शनिवार, 9 दिसंबर 2017

नए दौर के निर्माण की राजनीति

अवधेश कुमार

यह देश के लिए निश्चय ही ऐसा अवसर है जिसकी कल्पना कुछ समय पूर्व तक शायद ही किसी ने की होगी। वास्तव में भारतीय राजनीति में जिस ढंग से हिन्दुत्व बनाम हिन्दुत्व का नया स्वर गूंज रहा है वह एक नई प्रवृत्ति है। जब राहुल गांधी को सच्चा हिन्दू ही नहीं एक धर्मपरायण हिन्दू साबित करने के लिए कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने उनकी जनेउ पहने और पिता की अस्थियां चुनते तसवीर देश के सामने रखी तो ज्यादातर लोगों ने उसे आश्चर्य से देखा। कारण, कांग्रेस की राजनीति में इसके बिल्कुल विपरीत छवि थी। ऐसा नहीं कि कांग्रेस में कोई धर्मपरायण नेता नहीं था। ऐसा भी नहीं कांग्रेस के नेता हिन्दू कर्मकांडों में शामिल नहीं होते थे। ऐसे नेता भारत की हर पार्टी में है। किंतु कांग्रेस की छवि एक ऐसी सेक्यूलर पार्टी की थी जो अपनी सोच में अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों को प्राथमिकता देती है। यह छवि अपने-आप नहीं बनी थी। वोट की राजनीति में कांग्रेस ने जानबूझकर ऐसी छवि बनाई थी। हालांकि हमारे संविधान निर्माताओं ने सेक्यूलर को सर्वधर्म समभाव के रुप में माना था। उनका यह भी मानना था कि भारत चूंकि स्वभाव से ही सभी धर्मों को सम्मान देने वाला तथा सभी धर्मों में एक ही तत्व का दर्शन करने वाला देश रहा है इसलिए संविधान में अलग से सेक्यूलर शब्द डालने की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द जोड़ा गया तो उसके पीछे कांग्रेस की एक निश्चित राजनीतिक सोच थी। देश भर में लंबे समय तक कांग्रेस को मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिलता भी रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक वक्तव्य आज भी लोग उद्धृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि देश के संसाधन पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। उन्होंने कांग्रेस की सोच को ही अभिव्यक्त किया था। प्रश्न है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि कांग्रेस को अपने शीर्ष नेता की एक धर्मपरायण हिन्दू की छवि बनाने की जरुरत पड़ रही है? आखिर इस बदलाव के मायने क्या हैं?

केवल रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस की औपचारिक प्रेस वार्ता में ही ऐसा नहीं कहा, इन दिनों कांग्रेस के कई नेता अपने को भाजपा से ज्यादा हिन्दू धर्म का निष्ठावान साबित करने पर तुले हैं। कपिल सिब्बल ने तो यहां कि कह दिया कि भाजपा तो हिन्दुत्व की बात करती है, असली हिन्दू तो हम लोग ही हैं। स्वयं राहुल गांधी ने कहा कि वे शिवभक्त परिवार से आते हैं। बैनरों में पं. राहुल गांधी लिखा जाने लगा है। यह लेख लिखे जाने तक वे गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान 22 मंदिरों की यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें सोमनाथ मंदिर भी शामिल है। यहीं के मंदिर के उस रजिस्टर में उनका नाम दर्ज हो गया जो गैर हिन्दुओं के लिए है। भाजपा ने तुरत इसे बड़ा मुद्दा बना दिया और उसके जवाब में कांग्रेस ने उनको जनेउधारी हिन्दू का प्रमाण देने की कोशिश की। हालांकि राहुल स्थायी रुप से जनेउ नहीं पहनते यह सच है, क्योंकि उनका कभी जनेउ संस्कार हुआ ही नहीं। हिन्दुआंें का बड़ा वर्ग जनेउ नहीं पहनता, इसलिए जो जनेउ पहने वही केवल हिन्दू है इससे सहमत होना भी कठिन है। लेकिन कांग्रेस ऐसा बताने और दिखाने तक आई है तो यह भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव है। यह बदलाव यूं ही नहीं हुआ है। 2014 लोकसभा चुनाव में अपनी सबसे बुरी पराजय के बाद कांग्रेस ने ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में पराजय के कारणों पर जांच के लिए एक समिति गठित की थी। हालांकि उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है लेकिन स्वयं कांग्रेस के अंदर से यह बात सामने आई है कि उसमें कांग्रेस के मुस्लिमपरस्त छवि होने को हार का एक प्रमुख कारण माना गया है। इसके अनुसार हिन्दुओं में यह संदेश गया कि कांग्रेस मुस्लिमों का पक्ष लेती है इसलिए उनका मत जहां भी भाजपा शक्तिशाली थी उसके पक्ष में चला गया।

इससे साफ है कि कांग्रेस अब अपनी छवि बदलना चाहती है। यह सच है कि हिन्दू अनेक जगहों में कांग्रेस से अलग होकर भाजपा की ओर गए और भाजपा ने उसके जनाधार को कमजोर करके ही अपनी जमीन खड़ी की। किंतु एक समय कांग्रेस का सुनिश्चत वोट माने जाने वाले मुसलमान भी उससे अलग हो गए हैं। यह प्रक्रिया पिछले अनेक वर्षों से जारी है। अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने मुसलमान मतों मंे कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। बिहार और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया इसका साफ उदाहरण है। तो कांग्रेस को यह लग गया है सेक्यूलर की उसकी सोच जो व्यवहार में मुस्लिमपरस्त राजनीति हो गई थी उसमें माया मिली न राम वाली स्थिति उसकी हो गई है। अनके राज्यों में बहुमत हिन्दुओं का मत तो उसके हाथ से खिसका ही मुसलमान भी खिसक गए। दूसरी ओर भाजपा हिन्दुओं का मत नए सिरे से अपने पक्ष में सुदृढ़ कर रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को अपना चोगा उतार फेंकने की मानसिकता तैयार की जो गुजरात चुनाव में प्रचंड रुप में दिख रहा है। गुजरात को भाजपा एवं संघ परिवार की हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जाता रहा है। तो उस प्रयोगशाला में कांग्रेस ने भी अपना प्रयोग आरंभ कर दिया है। ध्यान रखिए, राहुल गांधी इसके लिखे जाने तक एक भी मस्जिद में नहीं गए हैं। यह कांग्रेस के चरित्र को देखते हुए असाधारण स्थिति है। हम आप यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि राहुल गांधी एकतरफा केवल मंदिर में जाएंगे तथा उनके लोग उनको सच्चा हिन्दू साबित करने के लिए जितने संभव तर्क और प्रमाण होंगे उसे पेश करेंगे।

इस तरह भारतीय राजनीति एक ऐसे दौर में पहुंच रही है जहां हिन्दू बनाम हिन्दू की प्रतिस्पर्धा और सघन होगी। गुजरात में कांग्रेस जीते या हारे यह स्थिति कायम रहने वाली है और 2019 के आम चुनाव में इसका पूरा जोर दिखेगा। किंतु जो लोग इसे नकारात्मक मान रहे हैं उनसे सहमत होना कठिन है। हमारे देश में अजीब स्थिति रही है। कोई पिछड़ों की राजनीति करे तो कोई समस्या नहीं, लेकिन कोई पूरे हिन्दू समाज की बात करे या राजनीति करे तो वह सांप्रदायिक हो गया। वह मुस्लिम विरोधी हो गया। इस स्थिति का अंत हो रहा है और यह भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए अच्छे परिणाम लेकर आएगा। हम न भूलें कि भाजपा में एक समय हिन्दुत्व को लेकर जो मुखरता थी वहां गायब हो चुकी थी। अब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के साथ उसका पुनरागमन हुआ है। कांग्रेस द्वारा हिन्दू शब्द पर खुलकर आने के बाद भाजपा फिर से मुखर हो रही है। आज की हालत यह है कि अरुण जेटली जैसे नेता जिनकी पहचान हिन्दुत्ववादी नेता की कभी नहीं रही उनको भी बयान देना पड़ रहा है कि भाजपा की पहचान हिन्दूवादी पार्टी की है तो फिर उसके सामने किसी क्लोन को यानी कांग्रेस को लोग क्यों चुने। यानि उन्हें यदि हिन्दूवादी पार्टी को वोट देना है तो भाजपा को ही दें। लोकतंत्र में राजनीति न मुस्लिमपरस्त होनी चाहिए न हिन्दूपरस्त। लेकिन सेक्यूलरवाद के नाम पर मुस्लिमपरस्त राजनीति के कारण हिन्दुओं में विद्रोह की भावना पैदा हुई जिसका लाभ भाजपा को मिला।

इससे दूसरी पार्टियों को अब समझ में आने लगा है कि अगर चुनाव की राजनीति में टिके रहना है तो फिर ऐसे सेक्यूलरवाद से अलग होकर यह साबित करना होगा कि हम हिन्दू विरोधी नहीं है। यह भारतीय राजनीति में युगांतकारी परिवर्तन है जिसकी अभी शुरुआत हुई है। इसके पूर्ण परिणाम आने में समय लगेगा। लेकिन एक युग का अंत हो रहा है। जब समुद्रमंथन हुआ था तो उसमें अमृत के साथ विष भी निकला था। उसी तरह भारतीय राजनीति हिन्दुत्व के सदंर्भ मेें समुद्रमंथन के दौर में प्रवेश कर रही है। कुछ समय के लिए इसके थोड़े नकारात्मक परिणाम भी दिख सकते हैं लेकिन इससे संतुलन कायम हो जाएगा। हिन्दुत्व की राजनीति करने का मतलब मुस्लिम विरोधी या किसी संप्रदाय का विरोधी होना नहीं हो सकता। यह गलत तब होगा जब इसके पीछे मुस्लिम विरोधी की सांप्रदायिक सोच हो। हिन्दुत्व की राजनीति का अर्थ सभी मजहबों को समान महत्व देना है। यह नहीं हो सकता कि मुसलमानों या किसी विशेष मजहब के लिए विशेष व्यवस्था या प्रावधान किए जाएं। यह देश की एकता अखंडता के लिए भी उचित नहीं है। यह मानना होगा कि पार्टियांे की इस नीति से देश मंे सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ा है। भारत की राजनीति और इस पर आधारित लोकतंत्र के भविष्य के लिए इस स्थिति में बदलाव आवश्यक है। दो प्रमुख पार्टियों में यदि स्वयं को बड़ा हिन्दू समर्थक होने की जो होड़ पैदा हो रही है वह अभी और प्रचंड होगी लेकिन आने वाले सालों में यह संतुलित हो जाएगी तथा देश की राजनीति वास्तविक सेक्यूलरवाद के रास्ते पर आएगी। इसमें न किसी मजहब को विशेष महत्व मिलेगा और न किसी को नजरअंदाज किया जाएगा। इस नाते हिन्दुत्व की प्रतियोगिता से एक नए और बेहतर इतिहास की नींव पड़ रही है। यह मुसलमानों के लिए भी अच्छा है,क्योंकि इससे पार्टियों को उनको वोट बैंक मानकर व्यवहार करने का अंत हो सकता है। उनके अंदर से अच्छे नेतृत्व के पनपने का अवसर पैदा होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208 

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