शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

मानव संसाधन प्रबंधन देश के विकास में सहायक : डॉ विनय कुमार

नई दिल्ली। इंटीग्रेटेड इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यूमन रिसोर्स के द्वारा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर दिल्ली में शुक्रवार को ग्लोबल हुमन रिसोर्स कॉन्क्लेव 2023 का आयोजन किया गया जिसमें मानव संसाधन प्रबंधन और आत्मनिर्भर भारत विषय पर चर्चा हुई
इस अवसर पर ग्लोबल ह्यूमन रिसोर्स कॉन्क्लेव 2023 के संयोजक डॉ विनय कुमार ने कहा कि मानव संसाधन प्रबंधन के कारण देश में विकास तेजी से हो रही है और भारत अभी विश्व के पांचवी सबसे बड़ी   अर्थव्यवस्था है, माननीय प्रधानमंत्री मोदी के कुशल नेतृत्व में देश आत्मनिर्भर भारत बनने की ओर बढ़ रहा है और इसमें मानव संसाधन लीडरो की अहम भूमिका है, मानव संसाधन के लोग सॉल्यूशन पर ज्यादा जोर देते हैं प्रॉब्लम पर नहीं, आजकल भारत की इकोनॉमी 4 ट्रिलियन डॉलर है और कुछ साल बाद हम जर्मनी और जापान को भी पीछे छोड़ देंगे, हमें विकास के साथ सतर्क होने की आवश्यकता है, हमने जिनको पीछे छोड़ा वह हमसे ईर्ष्या  भी करेंगे, लेकिन भारत को इससे घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारत किसी का नुकसान नहीं चाहता है और भारत केवल मानवता और वसुधैव कुटुंबकम को बढ़ावा देता है I
इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता मानव संसाधन लीडर्स संदीप सिंह शासन ने कहा कि प्रधानमंत्री के विभिन्न योजनाओं के कारण देश आत्मनिर्भर भारत बनने के कगार पर है और देश में शिक्षा के स्तर को सुधारने की आवश्यकता है, भारतीय सेवा के रिटायर्ड कर्नल और आईआईएमटी कॉलेज के प्रोफेसर के एन चौबे ने कहा लेबर लॉ में सुधार और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग कर भारत को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है, लैडर 2 सक्सेस के संस्थापक मिशेल खन्ना ने कहा कि मानव संसाधन नीति में कौशल प्रशिक्षण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि मानव संसाधन को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके, द्रोणाचार्य कॉलेज के प्रोफेसर साहब सिंह ने कहा कि उच्च शिक्षा में छात्रों को कौशल विकास और एंटरप्रेन्योरशिप पर जोर देने की आवश्यकता है, आईएमएस कॉलेज के प्रोफेसर नवीन विरवानी ने कहा डिजिटल टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देने के कारण देश में काफी प्रगति हुई है I
कॉन्क्लेव में मानव संसाधन के अधिकारी एवं विभिन्न महाविद्यालय के प्राध्यापक, रिसर्च स्कॉलर और छात्रों ने भी भाग लिया, धन्यवाद ज्ञापन आईआईएचआर के संयुक्त सचिव स्वर्णिम दीक्षित ने किया





पूना पैक्ट देश के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी भूल

 

बसंत कुमार

वैश्वीकरण युग के पश्चात देश और पूरे विश्व में आर्थिक सुधारों की बाढ़ सी आ गई है और पूरा विश्व उदारवाद, वैयक्तिकरण और वैश्वीकरण की राह पर चल पड़ा है और सरकारी कार्यालयों में कर्मचरियो की संख्या कम करने के उद्देश्य से संविदा पर कर्मचारियो को भर्ती करके काम लेने की प्रथा चल पड़ी है। इसके कारण सरकारी कर्मचारियों को किए जाने वाले वेतन भुगतान पर आने वाले खर्च में काफी कमी आ गई है और इस धन को इंफ्रा स्ट्रक्चर के विकास पर खर्च किया जा रहा है, इससे चारों ओर विकास तो दिखाई दे रहा है। परंतु युवाओं के लिए नौकरियों में काफी कमी दिखाई दे रही है। वैसे सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों की कमी की मंसा केंद्र सरकार द्वारा गठित पांचवें वेतन आयोग ने ही कर दी थी और ज्यों-ज्यों आर्थिक विकास के लिए स्पर्धा में तेजी आई सरकार ने कर्मचारियों के वेतन पर होने वाले खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से नियमित कर्मचारियो की संख्या में कमी करके संविदा पर रखे हुए कर्मचारियों से काम चलाना शुरु कर दिया। इसके कारण भारी संख्या में युवा बेरोजगार हो गए पर ये युवा और उनके अभिवावक अपनी बेरोजगारी का कारण आर्थिक सुधार नही बल्कि संविधान में दलितांे को दिए गए आरक्षण को मानते हैं। वह इस आरक्षण के लिए महात्मा गाँधी और डा आंबेडकर के बीच 1932 में हुए पूना पैक्ट को मानते हैं। अब बहस इस बात पर उठती हैं कि पूना पैक्ट देश के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी भूल थी।

पूना पैक्ट या पूना समझौता महात्मा गाँधी और डॉ. आंबेडकर के बीच पुणे की यरावदा जेल में 24 सितंबर 1932 को हुआ था जिसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सप्रदायिक अधिनियम में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की थी। इस समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मंडल के फैसले को त्याग कर दिया गया और दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या में केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधानसभा में कुल सीटों की संख्या 18 प्रतिशत कर दी गई। इससे पूर्व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में विचार-विमर्श के पश्चात कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके अंतर्गत डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा उठाई गई राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए दलितों को दो वोटों का अधिकार मिला। एक वोट से दलित वर्ग अपना प्रतिनिधि चुनेंगे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों के ही वोट से चुना जाना था। वास्तव में सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्सजे मैक्डोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को दलितों सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचन मण्डल प्रदान किया गया।

दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल का गांधी जी ने विरोध किया और यरावदा जेल में इसके विरोध में 20 सितंबर 1932 को अनशन प्रारंभ कर दिया। 24 सितंबर 1932 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासो से गाँधी जी और डॉ. आंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ जिसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत दलितों के लिए स्थान आरक्षित रखने पर सहमति बनी। इस समझौते से डॉ. आंबेडकर को कंम्युनल अवार्ड से मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन पद्धति को स्वीकार करना पड़ा जो आज-कल देश में प्रचलित है। पर साथ ही विधायिका में दलितों के लिए 18 प्रतिशत सीटे आरक्षित कराने में सफलता प्राप्त की तथा प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि आरक्षित कराई और सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग की भर्ती को सुनिश्चित किया। कहा जाता है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करके डॉ. आंबेडकर ने गांधी जी को जीवनदान दिया। डॉ. आंबेडकर को इस समझौते को दबाव में किया और वे इससे संतुष्ट नही थे। उन्होंने गाँधी के अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी मांग से पीछे हटने के लिए दबाव डालने के लिए गाँधी जी के द्वारा खेला गया नाटक करार दिया। 1942 में डा आंबेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, उन्होंने अपने द्वारा लिखे गये ग्रंथ ‘स्टेट ऑफ माइनारिटी‘ में पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की। वास्तविकता यह थी कि रैम्मसेे मैक्डोनाल्ड खुद को भारतीयों का दोस्त मानते थे और वे भारतीय समाज के मुद्दों को हल करना चाहते थे और गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद ही कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई थी।

अब प्रश्न यह उठता है कि पूना पैक्ट 1932 जो दलितों के आरक्षण का आधार बना वह सवर्ण समाज के तीन प्रमुख व्यक्तियों महात्मा गाँधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पंडित मदन मोहन मालवीय की सहमति से हुआ तो आरक्षण का विरोध करने वाले लोग आरक्षण के लिए देश के प्रमुख राष्ट्रवादी डॉ. अंबेडकर को उत्तरदायी क्यों मानते हैं। कुछ दिन पूर्व मेरी मुलाकात प्रसिद्ध दलित नेता व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी से हुई, आपसी बातचीत में श्री मांझी ने पूना पैक्ट द्वारा उपजी परिस्थितियों पर दुख व्यक्त करते हुए बताया कि यदि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात मान ली गई होती तो दलित प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सिर्फ दलित ही मतदान करते तो वे अपने प्रतिनिधित्व के लिए सक्षम और शिक्षित लोगों का चुनाव करते जबकि आज के सिस्टम में ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक दलितों का प्रतिनिधित्व अधिकांशतः ऐसे लोग करते हैं जो ऐसे लोगों के पिछलग्गू होते है जिन्होंने इनका शादियों तक शोषण किया है। आरक्षित सीटों पर ऐसे लोग आते हैं जो इन सवर्ण के हलवाह या चरवाह ही होते हैं जो चुनाव जितने के बाद अपनी मुहर जेब में रखकर अपने आका के पीछे-पीछे चलते हैं और उनकी बताई जगह पर ठप्पा लगा देते हैं। यदि किसी आरक्षित सीट पर कोई प्रतिभावान या शिक्षित दलित लड़ने का साहस कर भी लेता है तो उसे पनपने ही नही दिया जाता। ऐसे कमजोर नेतृत्व के बल पर वंचित समाज राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पायेगा और आरक्षण अनिश्चितकाल तक चलता रहेगा और दलित समुदाय राजनीतिक दलों के वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा,

अब सोशल मीडिया व अन्य मंचों पर अनुसूचित जाति के आरक्षण को कोसना बन्द होना चाहिए। इस समय बढ़ती बेरोजगारी का वास्तविक कारण जाने बगैर लोग अपनी नाकामी के लिए आरक्षण को दोष देते हैं और इस आरक्षण के लिए संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर को कोसते हैं जबकि तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्मसे मैकडोनाल्ड के कम्युनल अवार्ड के कारण दलित निर्वाचक मंडल के प्रावधान को नाकाम करने के उद्देश्य से किया गया। पूना पैक्ट महात्मा गॉंधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद व पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से साकार हुआ और इसके कारण वर्तमान में चल रहा दलित आरक्षण अस्तित्व में आया। फिर भी दलित विचारक यह तर्क देते हैं कि दलितों हेतु पृथक निर्वाचन मंडल को नकारने और आधुनिक आरक्षण पद्धति लागू करने के कारण उनकी जाति की जनसंख्या के मात्र 3 प्रतिशत लोग इससे लाभांवित हो पाए हैं। यदि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात मान ली गई होती और दलित प्रतिनिधि चुनने का मतदाता दलित ही होता तो दलितों व वंचितों का प्रतिनिधित्व शिक्षित व योग्य दलित करते न कि सवर्ण जमीदारों के घरों में काम करने वाले अंगूठा छाप व पिछलग्गू लोग और आरक्षण का प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए नही होता।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

चुनावी रणनीति का शिकार हुई संसद

अवधेश कुमार

संसद के शीतकालीन सत्र ने अपने माननीय सांसदों के निलंबन का रिकॉर्ड बना दिया। पूरा देश सांसदों के व्यवहार और निलंबन देखकर विस्मित था। दोनों सदनों को मिलाकर 146 सांसदों के निलंबन की कभी कल्पना नहीं की गई होगी। सत्र समाप्त होने के साथ आईएनडीआईए के सदस्यों ने पहले संसद से विजय चौक तक विरोध मार्च निकाला और बाद में जंतर-मंतर पर धरना दिया व विरोध प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को नाम दिया गया था, लोकतंत्र बचाओ देश बचाओ। ठीक विपरीत सत्ता पक्ष की ओर से विपक्ष पर लोकतंत्र के अपहरण का आरोप लगाया है। संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी ने कहा है कि दृश्य ऐसा था मानो विपक्षी सांसद अपने निलंबन करने के लिए गिड़गिड़ा रहे हों। इसमें सबसे चिंता का विषय सरकार और विपक्ष की लड़ाई का लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति बनाम विपक्ष में परिणत हो जाना है। प्रत्यक्ष तौर पर भले यह न दिखे पर सच्चाई यही है। अगर माननीय सांसद सर्वसम्मति से निर्धारित आचरण को तोड़ते हुए बेल में जाते हैं , तख्तियां दिखाते हैं, नारे लगाते हैं, आसन की ओर कागज फेंकते हैं तो यह सरकार का नहीं आसन यानी अध्यक्ष और सभापति का अपमान होता है। 

 उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तथा कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे के बीच का पत्र व्यवहार देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है। धनकर ने खरगे और राकांपा प्रमुख शरद पवार को पत्र लिखकर कहा है कि स्वीकार नहीं की जाने वाली मांगों के जरिए सदन को पंगु बनाने का प्रयास दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने लिखा है कि पीड़ा के साथ कह रहा हूं कि मेरे आग्रह और प्रयासों को सदन में स्वस्थ कामकाज के लिए आपका समर्थन नहीं मिला। अनुभवी नेता के तौर पर आप जानते हैं कि पीठासीन अधिकारी के साथ बातचीत उच्च प्राथमिकता होती है। सभापति के लिए इससे अधिक पीड़ादायी कुछ नहीं हो सकता है कि मुलाकात का आग्रह स्वीकार नहीं किया गया। यह संसदीय परंपरा के अनुरूप नहीं था।  उनकी एक पंक्ति देखिए,-  यह देखकर दुख हुआ कि कुशल राजनीतिज्ञ का दृष्टिकोण प्रदर्शित करने और उच्च सदन की गरिमा बनाए रखने के बजाय अनुभवी सदस्यों ने भी दलगत भावना से प्रेरित दृष्टिकोण अपनाया। दूसरी ओर खरगे ने अपने पत्र में इतनी बड़ी संख्या में सांसदों के निलंबन को भारत के संसदीय लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के लिए हानिकारक बताते हुए कहा है कि वह इससे व्यथित और चिंतित हैं और निराशा व दुखी महसूस कर रहे हैं। उनकी पंक्ति देखिए , – मैं आपके संज्ञान में लाना चाहता हूं कि संसद की सुरक्षा में सेंध के मुद्दे पर राज्यसभा के के नियम और प्रक्रियाओं से संबंधित नियमों के तहत कई नोटिस दाखिल किए गए थे। खेद का विषय है कि न तो इनको स्वीकार किया गया और न ही मुझे या विपक्षी दलों के किसी अन्य सदस्य को बोलने की अनुमति प्रदान की गई। इन पंक्तियों के बाद किसी को संदेश रह जाता है कि खरगे अंततः किसे आरोपित कर रहे है? 

संसद के दोनों सदन में अध्यक्ष व सभापति का निर्णय ही मान्य होता है। खरगे कह रहे हैं कि हमने आपको नोटिस दिया लेकिन आपने चर्चा नहीं करायी। वे  उपराष्ट्रपति से मिलने की बात कर रहे हैं किंतु इसमें भी उन्होंने लिखा है कि आपसी सहमति से निर्धारित तिथि पर वह उनसे मामले पर चर्चा करें और उनकी चिताओं का निवारण करें। इस तरह की भाषा में लिखा गया पत्र ही बताता है कि स्थिति कितनी बिगड़ चुकी है। सरकार के साथ तनाव, मतभेद व संघर्ष समझ में आता है किंतु अध्यक्ष और सभापति तक की बातें न मानी जाए और उन्हें आरोपित किया जाए तो इनमें बीच का रास्ता नहीं निकल सकता। इससे पता चलता है कि सदन के अंदर कितनी विकट स्थिति रही होगी। अगर 2024 लोकसभा की चुनावी रणनीति का शिकार संसद को बनाया जाएगा तो ऐसी ही स्थिति पैदा होगी। मान कर चलिए कि  इस संसद के अंतिम सत्र यानी बजट सत्र में भी ऐसे ही डरावने दृश्य उत्पन्न होंगे।

दो युवकों का दर्शक दीर्घा से कूदना और एक का जूते से प्लास्टिक कैन निकालकर पीला धुआं छोड़ना चिंताजनक घटना थी। इसे गंभीरता से लेकर सुरक्षा में ऐसे आवश्यक बदलाव करने चाहिए जिसे न दर्शक दीर्घा में आने वाले दुष्प्रभावित हो और न ही आगे से इस तरह के जोखिम की संभावना रहे। सभी माननीय सांसदों को ध्यान रखना चाहिए कि देश और दुनिया में ऐसी तस्वीर न बने कि भारत अपनी संसद की सुरक्षा करने में भी सक्षम नहीं है। कुछ विपक्षी सांसद कहने लगे कि कल कोई हथियार लेकर भी अंदर आ जाएगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि संसद की सुरक्षा में हथियार लेकर जाने की गुंजाइश नहीं है। दोनों युवकों के दर्शक दीर्घा से कूदने, बेंच पर उछलने तथा धुआं छोड़ने के  साथ सांसदों ने ही उनकी पिटाई की, मार्शल उन्हें पकड़ कर बाहर ले गए तथा सदन सुचारु रुप से चलने लगा। अचानक कुछ देर बाद हंगामा हो गया। देखते- देखते विपक्षी सांसदों के बेल में जाने, आसन पर कागज के टुकड़े फेंकने, महासचिव की कुर्सी तक जाकर हंगामा करने तथा तख्तियां लेकर नारे लगाने में परिणत हो गया। जब संसद ने सर्वसम्मति से तय किया है कि तख्तियां लेकर बेल में आने पर निलंबन ही होगा तो जाहिर है जाने वाले सबको पता था। सारे दृश्य स्पष्ट कर रहे हैं कि सांसदों ने जानबूझकर ऐसी स्थिति पैदा की जिनसे उनके निलंबन के अलावा आसन के पास दूसरा विकल्प न रहे। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने एक्स पर लिखा भी कि वे पहली बार तख्ती लेकर बेल में गए और अपने निलंबन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तो यह स्वयं को निलंबित कराने की ऐसी रणनीति थी जिसका दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता। निलंबन पर सांसदों को अफसोस होना चाहिए कि उन्होंने लोकतंत्र की शीर्ष इकाई के शीर्ष प्रतिनिधि वाले आचरण की मर्यादा का उल्लंघन किया। निलंबन पर गर्व महसूस करने और साथियों द्वारा महिमामंडित किए जाने का माहौल बनाया गया। विपक्ष की मांग थी कि सुरक्षा चूक पर गृह मंत्री बयान दें , जबकि लोकसभा अध्यक्ष ने स्वयं कहा कि संसद की सुरक्षा का दायित्व उनका है, इसलिए वे इस पर बयान देंगे। लोकसभा अध्यक्ष को बयान देने की स्थिति बनायी जानी चाहिए थी। 

ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर सदन में चर्चा न की जा सके। किंतु इसके लिए दोनों पक्षों को अपने रुख में लचीलापन दिखाने की आवश्यकता थी। यह विषय सरकार की आक्रामक घेरेबंदी की बजाय सभी दलों के बीच विमर्श का था कि ऐसा क्यों हुआ और आगे इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो। ऐसा क्यों हुआ?

 विधानसभा चुनाव में आईएनडीआईए लगभग अस्तित्वहीन हो गया था तथा कांग्रेस के अहंवादी व्यवहार से इसके कई घटक दलों में नाराजगी थी। कांग्रेस को लगा कि यही स्थिति है जिसमें फिर विपक्ष को भाजपा विरोध पर एकजुट किया जा सकता है। भाजपा विरोध के नाम पर संसद में विपक्षी एकजुटता सबसे आसान रास्ता था और रणनीति के तहत ऐसा व्यवहार किया गया। आज एक तरफ सरकार और दूसरी ओर आईएनडीआईए है। विपक्ष व्यवहार से अपना निलंबन कराने पर तुला हो तो सरकार के लिए विधेयक पारित कराना ज्यादा आसान हो जाता है। यही इस सत्र में हुआ। अंग्रेजों के समय का भारतीय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम और अपराध न्याय प्रक्रिया को आमूल रूप से बदल दिया गया किंतु विपक्षी सदस्य इस पर चर्चा से वंचित रहे। बेशक , संसद चलाने की जिम्मेवारी सरकार की ज्यादा है किंतु विपक्ष की भी है। मल्लिकार्जुन खरगे ने जंतर-मंतर धरना में कहा कि देश में बेरोजगारी की स्थिति है तथा बेरोजगारों में गुस्सा है। उन्होंने इन युवाओं के विरोध और निंदा की जगह कहा कि इन्होंने गलती की कि संसद में कूद गए। अगर यह छोटी गलती है तो सुरक्षा की बड़ी चूक कैसे हो गई? विपक्ष ने घटना को इस रूप में पेश किया कि देश की हालत अत्यंत खराब है, नरेंद्र मोदी सरकार में नौजवान बेरोजगारी से परेशान और आक्रोशित हैं, जिसे उन्होंने संसद में कूद कर प्रकट कर दिया। विपक्ष का यह सार्वजनिक रूख असंतुलित मानस के लोगों को इस तरह या सदृश दूसरी या इससे बड़ी घटनाओं के लिए प्रेरित करेगा। सरकार यह स्वीकार नहीं करेगी और न ही यह सच है कि मोदी सरकार के विरुद्ध जनता में व्यापक आक्रोश है। ऐसे में सरकार और विपक्ष के बीच रास्ता निकालने की कोई संभावना ही नहीं थी और हमारे लोकतंत्र की शीर्ष इकाई राजनीति का दुर्भाग्यपूर्ण शिकार हो गई।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स,  दिल्ली-110092, मोबाइल-9811027208

गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

संसद धुंआ कांड को कैसे देखें

अवधेश 

संसद के अंदर और  बाहर की घटना ने पूरे देश को विस्मित किया है। संसद में लोकसभा के अंदर दो व्यक्तियों का कूदना, परिसर के बाहर नारा लगाना, पीली धुएं छोड़ना निश्चित रूप से चिंता का विषय है। लोकसभा में दर्शक दीर्घा से कूदने वाले सागर शर्मा और मनोरंजन डी तथा बाहर परिवहन भवन के सामने नारा लगाने वाले अमोल शिंदे और नीलम आजाद सबके पास एक ही प्रकार का रंगीन स्मोक था। हालांकि इन सबके बीच संबंध था और इस कारण तारतम्यता भी, लेकिन बाहर सड़क पर परिवहन भवन के सामने कोई भी खड़ा होगा, नारा लगाएगा या  धुआं छोड़ सकता है। उसे सुरक्षा चूक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह खुली जगह है। अंदर की घटना को सुरक्षा चूक कहने में इसलिए हर्ज नहीं है क्योंकि सागर और मनोरंजन जूते में छुपा कर कलर स्मोक क्रैकर लेकर चले गए और हल्के पीले रंग की गैस छोड़ कर डर पैदा कर दिया। छह आरोपी बनाए गए हैं जिनमें से पांच पकड़े जा चुके हैं। केंद्रीय लोकसभा सचिवालय के अनुरोध पर गृह मंत्रालय ने घटना की जांच का आदेश दे दिया है। सीआरपीएफ के महानिदेशक अनीश दयाल सिंह की अध्यक्षता वाली जांच समिति में सुरक्षा एजेंसिंयों के सदस्य और विशेषज्ञ शामिल होंगे। तो अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले जांच रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी चाहिए। किंतु यह ऐसी घटना नहीं है जिसकी अनदेखी की जाए या जिसको हल्का मान लिया जाए। वास्तव में इसके कई पहलू हैं जिनकी गंभीरता से विवेचना होनी चाहिए। 

दुर्भाग्य से गंभीर मामलों को भी जब राजनीति का शिकार बनने की कोशिश होती है तो उसकी आवश्यक गंभीर विवेचना कम से कम आम लोगों के बीच उस तरह से नहीं हो पाती जैसी होनी चाहिए। संसद में आने–जाने वाले जानते हैं कि वहां किस तरह की तीन स्तरीय और बाहर को मिला दें तो चार स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है। इन पर चर्चा आगे करेंगे, पहले घटना से जुड़े मुख्य पहलुओं को देखें। अमोल महाराष्ट्र के लातूर का और नीलम हरियाणा के जींद की, सागर उन्नाव का और मनोरंजन मैसूर का रहने वाला है। इन चारों में इतने संबंध कैसे हुए कि उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से समन्वित और सावधानीपूर्वक अपने कारनामों को अंजाम दिया। इनकी सुनियोजित होने का पता इससे भी चलता है कि नीलम द्वारा नारा लगाते और अमोल के धुआं छोड़ते एक ललित झा वीडियो बना रहा था और उसे सोशल मीडिया पर अपलोड भी किया।  वह एक एनजीओ से जुड़ा है और उसकी जांच आवश्यक है।

घटना पूरी तरह योजनाबद्ध थी इसीलिए जब दर्शक दीर्घा से सागर और मनोरंजन सत्ता पक्ष की ओर कूदता है उसी समय बाहर नीलम और अमोल नारा लगाते हुए आगे बढ़े और धुआं भी छोड़ा। ये छह पास चाहते थे लेकिन इन्हें दो ही मिल सका। अभी तक की जानकारी के अनुसार संसद आने से पहले यह सब गुरुग्राम में विक्रम शर्मा के घर पर रुके थे। आजकल इंटरनेट और सोशल मीडिया के जमाने में एक दूसरे से संपर्क होना कठिन नहीं है। लेकिन यह सब एक दूसरे से इतनी जुड़ गए और इन्होंने इस तरह की योजना बना लिया और पूरा किया तो स्वाभाविक ही इसकी गहराई से जांच करनी होगी कि क्या सब कुछ इन्होंने ही किया या उनके पीछे और भी हैं ,जिनने भी किया उनका उद्देश्य क्या था?  बेरोजगारी या तानाशाही आदि का नारा लगाने के लिए संसद से कूद कर भय पैदा करने की आवश्यकता नहीं थी। वैसे भी संसद हमले की वार्षिकी पर ऐसा करने वाला सकारात्मक सोच का आंदोलनकारी नहीं हो सकता । 13 दिसंबर, 2001 को भीषण जिहादी आतंकवादी हमले ने पूरे देश को हिला दिया था। उच्चतम न्यायालय के फैसलों से साफ है कि उसका षड्यंत्र पाकिस्तान में रचा गया था जिसके पीछे मसूद अजहर का जोश ए मोहम्मद  तथा लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठन थे। भारत में भी जेहादी आतंकवाद की सोच से प्रभावित अफजल गुरु और उसके साथी इसमें संलिपप्त थे। हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर एस आर गिलानी पर भी आरोप लगा किंतु वह पर्याप्त सबूतों के अभाव में रिहा हो गए। वह हमला संपूर्ण विश्व में जारी अंतरराष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद का एक अंग था। उसके पहले 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका के न्यूयॉर्क एवं वाशिंगटन में वर्ल्ड ट्रेड टावर से लेकर पेंटागन पर हमले हो चुके थे और संपूर्ण दुनिया हिली हुई थी। अगर किसी को देश में बेरोजगारों के लिए महिलाओं के लिए आवाज उठानी है या वह बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहता है तो कम से कम आतंकवादी हमले के दिन से स्वयं को नहीं जोड़ेगा।  यह देखना होगा कि उनके मस्तिष्क में ऐसी बात आई क्यों? जय भीम जय भारत के नारे का यहां अर्थ क्या है? यह सब भगत सिंह के नाम से बने संगठन से जुड़े बताए जा रहे हैं। भगत सिंह को आदर्श मानने वाले इस तरह आतंकवादी हमले के दिवस से स्वयं को किसी सूरत में संबंधित  नहीं कर सकते।

जैसा हम जानते हैं सदन के भीतर कोई दर्शक तभी जा सकता है जब किसी सांसद की सिफारिश हो। इसके लिए विजिटर फार्म होता है जिसमें पूरी जानकारी भरनी होती है और उसमें संसद को हस्ताक्षर करना होता है। संसद भवन की सुरक्षा व्यवस्था पहले से ही मजबूत है। प्रत्येक सत्र के पहले सुरक्षा एजेंसियां सुरक्षा समीक्षा करती है। तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है। परिसर के बाहर दिल्ली पुलिस का सुरक्षा प्रबंध है और अंदर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की जिम्मेवारी रहती है। मुख्य भवन की सुरक्षा पार्लियामेंट्री सिक्योरिटी सर्विस यानी संसद सुरक्षा सेवा के पास होती है। यह पूरे परिसर पर दृष्टि रखती है। परिसर में प्रवेश करने से पहले विजिटर को कई चरणों की जांच से गुजरना पड़ता है। संसद के दोनों सदनों में दर्शकों के लिए दीर्घा है।  पास बनाने के लिए संबंधित व्यक्ति को सांसद का पत्र और आधार कार्ड या कोई दूसरा पहचान पत्र देना होता है। रिसेप्शन पर विजिटर की जांच की जाती है। सही पाए जाने पर फोटो पहचान पत्र बनता है। मोबाइल फोन रिसेप्शन पर ही रखवा लिया जाता है। वहां से लोकसभा में और दर्शक दीर्घा में जाने तक तीन जांच होती है। आप कलम तक अंदर नहीं ले जा सकते।‌ पहले विजिटर को पास एक घंटे के लिए दिया जाता था लेकिन बाद में 45 मिनट कर दिया गया। इन्होंने पहली पंक्ति में ही अपने लिए बैठने की व्यवस्था की। जब पीछे के दर्शकों का समय पूरा हुआ, वो जाने लगे तब इनमें से एक अंदर कूदा, दूसरा लटकाऔर फिर जो कुछ हुआ वह सामने आ चुका है। यह सोचने की बात है कि कई महीनो से मनोरंजन भाजपा के सांसद प्रताप सिम्हा के यहां ही पास के लिए क्यों दौड़ लगा रहा था? क्या यह साबित करना था कि भाजपा के सांसद के पास से ही संसद के अंदर ऐसी घटना हुई? मनोरंजन के पिता दक्षिण मैसूर के सांसद प्रताप सिम्हा के परिचित हैं।

 पिछले कुछ समय में खासकर शाहीनबाग धरना के समय से कृषि कानून विरोधी धरना और फिर जंतर- मंतर पर पहलवानों के धरने तक नरेंद्र मोदी सरकार के विरोधियों ने देश का वातावरण ऐसा बना दिया और ऐसी भयानक मानसिकता भी निर्मित कर दी जिसमें बहुत बड़े समूह को ऐसा लगता है कि इस सरकार को किसी तरह बदनाम करना, कमजोर करना, लोगों के अंदर यह भाव फैलाना कि उनके कार्यकाल में देश असुरक्षित है आदि हमारा सर्वोपरि कार्य  है। नीलम इन सभी धरनों में शामिल थी और उसके संपर्क उनके नेताओं से हैं तभी तो जींद में किसानों का एक बड़ा समूह पहुंच गया यह कहते हुए कि उसे रिहा किया जाए। जरा सोचिए,  वातावरण कितना विकृत है कि वैश्विक जेहादी आतंकवाद के हमले के दिन यह सब अपना तथाकथित विरोध प्रकट करने का दिन चुनते हैं और कोई इसकी आलोचना नहीं करता। विपक्ष ने पहले दिन से ही नई संसद भवन को असुरक्षित और अनुपयुक्त साबित करने का अभियान चलाया है। धुआं कांड के बाद समूचे विपक्ष का स्वर एक ही है कि सारे सांसदों और यहां के कर्मचारियों की जिंदगी को असुरक्षित कर दिया गया है। अगर विपक्ष के लोग भी हमले की उसी आक्रामकता से निंदा करते जिस तरह सरकार की कर रहे हैं तो लगता कि वाकई इनके अंदर संसद भवन से लेकर अन्य तरह की सुरक्षा की चिंता है । अधीर रंजन चौधरी कह रहे हैं कि इन लोगों ने देश की असलियत को सामने ला दिया है। ऐसे बयानों से इन लोगों का ही हौसला बढ़ेगा। कोई उनकी इस बात के लिए भी निंदा नहीं कर रहा है कि संसद पर आतंकवादी हमले जैसे भयानक दिवस को चुनना ही आतंकवाद को समर्थन देना और इस नाते देश विरोधी कार्य है। पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद निस्संदेह आने वाले समय में इसके पीछे का षड्यंत्र सामने आएगा। ऐसा माहौल न बना दिया जाए कि आम लोगों को दर्शक के रूप में भी संसद भवन को देखने के रास्ते बंद हो जाए। किसी एक घटना का तात्पर्य नहीं कि सारे दर्शक संदिग्ध ही होंगे। सुरक्षा मजबूत करिए और उसके साथ-साथ देश का वातावरण ऐसा बनाइए कि पक्ष और विपक्ष की लड़ाई लोकतांत्रिक सहमति और असहमति की हो नफरत और दुश्मनी की नहीं। नफरत और दुश्मनी की राजनीति से ही इस तरह की भयानक घटनाओं की पुनरावृति होती है।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल –9811027208

शनिवार, 16 दिसंबर 2023

महुआ मोइत्रा का निष्कासन से क्या सांसदों को सीख मिलेगी

बंसत कुमार
पिछले सप्ताह टीएमसी नेता महुआ मोइत्रा की पैसा लेकर संसद में प्रश्न पूछने के मामले में संसद सदस्यता रद्द किए जाने पर सियासत तेज हो गई है, टीएमसी समेत कई विपक्षी दल इस कार्यवाही का विरोध कर रहे है। उनका आरोप था कि संसद की आचार समिति की रिपोर्ट लोकसभा में रखने के पूर्व मीडिया में लीक कर दी गई और इस संबंध में महुआ मोइत्रा को अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया क्योकि यह कार्यवाही निष्पक्ष तभी मानी जाती जब आरोपित व्यक्ति को अपनी सफाई देने का पूरा मौका दिया जाता। पर इस मामले में शिकायतकर्ता दर्शन हीरा नंदानी को समिति के समक्ष नहीं बुलाया गया और सारी कार्यवाही उनके द्वारा दिए गए हलफनामे के आधार पर की गई। जबकि कायदे से उनको समिति के सामने यह बताना चाहिए था कि यह हलफनामा उन्हीं के द्वारा दिया गया है और आचार समिति द्वारा यह नहीं बताया गया कि कितनी नगदी का लेन-देन हुआ है और न कोई सबूत दिया गया है।
लोकसभा में बोलते हुए जेडीयू सांसद गिरीश यादव ने बताया कि मेरे द्वारा संसद में पूछे गए सवाल में नहीं मेरा निजी सचिव बनाता है और मुझे अपना आईडी पासवर्ड नहीं पता और इसे भी मेरा निजी सचिव लॉग इन करता है सांसद की इस बात पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा माननीय सांसद खुद ही अपना प्रश्न बनाएं और खुद डालें, माननीय लोकसभा अध्यक्ष की यह बात सही हो सकती है पर वास्तविकता यह है कि अधिकांश सांसदों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न उनके साथ काम करने वाले लोग ही बनाते हैं और यह भी सच है कि करोड़पतियों और बाहुबलियों का आज की राजनीति में इतना अधिक वर्चस्व हो गया है कि अधिकांश सांसद ऐसे आ रहे हैं जो अपने द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न और अपने भाषण स्वयं तैयार कर सकें और इनमें से अधिकांश इन कार्याे के लिए अपने स्टाफ पर आश्रित रहते हैं।
मुझे 15वीं लोकसभा की एक घटना याद आ रही है जब प्रश्न काल के दौरान मछली शहर उत्तर प्रदेश के सांसद श्री राम चरित्र निषाद का उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न के संबंध में उनका नाम पुकारा गया तो उन्हें यह नहीं पता था कि उन्हे कौन-सा प्रश्न पूछना है और उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष को बताया कि मुझे यह नहीं पता कि क्या पूछना है, जबकि 2-3 दशक पूर्व तक सांसदों के लिए प्रश्न पूछना बहुत महत्वपूर्ण होता था और वरिष्ठ से वरिष्ठ सांसद जिन्हे सांसद के रूप में कई दशकों का अनुभव होता था फिर भी वे संसद पूरी तैयारी के साथ जाते थे। मुझे भी कई वरिष्ठ सांसदांे और मंत्रियों के साथ काम करने का अवसर मिला और वर्ष 2009-2012 के बीच भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री कलराज मिश्र के साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन वर्षाे में मैं उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों और उनके पूरक प्रश्नों और राज्यसभा में उनके द्वारा दिए गए भाषणों व वक्तव्यों को तैयार किया करता था और उस समय तक श्री मिश्र को संसद और विधानसभा का चार दशक का अनुभव हो चुका था पर संसद जाते समय एक नए छात्र की तरह तैयार हो कर जाते थे और हर बिंदु पर मुझसे बात करने में संकोच नहीं करते थे और उनकी कड़ी मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि इतने लम्बे समय तक वे पार्टी व सरकार में अनेक उत्तरदात्यिवांे का सफलतापूर्वक निर्वाह करते रहे।
जहां तक सांसदों जनप्रतिनिधियों द्वारा पूजीपतियों या अन्य धन्नसेठों से सुविधाएं लेने का प्रश्न है तो 20वीं सदी के आखिरी दशक में हवाला कांड के खुलासे के बाद जैन डायरी में नाम आने के बाद कई मंत्रियों और सांसदो को अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था और इसकी कीमत दिल्ली को चुकानी पड़ी थी जब उस समय सबसे मेहनती और उर्जावान मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना को असमय अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा था पर वह पाक-साफ होने पर भी वह दुबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और उनके द्वारा प्रारंभ की गई योजनाएं अधूरी रह गईं। यद्यपि सांसदो द्वारा व्यापारी वर्ग से फेवर लेने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अधिकांश सांसद विधायक ऐसे लोगों से हमेशा फेवर लेते रहते हैं। यदि इस आधार पर सांसदों की सदस्यता रद्द होने लगे तो एथीक्स कमेटी के चेयरमेन सहित अधिकांश सांसदों की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। यदि महुआ मोइत्रा का निष्कासन का मामला लोकसभा में रिश्वत लेकर प्रश्न पूछने का है उनके उपर निष्कासन के अतिरिक्त भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए और दोषी पाए जाने पर उन्हे जेल के साथ-साथ सांसद के रूप में मिलने वाली पेंशन आदि बन्द कर देनी चाहिए पर सिर्फ किसी की शिकायत और हलफनामे के आधार पर किसी की सदस्यता रद्द करना उचित नहीं है। जब देश में भ्रष्टाचार से निपटने हेतु पीसी एक्ट जैसे प्रावधान उपलब्ध है तो सांसदों को इससे छूट क्यों मिले। ऐसे मामलों का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए और न ही भ्रष्टाचार में लिप्त सांसदों, मंत्रियों के साथ कोई ढिलाई बरती जानी चाहिए।
पर आज कल के सांसद अपने विधायी कार्याें के उत्तरदायित्व के सफल निर्वहन और संसद की कार्यवाही में रुचि लेने के बजाय मंत्रियों और बड़े लोगों के साथ फोटोबाजी और उसे फेसबुक पर शेयर करने में व्यस्त रहते हैं! आज कल पंडित नेहरू से लेकर अटल युग की स्तरीय परिचर्चा संसद में अब सपना हो गई हैं। जब सांसद को यही नहीं पता होगा कि मुझे संसद में क्या पूछना है तब तक इस बात की संभावना रहेगी कि सांसद ने किसी प्रलोभन के कारण यह प्रश्न पूछा है या किसी प्रलोभन के कारण उनके निजी स्टाफ् ने इस प्रकार का प्रश्न बनाया है जिसे सांसद आंख मूंद कर हस्ताक्षर कर देते हैं। जैसा कि महुआ मोइत्रा के साथ हुआ होगा, उनके निष्कासन के पश्चात् यह कहा गया कि आचार समिति मुझे इस बात के लिए दंडित कर रही हैं जो लोकसभा में सामान्य है, स्वीकृत और सामान्य है और जिसे प्रोत्साहित किया जाता हैं। मेरे खिलाफ पूरा मामला लॉग इन डिटेल शेयर करने पर आधारित है जबकि इसके लिए कोई नियम तय नहीं है। इस निष्कासन के बाद एक अन्य सांसद ने कहा कि मोइत्रा ने नियम तोड़ा है और कोई भी व्यक्ति कानून से उपर नहीं होना चाहिए। यह पक्ष-विपक्ष का मामला नहीं है बल्कि संसद की मर्यादा का प्रश्न है, क्योंकि एक सांसद क्षेत्र के लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है और जब कोई इस जिम्मेदारी से चूक करता है तो प्रश्न उठना लाजमी है।



गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 पर फैलाए झूठ को ध्वस्त कर दिया

 

अवधेश कुमार

अनुच्छेद 370 पर उच्चतम न्यायालय के फैसले का तात्कालिक महत्व भले इतना ही लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा इसे निष्प्रभावी बनाने का कदम संवैधानिक रूप से सही था, पर यह यहीं तक सीमित नहीं है। इससे भारत सहित विश्व भर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के विरुद्ध किए गए दुष्प्रचारों का न केवल अंत हुआ है बल्कि कांग्रेस , कम्युनिस्ट पार्टियों सहित जम्मू कश्मीर की परंपरागत पार्टियों व नेताओं के द्वारा अब अपना आएगा रुख और दिए गए वक्तव्य भी झूठ  साबित हुए हैं। वास्तव में इस फैसले का महत्व इस मायने में बड़ा है कि इसने स्वतंत्रता के बाद से अब तक जम्मू कश्मीर के संदर्भ में फैलाए गए झूठ की कलई भी खोल दी है। झूठ यह फैलाया गया था कि जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के साथ उस राज्य के लिए विशेष संप्रभुता का वचन दिया गया था। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने फैसले में स्पष्ट लिखा है के भारत में विलय के साथ जम्मू कश्मीर की किसी तरह की संप्रभुता नहीं थी। जरा सोचिए , किस तरह आज तक जम्मू कश्मीर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने वाले नेताओं ने न केवल देश के साथ बल्कि वहां के उन सभी लोगों के साथ अन्याय किया जो प्रदेश में स्वाभाविक नागरिक बनकर भारतीय संविधान के तहत दिए गए अधिकारों एवं सुविधाओं के भागी थे लेकिन वंचित रहे। इसका अर्थ यह हुआ कि पूर्व की सरकारें भी गहराई से विचार करतीं तो 370 समाप्त कर न केवल पाकिस्तान से आए शरणार्थियों बल्कि भारत से वहां जाकर बसे लोगों के साथ न्याय होता और जम्मू कश्मीर आज तक अन्य राज्यों की तरह एक सामान्य राज्य के रूप में परिणत हो चुका होता। नरेंद्र मोदी सरकार ने साहस दिखाया तो ऐतिहासिक काम का श्रेय इतिहास के अध्याय में उसे मिलेगा। न्यायालय ने सितंबर 2024 तक चुनाव कराने एवं जम्मू कश्मीर को राज्य बनाने का जो निर्देश दिया है उसमें कठिनाई नहीं है और सरकार इस दिशा में काम कर रही है।

 मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधान पीठ में से तीन न्यायाधीशों ने ही फैसला लिखा और सभी एक दूसरे से सहमत थे। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने वही कहा है जो विवेकशील निष्पक्ष लोग मान रहे थे। यानी अनुच्छेद 370 अस्थाई प्रावधान था। उच्चतम न्यायालय में 23 याचिकाओं में अनुच्छेद 356 से लेकर राष्ट्रपति के अधिकार, केंद्र शासित प्रदेश बनाने आदि कई पहलू निहित थे। सब पर न्यायालय ने टिप्पणियां की है किंतु मूल विषय अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाना ही था। 5 अगस्त, 2019 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा राज्यसभा में पेश विधेयक बहुमत से पारित हुआ तथा अगले दिन लोकसभा से भी स्वीकृत हो गया था। संविधान पीठ ने राष्ट्रपति के आदेश सहित पारित करने की पूरी प्रक्रिया को सही माना है। स्पष्ट लिखा है कि संवैधानिक व्यवस्था ने यह संकेत नहीं दिया कि जम्मू कश्मीर ने संप्रभुता बरकरार रखी है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 1और 370 से स्पष्ट है। न्यायालय ने यह भी कह दिया है कि अनुच्छेद 370 (3) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना जारी करने की शक्ति से अनुच्छेद 370 का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जम्मू कश्मीर के संविधान के तहत वहां की संविधान सभा द्वारा ही इसे निरस्त करने की बात थी जिसके बारे में पीठ ने लिखा है कि जम्मू कश्मीर संविधान सभा के विघटन के बाद भी राष्ट्रपति की अधिसूचना जारी रखने की शक्ति कायम रहती है। ‌याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि जम्मू कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश से ही राष्ट्रपति उसे निरस्त कर सकते थे। संविधान सभा 1951 से 1957 तक फैसला ले सकती थी लेकिन उसके बाद इसे निरस्त नहीं किया जा सकता। पीठ ने स्पष्ट लिखा है कि राष्ट्रपति की शक्तियों का उपयोग दुर्भावनापूर्ण नहीं था। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर के संवैधानिक , कानूनी एवं प्रशासनिक आदि व्यवस्थाओं में भारी बदलाव किए हैं। विरोधियों का तर्क था कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केन्द्र  ऐसा कोई फैसला नहीं ले सकता जिसमें बदलाव न किया जा सके। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ऐसा कहना सही नहीं है कि अनुच्छेद 356 के बाद केंद्र केवल संसद के द्वारा ही कानून बन सकता है। फैसले के अनुसार अनुच्छेद 356 में राष्ट्रपति को राज्य में बदलाव करने का अधिकार है। 370 (1) डी के तहत राष्ट्रपति को विधानसभा से सहमति लेकर राज्य के मामले में फैसला देने की बाध्यता नहीं है। 

इस तरह 370 को निष्प्रभावी बनाने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किए गए सारे बदलावों पर उच्चतम न्यायालय की मुहर लग गई है। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गनिर्देश में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह एवं जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने जम्मू कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह सर्वसामान्य राज्य बनाने, माहौल शत-प्रतिशत सहज स्वाभाविक करने के लिए ऐसे कदम उठाए हैं जिनके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। लाल चौक पर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा लहराना, मुक्त वातावरण में कार्यक्रमों सहित पूरे राज्य में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के आयोजनों तथा बरसों से बंद पड़े मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठान आदि की तस्वीरें देखकर भारत सहित संपूर्ण दुनिया के भारतवंशी हर्षित हैं तो कारण दृढ़ संकल्प के साथ 370 को निष्प्रभावी बनाना और उसके बाद लगातार योजनाबद्ध से काम करना है। केंद्र ने  आतंकवादी घटनाओं, पत्थरवाजी आदि में कमी सहित वो सारे आंकड़े प्रस्तुत किए जिनसे साबित होता है कि 370 के बाद जम्मू कश्मीर समान्य माहौल की ओर लौटा है।

कुछ लोगों को यह असाधारण फैसला लग सकता है क्योंकि कल्पना नहीं थी कि जम्मू कश्मीर में इतना व्यापक, संवैधानिक , कानूनी, प्रशासनिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं। जम्मू कश्मीरआमूल रूप से बदल चुका है। सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझना कठिन था कि कोई राज्य, जिसने स्वतंत्रता के बाद उसी विलय पत्र पर हस्ताक्षर किया जिस पर अन्य राज्यों ने, उसे संप्रभुता सहित अन्य अधिकार कैसे मिल गए कि भारत का संविधान विधानसभा की स्वीकृति के बिना लागू ही नहीं हो सकता। न्यायमूर्ति संजय किशन कॉल ने लिखा है कि जम्मू कश्मीर में केवल और केवल भारत का संविधान ही लागू होगा कोई और संविधान नहीं। इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और उसके उत्तराधिकारी भाजपा के एक विधान, एक प्रधान और एक निशान का नारा सही साबित होता है। आज यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय ऐसा कह रहा है तो देश को गफलत में क्यों रखा गया? अगर 370 पहले निष्प्रभावी कर दिया जाता तो जम्मू कश्मीर में आतंकवाद, जिहादी कट्टरवाद पैदा नहीं होता , न इतने खून बहते और न ही गैर मुसलमानों को प्रदेश से भागने की नौबत आती। वाल्मीकि परिवारों सहित पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को पूर्ण नागरिकता प्राप्त होती, वे मतदान करते और उसका असर विधानसभा से स्थानीय निकायों तक होता। 370 के निष्प्रभावी होने का ही परिणाम है कि पंचायतों व जिला विकास परिषदों के चुनाव हुए। अनुच्छेद 370 ने ही जम्मू कश्मीर को अपने लिए 35 ए धारा बनाने का अधिकार दिया जिसमें प्रदेश की नागरिकता तय करने का अधिकार  जम्मू कश्मीर के पास रहा तथा लड़कियों के भारत के अन्य भाग में शादी करते ही संपत्ति सहित सारे अधिकार खत्म कर दिए गए। अब इस पर बहस होनी चाहिए कि इन लोगों के साथ अन्याय करने के दोषी कौन हैं? जम्मू कश्मीर के लोगों के अंदर भारत से अलग विशिष्ट यानी अलगाववाद की भावना पैदा के लिए किसे उत्तरदायी ठहराया जाए?

 संयोग देखिए कि इस फैसले के समानांतर ही केंद्र सरकार का संसद से जम्मू कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक 2023 और जम्मू कश्मीर पुनर्गठन संशोधन विधेयक 2023 पारित हो गया। इसमें अनुसूचित जनजाति के लिए सीटें आरक्षित हुई हैं तो दो नामांकित सदस्यों की संख्या पांच कर दी गई है। दो सीटें कश्मीरी विस्थापितों के लिए रखा गया है। समाज के वंचित तबकों तथा कश्मीरी हिंदुओं के साथ हुए अन्याय का परिमार्जन करने की कोशिशें तभी सफल हुई जब 370 राक्षस का अंत हुआ। यह स्वाभाविक है कि न्यायालय अगर नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक है तो वह इसके विपरीत फैसला दे ही नहीं सकता था। यह फैसला बताता है कि नेताओं और शीर्ष स्तर के एक्टीविस्टों, पत्रकारों ,बुद्धिजीवियों ने आजादी के बाद अनेक झूठ फैलाकर ऐसी कई व्यवस्थायें बनाईं बनवाईं और कायम रखीं जिनसे देश को अपूर्णीय क्षति हुई है। समय आ गया है कि अनुच्छेद 370 के अनुसार ही ऐसी अन्य व्यवस्थाओं को भी वैधानिक मृत्यु देने का कदम उठाया जाए।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल -9811027208

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

आनलाइन सेटबाजी से बर्बाद होते युवा

बसंत कुमार

अभी हाल मे संपन्न हुए विधान सभा चुनावो मे छत्तीसगढ़ मे ऑन लाइन सट्टेबiजी को लेकर भाजपा और कांग्रेस मे इसे सह देने का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला चल रहा था और तत्कालीन मुख्यमन्त्री भूपेंद्र सिंह भगेल ने प्रधानमन्त्री जी को चिट्ठी लिखकर सभी प्लेट फॉर्मो पर सट्टेबजी ऐप पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया। अपनी चिट्ठी मे बघेल ने कहा कि हाल के दिनों मे आन लाइन सट्टेबiजी और गेमिंग के माध्यम से अवैध जुआ और सट्टबाजी का iरोबार पूरे देश मे फैल गया है। इसके संचालक और मालिक मिलकर उक्त अवैध iरोबार चला रहे है। अपने राज्य मे फैले इस अवैध iरोबार को रोकने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा उठाये गए कदमो की जानकारी देते हुए प्रधानमन्त्री से इसे रोकने की अपील की। मैच फिक्सिंग और सट्टेबiजी की बढ़ती हुई घटनाओ ने देश की युवा पीढी को बर्बाद कर दिया है। iतोरात अमीर बनने के चक्कर मे आज के युवा इसके चक्रव्यूह मे फसते चले  रहे है और इस सट्टेबाजी के मास्टरमाइंड विदेशो मे बैठकर पूरी युवा पीढी को इस अवैध काम मे झोंक रहे है।

1998-99 मे जब दक्षिण अफ्रिका के कप्तान हंसी क्रोनिये का नाम मैच फिक्सिंग मे आया तो पूरे क्रिकेट जगत मे तूफान  गया, जो लोग क्रिकेट खिलाडियों को भगवान के रूप पूजते थे वे अब इन्हे खलनायक के रूप मे देखने लगे थे, इस घटना के कुछ दिन बाद बी सी सी आई के पूर्व अद्यक्ष आई एस बिंद्रा ने मैच फिक्सिंग मे देश के महान  आलराउंडर 1983 के विश्व कप विजेता टीम के कप्तान का नाम उछाला तो पूरा बवंडर मच गया, उसके बाद फिक्सिंग को लेकर मनोज प्रभाकर' की टेप सामने आई और मनोज प्रभाकर समेत, मौहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जडेजा आदि पर बैन लग गया तब क्रिकेट प्रेमियों का दिल बहुत दुखा था। परन्तु जब से आईपीएल का आयोजन शुरू हो गया है और टेस्ट क्रिकेट की जगह टी-20 क्रिकेट ने ले ली है तब से मैच फिक्सिंग और आन लाइन सट्टे बाजी आम बात हो गयी है और इसमें पड़कर युवा पीढ़ी बर्बाद हो गयी है।

आईपीएल शुरु होते ही सट्टेबाजी का गिरोह भी बढ़ने लगा है, सट्टेबाजी के कारण देश के युवा तबाह हो रहे है एक दिन मे देश मे हजारो करोड़ का सट्टा लग जाता है और ये सट्टेबाज गिरोह के लोग एक एक दिन मे लाखों करोड़ो के वारे न्यारे करते है। सट्टेबाजी के इस खेल में कुछ लोग एक झटके में कंगाल हो जाते है और सट्टा खिलाने वाले मालामाल हो जाते है। इस खेल में एक बड़ा सिंडिकेट होता है जो इस खेल की मॉनिटरिंग करता है और सट्टेबाजी मे हारे हुए लोगो से पैसा वसुलता है। सट्टा लगाने वाले शख़्स को लाइन कहा जाता है जी ऐजेंट (पंटर) के जरिये बुकि (डिब्बे) से बात करता है। एजेंट को एडवांस देकर एकाउंट खुलवाना पड़ता है यह एकाउंट 1000 से लेकर लाख रुपए तक खुलता है जैसे ही नया आदमी अपनी आई डी बनवाता है तो जितने रुपए की आई डी बनती है उसका 20% तुरन्त एजेंट को मिल जाता है। ये एजेंट नया आदमी बनवाने और सट्टे खेलने वालो से वसूली का काम करते है। कम राशि सीधे आन लाइन ट्रांसफर की जाती है और बड़ी रकम एजेंट के जरिये भिजवाया जाता है।

जानकारों का कहना है जब से दूरदर्शन पर "कौन बनेगा करोड़ पति" जैसे कार्यक्रम दिखाये जाने लगे है तभी से युवा पीढ़ी कम समय मे बिना परिश्रम के अधिक से अधिक पैसा लगाने मे जुटी है और इस चक्कर मे मेहनत से कमाई या मा बाप द्वारा अर्जित पूजी गवा रही है, पूरे देश मे यह ट्रेंड विकसित हो गया है युवा पीढी यह समझ नही पा रही है कि इस लत से उनका पूरा परिवार तबाह हो रहा है और उन्हे अगाह करने की lवश्यकता हैl आईपीएल का 16 वा सीजन 31 मार्च 2023 से प्रारंभ हो गया था और  टूर्नामेंट शुरु होते ही शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों मे सट्टेबाजो का गिरोह सक्रिय हो गया और प्रतिदिन हजारो करोड़ का सट्टा लगता था, क्रिकेट प्रेमियों के अलावा एक वर्ग ऐसा भी है जो मैच मे टॉस से लेकर हर बाल को चाव से देखता है और हर बाल पर सट्टा लगता हैं, सट्टेबाजी का आईपीएल शुरू होने के समय से ही चल रहा है पर इसे रोकने के लिए कोई कार्यवाही नही की जा रही है और हर साल सटोरिया गैंग की संख्या बढ़ रही है, अब तो इन सट्टेबाजो के साथ प्लेयर्स भी फिक्सिंग कर रहे है और इन सट्टे बाजो के इशारों पर नो बाल या वाइड बाल फेकी जाती है और चौके छक्के लगते है इसके कारण क्रिकेट मैच का सारा रोमांच समाप्त हो गया है।

इस बुराई को समाप्त करने के लिए आई सी सी और बी सी सी आई समेत अन्य क्रिकेट बोर्डो को प्रयास करना होगा जिससे पुराने युग के क्रिकेट जिसे हम जेंटलमैन गेम कहते थे कि वापसी हो सके और क्रिकेट प्रेमी हुल्लड़ बाजी, सट्टेबाजी से हटकर टेस्ट क्रिकेट के क्लासिकल शॉट्स और बेहतरीन गेदबाजी का आनंद ले सके। यह सही है कि आईपीएल की शुरुआत होने से बी सी सी आई विश्व का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बन गया है और आईपीएल खेलने वाले खिलाडी भी अमीर बन गए है पर वो क्रिकेट खिलाड़ी जो किसी कारण से देश के लिए या आईपीएल नही खेल पाए जल्दी अमीर बनने के लोभ में सट्टेबाजी जैसे गैर कानूनी कार्यो मे पड़कर अपना जीवन बर्बाद कर रहे है और उनकी इस लत के कारण उनके परिवार तबाही के कगार पे पहुँच गए है।

निश्चित तौर पर सट्टेबाजी आने वाले समय के लिए बहुत बड़ी चुनौती है अगर इसे रोकने के लिए समय से कदम नही उठाये गये तो हमारी युवा पीढी कम समय मे अधिक रुपए कमाने के लोभ मे बर्बाद हो जायेगी। इसकी रोक थाम के लिए सरकार को कानून बनाना होगा और अभिभावकों को भी को अपने बच्चो को बेहतर शिक्षा देने और रोजगार की दिशा मे प्रेरित करना चाहिए जिससे बच्चे बगैर मेहनत के पैसा कमाने के चक्कर मे  पड़े, युवा पीढ़ी को सलाह दी जानी चाहिए कि खेल को खेल के नजरिये से देखे और उससे कुछ सीखे। वैसे देश मे सट्टेबाजी अवैध है फिर भी क्रिकेट सीजन मे करोड़ों का सट्टा लगता है और अब आन लाइन सट्टेबाजी से इनके पकड़ा जाना मुश्किल हो गया है और देश की अर्थ व्यवस्था को नुक्सान हो रहा हूँ।

यह कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि भारत मे आई पी यल की शुरुआत के जनक माने जाने वाले ललित मोदी वित्तीय गड़बड़ियों के आरोपो का मुकाबला करने के बजाय वर्षो से विदेश में शरण लिए हुए हैं और उनके द्वारा प्रारंभ की गयी आईपीएल और फटा फट क्रिकेट से उपजी सट्टेबाजी मे फसकर युवा पीढ़ी बर्बाद हो रही है, ये क्रिकेट का आनंद लेने के बजाय मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी जैसी चीजो मे लिप्त पाए जा रहे है और इस लत ने  जाने कितने उदीयमान क्रिकेटरों का कैरियर समय से पहले समाप्त कर दिया, सरकार और क्रिकेट बोर्ड को इस मामले मे शख्त कदम उठाने की अवश्यकता है।

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