शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

11 साल से चल रहे मुकदमें पर दो मिनट में आया फैसला, उधेड़ दीं न्याय की धज्जियां

-सरकारी वकील की लिखित बहस और नजीरें आने की तरीख पर जज ने सुनाया फैसला

संवाददाता

लखनऊ। कभी एक फिल्म आई थी रुका हुआ फैसला लेकिन आज जो मेरे सामने गुजरा- बहस की तारीख पर आया एक लिखा हुआ फैसला। आतंकवाद के मामलों में मुकदमें लड़ने वाले अधिवक्ता मुहम्मद शुऐब ने अचरज के साथ यह बात कही। वे कहते हैं कि 16 अगस्त 2018 को जेल कोर्ट लखनऊ में तारिक कासमी और मोहम्मद अख्तर का मुकदमा सुनवाई के लिए लगा था। अपनी बहस जारी रखते हुए अभियोजन पक्ष ने लिखित बहस और नजीर पेश करने के लिए समय मांगा था। न्यायालय ने 23 अगस्त 2018 की तारीख नियत की थी। हर तारीख पर पीठासीन अधिकारी 11 से साढ़े 11 बजे तक अदालत में आ जाती थीं, लेकिन आज 23 अगस्त को वह लगभग 3 बजकर 35 मिनट पर जेल में स्थित अपने चेंबर में आईं। जबकि अभियोजन पक्ष, दोनों अभियुक्त और मैं पूरे दिन जेल कोर्ट में उनका इंतजार करते रहे। लगभग 4 बजे वो अपने विश्राम कक्ष से बाहर आईं और दो मिनट में फैसला सुनाकर विश्राम कक्ष में वापस चली गईं। फैसले में अभियुक्तों के विरुद्ध दोष सिद्ध मानते हुए सजा पर बहस के लिए 27 अगस्त की तिथि नियत कर दी। पता रहे कि इस मुकदमें में लखनऊ जेल कोर्ट में गुरुवार के अतिरिक्त किसी और दिन की तिथि नहीं लगाई जाती थी। पीठासीन अधिकारी ने यह भी नहीं बताया कि वह बहस जेल कोर्ट में सुनेंगी या जिला न्यायालय परिसर में। हैरानी इस बात की है जो जज बहस पूरी होने से पहले मुल्जिमान को दोष सिद्ध मान सकता है वो सजा भी मनमाने तरीके से देगा। जो मुकदमा लगभग 11 साल से चल रहा है उस पर दो मिनट में सुनाए गए इस फैसले ने न्याय की धज्जियां उधेड़ दीं। 

मुहम्मद शुऐब कहते हैं कि उनके जैसा न्यायप्रिय व्यक्ति इस नतीजे पर पहुंच है कि बहस कुछ भी की जाए लेकिन फैसला जज में मन मुताबिक ही आना है। अंधे के आगे रोकर अपना दीदा खोने से कोइ फायदा नहीं है। वहीं इस मामले में अपै्रल 2018 में बहस पूरी हो जाने के बाद तत्कालीन न्यायाधीश का स्थानांतरण कर दिया गया था। मुकदमें के स्थानांतरण के कारण अभियुक्तगण की ओर से सेशन जज लखनऊ के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करके निर्णय हेतु मुकदमें का स्थाानांतरण बहस सुन चुके जज के सामने करने का प्रार्थना पत्र दिया गया था। जिस पर सेशन जज ने पूरे एक महीने की तारीख लगा दी और फिर अगली तारीख पर बगैर कुछ सुने दोबारा एक महीने के लिए बढ़ा दिया। जिसकी सुनवाई 10 अगस्त 2018 को होनी थी। इसी दौरान मीडिया में खबरें आईं की नाभा जेल जैसी कोई बड़ी वारदात ये करना चाहते थे और इसलिए इनके जेलों का स्थानांतरण किया जाएगा। जबकि अभियुक्तगण लगातार जेल में हो रहे उत्पीड़न की शिकायत कर रहे थे। 

गौरतलब है कि 23 नवंबर 2007 को लखनऊ कचहरी में हुई वारदात के बाद तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद, सज्जादुर्ररहमान, अख्तर वानी, आफताब आलम अंसारी की गिरफ्तारी हुई थी। जिसमें आफताब आलम अंसारी के खिलाफ साक्ष्य न मिलने पर विवेचना अधिकारी ने उन्हें 22 दिन में क्लीनचिट दे दिया था। वहीं सज्जादुर्ररहमान को जेल कोर्ट ने 14 अपै्रल 2011 को बरी कर दिया था। तारिक और खालिद की गिरफ्तारी पर आरडी निमेष आयोग ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में यूपी एसटीएफ द्वारा की गई गिरफ्तारी को संदिग्ध कहते हुए दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई की सिफारिश की थी। जिसके बाद खालिद की हिरासत में हत्या कर दी गई थी। तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह, एडीजी लाॅ एण्ड आर्डर बृजलाल जैसे बड़े अधिकारियों समेत आईबी पर हत्या का मुकदमा पंजीकृत हुआ था। 

पुरस्कार वापसी राजनीतिक एजेंडा का छद्म अभियान था

 

अवधेश कुमार

यह अच्छा हुआ कि तीन वर्ष पहले पुरस्कार वापसी के घृणात्मक अभियान की पोल एक साहित्यकार ने सप्रमाण खोली है। हालांकि साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इस पर नहीं लिखते तो भी तटस्थ और निष्पक्ष पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसके पीछे एक व्यक्ति के खिलाफ माहौल बनाने की योजना का पता था। साफ दिखाई दे रहा था कि पूरा अभियान कहीं न कहीं से संचालित हो रहा है। इसके पीछे कोई स्वतःस्फूर्त प्रेरणा हो भी नहीं सकती थी। देश में ऐसा वातावरण था ही नहीं जिसमें किसी लेखक को कुछ लिखने या बोलने पर किसी तरह की बंदिश हो। विश्वनाथ तिवारी ने यही कहा है कि सारे लेखक, कवि जहां चाहते अपनी बात पूरी स्वतंत्रता से रख रहे थे लेकिन झूठ यह फैला रहे थे कि अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में आ गई है।

वास्तव में पूरा अभियान राजनीतिक था, जिसका एक ही लक्ष्य था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ माहौल बनाना। नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार की मुखालफत करने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह खुलकर होना चाहिए। इन रचनाकारों में इतना नैतिक बल नहीं था कि ऐसा कर सकें तो छद्म रुप से पुरस्कार वापसी के जरिए यह कुप्रचार करने की कोशिश करने लगे कि देश में सहिष्णुता खत्म हो रही है, बोलने और लिखने पर पाबंदी लग चुकी है। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने पिछले वर्ष फरवरी में लोकसभा में बताया कि इन लेखकों ने यह कहते हुए अपने पुरस्कार लौटाए थे कि उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला किया जा रहा है और अकादमी इस मुद्दे पर चुप है। पिछले तीन सालों में 39 लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए हैं। इन लेखकों ने कन्नड़ लेखक और साहित्य अकादमी बोर्ड के सदस्य एमएम कलबुर्गी की हत्या और दादरी कांड में एक मुस्लिम अखलाक की हत्या पर विरोध जताते हुए कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है और अगर अब नहीं बोले तो खतरे और बढ़ जाएंगे। 30 अगस्त, 2015 को कलबुर्गी की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इसी समय दादरी के बिसहारा गांव में गोहत्या करने और गोमांस खाने का आरोप लगाते हुए लोगों ने अखलाक नामक व्यक्ति को इतना मारा की उसकी मृत्यु हो गई। कलबुर्गी की हत्या के बाद लेखक उदय प्रकाश ने 5 सितबर 2015 को साहित्य सम्मान लौटाकर सबसे पहले विरोध की शुरुआत की। पुरस्कार वापसी के बाद अकादमी ने 23 अक्टूबर 2015 तथा इसके बाद 17 दिसम्बर को बैठक बुलाकर प्रस्ताव द्वारा पुरस्कार लौटा चुके लेखकों से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया था। इसमें हत्या की कड़े शब्दों में निंदा भी की गई थी। इस अनुरोध को केवल एक लेखक राजस्थान के नन्द भारद्वाज ने स्वीकार कर पुरस्कार लौटाने का अपना निर्णय वापस लिया था। 

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को लेखकों की ओर से एक पत्रक देकर मांग की गई कि ब्रिटेन यात्रा के दौरान वे मोदी से भारत में बढ़ रहीं असहिष्णुता पर बात करें। यह वैसा ही प्रयास था जैसे मोदी के सत्ता में आने के पूर्व कुछ सांसदों के हस्ताक्षर वाला पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति को भेजा गया था। इसे आप राजनीतिक एजेंडा नहीं तो और क्या कहेंगे? इनने विदेश में देश की छवि तक की चिंता नहीं की। सच यह था कि कलबुर्गी और अखलाक की हत्या नहीं होती तो ये कुछ दूसरा मुद्दा तलाश कर लेते। 2014 के चुनाव में जब यह स्पष्ट होने लगा कि मोदी के नाम पर भाजपा सत्ता में आ रही है तो कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने बयान दिया कि यदि मोदी प्रधानमंत्री होंगे तो मैं देश छोड़ कर चला जाऊंगा। क्या यह किसी उदार चरित्र वाले वह भी रचनाकार का बयान हो सकता है? इतनी घृणा इनके अंदर एक व्यक्ति को लेकर थी। सब जानते हैं कि अशोक वाजपेयी अनंतमूर्ति के मित्र हैं। उन्हें अकादेमी पुरस्कार अनंतमूर्ति के साहित्य अकादेमी अध्यक्ष काल में मिला था। वाजपेयी मोदी विरोधी उस अभियान के भी अगुवा थे जो आम चुनाव के ठीक पहले से कुछ लेखकों द्वारा चलाया जा रहा था। उस समय जनसत्ता के संपादक ओम थानवी की कृपा से इन्हें एक मंच भी मिला हुआ था। 9 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता में 40 लेखकों ने बाजाब्ता मतदाताओं से भाजपा को वोट न देने की अपील की। इनमें वे नाम शामिल हैं जिन्होंने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाए। अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में ही पांच लोग पुरस्कार अभियान के अगुवा थे तथा इनके मख्य मित्रों की संख्या दो दर्जन के आसपास थी जो इसमें शमिल हुए। बाकी या तो दबाव या फिर प्रचार पाने की लालसा से इनसे जुड़े। सच यह है कि इनने चाहे जैसे माहौल बनाए लेकिन इनका दिली समर्थन बहुत कम था। तिवारी ने यही कहा है कि बहुत से लेखकों, मित्रों और परिचित-अपरिचित बुद्धिजीवियों के ई-मेल फोन, पत्र आदि लगातार मिलते रहे, जिनमें अधिकांश या कहूं लगभग सभी पुरस्कार वापस करने वालों के विरुद्ध थे।

वास्तव में ये पांच सूत्रधार अपने निकट के लेखकों द्वारा उनके परिचित लेखकों को बार-बार फोन कराकर पूछते रहते थे कि आप कब लौटा रहे हैं? या क्या आप नहीं लौटा रहे हैं? तथाकथित असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के लिए इन लेखकों ने देशव्यापी नेटवर्किंग और अभियान चलाया था। कैसे लेखकों पर दबाव बनाया जा रहा था इसके दो उदाहरण देखिए। विश्वनाथ तिवारी को लेखक रमाशंकर द्विवेदी ने 30 अक्टूबर 2015 को फोन पर बताया कि उन्हें साहित्य अकादेमी के एक अवकाश प्राप्त लेखक ने फोन पर पुरस्कार लौटाने के विषय में पूछा। 12 अक्टूबर को अंग्रेजी के वरिष्ठतम लेखक (93 वर्षीय) शिव के. कुमार ने तिवारी को ई-मेल किया। इसमें उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने मुझे भी पुरस्कार और पद्मभूषण लौटाने को कहा है लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं। यह एक राजनीतिक पाखंड के सिवा कुछ नही है। किसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं है। मुझे उम्मीद है आप इन सबसे विचलित नहीं होंगे।

अगर इनका उद्देश्य राजनीतिक नहीं होता तो जिन राज्यों में हत्या की घटनाएं (कर्नाटक, उत्तर प्रदेश) हुई उनसे प्राप्त पुरस्कार वापस किए जाते। कानून-व्यवस्था तो राज्य सरकारों का विषय है। जब काशीनाथ सिंह से पूछा गया कि आपने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया जबकि अखलाक की हत्या उत्तर प्रदेश में ही हुई है उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में अभिव्यक्ति की आजादी है, यहां सहिष्णुता को समस्या नहीं। घटना उत्तर प्रदेश में हुइ वहां आजादी है पर भारत में नहीं। जैसा विश्वनाथ तिवारी ने लिखा है, काशीनाथ सिंह ने स्वयं फोन पर उनसे कहा था कि वे पुरस्कार नहीं लौटाएंगे। इसके तीन दिन बाद ही उन्होंने मीडिया के सामने पुरस्कार वापसी की घोषणा कर दी। क्यों किया ऐसा? ध्यान रखिए, काशीनाथ सिंह ने भी चुनाव में मोदी का खुलकर विरोध किया था। तसलीमा नसरीन ने उस समय साफ कहा था कि लेखकों का यह विरोध मोदी सरकार से है।

ये किस कदर झूठ फैला रहे थे इसका भी उदाहरण देखिए। तथाकथित असहिष्णुता का यह अभियान जब समाप्त हो रहा था उस समय 22 नवंबर, 2015 को अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में लिखा कि - एक लेखक की दिन दहाड़े हत्या के बाद साहित्य अकादेमी ने शोकसभा तक नहीं की। सच यह है कि इसके एक महीने पहले यानी 23 अक्टूबर, 2015 का अकादेमी की कार्यकारिणी का वह प्रस्ताव उन्हें मिल चुका था जिसमें शोकसभा का पूरा ब्यौरा है तथा अखबारों में और अकादेमी के वेबसाइट पर भी सूचना उपलब्ध थी कि अकादेमी ने बेंगलुरु में बाकायदा निमंत्रण-पत्र छापकर बड़ी शोकसभा आयोजित की थी। क्या इसके बाद कहने की आवश्यकता है कि उस पूरे अभियान का सहिष्णुता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं था? इसका एक ही एजेंडा था- मोदी विरोध। इनके न चाहते हुए भी मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे। यह इनसे सहन नहीं हो रहा था। इसलिए कलबुर्गी और अखलाक की दुखद हत्या का उन्होंने उपयोग करके प्रच्छन्न एजेडा चलाया। इससे पता चलता है कि जिन रचनाकारों को देश ने इतना सम्मान दिया, उन्हें अपना आइकॉन माना वे वाकई इतने तुच्छ और छोटे व्यक्तित्व वाले हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए किसी व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते, जिसे ये अपना वैचारिक विरोधी मानते हैं। अब सारा सच एक बार फिर सामने आने के बाद देश को यह तय करना चाहिए कि इनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। ये आगे भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। आम चुनाव आने वाला है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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