शनिवार, 28 जनवरी 2017

विधानसभा प्रस्ताव को एक अवसर के रुप में लिया जाए

 

अवधेश कुमार

पहली नजर में जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा कश्मीरी पंडितों और वहां से पलायन करने वाले दूसरे समुदायों की वापसी का प्रस्ताव पारित करना स्वागत योग्य है। इसका परिणाम क्या होगा अभी कहना कठिन है। किंतु कम से कम कश्मीर विधानसभा के सदस्यों को उनकी याद आई और सबने एक स्वर से उनकी वापसी के पक्ष मंे प्रस्ताव तो पारित कर दिया। यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में पीडीपी भाजपा की सरकार आने के बाद पहला कोई औपचारिक कदम उठा है। हालांकि इसका श्रेय भी पूर्व ममुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने लिया। उन्होंने ही सदन में सबसे पहले यह विचार प्रकट किया कि कश्मीरी पंडितों और दूसरे बाहर गए लोगों की वापसी के लिए एक प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए। सरकारी पक्ष के लोग जो पहले से कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात करते रहे हैं उनके द्वारा इसका समर्थन किया ही जाना था। इतना तो कहा ही जा सकता है कि  कश्मीरी पंडितों के पलायन के 27 वर्ष बाद जम्मू कश्मीर विधानसभा के सदस्यों ने एक औपचारिक प्रस्ताव पारित कर फिर से मामले को सामले ला दिया है। अब यह सरकार पर निर्भर है कि इस सर्वसम्मति के वातावरण को बनाए रखते हुए इसके कागजों तक सीमित न रखे और वाकई उन सबकी वापसी के लिए रास्ता बनाए। क्या इसकी संभावना दिखती है?

19 जनवरी को प्रस्ताव पारित होने का अपना महत्व है। यह 19 जनवरी 1990 का ही दिन था जब 60 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया था। सच कहा जाए तो उसी दिन से कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। जम्मू-कश्मीर पुलिस की 2008 में जो रिपोर्ट आई थी उसके अनुसार आतंकवाद से मजबूर होकर 24 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों के परिवार ने कश्मीर छोड़ दिया था। इस रिपोर्ट में 1989 से 2004 के बीच घाटी में 209 कश्मीरी पंडितों के मारे जाने की बात है। हालांकि कश्मीरी पंडितों के संगठन मानते हैं कि मरने वाले पंडितों की संख्या इससे कई गुणा ज्यादा थी। कुछ तो कहते हैं कि कई हजार कश्मीरी पंडित मारे गए। हम यहां मृतकों की संख्या में नहीं जाना चाहेंगे। आज यह पूरे देश को पता है कि किन परिस्थितियों में कश्मीरी पंडितों, सिख्खों तथा भले ही कम संख्या में कुछ उदारवादी मुसलमानों को भी घाटी का परित्याग करना पड़ा था। ऐसा भय और आतंक का माहौल बनाया गया कि उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा था। कम्पोजिट संस्कृति वाले राज्य में जहां सदियों से हिन्दू मुसलमान भाई-भाई की तरह रह रहे थे वहां पहली बार मस्जिदों तक से उनको घाटी छोड़ने की धमकियां दी जा रहीं थीं और सरकार नाम की कोई चीज दिखती ही नहीं थी। यानी कश्मीरी पंडित पूरी तरह कट्टरपंथियों-उग्रवादियों के रहमोकरम पर थे जो उनको वहां एक मिनट देखना नहीं चाहते थे और वे जल्दी भागें इसके लिए जितना और जिस तरह का भय पैदा कर सकते थे किया। कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा व्यवहार वास्तव में भारतीय राज व्यवस्था की पराजय थी। केवल कश्मीर नहीं ऐसा लगा जैसे पूरा देश पाकिस्तान के इशारों में काम कर रहे उन कुछ कट्टरपंथी उग्रवादियों के आगे लाचार हो गया है। यह हमारे राज्य के सेक्यूलर चरित्र पर ऐसा बदनुमा दाग है जिसके जिम्मेवार हम सब हैं। यह तभी धुलेगा जब वाकई कश्मीरी पंडितों के साथ वहां से बाहर आए कुछ सिख्खों और मुसलमानों की ससम्मान और सुरक्षित वापसी हो तथा उनके रहने के लिए वहां सुरक्षित वातावरण बने।

किंतु जैसा हम जानते हैं केवल प्रस्ताव पारित करने से कुछ नहीं होगा। प्रस्ताव से एक संदेश तो निकलता है कि जम्मू कश्मीर के नीति निर्माता अब शायद कुछ पहल करने को तैयार हैं। वस्तुतः मूल बात यही है कि यह प्रस्ताव कागजों तक सीमित रहेगा या इसके आगे की पहल होगी। 27 वर्ष बाद वहां से पलायन करने वालों की तीसरी पीढ़ियां हमारे सामने है। वे ऐसे ही तो वापसी को तैयार नहीं हो सकते। प्रस्ताव के साथ ऐसा माहौल निर्मित करना होगा जिसने उनके अंदर की भय व आशंका दूर हो, वे वापसी के बाद रहेंगे कहां इसकी व्यवस्था करनी होगी। क्या इसके लिए जम्मू कश्मीर सरकार तैयार है? और क्या प्रस्ताव पारित करने में सहभागी विपक्ष इसका समर्थन करेगा? प्रस्ताव में इतना ही कहा गया है कि लोगों की घाटी में वापसी हो, इसके लिए हम बेहतर माहौल तैयार करेंगे। इसका क्रियान्वयनों से विस्तार करना होगा। आखिर जम्मू कश्मीर में कितने नेता हैं जो कि पलायन कर चुके लोगों के बीच आकर उन्हें वापसी के लिए तैयार करने के लिए काम करेंगे? यह पहली आवश्यकता है। दूसरे, हमने देखा कि जैसे ही केन्द्र सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए अलग बस्ती बनाने की बात की पूरी घाटी में मानो आग लग गया। पूरा हुर्रियत सड़कों पर उतरकर इसका विरोध करने लगा। वे यह तो कहते थे कि कश्मीरी पंडित आएं उनका स्वागत है लेकिन हम किसी अलग बस्ती को स्वीकार नहीं करेंगे। यासिन मलिक और सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं ने ऐसा करने पर कश्मीर में आग लगने तक की धमकी दे दी। वे कहते हैं कि कश्मीर पंडित जहां थे वहीं आकर बसें।

सुनने में यह अच्छा लगता है कि एक मिलीजुली संस्कृति वाले राज्य की परंपरा को बनाए रखने के लिए ऐसा ही होना चाहिए। किंतु, क्या आज की स्थिति में यह व्यावहारिक है? और क्या यह संभव है? एक सच से देश को वाकिफ होना चाहिए कि जहां कश्मीरी पंडित रहते थे उनमें से ज्यादातर की जगह उनकी रही ही नहीं। जब स्थिति खराब होने लगी तो उनने औने-पौने दामों में अपनी जमीनें और मकान बेच दिए। क्या उस समय उनका मकान और जमीन खरीदने वाले आज वापस करने को तैयार होंगे? तो यह व्यावहारिक है ही नहीं। यह संभव ही नहीं। यह ऐसा विचार है जो न कभी अमल में आएगा और न पंडित तथा अन्य लोग वापस आएंगे। इस मामले का यही कटु सच है कि पंडितों को पुराने स्थानो ंपर फिर से बसाने के लिए जगह है ही नहीं। उनके लिए नई जगह की व्यवस्था करनी ही होगी। हुर्रियत नेताओं को यह सच अच्छी तरह पता है। इस आलोक में तो यह हुर्रियत नेताओं की धूर्तता लगती है ताकि किसी तरह कश्मीरी पंडित और दूसरे वापस न आ सकें। आखिर पाकिस्तान की रणनीति तो यही थी कि पहले वहां से हिन्दू और सिख्ख निकल जाएं ताकि केवल मुसलमानों का क्षेत्र हो जाने से उस पर अपना दावा कहीं ज्यादा मजबूत हो। हालांकि पाकिस्तान की यह नासमझी थी लेकिन सोच यही थी। बहरहाल, ध्यान रखिए कि जब यह विवाद चल रहा था तो केन्द्रीय गृहमंत्री ने कम्पोजिट कॉलोनी की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर उस कॉलोनी में कुछ मुसलमान रह जाएंगे तो उसमें हर्ज क्या है। बावजूद इसके वहां आसमान सिर पर उठा लिया गया। उग्र और हिंसक प्रदर्शन तक होने लगे।

तो एक ओर ऐसा माहौल है और दूसरी ओर विधानसभा का पारित प्रस्ताव। किंतु रास्ता तो इसके बीच से निकालना ही होगा। प्रघानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अपने चुनाव प्रचार में कश्मीरी पंडितों की वापसी का वायदा किया था। उसी वायदे में अलग कॉलोनी यानी बस्ती बसाने की बात थी। बाद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान आया था कि जमीन तो राज्य सरकार को देना है और सरकार इसके लिए तैयार है। उस समय मुफ्ती मोहम्मद सईद जिन्दा थे। आज मेहबूबा मुफ्ती हैं। अगर वो वाकई प्रस्ताव के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें न केवल कश्मीरी पंडितों से लगातार बातचीत के लिए कुछ लोगों को नामित करना चाहिए, उनकी मंशा समझनी चाहिए, उनकी वापसी के लिए तैयारी आरंभ करनी चाहिए, केन्द्र जमीन मांग रहा है तो जमीन देनी चाहिए और बस्ती का निर्माण आरंभ होना चाहिए। चूंकि जम्मू कश्मीर विधानसभा ने प्रस्ताव पारित कर दिया है, इसलिए मोदी सरकार को इसे एक अवसर मानकर इसका लाभ उठाना चाहिए। अगर वह कश्मीरी पंडितों एवं अन्यों की वापसी के प्रति संकल्पबद्ध है तो उसे तुरत कश्मीरी पंडितों सहित जम्मू कश्मीर के सभी पक्षों के नेताओं से इस विषय पर गंभीरता से विचार-विमर्श आरंभ करना चाहिए। वास्तव में यह एक बेहतरीन अवसर के रुप में हमारे सामने आया है जिसका हर संभव सदुपयोग करने की कोशिश किया जाना चाहिए। केन्द्र सरकार यदि बातचीत  आरंभ कर दे तो उतने से माहौल बदलने लगेगा और रास्ता भी इसी में से निकलेगा।  

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408

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