गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

कम मतदान होने का सच वही नहीं जो बताया जा रहा है

अवधेश कुमार

लोकसभा चुनाव के पहले चरण  के 102 स्थानों का लोकसभा चुनाव संपन्न होने के कई तरह के आकलन सामने आ रहे हैं । इस दौर में नौ राज्यों तमिलनाडु ,उत्तराखंड, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम ,नगालैंड, सिक्किम तथा तीन केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान, लक्षद्वीप और पुडुचेरी का मतदान संपन्न हो चुका है। हिंदी भाषी राज्यों के दृष्टि से देखे तो ऐसे 35 स्थान का चुनाव संपन्न हुआ है जिनमें बिहार के चार ,मध्य प्रदेश के 6 ,राजस्थान के 12, उत्तर प्रदेश के आठ और उत्तराखंड के पांच स्थान शामिल हैं। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के सभी 39 स्थानों पर मतदान संपन्न हो चुका है। माना जा रहा था कि देश के एक बड़े क्षेत्र में मतदान के बाद इसकी प्रवृत्तियों का आकलन करना थोड़ा आसान हो जाएगा। लेकिन मतदान के बाद आम टिप्पणी यही है कि प्रवृत्तियों का आकलन कठिन हुआ है। बहरहाल , इसकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर कहीं भी किसी तरह की हिंसा की घटना नहीं हुई। यह बताता है कि देश का चुनाव तंत्र बिल्कुल सहज ,सामान्य और सुव्यवस्थित अवस्था में काम कर रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि हम कम अवधि और कम चरणों में भी लोकसभा चुनाव को समाप्त कर सकते हैं।

सबसे ज्यादा चर्चा मतदान प्रतिशत कम होने को लेकर है और कई तरह के आकलन किया जा रहे हैं। हालांकि तथ्य नहीं है कि सभी क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा गिरा है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ज्यादा  मतदान हुए तो बिहार और उत्तराखंड में अत्यंत कम। इन दो राज्यों में भी अलग-अलग क्षेत्र को देखें तो कहीं ज्यादा तो कहीं कम मतदान हुआ है। एक बार राज्य , मतदान प्रतिशत को देखें। उत्तर प्रदेश में 2019 के 63.88 के मुकाबले 60.25% ,उत्तराखंड में 61.88 प्रतिशत के मुकाबले 55.89%, मध्य प्रदेश में 67.08%, छत्तीसगढ़ में 65.80 की जगह 67.56 प्रतिशत, राजस्थान में 63.71 की जगह 57.26 प्रतिशत, बिहार में 53.47% की जगह 48.88%, पश्चिम बंगाल में 83.7 9% की जगह 80.55%, महाराष्ट्र में 63.0 4% की जगह 61.87% तमिलनाडु के सभी 39 क्षेत्र में 69.46 प्रतिशत, असम में 78.23% की जगह ,75.95%, अरुणाचल में 67% की जगह 72.74%, मणिपुर में 78.20% की जगह 72.117%, मेघालय में 67.15% की जगह 74.5 0%, मिजोरम में 63.02% की जगह 56. 6 0%, नागालैंड में 83.12 प्रतिशत की जगह 56.91%, त्रिपुरा में 83.12% की जगह 81. 6 2% सिक्किम में 78.119% की जगह 80.003%, पुडुचेरी में 81. 19% की जगह 78.8 0%, अंडमान निकोबार में 64.85% की जगह 63.99%, लक्षद्वीप में 84.96% की जगह 83.88%, जम्मू कश्मीर में 57.35 प्रतिशत की जगह68 प्रतिशत मतदान हुआ।  तो एक- दो स्थान को छोड़कर ज्यादातर जगहों में मतदान गिरा है। उत्तर प्रदेश में 2019 के मुकाबले लगभग 5.30 प्रतिशत कम मतदान हुआ। सबसे अधिक 83.88 प्रतिशत मतदान लक्षद्वीप सीट पर तो बंगाल के जलपाईगुड़ी में 82.15% मतदान हुआ।  हिंसा के शिकार मणिपुर में  मतदान कम नहीं माना जा सकता है। कुल मिलाकर इन क्षेत्रों में 2019 में औसत मतदान 69.43 % से ज्यादा हुआ था। चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के अनुसार  यह करीब 68.29 प्रतिशत है।‌ यानी करीब 1.14% कम मतदान हुआ है। तो राष्ट्रीय स्तर पर मतदान में ज्यादा गिरावट नहीं है । 2019 लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मतदान हुआ था। तो यह माना जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में इससे ज्यादा मतदान की संभावना शायद अभी नहीं है।

नागालैंड में इसलिए मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा क्योंकि छह जिलों में ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (ईएनपीओ) ने अलग राज्य की मांग को लेकर मतदान का बहिष्कार किया था। इन छह जिलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों में चार लाख से अधिक मतदाता हैं। जब इतनी संख्या में मतदाता मत डालेंगे नहीं तो उसे गिरना ही है। इसे मतदान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते।  करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा बढ़ने का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्रायः ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढ़ने के बावजूद सरकारें वापस आई हैं और घटने के बावजूद गई है। इसलिए इसके आधार पर कोई एक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। दूसरे, हर जगह मतदान प्रतिशत ज्यादा गिर भी नहीं है। तीसरे, बंगाल में साफ दिखाई दे रहा है कि दोनों पक्षों के मतदाताओं में एक दूसरे को हराने और जीताने की प्प्रतिस्पर्धा है।। संदेशखाली से लेकर अन्य मामलों के कारण वहां हिंदुओं के बड़े समूह के अंदर ममता बनर्जी को लेकर आक्रोश है। 

सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की है तो जरा क्षेत्र के हिसाब से देखें कि कहां कितना मतदान हुआ। सहारनपुर में पिछली बार 70.87% हुआ था जबकि इस बार 68.99% , पीलीभीत में 67.41 की जगह 63.70, मुरादाबाद में 65.46 की जगह 62.05, कैराना में 67.45 की जगह 61.5 , नगीना में 63.66 की जगह असर दशमलव 54, मुजफ्फरनगर में 80.42 की जगह 58.5, बिजनौर में 66.022 की जगह 58.21 और रामपुर में 63.01की जगह 55.75% मतदान हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में मतदान प्रतिशत घटना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। इस क्षेत्र को जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विशेषण प्राप्त है। तो यह आकलन करना कठिन है कि जहां मतदान प्रतिशत गिरा वहां किनके मतदाता नहीं आए। पिछले चुनाव में भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था तथा बसपा सपा ने उसे गंभीर चुनौती दी थी। भाजपा को केवल तीन स्थान मिले थे जबकि बसपा को तीन और सपा को दो। अगर भाजपा विरोधी उसे हराना चाहते थे तो उन्हें भारी संख्या में निकलना चाहिए। कहा भी जा रहा है कि सपा के कोर मतदाता यानी मुसलमान और यादवों का बड़ा समूह आक्रामक होकर मतदान कर रहा था।। विरोधी भारी संख्या में निकलेंगे तो समर्थक भी इसका ध्यान रखेंगे। हालांकि उम्मीदवारों के चयन , दूसरे दलों से आये लोगों को महत्व मिलने तथा कहीं -कहीं,गठबंधन को लेकर भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं में थोड़ा असंतोष है तथा एक जाति विशेष ने भी विरोधात्मक रूप अख्तियार किया था। बावजूद यह कहना कठिन होगा कि भाजपा समर्थक मतदाता ही ज्यादा संख्या में नहीं निकले। अभी तक की प्रवृत्ति इसका संकेत नहीं देती। समर्थक कार्यकर्ता थोड़ा असंतुष्ट हों तो इसका असर होता है किंतु विरोधी तेजी से हराने के लिए निकले और इसके बावजूद वो प्रतिक्रिया न दें इस पर विश्वास करना कठिन होता है।

अभी तक के चुनाव अभियान में जनता के उदासीनता दिखी है। हालांकि विपक्ष के प्रचार के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर आम जनता के अंदर कहीं व्यापक आक्रोश या भारी विरोधी रुझान बिल्कुल नहीं दिखा है। कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थी तथा विकास नीति की प्रशंसा करने वाले हर जगह दिखाई देते हैं । श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा से लेकर समान नागरिक संहिता एवं नागरिकता संशोधन कानून आदि पर विपक्ष के रवैये ने भाजपा के समर्थकों और मतदाताओं में प्रतिक्रिया भी पैदा की है। आम प्रतिक्रिया यही है नरेंद्र मोदी को ही होना चाहिए । लोग अगर वोट डालते समय यह विचार करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही बनाना है तो वो किसका समर्थन करेंगे ? कार्यकर्ताओं नेताओं और समर्थकों के एक समूह के  थोड़ा असंतोष का कुछ असर हो सकता है। हालांकि जिनके अंदर असंतोष है उनमें भी यह भाव है कि अगर यह सरकार हार गई तो कहा जाएगा कि हिंदुत्व विचारधारा की हार हो गई है। जिस जाति के विद्रोह की चर्चा हो रही है वहां भी लोगों के अंदर भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर सहानुभूति का भाव दिखता है। इसलिए यह मानने में भी कठिनाई है कि इन्होंने बिल्कुल एक मस्त आक्रामक होकर भाजपा के विरोध में मतदान किया होगा। ऐसा होने का अर्थ मतदान बढ़ना होना चाहिए। मतदान कम होने को भाजपा विरोधी रचन का संकेत मानना उचित नहीं होगा।

‌ पता- अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 ,मोबाइल -9811027208

सांसद निधि और अन्य फंड है राजनीति में बढ़ते अपराधों की जड़

बसंत कुमार

पिछले दिनों आम चुनाव के अवसर पर चुनाव लड़ने वाले आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों के विषय में एक आंकड़े जारी किये गए जिसमें एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने यह आया कि चाहे एनडीए हो या इंडिया गठबंधन हो दोनों ही ओर से आपराधिक पृष्ठभूमि और भूमाफिया और कालाबाजारी में लिप्त भावी सांसदों की संख्या 50% से थोड़ा ही कम है।

विगत कुछ वर्षों में संसद, विधानमंडलों और स्थानीय निकायों में प्रवेश पाने वाले करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या 90-95% तक पहुंच गई है। बस कुछ दूरदराज और आदिवासी क्षेत्रों में ही कभी-कभार ऐसे प्रत्याशी मिल जाते हैं जिनकी घोषित आय हजारों या लाखों में हो सकती है, समाज में वंचित व गरीब समाज की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विधायिका में उनके लिए कुछ सीटें आरक्षित कर दी गई पर अब तो इन सीटों पर भी उन अरबपतियों को टिकट दिये जाते हैं जिनका वंचित समाज के विकास से कोई सरोकार नहीं होता, राजनीति में आने का एक मात्र उद्देश्य अपनी संपत्ति को दुगुना और चौगुना करना होता है। अब तो कुछ दलों में टिकटों का फैसला देश की राजधानी दिल्ली में नहीं बल्कि देश की वाणीज्यिक राजधानी मुंबई में होता है और पार्टी प्रत्याशियों के टिकटों का फैसला संसदीय बोर्ड के और चुनाव समिति के सदस्य नहीं बल्कि मुंबई में बैठे दलाल करते हैं। यहां तक के आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में भी प्रत्याशियों को टिकट उस क्षेत्र में रहने वालों को नहीं दिया जाता जो वहां की समस्या से भलीभांति परिचित होते हैं, बल्कि उनको दिया जाता है जो मुंबई और दिल्ली में रहते हैं और उल्टे-सीधे धंधों से अरबों की संपत्ति इकट्ठा कर रखी है।

अब प्रश्न यह उठता है कि राजनीति में ऐसा क्या है कि अब सभी पैसे वाले, आपराधिक छवि वाले, नौकरशाह, डॉक्टर व अन्य पेशे वाले अपना जमा-जमाया धंधा छोड़कर चुनाव लड़ने को आतुर दिखते हैं। एक समय ऐसा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त डॉक्टर व इंजीनियर अपना क्षेत्र छोड़कर सिविल सेवा परीक्षा की ओर आकर्षित होते थे इसके पीछे कारण सर्वेंट्स को मिलने वाली सुविधाएं व पॉवर होता था परंतु अब वही क्रेज लोगों के मन में राजनीति में जाने और चुनाव लड़ने में हो गया है, जानकारों की राय में यह क्रेज 90 के दशक में शुरू हुआ जबसे सांसदों और विधायकों को निधि के नाम पर करोड़ों रुपये दिये जाने लगे।

सांसद और विधायक निधि के इस पैसे को बिना किसी एकाउंटबिलिटी के मनमानी खर्च करने लगे, कहा तो यहां तक जाता हैं कि सांसद निधि से जब किसी शिक्षा संस्था या किसी अन्य संस्थान को पैसा दिया जाता है या निधि से छोटा-मोटा निर्माण कराया जाता है तो उसमें 30 से 35% कमीशन पहले ही ले ली जाती है अर्थात यह कहा जा सकता है कि राजनीति के क्षेत्र में उपजा भ्रष्टाचार सांसदों और विधायकों की निधि के फैसले के बाद से ही अधिक फैला है। इस निधि के कारण चुनाव इतने महंगे हो गए हैं।

एक दृष्टि 1980 के दशक के पूर्व के सांसदों और विधायकों की जीवनशैली पर डालें तो पता चलता है कि तब के सांसद अपने क्षेत्र का दौरा करने हेतु जिला प्रसाशन द्वारा उपलब्ध कराई गई गाड़ियां इस्तेमाल करते थे और जब संसद सत्र के दौरान अपने घर से संसद तक संसद द्वारा चलाई गई बस सेवा का उपयोग करते थे, पर जब से सांसद निधि शुरू हो गई है और विधायिका में भ्रष्टाचार का बोलबाला शुरू हो गया है तब से सांसद व विधायक एसयूवी गाड़ियों के काफिले से चलते हैं और इनके काफिले को देखकर ऐसा लगता हैं मानो ये जनता के सेवक नहीं बल्कि पुराने राजवाड़े और उनका काफिला निकल रहा है। जन सेवा के नाम पर राजनीति में आए लोग राजवाड़ों से अधिक आलीशान जीवन जी रहे हैं और सांसदी खत्म होने के पश्चात अच्छी खासी रकम पेंशन के रूप में मिलने से उनकी बेफिक्री और बढ़ा दी है। इसी कारण पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कई बार सांसद निधि समाप्त करने की बात की थी, उनका मानना था कि जनसेवा के नाम पर चुनकर आये जनप्रतिनिधि देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बन रहे हैं इसलिए सांसद निधि बंद कर दी जानी चाहिए।

इस समय लोकसभा चुनाव प्रगति पर है और सभी सांसद अपने क्षेत्र में पिछले पांच सालों में की गई उपलब्धियों को गिना रहे हैं और इनकी उपलब्धियों में परिवहन एवं सड़क यातायात मंत्री नितिन गडकरी और रेल मंत्री की उपलब्धियां गिनाई जाती हैं अर्थात जन प्रतिनिधियों द्वारा द्वारा अपने सांसद अपनी सांसद निधि को कहां खर्च किया उसका ठीक से ब्यौरा नहीं दे पाते। अभी कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट आई थी कि अधिकांश सांसद ठीक तरीके से अपनी निधि खर्च नहीं कर पाते और यदि करते हैं तो वह भी अपने चाटुकारों को मनमाने तरीके से दस-दस हैंड पंप और सोलर लाइट दे देते हैं और क्षेत्र के जरूरतमन्दों को पानी के लिए हैंड पंप और सोलर लाइट नहीं मिल पाती। अब जब प्रधानमन्त्री ने अगले कुछ वर्षों में हर घर को पानी का कनेक्शन और हर घर को बिजली का कनेक्शन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है और सिर्फ हैंड पंप और सोलर लाइट लगाने के उद्देश्य इन सांसद निधि के नाम पर अरबों रूपये खर्च किये जाएं। इसलिए अब समय आ गया कि सांसद निधि बन्द करके सांसदों और विधायकों को अपने विधायी कार्यों पर अपना ध्यान करने दिया जाए।

जबसे विधायिका के लोगों को क्षेत्र के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये की निधि का विधान आया है तब से विधायिका में हिस्ट्रीशीटरो, अपराधियों और सत्ता के दलालों का प्रवेश बढ़ गया है या यूं कह लें इन लोगों ने विधायिका में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है और चुनावों के दौरान टिकट पाने से लेकर चुनाव जितने तक इन लोगों के धनबल और बाहुबल का बोलबाला दिखाई देता है और दुर्भाग्य पूर्ण यह है कि मतदाता भी इन्ही बाहुबली करोड़पतियों के पीछे भागना पसंद करते हैं। अब तो शरीफ, चरित्रवान व सभ्य लोग चुनाव में भाग लेने के बजाय इसे दूर से प्रणाम कर लेते हैं। यदि देश में स्वस्थ लोकतंत्र को स्थापित करना है कि हर राजनीतिक दल को जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर आपराधिक और बाहुबली छवि वाले करोड़पतियो का प्रवेश बन्द करना पड़ेगा अन्यथा कुछ समय बाद हमारी संसद और विधानमंडल इन अपराधियों की शरणार्थी बन जाएगी।

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