पड़ रहा है उनके सामने आप चाहे नीति और विचार के जितने वाक्य सुना दें तत्काल उनका मानस उसे ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता। चाहे कितनी बड़ी आपदा हो, विनाश का हाहाकार हो, चारों ओर मौत का भय व्याप्त हो, मनुष्य के नाते हमें भविष्य के लिए आशा की किरण की ही तलाश करनी होती है। अगर हमने उम्मीद खो दी, हमारा हौसला पस्त हो गया ,साहस ने ही जवाब दे दिया तो फिर किसी आपदा पर विजय पाना कठिन हो जाएगा। कोरोना की महाआपदा से घिरे देश में मचा कोहराम कोई भी देख सकता है। जिनके अपने या अपनों की चिंताएं जली हैं उनको कहें कि हौसला बनाए रखिए... ये भी दिन गुजर जाएंगे, अच्छे दिन आएंगे तो ये बातें उनके गले आसानी से नहीं उतरेंगी, बल्कि इस समय शूल की तरह चुभती हुई भी लगेगी। मैंने अपने फेसबुक पोस्ट में लोगों से अपना हौसला बनाए रखने, अपनी सुरक्षा करने के साथ दूसरों को भी हौसला देने की अपील की थी। बड़ी संख्या में उत्तर सकारात्मक थे पर कुछ जवाब ऐसे भी थे जिनको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसी ने लिखा कि अगर घर के सदस्य की या रिश्तेदार की चिता जल रही हो तो ये बातें किस काम की। उनके अनुसार एक ही दिन में कई चिताएं जला कर लौटे हैं। ये दिन भी गुजर जाएंगे पर एक मित्र ने लिखा कि पता नहीं तब तक हम जीवित होंगे या नहीं।

  ये दोनों बातें निराशाजनक लग सकती हैं किंतु कोरोना से जिस प्रकार का घटाटोप कायम हुआ है उसमें सामान्य मनुष्य की यह स्वाभाविक दारुण अभिव्यक्ति है। जिस तरह ऑक्सीजन और औषधियों के लिए देशभर के अस्पतालों में हाहाकार मचा है, ऑक्सीजन के अभाव में लोगों के घुट-घुट कर दम तोड़ने के समाचार आ रहे हैं, अस्पतालों में मरीज को भर्ती कराने के लिए सौ जुग्गतें करनी पड़ रहीं है उसमें हर घर मिनट-मिनट डर और आतंक के साए में जी रहा है। मेरे व्हाट्सएप मैसेज के उत्तर में एक जानी-मानी एंकर ने लिखा कि सर, हम सब कुछ कर रहे हैं फिर भी हर क्षण इस डर में जी रहे हैं कि पता नहीं क्या होगा, बाहर कदम रखने में डर लग रहा है। यह किसी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है पूरे देश का अंतर्भाव यही है। मैंने जितने व्हाट्सएप किए उनमें से ज्यादातर के उत्तर कहीं न कहीं अंतर्मन में व्याप्त भय और भविष्य की चिंता से लवरेज थे।

कोई कुछ कहे लेकिन इस समय पूरा भारत ऐसे ही घनघोर निराशा में जी रहा है और चिंता का शिकार है। हम सबने अपने जीवन में कई महामारियों का सामना किया है लेकिन एक-एक व्यक्ति को इतने दहशत में जीते कभी नहीं देखा। कोरोना के बारे में चिकित्सकों एवं वैज्ञानिको के एक बड़े समूह की राय है कि यह इतनी बड़ी बीमारी है नहीं जितनी बड़ी बन या बना दी गई है। किंतु यह अलग से विचार कर विषय है। भारत में डर और निराशा का सामूहिक अंतर्भाव कोरोना की आपदा से बड़ी आपदा है। प्रश्न है ऐसी स्थिति में हमारे सामने रास्ता क्या है? ऐसे मुश्किल वक्त में कोई सरल उत्तर व्यवहारिक रास्ता नहीं हो सकता। लेकिन जीवन क्रम की ऐतिहासिक सच्चाई को भी हम नकार नहीं सकते। सृष्टि के आरंभ से मनुष्य ने न जाने कितनी आपदाएं, विपत्तियां, विनाशलीलाएं देखीं, उनका सामना किया और उन सबसे निकलते हुए जीवन अपनी गति से आगे बढ़ती रही। यही पूरी सृष्टि का क्रम रहा है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में तो संपूर्ण प्रलयों का विवरण है। प्रलय में सब कुछ नष्ट हो जाता है। बावजूद वहां से फिर जीवन की शुरुआत होती ही है। हर प्रलय के बाद नवसृजन यही जीवन का सच है। जो ईश्वर में विश्वास करते हैं यानी आस्तिक हैं वे मानते हैं कि हर घटित के पीछे ईश्वरीय महिमा है। कोई अवैज्ञानिक अंधविश्वासी सोच कह कर खारिज कर दे, पर ऐसी सोच से यह भावना कायम रहती है कि जब घटनाएं ईश्वर की देन है तो इनका सकारात्मक तरीके से सामना करना, सहना और जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करते रहना है। इस धारणा से यह उम्मीद भी पैदा होती है कि ईश्वर ने बुरे दिन दिए हैं तो वही अच्छे दिन भी लाएगा। इस एक धारणा ने मनुष्य को सृष्टि के आरंभ से अभी तक हर विपरीत परिस्थितियों से जूझने और उससे उबर कर जीवन क्रम को आगे बढ़ाने की शक्ति प्रदान की है।

तो इस तरह की शक्ति हमारे आपके अंदर है और उसी से वर्तमान आपदा का भी सामना करना पड़ेगा। आप ईश्वर पर विश्वास न भी करें तो प्रकृति की गति और उसके नियमों को मानेंगे ही। अगर हर घटना की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो इसमें अच्छी बुरी दोनों प्रकार की घटनाएं शामिल हैं। इस सिद्धांत में ही यह सच अंतर्निहित है कि बुरी घटना की विपरीत प्रतिक्रिया अच्छी ही होगी। तो भौतिकी का यह सिद्धांत भी उम्मीद जगाती है कि निश्चित रूप से निराशा और हताशा के वर्तमान घटाटोप से प्रकृति अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा हमें उबारेगी। षड् दर्शनों के विद्वान आपको इसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझा सकेंगे। हमारे यहां बुजुर्ग धर्म और इतिहास से ऐसी कहानियां बचपन से सुनाते थे, विद्यालयों की पाठ पुस्तकों में पढ़ाई जातीं थी जिनमें जीवन पर आईं विपत्तियां और उसमें अविचल रह कर जूझने और विजय पाने की प्रेरणा मिलती थी। इस दौर में साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र आदि विषयों की ओर युवाओं की रुचि घटी है, स्कूली पाठ्यपुस्तकों से भी वैसी कथाएं गायब है और इन सबका परिणाम हमारे सामूहिक मनोविज्ञान पर पड़ा है। लेकिन जो कुछ हम व्यवहार में भुगतते हैं वह भी हमें सीख देता है। हमारे आसपास ही ऐसे परिवार होंगे या स्वयं हम ही वैसे परिवार से आते होंगे जहां किसी बीमारी या घटना में एक साथ बड़ी संख्या में हमारे प्रियजन चल बसे। ऐसी त्रासदीयों के व्यावाहारिक और मानसिक संघात से पीड़ित होते हुए भी हम अपने को संभालते और जीवन की गाड़ी को आगे खींचते हैं। यही जीवन है। जब विनाशकारी तूफान आता है तो फसलें नष्ट हो जाती हैं.. बड़े-बड़े पेड़ भी जड़ों से उखड़ जाते हैं... लगता है पूरी प्रकृति बिखर गई हो लेकिन धरती बंजर नहीं होती। बीज फिर से अंकुरित होते हैं, फसलें फिलहाल आती हैं, वनस्पतियां फिर अठखेलियां करने लगती हैं। मनुष्य अपनी जीजीविषया में फिर फसलें लगाने निकलता है और सफल होता है। जीवन क्रम इसी तरह आगे बढ़ता है। प्रकृति और जीवन के ये दोनों पहलू सच हैं। इसका कोई एक पहलू पूरा सच नहीं हो सकता। तूफान और विनाश भी प्रकृति चक्र के अंगभूत घटक हैं तो फिर नए सिरे से बीजों का अंकुरण और पौधों का उगना भी। कोरोना अगर इस चक्र में तूफान है तो यकीन मानिए इसके बाद फिर जीवन की हरियाली लहलहाती दिखेगी।

हमारे जीवन को क्षणभंगुर कहा गया है। अगले क्षण हम जीवित रहेंगे इसकी कभी कोई गारंटी नहीं होती। लेकिन हम यह सोचकर अकर्मक नहीं हो जाते कि जब आने वाले किसी क्षण में हमारी मौत होनी है तो ज्यादा उद्यम क्यों करें ,हाथ-पांव क्यों मारे। हम हर दिन अपने जीवन को बेहतर बनाने की उम्मीद से अपने कर्मों में रत रहते हैं। कोई ऐसी अंधियारी रात नहीं हो सकती जिसका अंत सुबह से नहीं हो। हर अंधकारपूर्ण रात के बाद सूर्य का प्रकाश निकलना ही है। इसलिए बिल्कुल सच मानिए यह आपदा भी जाएगा और हमारी कोशिशों से ही जाएगा। उसके बाद हम सब फिर अपनी स्वाभाविक भूमिका में पहले की भांति या उससे ज्यादा उत्साह से सक्रिय होंगे। अभी रास्ता यही है कि हम स्वयं और परिजनों को सुरक्षित रखें, दूसरों की सुरक्षा को खतरे में ना डालें तथा अपना हौसला बनाए रखते हुए एक दूसरे की ममद करें व अन्यों को भी हौसला देने की कोशिश करें।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208, 8178547992

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

कोरोना से संपूर्ण जीवन प्रभावित: कैसे जीवन व्यवस्था और तंत्र चलता रहे इस पर विचार हो

अवधेश कुमार

जब भी कोई संकट और विपत्ति अनेक उपायों के बावजूद बार-बार वार करता है तो मनुष्य कई प्रकार से उसके कारणों का विश्लेषण करने लगता है। कोरोना प्रकोप के संदर्भ में भी यही हो रहा है। आप देख लीजिए, चुनावी रैलियों पर रोक लगे, कुंभ खत्म हो, दूसरे सामूहिक आयोजन न हो... जैसी आवाजें चारों ओर से उठी हैं। कोरोना की भयावहता खत्म होनी जाहिए, पर हममें से कोई यह सोचने को शायद ही तैयार है कि क्या ये सब कोरोना संकट को दूर करने का कारण बन सकते हैं? विश्व एवं भारत में जिस तरह कोरोना बार-बार धमक रहा है उससे जीवन का एक-एक पहलू दुष्प्रभावित है। केवल राजनीति नहीं, व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक ... संपूर्ण जीवन पहलू कोरोना की चोट से मर्माहत हैं। तो सोचना होगा कि आखिर जीवन के कितने पहलुओं को और कितने दिनों तक हम स्थगित या विराम की अवस्था में रख सकते हैं?

राजनीतिक नजरिए से आप किसी दलया कुछ दलों को कटघरे में खड़ा कर दीजिए उससे कोरोना का निदान नहीं निकलेगा। चुनाव हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है। कोरोना 10-20 दिन या महीने भर का संकट अब नहीं रहा जिससे कुछ दिनों के लिए बहुत कुछ को स्थगित रखकर आगे फिर प्रारंभ करने पर विचार कर सके। भारत में हर समय कोई न कोई चुनाव चलता रहता है। आगरा कोरोना का प्रकोप ऐसे ही आगे कुछ समय तक बार-बार सामने आता रहा तो हम कितनी चुनाव प्रक्रिया को बाधित करेंगे? चुनाव प्रणाली ऐसी है जिसमें प्रचार की संपूर्ण गतिविधियों को रोक देना संभव नहीं होता। बड़ी रैलियां आप रोक देंगे तब भी उम्मीदवार और उनके समर्थक वोट मांगने के लिए लोगों तक पहुंचेंगे। जब पहुंचेंगे तो उनके साथ छोटा बड़ा समूह भी होगा। छोटी-छोटी बैठकें करेंगे। जिसे चुनाव लड़ना है और जीतने की उम्मीद से लड़ना है वह मतदाताओं तक पहुंचने का कोई न कोई तरीका अपनाएगा। अगर चुनाव प्रक्रिया चलनी है तो प्रतिस्पर्धी पार्टियां एवं उम्मीदवार को जनता के बीच जाकर अपना पक्ष और विरोधी का विपक्ष रखना आवश्यक है। या तो चुनाव स्थगित कर दीजिए या चुनाव प्रचार होने दीजिए। कोई एक पार्टी या नेता किसी एक राज्य में कुछ समय के लिए अपनी रैलियां स्थगित कर सकता है लेकिन दूसरे राज्य में फिर चुनाव होंगे तो वह ऐसा ही करेगा इसकी गारंटी नहीं। जहां जिसको जीतने की उम्मीद होगी वहां वह हर कवायद करेगा और करना भी चाहिए। एक बार कोरोना के कारण हमने चुनाव स्थगित कर दिया या सारी चुनाव चुनावी सभाएं रोक दीं तो भविष्य के लिए भी यही उदाहरण बनेगा। हां राजनीतिक दलों ,चुनाव आयोग, मीडिया ,बुद्धिजीवियों सबको इस प्रश्न का उत्तर अवश्य तलाशना चाहिए कि अगर कोरोना का संकट लंबा खींचता है तो हम किस तरीके से अपने लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया का संचालन करें? वर्चुअल सभाएं, सोशल मीडिया या मीडिया के माध्यम से भारत जैसे विविधताओं वाले देश में कोई पार्टी या नेता सभी मतदाताओं तक अपनी बात नहीं पहुंचा सकता है। तो रास्ता निकालना होगा।

कोरोना संघात का भय केवल चुनावी सभाओं तक ही सीमित नहीं है। भारत एक उत्सव धर्मी देश है। हमारे यहां धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्म भी उत्सव के साथ आबद्ध हैं। अगर नवरात्री है तो दुर्गा प्रतिमा स्थापित होंगी और नौ दिनों की आराधना के बाद उनका विसर्जन होगा। स्थापना और विसर्जन में भीड़ न जुटे तो भी कुछ लोगों को साथ आना ही पड़ेगा। ऐसा कौन सा पर्व त्यौहार है जिसमें हमारे यहां सामूहिकता शामिल नहीं? होली मे घरों में ही सीमित रहने की अपील की गई। भारत में ऐसा कोई समय नहीं जब पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण अलग-अलग क्षेत्रों में कोई पर्व-त्यौहार या उत्सव नहीं होता हो। पता नहीं कितने वर्षों की स्थापित परंपराएं हैं। इन सबको पूरी तरह स्थगित करना संभव नहीं हो सकता। रमजान के महीने में रोजा और उसके साथ इफ्तार का प्रचलन आज तो शुरू हुआ नहीं है। आखिर इसे कब तक कितने दिनों के लिए रोकेंगे? कुंभ और महाकुंभ जैसे आयोजनों की प्रतीक्षा लोग लंबे समय करते हैं और संबंधित नदी में डुबकी लगाने की आकांक्षाएं भी प्रबल होती हैं। ऐसे ही अनेक प्रकार की धार्मिक यात्राएं, तीर्थ यात्राएं, मंदिरों के कर्मकांड आदि भिन्न-भिन्न समय पर आयोजित होते हैं। आप कहीं किसी आयोजन को कुछ समय के लिए स्थगित कर सकते हैं सबको नहीं किया जा सकता है।

यह समय पूरे भारत में शादियों का भी है। यह कहना बहुत आसान है कि कुछ लोगों के बीच ही शादी के आयोजन को पूरा कर लीजिए। हमारे यहां शादी के पहले अनेक राज्यों में महिलाएं टोली बनाकर देवी-देवताओं के पूजन के लिए निकलती है,साथ बाजा होता है, कहीं-कहीं पुरुष भी निकलते हैं ..कई प्रकार की पूजा होती है ,कई-कई दिनों तक रात्रि में गीत-संगीत का आयोजन होता है..। परिवार, रिश्तेदार शादी को लेकर अनेक सपने संजोए होते हैं। इन सबको कोरोना फैलने के भय से अनिश्चित समय तक के लिए खत्म कर देना कैसे संभव होगा? अनेक क्षेत्रों में मृत्यु के बाद शवदहन ही नहीं श्राद्ध का भी लंबा कर्मकांड है। 12-13 दिनों से लेकर एक महीने का श्राद्ध कर्म होता है। यह तार्किक हो या अतार्किक आम धारणा यही है कि इन सबका पालन ना करें तो मृतक की आत्मा को कष्ट पहुंचता है और उसकी मुक्ति का मार्ग बाधित होता है। नई फसल लगाने के साथ भी उत्सव जुड़े हुए हैं। रबी फसलों की बुवाइ, ,धान की रोपाई आरंभ करने के दिन खेतों में पूजा, घर में पूजा और आसपास के लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार भोजन कराने की परंपरा है। ऐसे उत्सवधर्मी समाज को कोरोना आघात के भय से बार-बार यह कहकर उत्सव से दूर करना कि अभी कठिन समय है जब समय बेहतर होगा तब आप सारे आयोजन करेंगे संभव नहीं है।

 कोरोना नेपूरी शिक्षा व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। साल भर से छात्रों के लिए भारत के ज्यादातर राज्यों में नियमित रूप से शिक्षालय जाना संभव नहीं रहा। परीक्षाएं खत्म की जा रहीं या स्थगित हो रहीं हैं। इन सब छात्रों का भविष्य क्या होगा? कोरोना के लंबे संकट काल में कब तक तदर्थता को जारी रखा जाएगा? नौनिहालों, नवजवानों के भविष्य को लेकर फैसला करना होगा। अर्थव्यवस्था के बारे में बताने की भी आवश्यकता नहीं। केंद्र से लेकर राज्यों तक का आर्थिक ढांचा चरमरा रहा है। हमारे आपके घर की भी आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हैं। लाखों रोजगार से वंचित हुए तो लाखों रोजगार पाने से वंचित हैं। छोटे-बड़े व्यापार सब प्रभावित हैं। स्वच्छंद रूप से आवागमन नहीं हो रहा। इस स्थिति को लंबे समय तक जारी रखना संभव नहीं होगा। ऐसा हुआ तो कैसी विस्फोटक स्थिति होगी इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। सबसे बड़ी बात कि क्या वाकई चुनावी सभाओं, सामूहिक धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक आयोजनों से कोरोना का प्रसार होता है? पिछले वर्ष चुनाव हुए बिहार में और कोरोना का बम फटा दिल्ली में। इस बार भी चुनाव वाले राज्यों में कोरोना का उतना भयानक प्रकोप अभी तक नहीं हुआ जितना कि दिल्ली, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि में। लाखों के कुंभ में कुछ को कोरोना हुआ तो यह अर्थ नहीं कि उसका कारण कुंभ ही हो। वे अपने मूल स्थानों पर रहते तो उनको कोरोना नहीं होता इसकी गारंटी कौन दे सकता है? होली पूरे देश में मना लेकिन कोरोना प्रकोप सब जगह नहीं।

कोरोना को मात देना है, पर ऐसे कदमों से तंत्र चरमरा सकता है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य कि कोरोना संकट पर तात्कालिक भय और घबराहट में निर्णय करने की जगह अब तक उसके प्रसार की गहन समीक्षा तथा जीवन पहलुओं पर पड़ने वाले समस्त प्रभावों का व्यापक स्तर पर गहराई से विचार करके तार्किक-व्यावहारिक निष्कर्ष निकालना होगा। कोरोना प्रसार को रोकना है, उस पर काबू भी करना है लेकिन न लंबे समय तक राजनीतिक प्रक्रियाएं ठप कर सकते हैं, न प्रत्येक चुनाव में उम्मीदवारों, पार्टियों और नेताओं को संपर्क करने से वंचित रख सकते हैं। न धार्मिक आयोजनों, उत्सवों, पर्व-त्योहारों को पूरी तरह सामूहिकता से लंबे समय तक वंचित रखा जा सकता है, न शिक्षा व्यवस्था ही ठप रखी जा सकती है। यह सब आवश्यक भी नहीं है। विचार करें कि कोरोना का दैत्य लंबे समय तक बार-बार आघात करता रहा तो हम इसके फैलाव को रोकने के उपायों को अपनाते हुए भी इन व्यवस्थाओं को कैसे संचालित करेंगे?

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

हिंसा और ममता बनर्जी का रवैया

अवधेश कुमार

पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा हमेशा पूरे देश का दिल दहलाती है। निस्संदेह, वर्तमान चुनाव में चुनाव आयोग की सख्ती का असर हुआ है।लेकिन तीसरे दौर के मतदान में कूचबिहार के एक विधानसभा क्षेत्र में हुई हिंसा पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जो रवैया अख्तियार किया है वो हिंसा से कहीं ज्यादा डरावना है । मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी अगर चुनाव की सुरक्षा ड्यूटी में लगे सुरक्षा बल को ही अपराधी घोषित करने लगे तो फिर कानून के राज की बात कौन करेगा। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल या सीआईएसएफ को मजबूरी में स्थिति नियंत्रित करने के लिए गोली चलानी पड़ी। इसे आत्मरक्षार्थ गोली चालन भी कहा जा सकता है क्योंकि ये ऐसा नहीं करते तो कुछ जवान मारे जाते, घायल होते इनमें से कई के हथियार तक छीने जा चुके होते। पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट बताती है कि 300- 350 लोगों की भीड़ ने सुरक्षाबलों पर हमला किया, इनके हाथों से हथियार छीनने की कोशिश की। पहले इन्होंने हवा में फायर किया और जब स्थिति नहीं संभली तो भीड़ पर गोली चलानी पड़ी। कोई हिंसक भीड़ अगर चुनाव प्रक्रिया में बाधा डालने लगे, मतदानकर्मियों को पीट दे, काफी कोशिशों के बाद भी न मानेसुरक्षाबलों को भी निशाना बना दे तो फिर विकल्प क्या बचता है? स्थानीय पुलिस अधीक्षक तक के बयान चुनाव आयोग की बातों की पुष्टि करते हैं। 

एक व्यक्ति की भी गोली चालन में मृत्यु दुखद है। कई बार ऐसी कार्रवाई अनेक लोगों की जान की रक्षा के साथ कानून और व्यवस्था कायम रखने का कारण भी बनती है। ममता सुरक्षाबलों को अपराधी कहतीं हैं तो इसका अर्थ है कि वो अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं के अपराधिक दुस्साहसों को जानते हुए भी अनदेखी कर रही हैं। इसका अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं। हिंसा पर दुख और पीड़ा व्यक्त करने तथा राज्य के लोगों से चुनाव में कानून को हाथ में ना लेने की स्वाभाविक अपील करने की जगह मुख्यमंत्री का पूरा रवैया उकसाने और उत्तेजित करने वाला है। चुनाव आयोग को निशाना बनाना तथा उसे एमसीसी यानी मोदी कोड ऑफ कंडक्ट कहना केवल दुर्भाग्यपूर्ण नहीं खतरनाक राजनीति है। सच तो यही है कि चुनाव प्रक्रिया आरंभ होने के पहले से ही ममता बनर्जी ने जिस तरह का आक्रमक रुख अपनाया उसकी स्वाभाविक परिणति हिंसा ही होनी थी। आप अगर केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल को भाजपा की बल कहेंगी, आप बार-बार बयान देंगी कि सुरक्षा बल भाजपा के लिए वोट डालने का दबाव डालती है तो फिर पहले से ही हिंसक समर्थकों में क्या संदेश जाएगा? ममता ने 7 अप्रैल को कहा कि सीआरपीएफ का एक समूह घेराव करो तो दूसरा समूह वोट डालते रहो। यह सीधे-सीधे सुरक्षाबलों के कार्य में बाधा डालने तथा उनके खिलाफ हाथापाई ,मुठभेड़ आदि के लिए उकसाना था। 

वो लगातार सुरक्षाबलों पर तृणमूल के विरोध और भाजपा के पक्ष में काम करने का आरोप लगा रही हैं। इससे पूरे प्रदेश में ममता व तृणमूल समर्थकों, कार्यकर्ताओं तथा सत्ता से जुड़े भारी संख्या में निहित स्वार्थी तत्वों के अंदर सुरक्षा बलों के खिलाफ गुस्सा और उत्तेजना बढ़ा है। वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को निशाना बनाती हैं। चुनाव में राजनीतिक निशाना बनाया जाना बिलकुल स्वाभाविक है किंतु उनके बयानों की ध्वनि यह है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों अपने पदों का दुरुपयोग करते हुए भाजपा के पक्ष में जबरन मतदान करवाने की गैर कानूनी कार्रवाई में संलिप्त हैं। वो कहती हैं कि अमित शाह सुरक्षाबलों को आदेश देते हैं कि भाजपा के लिए वोट कराओ। इसके साथ चुनाव आयोग को लगातार आक्षेपित करते हुए कह रही हैं कि वह  भाजपा को जिताने के लिए काम कर रहा है। जब जनप्रतिनिधित्व कानूनों के उल्लंघन के मामले में उनको नोटिस जारी होता है तो कहती हैं कि देखो चुनाव आयोग भाजपा को नोटिस जारी नहीं करता। कुल मिलाकर ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों, कार्यकर्ताओं व भाजपा विरोधियों को यह संदेश दिया है कि मोदी और शाह तो उसके विरुद्ध  है ही चुनाव आयोग और चुनावी ड्यूटी में लगे सुरक्षा बल भी तृणमूल को हराने में लगे हैं। यानी मेरे अकेले पर सब टूट पड़े हैं। जाहिर है, कम समझ रखने वाले और पहले से हिंसा करने के अभ्यस्त उन तृणमूल समर्थकों और कार्यकर्ताओं को लगा है कि जब सभी दीदी को हराने में ही लगे हैं तो उनसे हमको टकराना होगा। एक समुदाय के अंदर तो उन्होंने यह भय पैदा कर ही दिया है कि भाजपा सत्ता में आ गई तो आपकी खैर नहीं। उनको आक्रामक होना ही है। दूसरे, प. बंगाल में लंबे समय से कोई चुनाव काफी हद तक 2019 लोकसभा को छोड़कर सहज, शांतिपूर्ण और निष्पक्ष नहीं हुआ। पहले कांग्रेस हिंसा और धांधली से चुनाव जीतती थी। बाद में माकपा के नेतृत्व में वामदलों ने आगे बढ़कर हिंसा और धांधली को अपनाया। इनकी हिंसा का शिकार होती व जूझती हुई सत्ता तक आने वाली ममता बनर्जी ने हिंसा और धंाधंली को ही मतदान का पर्याय बना दिया। हालांकि वामदलों के साथ टकराव में उनकी लोकप्रियता जितनी चरम पर थी उसमें वो राजनीतिक हिंसा को रोकने के लिए काम कर सकतीं थीं। दुर्भाग्य से उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनका भी सूत्र अपने पूर्ववर्तियों की तरह यही रहा कि चुनाव के पहले हिंसक वातावरण बनाओ, विरोधियों को डराओ ताकि वे मतदान करने ना निकलें और जैसे चाहो धांधली करो। अगर कोई साहस करके मतदान केंद्र तक चला जाए तो उस पर हमला करो ताकि दूसरे ऐसा करने का की सोच भी ना सके। चुनाव परिणाम के बाद पता चले कि कुछ लोगों ने गुप्त रूप से हमारे खिलाफ मतदान किया है तो फिर उसके खिलाफ इतनी हिंसा करो कि उसकी दशा देखकर दूसरे डर जाएं। इसमंे पुलिस प्रशासन की भूमिका हमेशा मूकदर्शक की रही है।

 2018 के पंचायत चुनाव में 20,000 से ज्यादा उनके उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए क्योंकि चुनाव पूर्व ही हिंसा से ऐसा माहौल बनाया गया कि भय से दूसरे उम्मीदवार खड़े ही नहीं हुए या जो हुए उनके विरुद्ध किस तरह की हिंसा, आगजनी आदि हुई इसकी कुछ घटनाएं पूरे देश ने मीडिया के माध्यम से देखी। जीते लोगों तक को अपना स्थान छोड़कर भागने की नौबत तक आ गई थी। भाजपा ने तृणमूल विरोधियों और अपने समर्थकों के अंदर 2016 से अभियानों के द्वारा यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की आप सब हिम्मत करके राजनीतिक लड़ाई के लिए आगे आएं हम आपके साथ हैं।  प्रदेश के ही नहीं, भाजपा के राष्ट्रीय नेता हिंसा में मारे गए, घायल हुए, शिकार हुए समर्थकों-कार्यकर्ताओं के घर अवश्य जाने लगे। इनके लिए संघर्ष किया और जहां तक संभव हुआ आवश्यकतानुसार इनकी हरसंभव मदद भी की गई। इन सबसे प्रदेश का वातावरण धीरे-धीरे बदला और पंचायत चुनाव में इसका छोटा रूप दिखा। 2019 लोकसभा चुनाव तक एक बड़े वर्ग के अंदर का भय या तो गायब हो गया या काफी कम हुआ। वर्तमान विधानसभा चुनाव में भारी संख्या में लोग भाजपा की रैलियों, रोड शो, बड़ी-छोटी सभाओं में आ रहे हैं। भाजपा की ताकत बढ़ने के साथ इनके लोग अनेक जगह तृणमूल समर्थकों से आमने-सामने टकराने लगे। कई राजनीतिक हिंसा में दोनों तरफ के लोग शामिल रहे हैं। चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव एवं वर्तमान चुनाव में जैसा सुरक्षा प्रबंध किया उससे भी माहौल बदला है।

 ममता और उनके समर्थकों के सामने इन सबके संकेत साफ हैं। अगर कल तकघरों में दुबके रहने वाले का इनके  आतंक को दरकिनार कर बाहर निकलना इनको नागवार गुजरता है तो समस्या इनकी है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को पक्ष और विपक्ष में मत देने का अधिकार है और इसे बनाए रखना सभी राजनीतिक दलों तथा संवैधानिक संस्थाओं की जिम्मेवारी है। ममता शासन की नीतियों, नेताओं की कार्यशैली, विशेष समुदाय का आपराधिक तुष्टीकरण ,एक समुदाय की भावनाओं पर कुठाराघात आदि से बदलते वातावरण को समझने की जगह चुनाव आयोग से लेकर केंद्रीय सुरक्षाबलों तक को दुश्मन करार देकर युद्ध जैसा वातावरण बनाती आ रहीं हैं तो इसका परिणाम भयावह होना ही है। चुनाव आयोग की सख्त सुरक्षा व्यवस्था और भाजपा की बराबर की ताकत के कारण हिंसा की ज्यादा घटनाएं नहीं हो रहीं, अन्यथा विकट स्थिति हो सकती थी। आगे के लिए ज्यादा सचेत रहना होगा। सत्ता में आज कोई है कल कोई और रहेगा लेकिन मतदान की स्वच्छता, राजनीतिक शांति, सुरक्षाबलों की धवल छवि और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा बनाए रखना सबका दायित्व है। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208, 8178547992

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