शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

2022 भारत के शीर्ष का आधार हो सकता है

अवधेश कुमार

ईसा संवत् 2022 से हम क्या अपेक्षा करें? किसी भी वर्ष से अपेक्षाओं का अर्थ उसमें सत्ता, राजनीति ,प्रशासन ,अलग-अलग क्षेत्रों के नीति-निर्धारणकों, समाज पर प्रभाव रखने वालों तथा आम लोगों से अपेक्षाएं ही हैं। हम इन सारे वर्गों से क्या अपेक्षा करते हैं यह मूलतः हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। वर्ष 2022 की शुरुआत भी कोरोना के ओमीक्रोन वैरिएंट के डर के साये में हो रहा है। इसलिए बड़े समूह की आम अपेक्षा यही है कि लोगों की सुरक्षा इस तरह सुनिश्चित हो कि वे अपना जीवनयापन या जीवन की संपूर्ण गतिविधियों का ठीक तरीके से संचालन करते रहें। इस संदर्भ में दूसरी अपेक्षा स्वास्थ्य महकमे से है। यानी अगर कोई कोरोना की भयानक गिरफ्त में आया तो उसके उपचार की सहज, सुलभ, सक्षम व्यवस्था उपलब्ध हो। यानी हाहाकार की नौबत नहीं आए। सामान्य तौर पर तीसरी अपेक्षा यही है किपिछले 2 वर्षों में अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचा उसकी क्षतिपूर्ति करने के साथ भारत अपनी संभावनाओं के अनुरूप विकास पर सरपट दौड़े और लोगों के समक्ष जो कठिनाइयां उत्पन्न हुई उसकी  पुनरावृत्ति न हो। इसी तरह की अपेक्षायें राष्ट्रीय स्तर पर एवं प्रदेशों तथा क्षेत्रों में लोगों की अलग-अलग होंगी। कुल मिलाकर हर व्यक्ति की अपेक्षा होती है की उसका परिवार , समाज एवं देश सुख शांति का जीवन जिए । संवत कोई भी हो वर्ष की शुरुआत में प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही प्रार्थना करता है। हां , भारत में ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं जिनके लिए दुर्भाग्य से राजनीति सर्वाधिक महत्वपूर्ण और येन केन प्रकारेण अपने विरोधी के चुनाव में परास्त होने और लोकप्रिय होने या फिर उसके राजनीतिक अवसान की कामना करते हुए उसके लिए कोशिश भी करते हैं। आप चाहे किसी भी विचारधारा के हों, मानना पड़ेगा कि हमारे देश में ऐसे लोगों का बड़ा समूह है, जो हर सूरत में हर क्षण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा, संघ  आदि की पराजय और अवसान के लिए किसी सीमा तक जाने को तैयार हैं। राजनीति में रुचि रखते हुए भी अपेक्षा यही होनी चाहिए कि इस तरह के अतिवाद में रहने वालों को सद्बुद्धि आए और वे एक विचारधारा और राजनीति की लड़ाई को लोकतांत्रिक लड़ाई तक सीमित रखते रखें और वही तक लड़े।

 जैसा हम जानते हैं 2022  तो छोड़िए जब तक भाजपा है यह स्वाभाविक राजनीतिक स्थिति नहीं उत्पन्न होने वाली। इस वर्ष ऐसे राज्यों के चुनाव है, जहां भाजपा सत्ता में है इसलिए आपको यह परिदृश्य ज्यादा आक्रामक और असुंदर रूप में दिखेगा। आम अपेक्षाएं हैं कि राजनीति की लड़ाई राजनीतिक तक सीमित रहे लेकिन भारत में जो परिस्थितियां उत्पन्न हो गई है उसमें तत्काल संभव नहीं है। इससे पूरे समाज और विश्व में नकारात्मक वातावरण बनता है  जिसमें हमें जीने का अभ्यास रखना ही पड़ेगा। लेकिन हर दृष्टि से राष्ट्र, विश्व और मनुष्यता का कल्याण चाहने वाले लोग निश्चित रूप से अपने- अपने स्तर पर इसकी कामना और कोशिश करेंगे कि इस प्रकार के वातावरण को कमजोर किया जाए। तो 2022 में ऐसे लोगों से अपेक्षा होगी कि इसके समानांतर वह भारतीय राजनीति  के साथ गैर राजनीतिक वैचारिक मोर्चों पर भी सकारात्मकता, स्नेह और संवेदनशीलता के माहौल के लिए हर संभव कोशिश करें। इसमें ऐसे लोगों के खिलाफ जिनके अपने नकारात्मक एजेंडा है अगर प्रखरता से वैचारिक हमला भी करना हो तो इससे देश को लाभ ही होगा। ऐसे लोगों से 2022 में हम आप क्या अपेक्षा करेंगे यह बताने की आवश्यकता नहीं है। 

यह बिंदु इसलिए महत्वपूर्ण है ,क्योंकि इस तरह के राजनीतिक संघर्षों से संपूर्ण देश की बहुआयामी उन्नति दुष्प्रभावित होती है। किसी व्यक्ति समाज और देश की सफलता के लिए सबसे पहली शर्त सामूहिक मनोदशा यानी माहौल का है। व्यक्ति के अंदर अगर आत्मविश्वास है, सकारात्मकता है ,आशा और उम्मीद है तो वह बड़े से बड़े लक्ष्य को पा सकता है। यही बातें देश पर भी लागू होती है। सामान्य राजनीति और और ऊपर वर्णित सामान्य अपेक्षाओं से थोड़ा अलग हटकर सूक्ष्मता से भारत की स्थिति का विश्लेषण करें तो आपको ऐसी धारा सही आवेग और दिशा में बढ़ती हुई दिखाई पड़ेगी जो वाकई देश की प्रकृति ,

आत्मा और संस्कार के अनुरूप है। किसी भी देश की वास्तविक उन्नति तभी संभव है  जब वह अपनी मूल प्रकृति, संस्कार और संस्कृति के साथ आगे बढ़े। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जो कुछ हमारी प्रकृति और हमारा स्वभाव नहीं है उसके अनुरूप हमें बदलने की कोशिश की जाएगी तो हम वह तो नहीं ही बनेंगे जो कुछ हम हैं वह भी पीछे छूट जाएगा। दुर्भाग्य से भारत के साथ यही हुआ। अलग-अलग खंडों की भिन्न - भिन्न किस्म की दासत्व में भारत की आत्मा, प्रकृति,संस्कृति धुमिल होती लगभग अस्ताचल में चली गई। इतिहास के कालखंड में अनेक ऐसे अध्याय हैं जब भारत एक राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान, अपनी संस्कृति और प्रकृति के अनुरूप प्रखरता से खड़ा होने के लिए उठने की कोशिश किया लेकिन बार-बार धराशाई भी हुआ या जाने अनजाने किया गया। गांधी जी ने अपने संपूर्ण जीवन में लगातार इसकी ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की। केवल गांधी जी ही नहीं, सभी मनीषियों ने इसे एक महान राष्ट्र के रूप में फिर से खड़ा करने की कल्पना की जो संपूर्ण विश्व के लिए प्रेरक और आदर्श बने।

 तो इसका आधार क्या हो सकता है? इन सबने कहा है कि धर्म अध्यात्म सभ्यता संस्कृति यही वह आधार है जिस पर भारत दुनिया  का शीर्ष देश बन सकता है और इसी कारण संपूर्ण विश्व इसे अपने लिए आदर्श और प्रेरक मानेगा। इतना ही नहीं इन सब ने कहा है कि इसी में विश्व और संपूर्ण प्रकृति का कल्याण है। दुर्भाग्य से यह मूल सोच लगभग विलुप्त हो गई थी। अगर आप गहराई से देखें तो पिछले कुछ वर्षों में यह भाव अलग-अलग रूपों में प्रकट हुआ है। सत्ता ने किसी न किसी तरीके से देश के अंदर और बाहर विश्व मंच पर भी इसे घोषित करने का साहस दिखाया है। वाराणसी में काशी विश्वनाथ  सहित हुए पुनरुद्धार के बारे में आपकी जो भी राय हो लेकिन यह लोगों के अंदर आत्मगौरव बोध का कारण बना है। 2021 में उत्तर प्रदेश के विंध्याचल में विंध्य कॉरिडोर का भूमि पूजन हो या काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का शिलान्यास, वहां से निकलती ध्वनियां या इसके पहले 2020 में अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण का भूमि पूजन इन सबकी विकृत तस्वीर हमारे यहां पेश की जाती है। जब आप सत्ता राजनीति के आईने से देखेंगे तो इसके नकारात्मक पहलू दिखेंगे, क्योंकि भय यह होगा कि जो पार्टी कर रही है उसे व्यापक समाज का वोट मिल जाएगा। भारत राष्ट्र के अतीत ,वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से मूल्यांकन करें तो निष्कर्ष यही आएगा कि यही भारत है, यही अंतः शक्ति है जिसके आधार पर भारत की पुनर्रचना इसे उस शिखर पर ले जाएगी जहां इसे होना चाहिए।  कोरोना और उसके व्यापक दुष्प्रभावों के बावजूद अगर ये सारे कार्य देश में संपन्न हो रहे हैं तो मान कर चलना चाहिए कि भारत अपनी संस्कृति और  प्रकृति को पहचान कर उसके अनुरूप प्रखरता से पूर्व दिशा में गतिशील होना आरंभ कर दिया है। यह सब केवल विश्वास और धारणा के विषय नहीं है। इनके आधार पर भारत सर्वांगीण विकास करेगा। यही वह पुंज है जो भारत को नैतिक, आदर्श ,संपूर्ण मानव समुदाय के प्रति संवेदनशील एवं एक दूसरे के लिए  त्याग का व्यवहार पैदा करेगा।  यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि पिछले 3 वर्षो के अंदर भारत ने स्वयं को पहचान कर  जिस तरीके से खड़ा होने की कोशिश की है 2022 में वह सशक्त होगी।  महात्मा गांधी, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद ,पंडित मदन मोहन मालवीय यहां तक कि सुभाष चंद्र बोस, डॉ राजेंद्र प्रसाद,  अगर दूसरी विचारधारा में जाएं तो डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, जनसंघ के पंडित दीनदयाल उपाध्याय, आर एस एस के संस्थापक आदि सबने यही कहा कि अध्यात्म वह ताकत है जिसकी बदौलत भारत विश्व का शीर्ष देश बनेगा और फिर संपूर्ण विश्व जो अनावश्यक संघर्ष तनाव, दमन, शोषण में उलझा हुआ है उसकी मुक्ति का रास्ता दिखाएगा। इसीमें उसकी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक प्रगति भी शामिल है। तो  2022 से हमारी अपेक्षा यही होगी कि यह धारा इतनी सशक्त हो कि फिर किसी भी प्रकार का झंझावात इसके कमजोर होने या धराशाई होने का कारण नहीं बने। 

यह अपेक्षा मूर्त राष्ट्र की अवधारणा से नहीं हो सकती। कोई भी देश अपने लोगों के व्यवहार से ही लक्ष्य को प्राप्त करता है। इसलिए केवल राजनीति और धर्म ही नहीं हर क्षेत्र के लोगों वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, समाजसेवी, पुलिस ,सेना ,सरकारी कर्मचारी सभी इस लक्ष्य को समझकर प्राणपण से 2022 में जुटें और इस धारा को सशक्त करें। यह  भारत की वास्तविक मुक्ति , प्रगति और चीरजीविता का आधार बनेगा। 

अवधेश कुमार, ई- 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल 98110 27208

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

उप्र में केवल एक्सप्रेसवे नहीं हैं भाजपा की चुनावी राजनीति का यूएसपी

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल पर गहराई से नजर डालें तो भाजपा ने हाल के दिनों में एक्सप्रेस-वे को एक मुद्दे के रूप में सामने लाया है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 18 दिसंबर को शाहजहांपुर में गंगा एक्सप्रेसवे का शिलान्यास किया। प्रदेश के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र को आपस में जोड़ने वाले इस गंगा एक्सप्रेसवे को प्रदेश का सबसे लंबा बताया जा रहा है। 36,200 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला 594 किलोमीटर लंबे गंगा एक्सप्रेस वे  मेरठ से शुरू होकर हापुड़, बुलंदशहर, अमरोहा, संभल, बदायूं, शाहजहांपुर, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली और प्रतापगढ़ होते हुए प्रयागराज जिले में समाप्त होगा। इस तरह यह 12 जिलों से गुजरेगा। शाहजहांपुर रोजा रेलवे ग्राउंड मैं आयोजित इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि यह एक्सप्रेस वे किसानों और नौजवानों के लिए वरदान साबित होगा। सड़कों की उपयोगिता से कोई इनकार नहीं कर सकता और एक्सप्रेसवे स्पीड, सुरक्षा और निश्चितता के साथ हर स्तर के आवागमन के लिए वर्तमान आर्थिक ढांचे में सर्वाधिक उपयुक्त सड़क प्रणाली है। चुनावी विश्लेषक यह प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या भाजपा एक्सप्रेस वे के आधार पर इस बार चुनावी रण में विजीत होने की उम्मीद कर रही है? 

यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है । हालांकि एक्सप्रेस वे से चुनावी किले की विजय की पृष्ठभूमि नहीं है। बसपा प्रमुख मायावती के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में पहले ग्रेटर नोएडा-आगरा यमुना एक्सप्रेसवे का निर्माण किया गया। हां 2012 के चुनावों से पहले, वह उसका उद्घाटन नहीं कर पाईं। बावजूद लोगों को पता था कि यह एक्सप्रेसवे मायावती ने बनवाई है। वह चुनाव नहीं जीत पाई। सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे बनाने का फैसला किया। इसका निर्माण 2014 में शुरू हुआ और 2017 में होने वाले चुनाव से पहले दिसंबर 2016 में बाजाब्ता उद्घाटन कर इसे जनता के लिए खोल दिया गया।  अखिलेश यादव ने 2017 के चुनावों में इसे अपनी सरकार की बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित भी किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा की कैसी दुर्गति हुई यह बताने की आवश्यकता नहीं। लेकिन भाजपा और इन दोनों पार्टियों में अंतर यह है कि जिस तरह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों एक्सप्रेसवे को महिमामंडित करते हुए उसका प्रचार करते हैं, लोकार्पण और शिलान्यास को व्यापक महत्व देते हैं वैसा सपा नहीं कर सकी । अखिलेश को भी लगता है कि इसका असर मतदाताओं पर होगा तभी उन्होंने पूर्वांचल एक्सप्रेस वे के उद्घाटन से पहले दावा कर दिया कि यह उनकी परियोजना थी और भाजपा केवल प्रधानमंत्री से इसका फीता कटवा रही है।  अखिलेश यादव ने गाजीपुर से लखनऊ के लिए पूर्वांचल एक्सप्रेसवे विजय रथ यात्रा शुरू कर दी। इतनी बात सही है कि पूर्वांचल एक्सप्रेस वे की योजना सपा सरकार में बनी किंतु इसके सारे कार्य और समय सीमा में योजना को पूरा करना तथा इसकी गुणवत्ता पहले की योजनाओं से बेहतर और क्षेत्रफल विस्तारित करने का काम योगी सरकार ने ही किया। आपने योजना बना दी इससे आप दावा के हकदार नहीं होते। गंगा एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के पहले भी अखिलेश यादव ने बयान दे दिया कि यह परियोजना तो मायावती ने शुरू की थी। जाहिर है, इसके असर का भय नहीं होता तो अखिलेश यादव को इस तरह के बयान देने की आवश्यकता नहीं होती। उनके बयान से यह सवाल तो जनता उठाएगी ही अगर मायावती जी के समय की योजना थी तो आप के कार्यकाल में भी यह पूरी क्यों नहीं हुई?

हालांकि इस कार्यक्रम का महत्व केवल एक्सप्रेस वे की दृष्टि से नहीं है। वैसे भी

 यह सही नहीं है की प्रधानमंत्री मोदी केवल एक्सप्रेस वे का ही उद्घाटन या शिलान्यास कर रहे हैं । हां, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री का यह चुनाव की पृष्ठभूमि में पहला कार्यक्रम था। मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, पूर्वांचल एक्सप्रेस वे, सरयू नहर राष्ट्रीय परियोजना, उर्वरक कारखाना और गोरखपुर में एम्स, सिद्धार्थनगर में नौ मेडिकल कॉलेजों, वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन, फिर वही  से पिंडरा के करखियांव में अमूल प्लांट की आधारशिला रखने के  2100 करोड़ रुपये की 27 परियोजनाओं का लोकार्पण कर चुके हैं,जिनमें काशी के कुंड-तालाब के जीर्णोद्धार और हाईटेक हो चुकी गलियां शामिल हैं। अभी तक नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के ज्यादातर कार्यक्रम पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही हुए हैं। प्रयागराज में  प्रधानमंत्री ने महिला स्वयं सहायता समूह सखियों और स्थानीय स्तर पर काम कर रहे अन्य कार्यकर्ताओं को नगद सहायता जारी किया एवं उनसे संवाद किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में आम विश्लेषकों की धारणा है कि कृषि कानून विरोधी आंदोलनों के प्रभाव के कारण यहां भाजपा के लिए थोड़ी कठिनाई हो सकती है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के  गठबंधन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुल 16 जिलों की 136 सीटों के समीकरण के प्रभावित होने की संभावना भी कई हलकों में व्यक्त की जा चुकी है। अगर जाटों और मुसलमानों का समीकरण बन गया तो इनका असर लगभग 55 सीटों पर है। 2017 के विधानसभा चुनाव में यह समीकरण नहीं बन पाया था क्योंकि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पूरा मनोविज्ञान बदला हुआ था। 136 में से भाजपा ने 109 पर विजय प्राप्त की थी। उसकी कोशिश इसे बनाए रखने की है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने शाहजहांपुर और बदायूं के लिए करोड़ों की परियोजनाएं घोषित की है। वे आठ नवंबर से 15 नवंबर यानी एक सप्ताह तक आठ जिलों के दौरे पर थे और ऐसी कई परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया तथा लोगों के दिलों को स्पर्श करने वाले एवं उनकी आवश्यकताओं से जुड़े कई समस्याओं के समाधान का संदेश भी दिया। कैराना से पलायन कर गए हिंदुओं की वापसी और वहां सुरक्षा के लिए पीएसी का केंद्र बनाना इन्हीं में शामिल है।

यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि भाजपा गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने चुनावी तरकस में एक बड़े पीर के रूप में रख रही है । उसे लगता है कि इस परियोजना का आकर्षण क्षेत्र में ऐसा होगा जिससे कि सपा रालोद गठबंधन के साथ टिकैत के भारतीय किसान यूनियन के असर को भी कमजोर करेगा । किंतु यह भाजपा के मुद्दों में से एक है जिसके साथ वह कई चीजों को जोड़ती है। यह उसकी रणनीति है। प्रधानमंत्री ने गंगा एक्सप्रेसवे को उत्तर प्रदेश विकास को गति और शक्ति देने वाला बताते हुए जनता से कहा की इससे एयरपोर्ट, मेट्रो, वाटरवेज, डिफेंस कॉरिडोर भी जोड़ा जाएगा और इसे फायबर ऑप्टिक केबल, बिजली तार बिछाने में आदि में भी इस्तेमाल किया जाएगा। भविष्य में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कार्गो कंटेनर वाराणसी के ड्राईपोर्ट के माध्यम से सीधे हल्दिया भेजे जाएंगे। यह एक्सप्रेसवे समाज के हर तबके को फायदा देगा। पहले की योजनाओं का न इतना विस्तारित स्वरूप था और न अखिलेश और मायावती जनता के अंदर एक्सप्रेसवे की महिमा की ऐसी व्यापकता समझा पाते थे। प्रधानमंत्री ने जो बातें की वोषसच भी है क्योंकि एक्सप्रेस वे केवल आवागमन का एक सामान्य साधन नहीं है। इससे आधुनिक विकास सहित सुरक्षा और कई व्यापक आयाम जुड़े हैं। यह सही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सामग्रियां इस माध्यम से वाराणसी पहुंच जल मार्ग के जरिए हल्दिया बंदरगाह आसानी से पहुंच जाएगी। प्रधानमंत्री ऐसे अवसरों का दूसरे रूप में भी उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए गंगा एक्सप्रेसवे शिलान्यास कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि पहले शाम होते ही सड़कों पर कट्टे लहराए जाते थे। पहले व्यापारी, कारोबारी घर से सुबह निकलता था तो परिवार को चिंता होती थी, गरीब परिवार दूसरे राज्य काम करने जाते थे तो घर और जमीन पर अवैध कब्जे की चिंता होती थी। कब कहां दंगा हो जाएं, कोई नहीं कह सकता था। बीते साढ़े 4 साल में योगी जी की सरकार ने स्थिति को सुधारने के लिए बहुत परिश्रम किया है। मुख्यमंत्री अब माफिया के अवैध निर्माणों पर बुलडोजर चलवा रहे हैं। आज यूपी की जनता कह रही है- यूपी + योगी, बहुत है उपयोगी। योगी आदित्यनाथ का एक यूएसपी अपराधियों पर टूट पड़ना, माफियाओं के खिलाफ निर्भीक और प्रखर कार्रवाई तथा सांप्रदायिक दंगों पर नियंत्रण है। भाजपा हर अवसर पर इसे सामने लाती है और एक्सप्रेसवे के उद्घाटन में प्रधानमंत्री ने इसको जिस तरीके से रखा उसे कुछ लोग अवश्य प्रभावित होंगे। पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी माफियाओं और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है और उनमें एक विशेष संप्रदाय के वे लोग निशाना बने हैं, जिनके विरोध पूर्व की सरकारें कार्रवाई नहीं कर पाती थी। इसके साथ मोदी ने यह भी कह दिया कि कुछ दल ऐसे हैं जिन्हें देश की विरासत और विकास दोनों से दिक्कत है। इन लोगों को बाबा विश्वनाथ का धाम बनने से, राम मंदिर से, गंगा जी की सफाई से दिक्कत है। यही लोग सेना की कार्रवाई पर सवाल उठाते हैं, भारतीय वैज्ञानिकों की कोरोना वैक्सीन पर सवाल उठाते हैं। इस तरह आध्यात्मिक धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के अभूतपूर्व उन्नयन तथा जनमानस पर इसके असर को दृढ़ करने की दृष्टि से भी प्रधानमंत्री ने पूरा उपयोग किया । इसमें भाजपा के लिए हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, सुरक्षा आदि मुद्दे सब सामने आ गए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह भावनाएं कितनी गहरी हैं इसका अंदाजा उन्हें होगा जिन्होंने वहां की सामाजिक मनोविज्ञान से वाकिफ होंगे। तो कार्यक्रम अवश्य एक्सप्रेस वे या अन्य परियोजनाओं के शिलान्यास का हो,  भाजपा अपने सारे मुद्दे इसी माध्यम से जनता के सामने रखती है और यह उसकी रणनीति है।

अवधेश कुमार,ई- 30 , गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 , मोबाइल -989110 27208

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

आंदोलन किस ढंग से खत्म हुआ यह महत्वपूर्ण है

अवधेश कुमार

कृषि कानूनों के विरोध में जारी  धरना लगभग एक वर्ष बाद खत्म हो गया। कोई भी आंदोलन स्थाई नहीं होता। एक न एक दिन आंदोलन खत्म होता ही है। इस आंदोलन को खत्म होना ही था । लेकिन जिस ढंग से किसान संगठनों के कुछ नेताओं ने अड़ियल रवैया अपनाया था उससे संदेह होने लगा था कि शायद यह और लंबा खिंच सकता है। दिल्ली की सीमाएं खाली होने के बाद वे लाखों लोग राहत की सांस ले रहे होंगे,  जिनकी दैनिक जिंदगी इस घेरेबंदी से प्रभावित थी। इसी तरह सारे फैक्ट्री मालिक और व्यापारी तथा उनसे जुड़े लोग भी ईश्वर को धन्यवाद दे रहे होंगे कि उन्हें फिर से पूरी गति से काम करने का अवसर दिया। इनकी चर्चा इसलिए आवश्यक है ताकि देश के ध्यान में रहे कि कृषि कानूनों के विरोध में कुछ किसान संगठनों की जिद के कारण लाखों लोगों की जिंदगी परेशानी से भर गई , अनेक रोजगार खत्म हुए, व्यापार प्रभावित हुए , कारखानों के उत्पादन गिर गए आदि आदि। इसलिए सरकार द्वारा मांगे माने जाने के बाद जश्न मना रहे इन संगठनों के नेताओं ,कार्यकर्ताओं का उत्साह देखकर सच कहें तो उन लोगों के अंदर खीझ पैदा हो रही थी। देश में भी ऐसे लोगों की भारी संख्या है, जो उनके व्यवहार से क्रुद्ध थे। वास्तव में आंदोलन खत्म होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह खत्म कैसे हुआ। अब धरना समाप्त हो चुका है तो शांत मन से सत्ता और विपक्ष के सभी राजनीतिक नेताओं, विवेकशील और जानकार लोगों को विचार करना चाहिए कि क्या वाकई इस तरह इन धरनों का खत्म करना उचित है? 

वास्तव में इसके साथ  न तो इससे संबंधित बहस और मुद्दे खत्म हुए और न कृषि और किसानों से जुड़ी समस्याएं ही। प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में  तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा तथा बाद में इन नेताओं की ज्यादातर मांगे मांग लेने के बाद विपक्ष एवं विरोधी सरकार का उपहास उड़ा रहे हैं। यह स्वाभाविक है। भारतीय राजनीति की दिशाहीनता और वोट एवं सत्ता तक सीमित रहने के संकुचित चरित्र में हम आप इससे अलग किसी तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते। कोई यह सोचने को तैयार नहीं है कि क्या वाकई यह धरना या आंदोलन इतना महत्वपूर्ण था जिसके सामने सरकार को समर्पण करना चाहिए? लोकतंत्र में जिद और गुस्से से कोई समस्या नहीं सुलझती। कई बार चाहे - अनचाहे आपको झुकना पड़ता है और इसे मान अपमान का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। बावजूद प्रश्न तो उठेगा। पिछले वर्ष सरकार ने किसानों से 11 दौर की वार्ताओं में और उसके बाद स्पष्ट कर दिया था कि  किसी कीमत पर कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। सरकार ने दृढ़ता दिखाई दी थी।  आखिर  लंबी प्रतीक्षा के बाद कृषि क्षेत्र में सुधार के साहसी निर्णय किए गए थे। उसमें थोड़ी कमियां हो सकती है लेकिन कुल मिलाकर देश में कृषि से जुड़े विशेषज्ञ,  नीतियों की थोड़ी समझ रखने वाले किसान दिल से चाहते थे कि ये कानून लागू हों तथा उद्योगों की तरह निजी क्षेत्र कृषि में भी उतरें। स्व.चौधरी देवीलाल ने कृषि को उद्योग के समक्ष मानने की आवाज उठाई तो व्यापक समर्थन मिला था। सच यही है कि कुछ किसान संगठनों के नेता और कार्यकर्ता भले इसे विजय मानकर उत्सव का आनंद लें , देश भर में कृषि और किसानों की समस्याओं को समझने और उसके समाधान की रास्ता तलाशने की दिशा में विचार करने वाले निराश हैं और उनके अंदर खीझ भी पैदा हो हुई है ।

 सरकार ने न केवल कृषि कानूनों की वापसी की बल्कि जो अनावश्यक और झूठ पर आधारित मांगे इन लोगों ने रखी उन सबको स्वीकार कर लिया।26 जनवरी को राजधानी दिल्ली में ट्रैक्टरों से पैदा किए गए आतंक और मचाए गए उत्पात देश भूल नहीं सकता। कानून  की वैसी धज्जियां उड़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई स्वाभाविक थी। सरकार के इस रुख के बाद तो दोषी माने ही नहीं जा ,सकते। लाल किले पर देश को अपमानित करने वाले अब सही माने गए । जिन पुलिसवालों को उन्होंने दीवारों से छतों से धक्का देकर गिराया और घायल हुए  उनके बारे में कोई आवाज उठाने को तैयार नहीं। इन धरनों में खालिस्तान समर्थक तत्व अपने झंडे- बैनर तक के साथ देखे गए,  लाल किले पर उधम मचाने वालों में वे शामिल थे।  मीडिया में उनकी तस्वीरें वीडियो उपलब्ध है । सारे मुकदमे वापस होने का मतलब यही है कि उन्हें दोषी नहीं माना गया। पराली कई सौ किलोमीटर के क्षेत्रों में प्रदूषण  के मुख्य कारणों में से एक साबित हो चुका है।  उसे रोकने के लिए प्रोत्साहन और कानूनी भय दोनों प्रकार के कदम आवश्यक थे। अब इसकी कोई बात करेगा नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पराली जलाने के विरुद्ध झंडा उठाए थे और केंद्र की निंदा करते थे। उनको चुनाव लड़ना है , इसलिए दिल्ली का प्रदूषण मुद्दा नहीं । जिन्हें शहीद बताकर मुआवजे की मांग की गई उनके निधन के लिए किन है जिम्मेवार माना जाए? जब सरकार की ओर से एक बार भी बल प्रयोग हुआ नहीं, न गोली चली न लाठी चली लेकिन मुआवजा मिलनी चाहिए। हैरत की बात यह है कि केंद्र सरकार जिसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक दृढ़ संकल्पित सरकार मानी गई उसने इस सीमा तक मांगे मानी।

दिल्ली के इर्द-गिर्द मुट्ठी भर धरनाधारी रह गए थे।  देश में कहीं भी इनके  समर्थन में किसी प्रकार का आंदोलन या प्रदर्शन नहीं था। भारी संख्या में लोग इनके विरूद्ध आवाज उठा रहे थे।  यह बात अलग है कि इनके समानांतर लोग विरोध में कहीं सड़कों पर नहीं उतरे। आज भाजपा के पास अपनी इतनी ताकत है कि वह चाहती तो इनके समानांतर सड़कों पर उतर कर इनका विरोध कर सकती थी। इसलिए यह जरूरी थ् क्योंकि कृषि कानूनों के विरोध में जारी आंदोलन एजेंडाधारियों के आंदोलन में परिणत हो चुका था। उसमें कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना वाला माल मामला साफ दिख रहा था। देश विरोधियों की ताकत इसमें लग गई थी। खालिस्तानी तत्व भारत से लेकर दुनिया भर मेंर सक्रिय थे। आंदोलन के कार्यक्रमों, इसे बढ़ाने संबंधी वर्चुअल बैठकों में कनाडा, अमेरिका , ब्रिटेन और पाकिस्तान तक के भारत के दुश्मन शामिल हुए थे। यह सारी सच्चाई सरकार के सामने थी। इनसे टकराने की आवश्यकता थी या इनके सामने झुक जाने की? यह ऐसा प्रश्न है जिस पर सभी को गंभीरता से विचार करना चाहिए। सारे तत्व संतुलित और समझदार नहीं  कि वे मानेंगे कि सरकार ने देश विरोधी तत्वों को हतोत्साहित करने की दृष्टि से तत्काल किसी तरह धरने को खत्म करने के लिए इस सीमा तक समझौता किया है। इससे उन सबका मनोबल बढ़ेगा। सबसे घातक प्रभाव होगा कि जिन लोगों ने लंबे समय से इस आंदोलन या धरने की सच्चाई को लेकर आवाज उठाई,इनका सामना किया, इनके विरूद्ध जनजागरण किया वे सब अपने को अजीबोगरीब स्थिति में पा रहे हैं । केवल यही तबका नहीं , जो आचरण में निरपेक्ष रहते हुए भी आंदोलन को बिल्कुल गलत राजनीतिक एजेंडा वाला मानकर इनके खत्म होने की कामना कर रहे थे,  उन सबको धक्का लगा है । जहां तक राजनीतिक स्थिति का प्रश्न है तो भाजपा का पंजाब में ऐसा आधार नहीं रहा है जिसके लिए इस सीमा तक जाकर किसानों  के नाम पर उठाई गई गैर वाजिब मांगें माननी पड़े । उत्तर प्रदेश में भी इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव नहीं था।  राकेश टिकैत के कारण जिस एक जाति की बात की जा रही है उसमें संभव है भाजपा का जनाधार कुछ घटा हो और राष्ट्रीय लोकदल की ताकत बढ़ी हो।  वह भी इसी कारण हुआ क्योंकि सरकार ने समय रहते इन धरनों को समाप्त करने के अपने कानूनी अधिकारों और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं किया। 27 जनवरी को इन धरनों को आसानी से समाप्त किया जा सकता था।  सरकार का उस समय का रवैया और वर्तमान आचरण दोनों नैतिकता, तर्क, कृषि, किसान और देश के वर्तमान तथा दूरगामी भविष्य की दृष्टि सेकतई उचित नहीं है। स्वयं सरकार की छवि पर भी यह बहुत बड़ा आघात  है। थोड़ा राजनीतिक नुकसान हो तो भी सरकार को इनके सामने डटना चाहिए था। 

इससे नुकासन जायादा होगा। स्वाभिमानी और अपने कर्तव्यों के पालन का चरित्र वाले पुलिस और नागरिक प्रशासन के कर्मियों का भी मनोबल गिरा होगा।आने वाले समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और उनके रणनीतिकारों को इन व्यापक क्षतियों को कम करने या खत्म करने के लिए कितना परिश्रम करना होगा इसे बताने की आवश्यकता नहीं। अगर नहीं किया तो देश को जितना नुकसान इससे होगा वह तो है ही, राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के लिए काफी नुकसानदायक साबित होगा। जब उनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और  उनकी नीतियों का समर्थन करने वाले सरकारी कर्मियों का मनोबल गिर जाएगा तो फिर किस आधार पर सरकार भविष्य की चुनौतियों का सामना करेगी? यह ऐसा प्रश्न है जो देश के सामने खड़ा है। मुट्ठी भर एजेंडाधारी तथा उनके झांसे में आने वाले नासमझ किसान नेताओं के दबाव में सरकार ने बहुत बड़ा जोखिम मोल ले लिया है। इस तरह धरना खत्म कराने के बाद चुनौतियां बढ़ेंगी, क्योकि किसी नए रूप में यो सब खड़े होंगे। 

 अवधेश कुमार, ई- 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092. मोबाइल 9810 2708

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

मोहम्मदी एजुकेशन ट्रस्ट ने अल्पसंख्यकों के लिए जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया

-अल्पसंख्यकों की परेशानी में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग हमेशा उनके साथ खड़ा है: ज़ाकिर खान
 
मो. रियाज
नई दिल्ली।गांधीनगर विधानसभा की शास्त्री पार्क वार्ड 25-ई में महोम्मदी एजुकेशनल ट्रस्ट द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लिए जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान थे।
इस जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन मोहम्मदी एजुकेशनल ट्रस्ट के संस्थापक नियाज़ अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी ने किया। उन्होंने दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान का फूलमालाओं से स्वागत करते हुए अतिथियों का कार्यक्रम में आने के लिए शुक्रिया अदा किया। उन्होंने बता कि इस जागरूकता कार्यक्रम को करने का मकसद सिर्फ इतना था कि आज हमारे समाज के लोगों को अपने अधिकारों की जानकारी नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए कहां जा सकते हैं या किससे मदद ले सकते हैं। इसलिए हमने आज के कार्यक्रम में चेयरमैन जाकिर खान साहब को बुलाया है जो आयोग के अंतर्गत हमारे अधिकारों के बारे में हमें जानकारी देंगे। 
इस पर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान ने अल्पसंख्यकों के लिए आयोग द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से अवगत करवाया और भरोसा दिलाया कि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग आपकी हर परेशानी में आपके साथ है। उन्होंने कहा कि आप जब चाहें मेरे ऑफिस आ सकते हो या मुझे बुला सकते हो। दिल्ली सरकार की कई सारी योजना अल्पसंख्यकों के लिए बनी है उनको भी दिलावाने की हर संभव कोशिश की जाएगी। उन्होंने ने आगे कहा कि मैं आपको बता दें कि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग छह अल्पसंख्यकों समुदाय के लिए काम करता है जैसे मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन ओर पारसी। इसलिए आप की परेशानी में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग आपकी पूरी मदद की जाएगी।
ऑल इंडिया मंसूरी समाज के महासचिव हाजी समीर मंसूरी ने कहा कि हम मुख्यमंत्री केजरीवाल का भी शुक्रिया अदा किया। उन्होंने कहा कि केजरीवाल जी परखी नजर ही है जिन्होंने जाकिर खान जैसे जमीनी स्तर के व्यक्ति को अल्पसंख्यक आयोग का चेयरमैन बनाया जो समाज कि हर तकलीफ को समझते हैं और उनके बीच जाकर उनका हल निकालने की कोशिश करते हैं।
इस कार्यक्रम में समाजसेवी नियाज अहमद उर्फ पप्पू मंसूरी ने सभी मेहमानों का शुक्रिया अदा किया। इस कार्यक्रम में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग, एडवाइजरी कमेटी के मेम्बर्स शफी देहलवी, रिजवान मंसूरी, शाकिर खान, कारी जहीर अहमद, वाहिद मंसूरी साहिल, हाजी सरकार आलम मंसूरी, मौलाना मोहम्मद राजा, मदरसा दारूल उलूम मोहम्मदिया, हाजी समीर मंसूरी, डॉक्टर अनस खान, डॉक्टर रिज़वान, डॉक्टर आसिफ के अलावा मोहम्मदी एजुकेशनल ट्रस्ट की पूरी टीम और इलाके व शास्त्री पार्क वार्ड के जिम्मेदार अलीम मंसूरी, नबीजान मंसूरी, फारूक भाई, तय्यब हुसैन मंसूरी, अली मोहम्मद, हाजी तफसीर, यासीन मलिक  बिल्डर,  लियाकत खान,  सलीम भाई , मोहम्मद अनीश,  सलाउद्दीन भाई, अबरार कुरेशी, फरहत खान, मोहम्मद हारून पुरानी दिल्ली वाले,  शाहिद मंसूरी, यामीन कुरेशी,  शब्बीर भाई, अनीश भाई ऑटो वाले, साजिद सैफी, मोहम्मद अब्दुल्लाह आदि समाज के वरिष्ठ लोगोंं ने हिस्सा लिया।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

त्रिपुरा निकाय चुनाव के संदेश समझें भाजपा विरोधी

अवधेश कुमार

त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा की जबरदस्त विजय ने विपक्ष के साथ पूरे देश को चौंकाया है। पश्चिम बंगाल में भारी विजय के पश्चात ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस ने त्रिपुरा को जिस दिन से अपनी दूसरी प्रमुख राजनीति का केंद्र बिंदु बनाया था और पूरी आक्रामकता से वहां सदस्यता अभियान व चुनाव प्रचार अभियान चल रहा था उससे लगता था कि वहां भाजपा को अच्छी चुनौती मिलेगी। चुनाव परिणामों ने इसे गलत साबित किया है। राजधानी अगरतला नगर निगम सहित कुल 24 नगर निकायों के चुनाव हुए। इनके 334 वार्डों में से भाजपा ने 329 पर विजय प्राप्त की। किसी भी पार्टी की इससे अच्छी सफलता कुछ हो ही नहीं सकती। तृणमूल कांग्रेस को पूरे चुनाव में केवल एक सीट प्राप्त हुआ । पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद से पूरे देश में माहौल बनाया गया था कि भाजपा के पराभव के दौर की शुरुआत हो चुकी है और कम से कम पूर्वोत्तर में तृणमूल उसे पटखनी देने की स्थिति में आ गई है । ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप से विचार करना पड़ेगा कि राजनीति में भाजपा के विरुद्ध जिस तरह के विरोधी वातावरण या माहौल की बात की जाती है वैसा हो क्यों नहीं पाता ? 

तृणमूल कांग्रेस कह रही है कि वह अपने प्रदर्शन से संतुष्ट है क्योंकि बहुत ज्यादा दिन उसकी पार्टी के त्रिपुरा में आए नहीं हुए और वह मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी है। यह बात सही है कि उसने वहां माकपा को स्थानापन्न कर भाजपा के बाद दूसरा स्थान प्राप्त किया है। बावजूद दोनों के बीच मतों में इतनी दूरी है जिसमें यह कल्पना करना व्यवहारिक नहीं लगता कि 2023 के चुनाव आते-आते उसे पाट दिया जाएगा। यह बात सही है कि अनेक बार विधानसभा या लोकसभा के चुनाव परिणाम स्थानीय निकाय के चुनाव परिणामों से बिल्कुल अलग होते हैं। तो अभी 2023 के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी उचित नहीं होगी। लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव को न केवल तृणमूल कांग्रेस बल्कि संपूर्ण देश के भाजपा विरोधियों ने बड़े चुनाव के रूप में परिणत कर दिया था। बांग्लादेश में हिंदुओं और हिंदू स्थलों पर हिंसात्मक हमले के विरुद्ध प्रदर्शन के दौरान हुई छोटी सी घटना को जिस तरह बड़ा बना कर प्रचारित किया गया उसका उद्देश्य बिल्कुल साफ था। मामला सोशल मीडिया से मीडिया और न्यायालय तक भी आ गया। पूरा वातावरण ऐसा बनाया गया मानो त्रिपुरा की भाजपा सरकार के संरक्षण में हिंदुत्ववादी शक्तियां वहां अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कर रही है और पुलिस या स्थानीय प्रशासन उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। त्रिपुरा सरकार की फासिस्टवादी छवि बनाने की कोशिश हुई। इसमें भाजपा के विरुद्ध माहौल बनाने की रणनीति साफ थी। दूसरी और तृणमूल कांग्रेस लगातार भाजपा शासन में उनके कार्यकर्ताओं पर हमले व अत्याचार का आरोप लगा रही थी। इससे त्रिपुरा के बारे में कैसी तस्वीर हमारे आपके मन में आ रही थी यह बताने की आवश्यकता नहीं। कल्पना यही थी कि त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल दोहराया जा सकता है।

वास्तव में पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद अबी तक विपक्ष की कल्पना वैसे ही लगती है जैसे कांग्रेस ने 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव में विजय के बाद मान लिया कि भाजपा पराभव की ओर है तथा राहुल गांधी के नेतृत्व में उसका पूनरोदय निश्चित है। 2019 लोकसभा चुनाव परिणामों ने इस कल्पना को ध्वस्त कर दिया। पश्चिम बंगाल संपूर्ण हिंदुस्तान नहीं है। जरा सोचिए, अगर त्रिपुरा जैसा पड़ोसी छोटा राज्य पश्चिम बंगाल की राजनीतिक 

 का अंग नहीं बना तो पूरा देश कैसे बन जाएगा? वैसे तृणमूल कांग्रेस का यह कहना गलत है कि कुछ ही महीने पहले वह त्रिपुरा में आई थी। सच यह है कि पार्टी की स्थापना के साथ ही ममता बनर्जी ने बंगाल के बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों का दूसरा मुख्य केंद्र बिंदु त्रिपुरा को ही बनाया था। 

सच कहें तो त्रिपुरा निकाय चुनाव भाजपा विरोधी राजनीतिक गैर राजनीतिक सभी समूहों व व्यक्तियों के लिए फिर से एक सीख बनकर आया है। वे इसे नहीं समझेंगे तो ऐसे ही समय-समय पर भाजपा के खत्म होने की कल्पना में डूबते और परिणामों में निराश होते रहेंगे। पश्चिम बंगाल का राजनीतिक वातावरण ,सामाजिक- सांप्रदायिक समीकरण अलग है। करीब 30% मुस्लिम मतदाता और विचारों से वामपंथी सोच वाले जनता के एक बड़े समूह के रहते हुए भाजपा के लिए बंगाल में संपूर्ण विजय आसान नहीं है। वहां भाजपा को मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक फासिस्टवादी  बताने का असर मतदाताओं पर होगा । इनमें से एक वर्ग भाजपा के विरुद्ध आक्रामक होकर मतदान में काम करेगा । ऐसा सब जगह नहीं हो सकता । उसमें भी तृणमूल कांग्रेस के शासन में पुलिस प्रशासन की भूमिका वहां चुनाव परिणाम निर्धारण का एक प्रमुख कारक थी। निष्पक्ष विश्लेषक मानते हैं कि बंगाल में तृणमूल सत्ता में नहीं होती तो परिणाम इसी रूप में नहीं आता।

भारत में ऐसे अनेक राज्य हैं जहां भाजपा के विरुद्ध यही प्रचार उसके पक्ष में जाता है। आप एक समूह को भाजपा के विरुद्ध बताते हैं तो दूसरा बड़ा समूह एकमुश्त होकर उसके पक्ष में खड़ा हो जाता है। विरोधी जैसा माहौल बनाते हैं जमीनी हालत वैसी नहीं होती और आम जनता की प्रतिक्रिया विरोधियों के विरुद्ध ही होती है । ऐसा संपूर्ण भारत में जगह-जगह देखा गया है। लेकिन भाजपा विरोध की अतिवादी मानसिकता वाली पार्टिया, नेता, समूह ,एक्टिविस्ट, व्यक्ति पता नहीं क्यों इसे समझ नहीं पाते । जो सच है नहीं उसे आप सच बता कर अतिवादी तस्वीर के साथ प्रचारित करेंगे तो वही लोग इससे प्रभावित होंगे जिनको हकीकत नहीं पता या जो मानसिकता से भाजपा विरोधी हैं। आम जनता खासकर स्थानीय लोग ऐसे दुष्प्रचारों से प्रभावित नहीं होंगे । निश्चित रूप से त्रिपुरा में ऐसा हुआ है। आप प्रचारित कर रहे हैं कि हिंदुओं के जुलूस ने मस्जिदों और  मुसलमानों पर हमला किया ,तोड़फोड़ की और वहां की मीडिया ने बताया बता दिया कि यह सच नहीं है। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो गलत साबित हुआ । इसके विरुद्ध स्थानीय जनता की प्रतिक्रिया होगी और जनता ने अपनी प्रतिक्रिया मतदान के जरिए सामने रख दिया। आप उससे सीख लेते हैं या नहीं लेते हैं यह आप पर निर्भर है।

जाहिर है , विरोधियों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। हालांकि वे करेंगे नहीं । दूसरे ,इससे यह भी धारणा गलत साबित हुई है कि जमीनी वास्तविकता के परे केवल हवा बनाने या माहौल बनाने से चुनाव जीता जा सकता है। आप सोचिए न, 334 सीटों में से 25 नवंबर को 222 पर मतदान हुआ जिनमें से 217 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की। निकाय चुनाव परिणाम की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि 112 स्थानों पर भाजपा प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हुए। इसका मतलब यही है कि बाहर भले आप माहौल बना दीजिए कि भाजपा खत्म हो रही है और तृणमूल कांग्रेस  उसकी जगह ले रही है , जमीन पर ऐसा नहीं था। अगर जमीन पर तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस या माकपा का ठोस आधार होता तो कम से कम उम्मीदवार अवश्य खड़े होते। स्थानीय चुनाव में आम लोगों का दबाव भी काम करता है। कोई पार्टी कमजोर हो तो फिर उसके लोग भी दबाव में आ जाते हैं। उन्हें लोग कहते हैं कि आपका वोट है नहीं तो फलां को जीतने दीजिए और उन्हें मानना पड़ता है। वे चुनाव में खड़े नहीं होते या खड़े हैं तो बैठ जाते हैं । तो त्रिपुरा निकाय चुनाव का निष्कर्ष यह है कि भाजपा विरोधी उसके विरुद्ध वास्तविक मुद्दे सामने लाएं और परिश्रम से अपना जनाधार बढ़ाएं तभी उसे हर जगह चुनौती दी जा सकती है। सांप्रदायिकता, फासीवाद आदि आरोप अनेक बार बचकाने वा हास्यास्पद ही नहीं विपक्ष के लिए आत्मघाती भी साबित हो चुके हैं। भाजपा ने इन सारे प्रचारों और विरोधों का जिस तारहसभधे हुए तरीके से सामना किया तथा जमीन पर सुनियोजित अभियान चलाया उसमें भी विरोधियों के लिए स्पष्ट संकेत निहित हैं।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली - 110092, मोबाइल - 98110 27208



शनिवार, 4 दिसंबर 2021

मनीष तिवारी की पुस्तक: मुंबई आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए थी

अवधेश कुमार

 एक वर्ष पूर्व अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की अ प्रोमिस्ड लैंड पुस्तक आई थी। इसमें उन्होंने लिखा कि मुंबई पर 26 नवंबर, 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करने से बच रहे थे। ठीक एक वर्ष बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी की पुस्तक 10 फ्लैश पॉइंट 20 वर्ष  में दूसरी भाषा में यही बात कही गई है। मनीष तिवारी ने मुंबई हमले की तुलना 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमले से की है। उनका मानना है कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई न करना आत्मसंयम का नहीं कमजोरी का प्रमाण था । मनीष तिवारी ने पुस्तक में यह बात क्यों लिखी है इसके बारे में हमारा आकलन हमारी अपनी सोच  पर निर्भर करेगा। वे इस समय कांग्रेस के अंदर बिक्षुब्ध गुट, जिसे जी23 कहा जाता है, के सदस्य हैं। इसलिए सामान्य निष्कर्ष यही हो सकता है कि उन्होंने पुस्तक के माध्यम से अपना क्षोभ प्रकट कर कांग्रेस नेतृत्व यानी सोनिया गांधी पर वार किया है क्योंकि मनमोहन सिंह उन्हीं की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे। हालांकि पुस्तक के जितने अंश बाहर आए हैं उसके अनुसार उनकी पंक्तियों में गुस्से का भाव ज्यादा नहीं झलकता। मूल प्रश्न तो यह है कि क्या मनीष ने जो लिखा है वह गलत है? इसका उत्तर आसानी से दिया जा सकता है और वह होगा नहीं। आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक तथा 2018  में बालाकोट हवाई बमबारी के द्वारा यह साबित कर दिया कि अगर आतंकवादी हमलों के बाद भारत इस तरह की कार्रवाई करता है तो पाकिस्तान  इसके प्रतिकार में किसी तरह युद्ध की सीमा तक नहीं जा सकता । 

भारतीय नीति निर्माताओं में एक समूह हमेशा ऐसा रहा है जो आतंकवादी हमले की प्रतिक्रिया में पाकिस्तान के विरुद्ध किसी प्रकार की प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई से बचने की सलाह देता है। इसके पीछे कई तर्क होते हैं। इनमें सबसे सबल तर्क यही होता है कि उसके पास नाभिकीय हथियार हैं और एक गैर जिम्मेदार राष्ट्र उसका कभी भी प्रयोग कर दे सकता है। नरेंद्र मोदी ने अपनी दो कार्रवाइयों से इस मिथक को ध्वस्त कर दिया। पाकिस्तान के मंत्री अवश्य बयान देते रहे कि हमने न्यूक्लियर वेपन फुलझड़ीयों के लिए नहीं रखा है, हमारे पास छोटे-छोटे ढाई सौ किलोग्राम से लेकर बड़े बम है लेकिन वह प्रयोग को छोड़िए भारत की कार्रवाई के बाद धमकी तक देने का साहस नहीं कर सका। हमारा एक जवान, जो उनके कब्जे में आया था गया, उसे भी सम्मानपूर्वक उन्हें रिहा करना पड़ा। उदाहरण बताता है कि  नेतृत्व साहस करें और उसके पीछे संकल्पबद्धता का संदेश हो तो पाकिस्तान को आतंकवादी हमलों के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई चुपचाप सहन करनी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके नौकरशाहों में से कुछ ने सैन्य कार्रवाई से बचने की सलाह नहीं दी होगी। लेकिन निर्णय तो अंततः राजनीतिक नेतृत्व को ही करना पड़ता है। उसकी सूझबूझ, सुरक्षा परिदृश्य की संपूर्ण समझ, अंतर्राष्ट्रीय वातावरण का सही आकलन, साहस और संकल्प पर निर्भर करता है।

 यह तो संभव नहीं कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई पर चर्चा नहीं हुई हो। तत्कालीन वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ ने कहा है कि हमने सरकार को हवाई हमले का प्रस्ताव दिया था लेकिन अनुमति नहीं मिली। उनके अनुसार हमारे पास पाकिस्तान में आतंकवादी शिविरों के बारे में जानकारी थी और हमला करने के लिए हम तैयार थे। केवल सरकार की अनुमति चाहिए थी। उपवायु सेना प्रमुख बी के बार्बोरा भी इसके लिए तैयार होने की बात स्वीकार करते हैं। तत्कालीन विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने कहा था कि हमने तत्काल ऐसा बदला लेने के लिए थोड़ा दबाव दिया था जो दिखाई दे। हमने तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह से इसके लिए बात की। लेकिन उन लोगों ने इसे उचित नहीं माना।उनके अनुसार निर्णयकर्ताओं का निष्कर्ष  था कि पाकिस्तान पर हमला नहीं करने का लाभ ज्यादा मिलेगा। इसके बाद अलग से कोई निष्कर्ष निकालने की आवश्यकता नहीं कि उस दौरान सरकार के शीर्ष स्तर पर कैसी सोच थी। ऐसा भी नहीं है कि उस हमले को लेकर खुफिया इनपुट नहीं था। तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने कहा था कि आईबी और रॉ मुंबई हमले के पहले ऐसे हमले का पूर्वानुमान लगा रही थी। हमारे पास इस तरह की सूचनाएं भी आ रही थी कि ताज होटल या ऐसे दूसरे जगहों पर हमला हो सकता है, उसे बंधक बनाया जा सकता है। उनके अनुसार हमारी असली विफलता यह थी कि हमने यह किस तरह का हमला होगा इसका आकलन नहीं किया या ऐसे नहीं समझा।इसका मतलब यह भी हुआ कि पाकिस्तान की ओर से आतंकवादी हमलों की मोटा-मोटी जानकारी थी। एम के नारायणन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि बिल्कुल सटीक जानकारी नहीं थी। 

सुरक्षा पहलुओं पर काम करने वाले जानते हैं कि खुफिया इनपुट में बिल्कुल सटीक जानकारियां शायद ही होती हैं। अंदेशा होता है समभाव अंदेशा संभावनाएं कुछ सूचनाएं होती हैं और उनके आधार पर उसका आकलन करना पड़ता है कि क्या हो सकता है। इस तरह यह उच्च स्तर पर सुरक्षा विफलता भी थी। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके रणनीतिकार दूरदर्शी होते तो अवश्य आगे कुछ ऐसे कदम उठाते जिनसे देश का वातावरण बदलता एवं विफलता से ध्यान भी हटता।स्वाभाविक ही बाद में चर्चा केवल प्रतिकार आत्मक सैन्य कार्रवाई की होती। मुंबई हमला  भारत में सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था । यह सीधे-सीधे भारत की संप्रभुता को चुनौती देना था। 10 आतंकवादी बाजाब्ता समुद्री मार्ग से मुंबई में घुसे और सरेआम उन्होंने गोलियां चलानी शुरू की। करीब 60 घंटे तक सुरक्षाबलों को उनसे युद्ध करना पड़ा और इस दौरान हम जानते हैं कि क्या हुआ। यह ठीक है कि भारत ने लगातार विश्व समुदायके बीच पाकिस्तान के विरुद्ध वातावरण बनाया, उस पर हमले के साजिशकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई के लिए दबाव भी बना। उसमें अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, इजरायल आदि के नागरिक भी मारे गए थे इसलिए उन देशों का भी दबाव था। बावजूद सच यही है कि आज तक पाकिस्तान में दोषियों के विरुद्ध जैसी कार्रवाई होनी चाहिए नहीं हुई। भारत डोजियर पर डोजियर सौंपता रहा और पाकिस्तान की ओर से कई बार इसका कह कर उपहास उड़ाया गया कि यह तो उपन्यास की कथाओं की तरह है। अगर भारत कार्रवाई करता  तो ऐसी नौबत नहीं आती। एक स्वाभिमानी राष्ट्र इस तरह के हमलों का जवाब केवल कूटनीतिक राजनयिक लक्ष्मी तरह कर नहीं दे सकता। 

भारत को अमेरिका की तरह पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध नहीं छेड़ना था लेकिन सीमित स्तर पर कार्रवाई न करने से भारत के आम लोगों को निराशा हुई। सैटलाइट फोन की बातचीत पकड़ में आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि हमलावरों को निर्देश तक सीमा पार से आ रहे थे तो फिर लक्षित सीमित सर्जिकल स्ट्राइक होनी ही चाहिए थी। उस हमले ने पूरे देश को सन्न कर दिया था। सात घंटे तक पूरे देश की धड़कनें मानों रुक गई थी। लेकिन हमारी ओर से किसी तरह का बदला नहीं लिया जाना देशवासियों के लिए आज भी  बना हुआ है। उड़ी हमले के बाद भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की और पाकिस्तान सेहमले के षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध कार्रवाई के लिए अनुनय विनय नहीं करना पड़ा। इसी तरह पुलवामा हमले के बाद बालाकोट हवाई बमबारी कर भारत ने अपने सामने केवल राजनयिक स्तर तक विकल्प रहने का की आवश्यकता छोड़ी ही नहीं। हालांकि भारत ने मुंबई हमले के बाद अपनी सुरक्षा व्यवस्था को काफी दुरुस्त किया, खुफिया तंत्र में भी व्यापक परिवर्तन हुआ और इस कारण अनेक संभावित हमले रोके ही गए होंगे।  उस समय कार्रवाई हो गई होती तो शायद परिदृश्य दूसरा होता और विश्व में भारत की एक स्वाभिमानी सशक्त राष्ट्र की छवि निर्मित होती और देश में उत्साह का वातावरण बनता। मुंबई हमले का सैनिक प्रतिकार न किया जाना हमेशा लोगों को चुभता रहेगा। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

कृषि कानून वापसी के राजनीति के साथ दूसरे पहलू भी महत्वपूर्ण

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब राष्ट्र के नाम संबोधन की शुरुआत की तो शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि वे तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर देंगे। आखिर जिस कानून को लेकर सरकार पिछले एक वर्ष से अड़ी हुई थी, साफ घोषणा कर रही थी कि वापस नहीं होंगे, कृषि कानून विरोधी आंदोलन के संगठनों के साथ बातचीत के बाद कृषि मंत्री ने स्पष्ट बयान दिया था, स्वयं प्रधानमंत्री ने संसद के संबोधन में आक्रामक रुख अख्तियार किया था उसकी वापसी की उम्मीद आसानी से नहीं की जा सकती थी। तो यह प्रश्न निश्चित रूप से उठेगा कि किन कारणों से प्रधानमंत्री ने यह निर्णय किया? इसके राजनीतिक मायने स्पष्ट हैं और सबसे ज्यादा चर्चा इसी की हो रही है। आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है। ऐसा नहीं है कि पूरा देश इस कानून के विरुद्ध था। सच्चाई यही है कि देश का बहुसंख्य  किसान इन कानूनों के पक्ष में था। दिल्ली की सीमाओं पर कभी इतनी भीड़ जमा नहीं हुई या देश के अलग-अलग भागों से उतनी संख्या में लोग आंदोलन का समर्थन करने नहीं आए जिनके आधार पर कोई निष्कर्ष निकाले कि यह देशव्यापी मुद्दा है। इसका सरकार को भी पता था। उच्चतम न्यायालय ने इन कानूनों पर रोक लगा ही रखी थी। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी एवं उनके रणनीतिकारों को भी आभास था कि अगर वापसी की घोषणा हुई तो विपक्ष उपहास उड़ायेगा। बावजूद उन्होंने इसकी घोषणा की है तो राजनीति के साथ इसके दूसरे पक्षों को भी समझना होगा।

 यह बात सही नहीं लगती कि प्रधानमंत्री के फैसले के पीछे उत्तर प्रदेश चुनाव मुख्य कारण है। भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षणों में कृषि कानूनों को लेकर उत्तर प्रदेश में व्यापक विरोध नहीं मिला। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में जरूर थोड़ा बहुत विरोध मिला लेकिन उससे चुनाव परिणाम बहुत ज्यादा प्रभावित होता इसकी रिपोर्ट नहीं थी। उत्तराखंड के तराई इलाके में असर था। हरियाणा में भी समस्या पैदा हो रही थी क्योंकि आंदोलन और संगठनों के लोग वहां कई जगहों पर हाबी थे। गठबंधन के साथी जेजेपी को भी समस्या थी किंतु यह भी साफ था कि  उन्होंने गठबंधन तोड़ा, सरकार गिरी तो आगामी चुनाव में उनको फिर से सफलता मिलने की निश्चिंतता नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह जब गृह मंत्री अमित शाह से मिले तो आंतरिक सुरक्षा के साथ पंजाब की राजनीति पर चर्चा हुई। कैप्टन अमरिंदर ने कहा भी अगर भाजपा कृषि कानूनों को वापस कर लेती है तो उनके साथ गठबंधन हो सकता है। कैप्टन के अनुसार कृषि कानूनों के पहले भाजपा को लेकर पंजाब में कोई समस्या नहीं थी। भाजपा अकाली गठबंधन इन्हीं कानूनों पर टूट चुका था और प्रधानमंत्री ने स्वयं अकाली दल की जिस ढंग से तीखी आलोचना की, उस पर वार किया उसके बाद पंजाब के अंदर भाजपा के लोगों को लगा कि अब पार्टी स्वतंत्र रूप से खड़ी हो सकती है। पंजाब के अंदर से भाजपा के नेताओं - कार्यकर्ताओं की यह शिकायत लंबे समय से थी कि अकाली उनको काम करने नहीं देते और यह गठबंधन पार्टी के लिए हमेशा नुकसानदायक रहा है। यहां तक कि नवजोत सिंह सिद्धू के भाजपा छोड़ने के पीछे एक बड़ा कारण अकाली से नाराजगी थी । पार्टी ने राज्य से फीडबैक लिया और यह निर्णय का एक कारण है। 

 अमरिंदर की नई पार्टी लोक कांग्रेस और भाजपा के बीच गठबंधन हो सकता है और अकाली दल के साथ आने को भी खारिज नहीं किया जा सकता। इससे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों के लिए चुनौती खड़ी होगी। यद्यपि कैप्टन की पार्टी नयी है लेकिन उनका जनाधार कई क्षेत्रों में व्यापक है। आने वाले समय में इसके बाद उनके समर्थन में कांग्रेस के काफी नेता आ सकते हैं। कांग्रेस में इतनी अंदरूनी कलह है कि उसकी सत्ता में वापसी को लेकर कोई नेता आश्वस्त नहीं है। यहां से पंजाब में  नई राजनीति की शुरुआत हो सकती है। कांग्रेस के नेता चाहे इस पर जो भी बयान दें उनके लिए खतरा पैदा हो गया है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की क्षति को तो भाजपा ने रोका ही है हरियाणा का भी राजनीतिक वायुमंडल बदल लिया है। भाजपा की नजर 2024 के चुनाव पर भी है। कई बार माहौल विरोधियों को सरकार के विरुद्ध आक्रामक होने और व्यापक रूप से घेरेबंदी का आधार दे देता है । कृषि कानून पिछले चुनाव में बड़ा मुद्दा नहीं था। बावजूद इस आधार पर भाजपा विरोधियों ने पश्चिम बंगाल में उसके तथा विरुद्ध तृणमूल कांग्रेस के लिए प्रचार किया ।ऐसे कई समूह जुट जाएं तो कई स्थानों पर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते थे। यह राज्यों के चुनाव पर भी लागू होता है और लोकसभा पर भी। 

देखा जाए तो संपूर्ण विपक्ष, जिसमें राजनीतिक और गैरराजनीतिक दोनों शामिल है , सरकार को घेरने की बड़ी आधार भूमि कृषि कानूनों को बना चुका था।  अचानक यह छीन जाने से आगामी चुनाव के लिए सरकार विरोधी आक्रामक रणनीति बनाने के लिए सभी को नए सिरे से विचार करना पड़ेगा। जो नेता इस आंदोलन के कारण स्वयं को हीरो मान रहे थे उनके सामने भी कोई चारा नहीं होगा । राकेश टिकैत ने अवश्य कहा और संयुक्त किसान मोर्चा ने निर्णय किया कि संसद  में कानून निरस्तीकरण की प्रतीक्षा करेंगे  किंतु है समर्थन में ऐसा वर्ग भी  जो इस सीमा तक आंदोलन को खींचने के पक्ष में नहीं है।  अगर संयुक्त किसान मोर्चा आगे न्यूनतम गारंटी कानून एवं अन्य मांगों को लेकर आंदोलन को खींचने की कोशिश करते हैं तो उनका समर्थन कम होगा। प्रधानमंत्री ने समर्थन मूल्य के लिए समिति की भी घोषणा कर दी। इसके साथ अपील भी की है कि अब धरना दे रहे किसान घरों और खेतों को वापस चले जाएं । जाहिर है, इसको भी समर्थन मिलेगा और जो जिद परआएंगे उनका आधार कमजोर होगा।इस तरह राजनीति के स्तर पर यह कदम तत्काल भाजपा के लिए लाभदायक एवं  राजनीतिक - गैर राजनीतिक विपक्ष के लिए धक्का साबित होता दिख रहा है। विपक्ष की प्रतिक्रियाओं  में दम नहीं दिखता। सरकार ने कदम क्यों वापस लिया, पहले क्यो नहीं किया जैसै प्रश्न चुनाव में ज्यादा मायने नहीं रखते।

 किंतु इस मामले को राजनीति से बाहर निकल कर देखने की आवश्यकता है। केंद्र के पास पुख्ता रिपोर्ट है और कैप्टन अमरिंदर ने गृहमंत्री  से मुलाकात में इसको विस्तार से समझाया कि कैसे खालिस्तानी तत्व इस आंदोलन के माध्यम से सक्रिय होकर काम कर रहे हैं। पाकिस्तान उनको समर्थन दे रहा है ।  इस बीच इन तत्वों की सक्रियता विदेश के साथ देश में भी दिखी है। निर्णय के पीछे यह एक बड़ा कारण है।लोकतंत्र का आदर्श सिद्धांत कहता है कि कदम चाहे जितना उचित हो अगर उसका विरोध सीमित ही सही हो रहा है ,देश का वातावरण उससे प्रभावित होता है तो उसे वापस लेना चाहिए और भविष्य में वातावरण बनाकर फिर सामने आयें। इसे  आप रणनीति भी कह सकते हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतिपालन। हालांकि इससे उन लोगों को धक्का लगा है जो कानूनों को आवश्यक मानकर समर्थन में मुखर थे। सरकार को उन्हें भी समझाने में समय लगेगा।  निर्णयों में  हमेशा दूसरा पक्ष होता है।सरकार दूसरे पक्ष को नजरअंदाज नहीं कर सकती। मोदी ने अपने संबोधन में कहा भी कि वे देश से माफी मांगते हैं क्योंकि वे कुछ किसानों को कानून की अच्छाइयां समझा नहीं सके। वैसे सच यही है कि आंदोलन में ऐसे तत्व हावी हो गए थे जो जानते हुए भी समझने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उनका एजेंडा बिल्कुल अलग था। उन्हें कृषि कानूनों से ज्यादा मोदी सरकार के विरुध्द वातावरण बनाने में रुचि थी थी और है ।  ये चाहते हैं कि सरकार को बल प्रयोग करना पड़े, कुछ हिंसा, अशांति हो और उन्हें सरकार विरोधी देशव्यापी माहौल बनाने में सहायता मिले। मोदी ने इस संभावना और इससे उत्पन्न होने वाले संभावित खतरे को  खत्म करने की कोशिश की है। सरकार की जिम्मेवारी  ऐसे तत्वों से देश को बचाना भी है। हालांकि सरकार ने कोशिश की होती तो आंदोलन खत्म हो चुका होता, तंबू उखड़ चुके होते। पता नहीं किस सोच के तहत एक छोटे से फोड़े को नासूर बनने दिया गया और  जिन कृषि कानूनों  की मांग वर्तमान विपक्ष के अनेक दल स्वयं करते रहे हैं ,उन्होंने स्वयं इसकी पहल की उसे वापस लेने का दुखद कदम उठाना पड़ा है। यह उन लोगों के लिए भी सबक है जो समस्याओं के निपटारे के लिए साहसी कदमों के समर्थक हैं। ऐसे लोग  इस लंबे धरने के विरुद्ध सड़कों पर उतरते तो सरकार के सामने कृषि कानूनों को बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।  ऐसे लोगों को भविष्य की तैयारी करनी चाहिए ताकि उनकी दृष्टि में अच्छा कोई कदम वापस लेने की नौबत नहीं आए।

 अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव कंपलेक्स, दिल्ली 110092 मोबाइल 98110 27 208



गुरुवार, 18 नवंबर 2021

इस हिंसा को गंभीरता से लेना जरूरी

अवधेश कुमार

महाराष्ट्र के कई शहरों की डरावनी हिंसा ने फिर देश का ध्यान भारत में बढ़ रहे कट्टरपंथी तंजीमों की ओर खींचा है। 12 नवंबर को मुस्लिम समुदाय के अलग-अलग संगठनों द्वारा आयोजित जुलूस, धरने व रैलियों से कुछ समय के लिए हिंसा का जैसा कोहराम मचा सामान्यतः उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। देशभर में अलग-अलग संगठन समय-समय पर अपनी मांगों के समर्थन में या किसी घटना पर धरना, प्रदर्शन, रैली, जुलूस आदि के रूप में विरोध जताते हैं। अपने मुद्दों पर प्रशासन की अनुमति तथा उनके द्वारा निर्धारित मार्ग एवं समय सीमा में किसी को भी धरना प्रदर्शन करने का अधिकार है।  अगर प्रदर्शन लक्षित हिंसा करने लगे और उसके पीछे कोई तात्कालिक उकसाने वाली घटना नहीं हो तो मानना चाहिए कि निश्चय ही सुनियोजित साजिश के तहत सब कुछ हो रहा है। महाराष्ट्र में वैसे तो अनेक जगह मुस्लिम संस्थाओं व संगठनों के आह्वान पर विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए लेकिन अमरावती, नांदेड़, मालेगांव, भिवंडी जैसे शहर हिंसा के सबसे ज्यादा शिकार हुए। अमरावती में कर्फ्यू तक लगाना पड़ा।

 हिंसा की थोड़ी भी गहराई से विश्लेषण करेंगे तो साफ दिख जाएगा की वह अचानक या अनियोजित नहीं था । उदाहरण के लिए अमरावती में पुराने कॉटन मार्केट चौक में पूर्व मंत्री जगदीश गुप्ता के किराना प्रतिष्ठान पर पत्थरों से हमला हुआ। हमलावरों को मालूम था कि यह किसका प्रतिष्ठान है। पुराने वसंत टॉकीज इलाके मे जिन प्रतिष्ठानों व दुकानों पर हमले हुए वे सब हिंदुओं के थे। पूर्व मंत्री व विधायक प्रवीण पोटे के कैंप कार्यालय पर पथराव किया गया। मालेगांव में जुलूस के रौद्र रूप ने गैर मुस्लिमों को अपने घर में बंद हो जाने या फिर दुकानें बंद करने के लिए मजबूर कर दिया । जहां भी हिंदुओं से जुड़े संस्थान, दुकानें खुली मिली वही भीड़ का पथराव हुआ। पूरा माहौल भयभीत करने वाला बना दिया गया था। रैपिड एक्शन फोर्स पर हमला किया गया। हालांकि महाराष्ट्र के गृह मंत्री और पुलिस महानिदेशक स्थिति को इतना गंभीर नहीं मान रहे हैं तो यह सब पुलिस के रिकॉर्ड में आएगा नहीं। किंतु जो लोगों ने  आंखों से देखा, भुगता उन सबको भुलाना कठिन होगा। 

यह सवाल भी उठेगा कि किस आधार पर इस तरह के बंद एवं विरोध प्रदर्शनों की अनुमति मिली? कहा गया कि त्रिपुरा हिंसा का विरोध करना था। पिछले कुछ समय से देश में तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं पत्रकारों के एक समूह ने सोशल मीडिया पर त्रिपुरा में मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा की जो खबरें और वीडियो वायरल कराए वो पूरी तरह झूठी थी। बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान दुर्गा पंडालों, हिंदू स्थलों तथा हिंदुओं पर हमले के विरोध में त्रिपुरा में शांतिपूर्ण जुलूस निकाला गया था।  हल्के फुल्के तनाव हुए लेकिन कुल मिलाकर आयोजन शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो गया। अफवाह फैलाई गई कि जुलूस ने मुसलमानों पर और मस्जिदों पर हमले कर दिए। न कोई घायल हुआ न कहीं किसी मस्जिद को कोई क्षति पहुंची। उच्च न्यायालय ने खबर का संज्ञान लिया। वहां  त्रिपुरा के एडवोकेट जनरल सिद्धार्थ शंकर डे ने दायर शपथ-पत्र में कहा कि बांग्लादेश में दुर्गा पूजा पंडालों और मंदिरों में हुई तोड़फोड़ के खिलाफ विश्व हिंदू परिषद ने 26 अक्तूबर को रैली निकाली थी। इसमें दोनों समुदायों के बीच कुछ झड़पें हुई थीं। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाए। तीन दुकानों को जलाने, तीन घरों और एक मस्जिद को क्षतिग्रस्त करने का आरोप लगा। शपथ पत्र में भी केवल आरोप की बात है। पुलिस की जांच में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। आयोजकों ने भी अपने जुलूस पर हमले करने का आरोप लगाया।

जरा सोचिए जहां कुछ बड़ी घटना  हुई ही नहीं वहां के बारे में इतना बड़ा दुष्प्रचार करने वाले कौन हो सकते हैं और उनका उद्देश्य क्या होगा? त्रिपुरा में जांच के लिए एक दल पहुंच गया जिसमें पत्रकार तथा कथित मानवाधिकारवादी व वकील शामिल थे। इनका तंत्र देशव्यापी नहीं विश्वव्यापी है। पुराने वीडियो डालकर सोशल मीडिया तथा मुख्यधारा की मीडिया के माध्यम से दुष्प्रचार होता रहा। असामाजिक तत्वों ने इसका लाभ उठाकर पूरे देश में मुस्लिम समुदाय को भड़काया है। त्रिपुरा पुलिस ने जांच करने के बाद ट्विटर से ऐसे 100 लोगों का अकाउंट बंद करने तथा इनकी पूरी जानकारी की मांग की। कुछ लोगों पर जब कठोर धाराओं में मुकदमा दायर हुआ तो बचाव के लिए उच्चतम न्यायालय तक पहुंच गए। कहने का तात्पर्य कि महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसको केवल वही की घटना मत मानिए । पता नहीं देश में कहां-कहां ऐसे ही उपद्रव की प्रकट परोक्ष तैयारियां चल रही होंगी। महाराष्ट्र में विरोध प्रदर्शन व बंद का आह्वान वैसे तो रेजा अकादमी ने किया था किंतु अलग-अलग जगहों पर कुछ दूसरे संगठन भी शामिल थे । मालेगांव में बंद का आह्वान सुन्नी जमातुल उलमा, रेजा अकादमी और अन्य संगठनों ने किया था।  भिवंडी में भी रजा अकादमी ने बंद का आह्वान किया था लेकिन बंद को एमआईएम, कांग्रेस, एनसीपी और सपा का समर्थन था। तो जो कुछ भी हुआ उसके लिए इन सारे संगठनों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। हालांकि इसके विरोध में सड़कों पर उतरने वाला चाहे भाजपा के हो या अन्य संगठनों के लोग,उन्हें भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहिए था। अमरावती में उन्होंने हिंसा की और पुलिस को इनके विरुद्ध कार्रवाई का अवसर मिल गया। आप देख सकते हैं कि इनकी हिंसा, तोड़फोड़ और आगजनी के वीडियो प्रचुर मात्रा में चारों और प्रसारित हो रहा है वैसे ही महाराष्ट्र में मुस्लिम समूहों के द्वारा की गई हिंसा के वीडियो इतनी मात्रा में नहीं मिलेंगे। इसलिए विरोध करने वालों को भी अपने ऊपर नियंत्रण रखने की आवश्यकता है। महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तत्परता से इनको नियंत्रित किया वैसा ही वह 12 नवंबर को करती तो स्थिति बिगड़ती नहीं।

यहां यह प्रश्न भी उठता है कि किसी देश में हिंदुओं, सिखों आदि के विरुद्ध हिंसा हो तो  भारत के लोगों को उसके विरोध में प्रदर्शन करने का अधिकार है या नहीं? यह मानवाधिकार की परिधि में आता है या नहीं? त्रिपुरा की सीमा बांग्लादेश से लगती है और वहां आक्रोश स्वाभाविक था जिसे लोगों ने प्रकट किया। अगर किसी ने कानून हाथ में लिया तो पुलिस का दायित्व है उनको संभालना। जिन लोगों के लिए त्रिपुरा फासीवादी घटना बन गई उनके लिए बांग्लादेश में हिंदुओं के विरुद्ध हिंसा मामला बना ही नहीं। बांग्लादेश की हिंसा का भी एक सच जानना आवश्यक है। बांग्लादेश की मीडिया में यह समाचार आ चुका है कि दुर्गा पूजा पंडाल तक पवित्र कुरान शरीफ इकबाल हुसैन ले गया। इकराम हुसैन ने 999 फोन नंबर पर पुलिस को सूचित किया तथा फयाज अहमद ने उसे फेसबुक पर डाला। इन तीनों का संबंध किसी न किसी रूप में जमात-ए-इस्लामी या अन्य कट्टरपंथी संगठनों सामने आया है। वहां आरंभ में पुलिस ने पारितोष राय नामक एक किशोर को गिरफ्तार किया था। इससे क्या यह साबित नहीं होता कि कट्टरपंथी मुस्लिम समूह किस मानसिकता से काम कर रहे हैं? इसलिए महाराष्ट्र की घटना को उसके व्यापक परिपेक्ष्य में पूरी गंभीरता से लेना चाहिए। जिन्होंने हिंसा की केवल वे ही नहीं जिन लोगों ने देशव्यापी झूठ प्रचार कर लोगों को भड़काया उन सबको कानून के कटघरे में खड़ा किया जाना जरूरी है।

 अवधेश कुमार, ई 30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स,  दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208

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