बुधवार, 26 जुलाई 2023

मणिपुर की स्तब्ध करने वाली तस्वीरों को कैसे देखें

अवधेश कुमार

मणिपुर से महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने, उन्हें अपमानित करने के वीडियो ने संपूर्ण देश को स्तब्ध किया है।  हिंसा किसी प्रकार की हो , महिलाओं और बच्चों को ज्यादा त्रासदी झेलनी पड़ती है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि वीडियो में जो लोग भी जघन्य अपराध करते दिख रहे हैं उनको उपयुक्त सजा मिलेगी। बावजूद इस घटना की चर्चा करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मणिपुर में कई तरह की हिंसा जारी थी।  मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह का यह वक्तव्य वायरल है कि आपको एक घटना की चिंता है न जाने कितनी घटनाएं ऐसी हुई है। यही सच है।  यह घटना कूकी महिलाओं से संबंधित है। हमें पता है कि मैतेयी समुदाय की कितनी महिलाओं के साथ क्या-क्या हुआ होगा? जितनी संख्या में घर बार छोड़कर लोगों को विस्थापित होना पड़ा उसमें यह कल्पना आसानी से की जा सकती है अनेक महिलाओं के साथ भयानक दुर्व्यवहार हुए होंगे। जब तक हिंसा के पीछे के सच को और जिस तरह वो घटी उस तरह नहीं देखा जाएगा तो इसका निदान ढूंढना मुश्किल होगा। यह वीडियो मैतेई और कुकी समुदायों के बीच झड़प के एक दिन बाद यानी 4 मई की है ।  विचार करने की बात है कि यह वीडियो अब क्यों जारी हुआ?

इंडिजेनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने स्वयं द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन और संसद सत्र आरंभ होने के एक दिन पूर्व वीडियो जारी किया। जाहिर है, समय का ध्यान रख यह वीडियो जारी हुआ। इससे देश और दुनिया भर में यह संदेश देने की कोशिश हुई कि मैतेयी हिन्दू उत्पीड़क हैं और‌ पीड़ित समुदाय केवल कूकी हैं, जिनमें ज्यादातर ईसाई हैं। यह सच नहीं है कि पुलिस ने पहले इसका संज्ञान नहीं लिया था। 

4 मई को घटना हुई थी और मामले में 18 मई को कांगपोकपी जिले में जीरो एफआईआर दर्ज कराई गई थी। इसके बाद मामला संबंधित पुलिस स्टेशन को भेज दिया गया। जब भी कहीं जातीय, नस्ली, सांप्रदायिक अलगाववादी हिंसा होती है तो सुरक्षाबलों व प्रशासन की पहली भूमिका उसे शांत करने की रहती है। आप इंडीजीनस ट्राईबल फोरम के विरोध प्रदर्शन को देखिए तो सभी काला ड्रेस पहने हुए हैं। इतनी संख्या में काला ड्रेस मुफ्त नहीं मिल सकता। साफ है कि विरोध के पीछे ऐसी शक्तियां हैं जो कुछ अलग उद्देश्य पाना चाहती हैं। वस्तुतः मणिपुर की हिंसा का यह ऐसा पहलू है जिसको समझने की कोशिश करनी होगी।  

अभी तक के आंकड़ों के अनुसार मणिपुर में कुल 6000 हिंसा की घटनाएं हुईं ,5000 से ज्यादा प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है, 6700 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हैं ,70 हजार के आसपास विस्थापित हैं, 10 हजार ने मणिपुर छोड़ दिया तथा 160 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। अनेक मारे गए लोगों के शव मोर्चुअरी में पड़े हैं जिन्हें ले जाने वाला कोई नहीं।  उन हालातों में न जाने कितने भयावह और जघन्य अपराध हुए होंगे इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। उसमें एक वीडियो समय का ध्यान रखते हुए जारी करने का उद्देश्य क्या हो सकता है?  आने वाले समय में ऐसी और घटनाओं के भी विवरण आएंगे जो हमें आपको बार-बार अंदर से हिला सकते हैं। 4 जून को ही भीड़ ने एक एंबुलेंस को रास्ते में रोक उसमें आग लगा दी। एंबुलेंस में सवार 8 साल के बच्चे, उसकी मां और एक अन्य रिश्तेदार की मौत हो गई। मृतका मां मैतेई समुदाय से आती थीं और उनकी शादी एक कुकी से हुई थी। इस तरह की हिंसा को किस श्रेणी में रखेंगे?

वीडियो जारी करने वाले विश्व भर को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि मैतेयी हिंदुओं ने कूकी ईसाइयों के साथ इसी तरह की बर्बरता की। साफ है कि वह केंद्र एवं प्रदेश दोनों सरकारों को विश्व भर में अल्पसंख्यकों का खलनायक तो साबित कर ही रहे हैं ऐसी स्थिति पैदा करना चाहते हैं ताकि वहां हिंसा कायम रहे और वे अपना लक्ष्य पा सके।

इस संघर्ष को हिंदू बनाम ईसाई संघर्ष कहना गलत होगा। ईसाई संघर्ष होता तो इसमें नगा भी शामिल होते। हां, अलगाववाद और हिंसा के पीछे चर्च अवश्य मुख्य प्रेरक कारक है। पूर्वोत्तर में अलगाववाद एवं हिंसक आंदोलनों के पीछे चर्च की महत्वपूर्ण भूमिका रही है और आज भी है। मणिपुर में कूकियों का एक बड़ा समूह म्यान्मार से आया।   इन्हें चिन कूकी कहा जाता है। इनके अनेक हथियारबंद समूह खड़े हैं। इनका लक्ष्य बांग्लादेश, म्यानमार और मणिपुर के हिस्से को मिलाकर एक स्वतंत्र देश बनाना है।  मैतेयी मणिपुर तक सीमित है लेकिन कुकी पूरे पूर्वोत्तर में फैले हैं जिनमें गैर ईसाई अब बहुत कम होंगे।  

2008 में लगभग सभी कुकी विद्रोही संगठनों के साथ केंद्र सरकार ने सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन या एसओएस समझौता किया जिसका उद्देश्य इनके विरुद्ध सैन्य कार्रवाई रोकना था। कई संगठनों ने वादा नहीं निभाया। अंततः इस वर्ष 10 मार्च को मणिपुर सरकार ने दो संगठनों के साथ समझौता रद्द कर दिया। ये संगठन हैं जोमी रेवुलुशनरी आर्मी यानी जेडआरए और कुकी नेशनल आर्मी यानी केएनए।  बीरेन सिंह सरकार ने इनके विरुद्ध कार्रवाई शुरू की। एरियल सर्वे कराकर अफीम की खेती को नष्ट करना आरंभ हुआ। मादक औषधियों के व्यापार के लिए कुख्यात म्यानमार, थाईलैंड, बैंकॉक का गोल्डन ट्रायंगल इससे जुड़ा है। 

दूसरे, जंगलों की भूमि पर इनके अवैध कब्जे को भी मुक्त कराने का अभियान चला।  मणिपुर का लगभग 90 प्रतिशत क्षेत्र पहाड़ी तथा 10 प्रतिशत मैदानी हैं। मैतेयी मणिपुर की लगभग 53 -54 प्रतिशत आबादी है, जो हिंदू हैं,लेकिन 10प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों यानी इंफाल घाटी में रहते हैं। पहाड़ी इलाकों के 33 मान्य जनजातियों में मुख्यतः नंगा और कुकी हैं जिनमें ज्यादातर का ईसाई धर्म में धर्मांतरण हो चुका है।  मैतेयी समुदाय 1949 तक आदिवासी माना जाता था।‌ इन्हें सामान्य जाति बना दिया गया। ये सारी सुविधाओं और विशेष अधिकारों से वंचित हो गए। दूसरी ओर पहाड़ी जनजातियों को संविधान से विशेषाधिकार मिले हैं।  भूमि सुधार कानून के अनुसार कुकी और नगा तथा अन्य जनजातियां मैदानी क्षेत्र में जमीन खरीद सकते हैं लेकिन मैतेयी पहाड़ी क्षेत्र में नहीं खरीद सकते। 

कूकी और नगा धीरे-धीरे मैदानी इलाकों की जमीन खरीद कर इसमें बस रहे हैं ,चर्चों की संख्या बढ़ रही है। परिस्थितियों में मैतेयी समुदाय के भी कुछ लोग ईसाई धर्म कर ग्रहण कर चर्च में जाने लगे हैं। इससे वहां सामाजिक तनाव बढ़ता गया है। वैसे मणिपुर में कूकियों के साथ अन्याय का आरोप लगाने वाले नहीं बताते कि राजनीति में अवश्य मैतेयी समुदाय का वर्चस्व है लेकिन पुलिस और प्रशासन मुख्यतः कूकियों के हाथ में है। घटना के दौरान पुलिस महानिदेशक एवं पुलिस उप महानिदेशक दोनों कूकी थे। प्रदेश में 21भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी कूकी हैं। सरकार द्वारा संरक्षित जंगलों और वन अभयारण्य में गैरकानूनी कब्जा करके अफीम की खेती करने के विरुद्ध अभियान जैसे-जैसे बढ़ा  अलगाववादी समूहों ने कूकियों को भड़काया कि भाजपा केवल हिंदुओं के हितों के लिए काम कर रही है और  तुम्हारी पुश्तैनी जमीन से तुम्हें हटा रहे है। 3 मई को कूकियों की रैली थी और इसी दौरान कांगपोकपी नाम की जगह पर पुलिस से उनका टकराव हुआ। महिलाओं को नग्न कर भीड़ द्वारा उत्पीड़न करने का वीडियो  वहीं के पास का है।  टकराव में पांच प्रदर्शनकारियों के साथ पांच पुलिसवाले भी घायल हुए थे। कल्पना की जा सकती थी कि वहां क्या स्थिति रही होगी।

  बंद और विरोध प्रदर्शन चुराचंदपुर में हुआ जहां मुख्यतः कूकी और नागा आबादी है लेकिन हिंसा की घटनाएं इंफाल घाटी में हुई।  27-28 अप्रैल तक हिंसा कूकी और पुलिस के बीच थी। इसके बाद यह मैतेयी और कूकी टकराव में बदला। 3 मई को  ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ने यह आरोप लगाते हुए एकता मार्च' निकाला कि सरकार मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने जा रही है। उसके साथ हिंसा शुरू हो गई। महिलाओं का वीडियो ठीक इसके अगले दिन का है। वीडियो पर प्रतिक्रिया देते हुए यह अवश्य ध्यान रखिए कि कूकी महिलाएं संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर रखी जाती हैं। इंडियन आर्मी गो बैक की तख्तियां लेकर आंदोलन के अग्रिम पंक्तियों में चलती महिलाओं की तस्वीरें वहां आम हैं।

ऐसे मामलों में कानून निष्पक्षता से कार्रवाई करें यह हम सब चाहेंगे। किंतु जितनी बड़ी खाई हो गई है उसको पाटने के लिए कई स्तरों पर लंबे समय तक काम करने की आवश्यकता है।  ऐसे संवेदनशील मामले में अत्यंत सधे हुए तरीके से प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने एवं कदम उठाने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति क्षण भर के लिए भी ठहर कर इस दिशा में सोचने को तैयार नहीं है।

अवधेश कुमार, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -1100 92, मोबाइल -99110 27208

सोमवार, 24 जुलाई 2023

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता

डॉ. मीना शर्मा
व्यक्ति का व्यक्त रूप अभिव्यक्ति है। व्यक्त रूप लिखित और मौखिक होता है। यानी व्यक्ति खुद को लिखकर और बोलकर अभिव्यक्त करता है। और इसी अभिव्यक्ति द्वारा हम सामने वाले व्यक्ति को जान सकते हैं कि वह कैसा है। जानने के लिए अभिव्यक्ति चाहिए और इस अभिव्यक्ति के लिए आजादी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का सीधा मतलब है-लिखने की आजादी और बोलने की आजादी। समस्या तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति के लिखने और बोलने पर प्रतिबन्ध कोई रोक, सत्ता का भय अथवा सेंसर या अन्य किसी प्रकार की कोई बाधा, रुकावट खड़ी कर दी जाती है। और समस्या क्यों उत्पन्न होती है? इसलिए कि जब व्यक्ति लिखता है और बोलता है तब वह यह अभिव्यक्त करता है कि यह सही है, वो गलत है; यह धर्म है, वो अधर्म है; यह हित है, वो अहित है; यह न्याय है, वो अन्याय है; यह नीति है, वो अनीति है; यह राजधर्म है, वो राजअधर्म, अभी दिन है, रात नहीं वगैरह-वगैरह। वह दिन को रात नहीं कहता, गलत को सही नहीं कहता, वो अन्याय को न्याय नहीं कहता, अधर्म को धर्म नहीं कहता, जो रामधर्म के विरुद्ध है, उसे राजधर्म नहीं कहता, जनता के अहित को जनता का हित नहीं कहता वगैरह-वगैरह। यानी वह सामने वाले के सुर मिलाकर अपना एक अलग सुर ही अलापता है। सामने वाले कोई भी हो सकता है- सामने वाला कोई व्यक्ति, साज, समूह, संस्था, राष्ट्र सत्ता, प्रतिष्ठान, सुर न संस्थान या अन्य कोई ताकतवर वर्ग हो सकता है कि अपना सुर का आधार व्यक्तिनिष्ठ हो जैसा आपको लगता है, जिसमें आपका कोई व्यक्तिगत हित और व्यक्तिगत सरोकार जुड़ा हुआ है या फिर आपके सुर का आधार वस्तुनिष्ठ हो जैसा सभी को लगता है और जिसमें सार्वजनिक हित और सामाजिक सरोकार जुड़ा हुआ हो। हो सकता है कि जैसा आपको लगता है, वैसा सभी को लगता हो और सब की तरफ से आपने बात रख दी या फिर जैसा सभी को लगता है, उससे अलग आपकी राय हो। सुर का आधार जो भी हो व्यक्तिगत अथवा सामाजिक, सुर का सरोकार जो भी हो व्यक्तिगत सरोकार अथवा सामाजिक सरोकार, दोनों ही स्थितियों में आपका सुर ज्योंहि सामने वाला प्रभुत्व वर्ग (सत्ता वर्ग) के सुर से अलग हुआ, विसादृश्यता या टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। प्रभुत्व वर्ग को लगता है कि सुर अलग तो आप अलग, आप अलग तो आप साथ नहीं, आप साथ नहीं तो आप विरोध में है। आप विरोध में हैं तो आप खतरनाक हैं। आप खतरनाक हैं तो आप नुकसान / हानि पहुँचा सकते हैं। अतएव वह शक्ति अथवा सत्ता प्रतिष्ठान या प्रभुत्व वर्ग आपके लिखने और बोलने की आजादी को स्वयं अथवा उसकी व्यवस्था के लिए खतरा जानकर आपकी अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध, अंकुश, नियन्त्रण, सत्ता का सेंसर लगाकर अथवा अन्य कोई बाधा, रुकावट पैदा करने, दण्ड देने मैनेज करने डील की युक्ति और रणनीति लगाएगा। समस्या और संकट यही से पैदा होता है।
मानव जाति और समस्या के विकास के इतिहास की यह विचित्र विडम्बना रही है कि ईश्वर ने तो मनुष्य को स्वतन्त्र पैदा किया है, स्वतन्त्रता ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है, किन्तु हर युग में सत्ता और शासन अलग-अलग व्यवस्थाएँ बनाकर मनुष्य को कैद किया है या कैद करना चाहा है। चाहे वह व्यवस्था धर्म की व्यवस्था बनाकर हो, चाहे वह व्यवस्था राजनीति की व्यवस्था आर्थिक उत्पादन प्रणाली के आधार पर आर्थिक सम्बन्ध व्यवस्था बनाकर हो, चाहे वह व्यवस्था रंग-जाति-लिंग- नस्ल वर्ण आदि के आधार पर कोई भी व्यवस्था हो उसे तो हर तरफ उसे कैद की बेड़ियों में जकड़ दिया गया था। मानव जाति का इतिहास इसी पराधीनता के खिलाफ संघर्ष का इतिहास रहा है। यानी मानव जाति का इतिहास स्वतन्त्रता संघर्ष का इतिहास रहा है। इतिहास साक्षी रहा है कि जिसने भी लीक से हटकर, भीड़ से हटकर, स्थापित मान्यताओं, विधानों के खिलाफ जाकर अस्तित्व की खोज में प्रश्न उठाया है, असुविधाजनक सवाल खड़े किए हैं उन्हें तमाम यातनाएँ कैद और मौत का सामना करना पड़ा है। चाहे वह सामन्ती युग में किसी दार्शनिक की अभिव्यक्ति हो या विज्ञान युग में किसी वैज्ञानिक की सबसे दण्ड का भागी यानी अभिव्यक्ति की कीमत चुकानी पड़ी है। भारत में तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का लम्बा और मार्मिक इतिहास रहा है। देश में आपातकाल (1975) और आजादी (1947) से पूर्व भी न जाने कितने सम्पादक- पत्रकार देशभक्तों को देश की आजादी की अभिव्यक्ति के लिए भयंकर कष्ट और मौत का सामना करना पड़ा था। 1857 की क्रान्ति के लिए समर्पित पत्र पयाम-ए-आजादी तो जिस देशभक्त के पास से मिल जाती थी, उसे तत्काल ही मौत के घाट उतार दिया जाता। एक लम्बी संघर्ष के बाद 1947 में देश को आजादी मिली, तो क्या अभिव्यक्ति को भी आजादी मिल गयी? साथ ही उन तमाम संघर्षों की प्रकृति क्या थी वैयक्तिक अथवा सामाजिक या मानवीय?
वास्तव में मानव जाति का समस्त संघर्ष और भारत में स्वाधीनता संघर्ष की प्रकृति सामूहिक और मानवीय थी। यह अभिव्यक्ति-संग्राम मानवता एवं राष्ट्र की स्वाधीनता के संग्राम के लिए था। उस संघर्ष में व्यक्तिगत हित और वैयक्तिक सरोकार के स्थान पर सामाजिक, राष्ट्रीय और मानवीय सरोकार था। स्वाधीनतापूर्व का पत्रकारिता कर्म व्यावसायिक हित, व्यक्तिगत हित के लिए न होकर समाज हित और राष्ट्रहित के लिए समर्पित था। समाचार-पत्र के माध्यम से समस्त राष्ट्र बोलता था, पत्रकार माध्यम बना और पत्रकारिता समस्त जनता की आवाज तभी सभी स्वातन्त्र्यप्रेमी समाचार-पत्र सम्पादकों संचालकों ने अपनी गाँठ से पैसे लगाकर, अंग्रेजी शासकों के आर्थिक कृपा के बिना तथा कंजुस पाठकों/अल्प पाठकों के दौर में भी महत् राष्ट्रीय उद्देश्य राष्ट्रहित एवं राष्ट्रोन्नति के लिए अपना खून सुखाकर भी अखबार निकारते रहे। चाहे वह हिन्दी के प्रथम अखबार पत्र सम्पादक पं. युगल किशोर शुक्त हो या पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र हो, पं. बालकृष्ण भट्ट हो, प्रतापनारायण मिश्र हों या ऐसे अनगिनत नाम।
उन्होंने जनता की सेवा समाज की सेवा और राष्ट्र की सेवा पत्रकारिता के माध्यम से निःस्वार्थ त्याग समर्पण भाव से की थी, तभी उनकी पत्रकारिता का मूल्य है। यह संघर्ष भी तब जब उन दिनों पत्रकारिता में खतरे ही खतरे थे। विदेशी सरकार तेजस्वी पत्रों की जमानत की मोटी रकमें जमा करने का हुक्म देकर बन्द करा देती थी। तेजस्वी पत्रकारों के लिए जेल का दरवाजा प्रायः खुला रहता था। इसलिए जिन लोगों में उज्ज्वल देशभक्ति होती, या जिनके हृदय में रूमानियत के लिए कसमसाहट होती वे ही पत्रकारिता के पेशे की ओर बढ़ते ।"
तब पत्रकारिता 'प्रोफेसन' या अर्थसिद्धि नहीं था बल्कि मिशन' या राष्ट्रयज्ञ था, जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। सब कुछ झोंक दिया, जिन्दगी खपा दी। लेकिन 'कण्ठावरोध' की राह, पत्रकारिता का स्पिरिट नहीं छोड़ा। वे स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र और पत्रकारिता का आदर्श नहीं त्यागा। पत्रकारिता उनके लिए सरोकार थी, कारोबार नहीं उनकी अभिलाषा राष्ट्र की अभिलाषा से जुड़ी हुई थी। उनकी कोई व्यक्तिगत स्वार्थ की अभिलाषा न थी, मक्खन रोटी के लिए दिनभर में कई रंग बदलने को वे ठीक नहीं मानते थे सर्वसाधरण उनके लिए कन्सर्न की वस्तु थी प्रयोग या इस्तेमाल की वस्तु नहीं। उन्हें न तो सुविधाओं की चाहत थी और न ही सुविधाओं की लत (आजकल के पत्रकारों की तरह) एवं तब तो सुविधाओं का अम्बार भी नहीं था । और न ही उपभोक्तावाद, बाजारवाद की संस्कृति थी। न टीवी, न रेडियो, न एसी, न कार, न हवाई जहाज, न फोन, न पंचसितारा होटल और न ही सुविधावादी जिन्दगी की संस्कृति थी। कुल मिलाकर 'सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श के साथ पत्रकारिता जन-शिक्षण, जनचेतना की जायति, नयी सामाजिक चेतना का निर्माण, राष्ट्र-निर्माण का जनसंचार माध्यम था । पत्रकारिता कमाने की चीज या मलाई खाने की चीज नहीं था। पत्रकारिता समाज और राष्ट्र को बनाने की चीज थी। यही कारण है कि आजादी पूर्व के अधिकांश स्वाधीनता सेनानी, समाज सुधारक, साहित्यकार ही पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक-संचालक थे और अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचार-प्रसार, समाज-सुधार, जन-जाग्रति, मानवीय चेतना के प्रसार एवं देश की आजादी जैसे मिशन के लिए करते थे। पत्रकारिता का सरोकार सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार था। सरोकार की पत्रकारिता के आदर्श महान थे। उनकी अभिव्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति थी। पत्रकारिता की आवाज जनता की आवाज बन गई थी। पत्रकारिता के माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र बोलता था। पत्रकारिता की वाणी राष्ट्र की वाणी का प्रतीक थे। अतएव 19वीं सदी की पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की प्रकृति रचनात्मक एवं समाज- राष्ट्र के निर्माण के महान उद्देश्यों से निर्मित थी। देश बेशक आजाद न हो लेकिन पत्रकार की चेतना स्वतन्त्र थी, पत्रकार की निष्ठा प्रतिबद्ध थी अतएव एक पत्रकार कलम के स्तर पर आजाद था। उनकी वाणी स्वतन्त्र थी और चेतना आजाद । न कलम बिकाऊ था और न ही पत्रकारिता बाजारू थी। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का तब मायने ही कुछ और था। यही वह कलम और अखबार की ताकत थी जिसने पूरे देश में स्वाधीनता आन्दोलन की लहर पैदा कर दी थी और उसी कलम की ताकत के बूते पर बिना किसी सेना, तोप, हथियार के देश की आजादी हासिल की गई।
स्वातन्त्र्योत्तर भारत में आकर पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा सब बदलने लगा। आजादी का मिशन पूरा होते ही अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब भी बदलने लगा। स्वाधीनता सेनाना, समाजसुधारक, प्रतिबद्ध साहित्यकारों के स्थान पर अब बड़े-बड़े पूँजीपति, धन्ना सेठ आदि पत्रकारिता के क्षेत्र में घुसने लगे। अब पत्रकारिता, पत्रकारिता न होकर पत्रकारिता उद्योग हो गया था। पत्रकार, पत्रकार न होकर एक नौकरी पेशा कर्मचारी हो गया था। अब अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब सरोकार की पत्रकारिता न होकर कारोबार की पत्रकारिता हो गया था। एक प्रोफेशनल युग की शुरुआत होती है, कारोबार की पत्रकारिता का युग आरम्भ होता है। पत्रकारिता के मायने बदल गए। पत्रकारिता के उद्देश्य, चरित्र और राह सब बदल गए थे क्योंकि आजादी के मिशन के बाद आगे क्या? यह सवाल एक शिथिलता, एक रिक्तता, एक ठहराव को जन्म दे रहा था। स्वाधीनता मिलते ही हमारा संघर्ष ठण्डा हो रहा था, जिससे एक गतिरोध, एक खालीपन पैदा हो रही थी। राष्ट्र की ओर से हम निश्चित हो गए। जबकि यह वक्त आजाद भारत के नवनिर्माण, आजादी के सपनों को पूरा करते हुए भारत और भारत की जनता के भविष्य को बेहतर बनाने की थी और उसके लिए अभिव्यक्ति की आजादी में साहस, प्रण, प्रतिबद्धता भरकर शब्दों को परिवर्तन का वाहक बनाने की थी। और यहीं पर हम चूक गए। यह एक ऐतिहासिक भूल थी। पत्रकार और पत्रकारिता लोकतन्त्र और जनता के पहरेदार बनकर शासन को लड़खड़ाने से बच तो, उसे सन्मार्ग दिखाते, अन्तिम आदकी का आँसू पोछने के लिए, एक विपक्ष की भूमिका निभाते क्योंकि तब संसद में प्रतिपक्ष भी नगण्य था और जो था वो भी कमजोर एवं बेअसर। और जब विपक्ष गौण एवं गायब हो, आदर्श न हो तो सक्रियता के स्थान पर शिथिलता तो आएगी ही। एक वैक्यूम तो क्रिकेट होगा ही और वही हुआ। उसी समय पत्रकारिता जगत में पूँजीपति, धन्ना सेठ, बड़े कारोबारी आदि प्रवेश कर उस 'वैक्युम' को अपनी पूँजी के फेवीकोल से भरा वे प्रेस अखबार और सम्पादक के मौलिक बन बैठे और सम्पादक अपने मालिक के इशारे पर चलने वाला एक मुजालिम हो गया। पत्रकारिता पूँजीवादी पत्रकारिता के साथ जुड़कर अपना उद्देश्य और आदर्श भूल बैठी, जिसके लिए उसने वर्षों संघर्ष किया था, पत्रकारिता में उच्च मानदण्ड निर्धारित किया था, जनता की आवाज बना था। अब पत्रकारिता में जब बड़ी पूँजीपति प्रवेश करेगा, पैसा लगायेगा, अखबार को खरीद लेगा तो स्वाभाविक तौर पर वो चाहेगा कि वो चाँदी काटे, माल बनाए और अपने कारोबारी हितों को ऊपर रखकर अपने विचारों को जनता के ऊपर लादे तथा अपने विरोधियों के विचार कॉट-छाँट कर तोड़-मरोड़कर अपने मन मुताबिक रखे। समाज हित तो पीछे रह गया।
अब ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसकी? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का, प्रेस की स्वतन्त्रता का क्या मतलब है? किसकी स्वतन्त्रता और किसका सरोकार ? यहाँ पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। वे भी स्वतन्त्र प्रेस के हिमायती थे किन्तु उनके लिए स्वतन्त्रता इस बात पर निर्भर करती है कि स्वतन्त्रता रूपी गाड़ी को चला कौन रहा है। वे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर विचारते हु कहते थे-
"मैंने कई बार सोचा है कि प्रेस की स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ क्या है? प्रेस क्या है? क्या यह पत्रकार, मालिक या सम्पादक है? किसकी स्वतन्त्रता ? स्पष्टतः प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ जानकारी की स्वतन्त्रता न होकर मालिकों की स्वतन्त्रता हो सकती है, जिसका प्रयोग वे जनहित में न कर अन्य उद्देश्यों के लिए करे।"
सवाल वैध है कि स्वतन्त्रता किसकी? वेतन भोगी पत्रकार सम्पादक की? (जो अपने पूँजीपति मालिक के इशारे पर चलता है), पूँजीपति मालिक की? (जो अपने व्यापारिक हितों की सुरक्षा में लीन रहता है, जिसके लिए कारोबार सर्वोपरि है) और जब वेतनभोगी पत्रकार या सम्पादक कानूनी तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिलने पर भी उसके इस्तेमाल पर बन्दिशों के साये में जीता है, मालिक के अधीन काम करता है, व्यावहारिक- व्यावसायिक स्तर पर संचालन और व्यवस्था की अनेकानेक सीमाओं, बन्धनों में रहकर मालिक की इच्छा अनिच्छा पर नौकरी करता है ऐसे में कृपा संस्कृति पलने वाला व्यक्ति (पत्रकार/सम्पादक) से यह अपेक्षा करना कि स्वतन्त्र होकर वो जो चाहे वह लिख दे। यह बात अब हास्यास्पद है। नौकरी करना है कि नहीं उसे? बीवी-बच्चे पालना है? घर लेना है? गाड़ी लेना है..... लिस्ट लम्बी है, फिलहाल इतना ही काफी है कि वह एक मजबूर व्यक्ति है, जो दुनियाँदारी और अखबार की दुनियाँ में फँसा हुआ है। उसके अपनी जरूरतों और बन्धन के वातावरण के आगे सामाजिक सरोकार या अन्य बड़े सवाल कहाँ ठहरते हैं। अगर मान भी लें कि एक प्रेस में एक पत्रकार ज्वलन्त सामाजिक सरोकार से जुड़ी एक 'स्टोरी' लेकर आया तो सम्पादक ही शायद रोक दे क्योंकि ये फलानां मामला फलाने साहब का है जो अपनेसाहिब (मालिक) के खास है। सम्पादक उसे सलाह देगा कि कुछ और करो, कोई और स्टोरी लिखो। अच्छा सलमान और शाहरुख खान में दोस्ती हुई कि नहीं? अगर दोनों गले मिलते दिखे तो एक अच्छी स्टोरी, फोटोग्राफी (गले मिलने वाला) समेत छाप दो लोग चाव लेकर पढ़ेंगे। अच्छा सर, कहकर पत्रकार निकल लेगा। अगर ताव में आकर विरोधस्वरूप किसी दूसरे प्रेस में नौकरी के लिए गया तो वहाँ भी हालत एवं वातावरण लगभग समान ही उसे मिलेगा तो फिर वो जाए कहाँ? लिखे क्या? कहाँ है आजादी? कानूनी तौर पर तो है।
मान लीजिए कि पत्रकार के स्थान पर यदि यही काम सम्पादक करता तो तमाम दिशा निर्देश और फिक्सड लाइन पर लिखने की शर्तें उसके लिए भी लागू होती है। पत्रकार के लिए यदि सम्पादक चेकपोस्ट है तो सम्पादक के लिए मालिक और मालिक के लिए उसका व्यापारिक हित/उददेश्य और व्यापारिक सरोकार के ऊपर सत्ता- सरकार इस बिन्दु के ऊपर से जुड़ी दो चीजें ही नीचे जाकर लिखने की लाइन तय करती है। सता सरोकार और अखबार का व्यापारिक सरोकार का एक नेक्सस बन जाता है। सरकार और व्यापारिक सरोकार के बीच के गठबन्धन से चलने वाली सत्ता ही अदृश्य रूप में खबरों के सत्य और सत्य के स्वरूप को बनाते और चलाते हैं। पत्रकारिता का यही सत्य आज जितना उफान पर है उतना पहले कभी न था। ज्यों-ज्यों पत्रकारिता कारपोरेट के गिरफ्त और घसती जा रही है त्यों-त्यों पूँजीवादी व्यापारिक सरोकार का एकाधिकार एवं उसका सहयोगी पार्टनर राजनीतिक सत्ता शासक का एकाधिकार अखबारों के ऊपर हावी होता जा रहा है। आप अखबार खोलकर देखिए या तो अखबार विज्ञापनों से पटा होगा अथवा सत्ता में बैठी पार्टी जिसके साथ उसका गठबंधन है, उसी का गठबन्धन धर्म की भक्ति आपको मिल जाएगी। अखबार खोलते ही आपको पता चल जाएगा हम अखबार की पोलिटिक्स क्या है, विचारधारा क्या है। अब तो राजनीतिक पार्टियाँ भी अपना अखबार और टीवी चैनल खोल का बैठ गयी है। इस बाजार के कारोबार में कि 'भैया ई काम तो हमें भी आता है।' अखबार का सम्पादक अपने-अपने मालिकों के लिए पीआरोशिप का काम करने लगा है। कि अपने मालिक को राज्यसभा पहुँचाने का बेचारा सम्पादक दलाल बनता जा रहा है। सवाल है फिर सामाजिक सरोकार और सत्य का क्या होगा, जनता की आवाज का क्या होगा? वह कहाँ जाए, क्या करे?
पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य वास्तव में चिन्तनीय है। कारपोरेट कल्चर एवं पूँजीवादी महाशक्तियों के दबाव में उसकी कमर टूट गई है और गर्दन दबी पड़ी है तथा मुँह में बैल वाली जाबी लगी हुई है। यह केवल खिंची हुई लकीर पर चल रही है। आज पत्रकारिता की आजादी को सर्वाधिक खतरा इन्हीं आर्थिक महाशक्तियों से है, सत्ता के सेंसर से भी ज्यादा पत्रकारिता हो अथवा मीडिया (इलैक्ट्रानिक) इन आर्थिक महाशक्तियों के कैद से आजादी दिलाए बिना कोरे अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है। इन शक्तियों ने सरोकार के साथ-साथ विचार भी कैद कर लिए हैं। सत्य कैद कर लिया है। आजादी की दूसरी लड़ाई पत्रकारिता के क्षेत्र में भी लड़ना होगा। कैसे? इस पर आप भी सोचे, हम भी सोचें और पत्रकार बिरादरी भी सोचे क्योंकि जब तक विरासत में बची-खुची साख एवं विश्वसनीयता है तब तक तो यह धन्धा चलेगा (गन्दा है, पर धन्धा है ये) और जिस दिन यह सब जमा पूँजी जो उनके पूर्वजों (स्वाधीनता सेनानियों, देशभक्त साहित्यकारों आदि) ने कमायी थी और जिसे आजादी के बाद खर्चना शुरू कर दिया था, वो अब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। वैसे भी लोग तभी तक पुराने माध्यम, पुराने विकल्प के साथ जुड़े रहते हैं जब तक कि नया माध्यम, नया विकल्प का दरवाजा नहीं खुल जाता। सोशल मीडिया, न्यू मीडिया के उभारते हुए इलेक्ट्रानिक विकल्पों ने इन्हीं खालीपन और खालीपेट को भरने का भरपेट काम शुरू कर दिया है। लाखों-करोड़ों लोगों का उन नवीन इलैक्ट्रानिक वैश्विक लोकमंच पर आकर अभिव्यक्त करना (क्या कर रहे हैं, वह एक अलग मामला है) सिर्फ सोशल मीडिया की वेबप्रियता, लोकप्रियता का प्रमाण मात्र नहीं है बल्कि वह लोगों की अतृप्ति, जनाकांक्षाओं का खाली पेट, जनता की आवाज का जन-प्रतिनिधित्व अतएव अभिव्यक्ति को आकुल "पैसिव' जनता के विक्षोप के विस्फोट का सूचक भी है। जो न्यूटन के सिद्धान्त के आधार पर ही क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए बराबर किन्तु विपरीत दिशा (सोशल मीडिया) में पैसिव जनता (अखबार का पाठक मुक्त पाठक ही होता है) का ऐक्टिव होकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रगटीकरण है, सक्रिय प्रतिबिम्बन है।
(लेखिका पी.जी.डी.ई.वी.(सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)
संदर्भ
1. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, विशाल भारत, मई 1931
2. समाचार पत्रों का इतिहास, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी
3. समाचार दर्पण, अंक 5
4. हिन्दी पत्रकारिता, डा. कृष्ण बिहारी मिश्र।
5.धर्मवीर धरती का लेख, हिन्दी पत्रकारिता: विविध आयाम।

गुरुवार, 20 जुलाई 2023

इंडिया कितनी बड़ी चुनौती देगा एनडीए को

अवधेश कुमार

विपक्षी दलों की पटना बैठक खत्म होने को बाद राजनीति में अभिरुचि रखने वाले सभी का ध्यान बेंगलुरु बैठक की ओर था।‌ हालांकि तब यह अनुमान नहीं था कि भाजपा भी एनडीए यानी राजग की बैठक उसी दिन आयोजित कर देगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति का अपना तरीका है। विपक्ष की कवायद के परिणामों की प्रतीक्षा करने की जगह उसके समानांतर ऐसे आयोजन कर सीधा सामना किया जाए। पटना बैठक में भाजपा केवल विपक्ष की आलोचना तक सीमित थी और अपनी ओर से क्या करने जा रहे हैं यह बात सामने नहीं रख पाई थी। बेंगलुरु के समानांतर राजधानी दिल्ली की बैठक के पहले और बाद भाजपा के पास दोनों स्तर पर प्रतिउत्तर और प्रत्याक्रमण था। एक ओर विपक्ष की आलोचना तथा दूसरी ओर उनके समानांतर ज्यादा दलों और इन सबके बीच पूर्ण एकजुटता का संदेश। विपक्ष ने 26 दलों का जमावड़ा किया तो भाजपा ने प्रत्युत्तर में 38 दलों को इकट्ठा कर यह संदेश दिया कि अभी भी देश में ज्यादा दल उनके साथ हैं। यह बात ठीक है कि इनमें से अनेक दलों की हैसियत बड़ी नहीं है तथा संसद में उनके प्रतिनिधि भी नहीं। किंतु यही स्थिति दूसरी और भी है।

विपक्ष द्वारा बेंगलुरु से अपने गठजोड़ का इंडिया नाम देना सामान्य तौर पर गले उतरने वाला नहीं था। भाजपा एवं मोदी विरोधियों ने तर्क दिया कि अब भाजपा के पास न इंडिया बोलने के लिए रहेगा और न इसके नाम पर राष्ट्रवाद का भाव उभार पाएंगे। कोई व्यक्ति अपना नाम भारत, इंडिया, हिंदुस्तान या कुछ भी रख सकता है। राजनीतिक दल या दलों का कोई गठजोड़ जिसके स्थाई और स्थिर होने की संभावना नहीं हो सकती वह स्वयं को इंडिया कहे यह सहसा स्वीकार्य नहीं हो सकता। क्या इस नाम पर तालियां पीटने वालों ने सोचा कि लोकसभा चुनाव में यदि गठबंधन हारा तो क्या कहा जाएगा कि इंडिया हार गई या इंडिया पीछे रह गई या एनडीए ने इंडिया को पछाड़ दिया। इसी कारण विपक्ष के अंदर भी कई नेताओं का इसे लेकर मतभेद था। 

वैसे नीतीश कुमार की पार्टी जदयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने बयान दे दिया है कि नाम को लेकर कोई मतभेद नहीं था किंतु जो सूचनाएं हैं नीतीश इस नाम से आरंभ में सहमत नहीं थे। कुछ लोग यह मान रहे थे कि इंडिया में भी एनडीए है। आरंभ में इसका नाम था इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस। बाद में इंडिया के नेशनल डेमोक्रेटिक का ध्यान रखते हुए डी से डेवलपमेंटल कर दिया गया। इसका मतलब यह है कि बैठक के पूर्व गठबंधन के नाम को लेकर सभी के बीच चर्चा नहीं हुई थी। विरोधी सोशल मीडिया पर इंडिया बनाम भारत की लड़ाई बताकर प्रचारित कर रहे हैं। हम इंडिया भारत में नहीं पढ़ना चाहेंगे। निस्संदेह, इंडिया अंग्रेजों का दिया नाम है और यह भारत का पर्याय किसी तरह नहीं हो सकता।‌बावजूद हर पार्टी और सरकार इंडिया शब्द का प्रयोग करती है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंडिया फर्स्ट शब्द प्रयोग करते रहे हैं। यह बात अलग है कि इस तरफ के इंडिया की वह सोच नहीं हो सकती जो अंग्रेजों या वामपंथी एवं लिबरल विचारधारा मानने वालों का होता है। भारत में अभी भी ऐसे लोग हैं जो इंडिया नाम को उपयुक्त मानते हैं तथा राष्ट्र के रूप में अपनी शुरुआत 15 अगस्त, 1947 से ही स्वीकार करते हैं। चूंकी 27 राजनीतिक दलों में ऐसे लोग हैं तथा इनके पीछे सक्रिय रहने वाले बुद्धिजीवी, पत्रकार, एनजीओ, एक्टिविस्ट, बड़ी-बड़ी संस्थाएं, सेफोलॉजिस्ट आदि इस विचारधारा के पोषक हैं। इसका ध्यान रखें तो इंडिया नाम में हैरत का कारण नहीं दिखेगा। बावजूद यह कहना होगा कि इंडिया की जगह कुछ और नाम देना चाहिए था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए का भावार्थ अपने दृष्टि से समझाया पर नाम पुराना ही रहेगा। प्रश्न है कि इन बैठकों से 2024 लोक सभा चुनाव की तस्वीर कैसी नजर आती है ? यह सही है कि 2019 से थोड़ा अलग राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का एक गठबंधन हो गया है, इनकी दो बैठकें हुई और आगे भी बैठकें होते रहने की संभावना है। यही नहीं संयोजक से लेकर समन्वय व संचालन समिति एवं अलग-अलग विषयों के लिए भी समिति के गठन की घोषणा कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बेंगलुरु में की। इन पर आरंभिक टिप्पणी तभी की जाएगी जब समितियों की भूमिका और उनमें शामिल नामों की घोषणा होगी। पर इतने लंबे समय से भाजपा विरोधी मोर्चाबंदी की कवायद तथा दो बड़ी बैठकों के बाद एक संयोजक पर सहमति न बनना क्या बताता है? यहां तक कि समन्वय या संचालन समिति के सदस्यों के नामों का भी एलान संभव नहीं हुआ। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी ,भाजपा तथा संघ के विरोध करने में एकजुटता हो लेकिन न एक दूसरे के प्रति पूर्ण आपसी विश्वास पैदा हुआ न सम्मान भाव और न मिलजुल कर एक रणनीति के साथ चुनाव लड़ने की मानसिकता पैदा हुई। अंतिम प्रेस वार्ता में विपक्षी मोर्चाबंदी के लिए सबसे ज्यादा कोशिश करने वाले नीतीश कुमार का अनुपस्थित होना ही कई प्रश्न खड़ा करता है। उनके साथ लालू प्रसाद यादव एवं सोनिया गांधी तक नहीं थे। हालांकि इनलोगों ने हवाई जहाज के समय की बात कही है। जानते हैं कि ऐसी बैठकों के लिए कर्नाटक में कांग्रेस की हैसियत चार्टर प्लेन से गंतव्य तक पहुंचा देने की है।

दूसरी ओर राजधानी दिल्ली में आयोजित एनडीए की बैठक को देखिए। इस बात पर बहस हो सकती है कि विपक्ष के समानांतर भाजपा को गठबंधन के लिए इस तरह आगे आना चाहिए या नहीं चाहिए। कारण, बहुमतविहीन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारों के दौरान कायम अनिश्चितता और अस्थिरता ,नीतियों को लेकर ठहराव आदि के विरुद्ध लोगों ने केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को बहुमत प्रदान किया। देश कभी नहीं चाहेगा कि यह स्थिति बदले। बावजूद अगर विपक्ष मोर्चाबंदी कर रहा है तो अपने साथ आने वाले संभावित दलों को छोड़कर उनके साथ जाने का अवसर देना वास्तव में विरोधियों को शक्तिशाली बनाना ही होता। इस नाते भाजपा की रणनीति समझ में आती है। तो भाजपा ने अपनी इस रणनीति से अब विपक्षी गठबंधन के विस्तार की संभावनाएं खत्म कर दी है।

दोनों बैठकों की तुलना करिए तो एनडीए में प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सरकार, पार्टी और गठबंधन का पूरा लक्ष्य सामने रखा। इसमें सामाजिक न्याय से लेकर गरीबों की भलाई, महिलाओं के सम्मान और उत्थान आदि पर किए जा रहे कार्यक्रमों एवं भविष्य के सपने की रूपरेखा थी। रक्षा एवं विदेश नीति के स्तर पर स्पष्ट दिशा के साथ यह विश्वास भाव था कि उस पर ठीक काम हुआ है एवं भारत की प्रतिष्ठा दुनिया भर में बढ़ी है। दूसरी ओर विपक्ष में केवल घोषणाएं तथा भाजपा व संघ की आलोचना व सत्ता से हटाने की बात। अगर आप निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि विपक्षी मोर्चाबंदी से नकारात्मक ध्वनि ज्यादा रही जबकि राजग से सकारात्मक। कम से कम नेताओं को देश, विकास, नीतियों आदि के संदर्भ में मोटा - मोटी रूपरेखा रखनी चाहिए थी। 

विपक्ष कहता है कि उसका विरोध व्यक्ति से नहीं विचारों और मुद्दों से है तो उसे अपने विचार और मुद्दे सामने रखने चाहिए। अगर इसके लिए इतना समय लगेगा कि कुछ लोगों की समिति बनेगी और वह इसकी रूपरेखा बनाएंगे तो लोग इसका अर्थ यही लगाएंगे कि आपके पास विजन नहीं है। यानी केवल विरोध के लिए विरोध। किसी गठबंधन का आधार तो मुद्दे और विचारधारा ही होना चाहिए। केवल यह कहना कि लोकतंत्र सेकुलरिज्म बचाने के लिए हम इकट्ठे हो रहे हैं लोगों को आपसे सहमत नहीं करा पाएगा। वैसे नेताओं के इकट्ठे बैठने का अर्थ यह भी नहीं लगाया जा सकता कि राज्यों में सबके बीच सीटों का ऐसा समझौता हो जाएगा जिसमें भाजपा के विरुद्ध हर सीट पर विपक्ष का एक संयुक्त उम्मीदवार होगा। माकपा के सीताराम येचुरी ने तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ लड़ाई जारी रहने की घोषणा कर दी। महाराष्ट्र में पहले ही विपक्षी मोर्चाबंदी के सबसे वरिष्ठ नेता शरद पवार की पार्टी का बहुमत ही उन्हें छोड़कर इंडिया में चला गया। तेलंगाना में सत्तारूढ़ बीआरएस, आंध्र में सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी तथा विपक्षी तेलुगू देशम एवं उड़ीसा में नवीन पटनायक का बीजद दोनों गठजोड़ो से अलग है। बसपा ने अलग राह चलने की घोषणा बैठकों के दूसरे दिन ही कर दी। 

वस्तुतः अपनी -अपनी राजनीति के कारण मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी एकता की बात अवश्य हो, भारतीय राजनीति की ऐसी स्थिति नहीं कि सारा विपक्ष एक होकर सरकार के विरुद्ध खड़ा हो जाए। सबकी अपनी विचारधारा, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तथा अलग-अलग राज्यों में राजनीतिक हित हैं। इस कारण आसानी से किसी एक व्यक्ति को ये अपना नेता मान भी नहीं सकते। कम से कम इतना तो मानना पड़ेगा कि एनडीए के बीच नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर मतभेद नहीं है। दूसरे, अभी तक किसी दल ने भी ऐसी बात नहीं की है जिससे लगे इनके बीच 2024 को लेकर तत्काल किसी बिंदु पर असहमति है। इस दृष्टि से देखें तो कहना होगा एनडीए की शुरुआत विपक्ष से ज्यादा प्रभावी है।

अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -1100 92, मोबाइल -98110 27208



बुधवार, 12 जुलाई 2023

गुरु गोलवलकर के नाम पर झूठ

अवधेश कुमार

इस समय सोशल मीडिया पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का एक ट्वीट वायरल है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम से कुछ पंक्तियां लिखी हुईं हैं। 'मैं सारी जिंदगी अंग्रेजों की गुलामी करने के लिए तैयार हूं लेकिन जो दलित, पिछड़ों और मुसलमानों को बराबरी का अधिकार देती हो ऐसी आजादी मुझे नहीं चाहिए।' इसमें कहा गया है कि गुरु गोलवलकर ने 1940 में यह बात कही थी। इसी तरह एक पंक्ति और है-'जब भी सत्ता हाथ लगे तो सबसे पहले सरकार की धन संपत्ति, राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो-तीन विश्वसनीय धनी लोगों को सौंप दें, 95 प्रतिशत जनता को भिखारी बना दें उसके बाद सात जन्मों तक सत्ता हाथ से नहीं जाएगी।' यह भी कहा गया है कि गुरु गोलवलकर की पुस्तक वी एंड आवर नेशनहुड आईडेंटिफाइड में ये पंक्तियां लिखी हुई है। वैसे उस पुस्तक का नाम वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड है, आईडेंटिफाइड नहीं। 

सार्वजनिक जीवन में किसी संगठन से  या दो संगठनों व व्यक्तियों के बीच वैचारिक मतभेद, असहमति बिलकुल स्वाभाविक है। एक लोकतांत्रिक, खुले और उन्नत समाज का यही लक्षण है। किंतु मतभेद या असहमति तो उसी पर होगी जो वास्तविक रूप में है। जो है ही नहीं उसे किसी व्यक्ति का कथन बताना क्या माना जाना चाहिए? दिग्विजय सिंह बंच ऑफ थॉट की बात करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से दिग्विजय सिंह या किसी का भी मतभेद अस्वाभाविक नहीं है। किसी को इस संगठन का विरोध करने का पूरा अधिकार है। किंतु जिन पंक्तियों को उनके नाम से उद्धृत किया गया है वैसा गुरु गोलवलकर ने कभी कहा ही नहीं। बंच ऑफ थॉट या हिंदी में विचार नवनीत गुरु गोलवलकर के सारे भाषणों या वक्तव्यों का संक्षिप्त रूप है। आपको यह  तक आसानी से मिल जाएगा। आप स्वयं उस पुस्तक को पढ़िए और उसमें इन पंक्तियों की तलाश करिए। आपको कहीं नहीं मिलेगा क्योंकि ये गुरु गोलवलकर के विचारों के बिल्कुल विपरीत  हैं।

वी आवर नेशनहुड डिफाइंड पुस्तक की बार-बार चर्चा होती है। वैसे गुरु गोलवलकर ने वह पुस्तक बाद में वापस भी ले ली थी, लेकिन उनमें भी ये पंक्तियां नहीं थी। राज्यों की जमीन और जंगल पर अपने दो-तीन विश्वसनीय धनी लोगों को अधिकार देकर, 95 प्रतिशत लोगों को भिखारी बना देने की बातें तो कोई पागल, सिरफिरा या उन्मादी व्यक्ति ही कर सकता है। किसी भी संगठन के बारे में बनी- बनाई धारणा से बाहर निकल कर उसकी सच्चाई को उसके अनुसार देखने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की उन्मादी और पागलपन वाली विचारधारा का संगठन 100 वर्षों तक लगातार अपनी शक्ति बढ़ाते हुए केवल भारत में ही दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में सक्रिय नहीं रह सकता। विरोधियों की आलोचनाओं के बावजूद संघ लगातार इसी कारण बढ़ता है, क्योंकि जो आरोप होते हैं वह बिल्कुल तथ्यों से परे और झूठ।

गुरु गोलवलकर ने अपने जीवन काल में संघ के कई अनुषांगिक संगठनों को जन्म दिया जिनमें विश्व हिंदू परिषद तथा वनवासी कल्याण केंद्र है। एक बड़ा वर्ग तो इन संगठनों को भी हमेशा आरोपित करता रहा है। इन दोनों का उद्देश्य क्या था? विश्व हिंदू परिषद के उद्देश्यों में जाति भेद के विरुद्ध संपूर्ण हिंदू समाज को जागृत कर उन्हें साथ लाना यानी समरस समाज का निर्माण शामिल है। गुरु गोलवलकर के मार्गदर्शन में  ही विहिप ने देश के धर्माचार्यों को एक समय अस्पृश्य माने जाने वाले समुदायों की बस्तियों में ले जाने, उनके साथ भोजन कराने के अनेक कार्यक्रम किए और आज भी कर रहा है। संघ के स्वयंसेवकों को भी लगातार आप ऐसी बस्तियों में जाते, उनके साथ काम करते देख सकते हैं। संघ की शाखाओं और कार्यक्रमों का अवलोकन करने के बाद विरोधियों ने भी माना कि यहां जाति भेद का अवशेष नहीं दिखता। इसी तरह वनवासी कल्याण केंद्र ,जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं, उनके बीच काम करते हुए उनको शिक्षित करने से लेकर समाज की मुख्यधारा में लाने तथा यहां तक कि यथासंभव उनके जीविकोपार्जन के लिए अपनी सीमाओं में जितना संभव है लगातार करता आ रहा है। 

सच यह है कि इसके अलावा भारत में किसी संगठन ने आदिवासियों के बीच उन्हें हिंदू समाज के साथ एकाकार करने के लिए काम किया ही नहीं है। ईसाई मिशनरियों ने अवश्य काम किया किंतु उनका लक्ष्य आदिवासियों का धर्मांतरण रहा है। दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के हैं। वहां आदिवासियों के बीच वनवासी कल्याण केंद्र व एकल विश्वविद्यालय ने कितनी बड़ी भूमिका अदा की है इसका उन्हें पता है, क्योंकि वो मुख्यमंत्री रहे हैं। गुरु गोलवलकर के 1940 से 1973 तक के कार्यकाल में दिए गए सारे भाषणों और वक्तव्य को देख लीजिए उनमें हिंदू समाज में जाति भेद जैसी कुरीतियों को खत्म करने के लिए स्वयंसेवक काम करें इसके लाखों उद्धरण मिलेंगे। इनकी संख्या इतनी ज्यादा है कि इन्हें यहां उद्धृत करने की आवश्यकता भी नहीं। 

अस्पृश्य माने जाने वाली जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए गुरु गोलवलकर के जीवन काल में लगातार कार्यक्रम हुए। मैंने संघ का एक नारा सुना है - हिंदव: सोदरा सर्वे न हिंदू्र्पतितो भवेत्। यानी सभी हिंदू सहोदर भाई हैं इनमें कोई हिंदू पतित या अछूत नहीं हो सकता। उस काल में अनेक ऐसे गीत संघ के स्वयंसेवकों के लिए लिखे गए और आज तक गाए जाते हैं जो छुआछूत, जाति भेद, ऊंच-नीच को दूर कर सबको समान मानने का व्यवहार पैदा करता है। जिस पुस्तक की चर्चा दिग्विजय सिंह करते हैं उसी के अनेक पन्नों पर गुरु गोलवलकर की संपत्ति के बारे में मत अंकित है। वे बार-बार हिंदू धर्म ग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जो कुछ भी धन संपदा हमारे लिए उपलब्ध है हम उसके न्यूनतम उपभोग करने के अधिकारी हैं। राजकीय सत्ता को लेकर तो वे अपने संगठन में वितृष्णा पैदा करते हैं। गुरु गोलवलकर के हजारों उद्धरण हैं जिनमें वे केवल सत्ता के माध्यम से समाज और राष्ट्र को संचालित करने के विरुद्ध आगाह करते हैं। समाज के प्रकाश से सत्ता संचालित हो, न कि सत्ता से समाज - जैसे सिद्धांत को वे अलग - अलग तरीके से लगातार अपने जीवन काल में समझाते रहे हैं। वे राजनीति की भूमिका अत्यंत सीमित बताते हैं। एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि जिस प्रकार हम आप किसी भवन के निर्माण में शौचालय बनाते हैं वही स्थान राजनीति का है। यानी जिसकी अपरिहार्यता तो है किंतु वह सर्वस्व नहीं है। राजनीति और सत्ता के प्रति उनकी इस सोच का ही परिणाम था कि गांधीजी की हत्या के आरोप से बरी होने और प्रतिबंध हटने के बाद अनेक लोगों के प्रयत्न के बावजूद जल्दी वे राजनीतिक दल के निर्माण के लिए तैयार नहीं हुए। इनमें काफी लंबा समय लगा। डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनसे कई मुलाकातें करनी पड़ी। तब भी वे उस समय अपनी ओर से कुछ कार्यकर्ता देने को ही तैयार हुए।

गुरु गोलवलकर जब सत्ता और राजनीति को राष्ट्र और समाज की प्रगति का एकमात्र साधन नहीं मानते वो सत्ता पर वर्षों नियंत्रण बनाये रखने की बात करेंगे यह सोचा भी नहीं जा सकता। वो कहते हैं कि समाज की दिशा से सत्ता संचालित होनी चाहिए तो सत्ता को इतना महत्व देंगे ऐसे प्रचार वालों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है? जो व्यक्ति संपदा पर सबके अधिकार को भारतीय संस्कृति का मूल तत्व मानता हो वह कुछ हाथों में सारी संपत्ति समिटाने का सिद्धांत देगा इससे बड़ा मजाक और कुछ नहीं हो सकता। ऐसा करने वाले राजनीतिक हित के लिए कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं यह शायद उन्हें पता नहीं हो लेकिन देश अवश्य पहचानेगा। वास्तविक फासिस्ट प्रवृत्ति यही है जो दुर्भाग्य से हमारी राजनीति से लेकर  एक्टिविज्म, एनजीओ, मीडिया सबमें घातक रूप में प्रवेश कर गया है। इसी कारण दिग्विजय सिंह जैसे वरिष्ठ नेता के द्वारा ऐसा ट्वीट जाता है एवं हजारों लोग उसे रीट्वीट कर फैलाने में लग जाते हैं। देश के हित में यही है कि बात तथ्यों पर हो न कि झूठ फैला कर  लोगों को भ्रमित करने का अपराध किया जाए। उम्मीद करनी चाहिए कि हमारे देश के नेता, एक्टिविस्ट , एनजीओ ,मीडिया के बड़े नाम अपने मतभेदों ,विरोधों और असहमतियों को तथ्य और सत्य तक सीमित रखकर देश में सकारात्मक -सार्थक संवाद व विमर्श का माहौल बनाने की कोशिश करेंगे।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल -9811027288



बुधवार, 5 जुलाई 2023

महाराष्ट्र का घटनाक्रम आश्चर्यजनक नहीं

अवधेश कुमार

महाराष्ट्र का  वर्तमान घटनाक्रम कतई अचंभित करने वाला नहीं है।  कुछ दिनों में  साफ होने लगा था कि राकांपा नेताओं का बड़ा समूह महाविकास आघाडी को बनाए रखने तथा विपक्षी एकता का भाग बनने की बजाय भाजपा और शिवसेना (शिंदे )समूह के साथ जाने का मन बना चुका है। यह मानना ठीक नहीं कि जो हुआ उसका पता शरद पवार को नहीं था। जब शपथ ग्रहण के पूर्व अजित पवार के घर पर सुप्रिया सुले भी पहुंची तो उन्हें पूरा घटनाक्रम का ज्ञान था। आज भाजपा पर अनैतिकता का आरोप लगाने वालों में से एक भी नेता या पार्टी ने तब यही बात नहीं कही जब भाजपा शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद सरकार महाविकास आघाडी की बनाई गई। शरद पवार पिछले 4 वर्षों से जैसी राजनीति कर रहे थे उसकी यही स्वाभाविक परिणति थी। नवंबर 2019 में अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ शरद पवार की अनुमति से शपथ लिया था।  एक ओर वे भाजपा से बात कर रहे थे और दूसरी ओर उद्धव ठाकरे से भी। उन्होंने कहा है कि ऐसा करके वे भाजपा को एक्सपोज करना चाहते थे। इसमें सबसे ज्यादा अपमान और बदनामी अजीत पवार की हुई।‌उनके मन में लगातार इस बात की कसक थी।  दूसरे, लगभग यह भी साफ हो चुका है कि शरद पवार ने एक समय उद्धव ठाकरे सरकार में रहते हुए भाजपा के साथ जाने के लिए भी बातचीत की। संभवतः उनके राष्ट्रपति बनाने पर नरेंद्र मोदी ने सहमति नहीं दी। इस तरह की राजनीति करने वाले व्यक्ति की पार्टी उसके साथ सदा रहे और वह भी इस स्थिति में जब प्रदेश में गठबंधन कमजोर होता दिखे यह संभव नहीं। थोड़े शब्दों में कहें तो यह शरद पवार की राजनीति की ही स्वाभाविक परिणाम है।

एक वर्ष पहले हुई शिवसेना में विद्रोह और राकांपा के वर्तमान टूट में गुणात्मक अंतर यही है कि तब उद्धव ठाकरे को इसका आभास नहीं था और शरद पवार जानकारी होते हुए भी रोक नहीं सके। शरद पवार विरोध में उतर रहे हैं तो कुछ समय के लिए नेताओं विधायकों का एक समूह उनके साथ दिखेगा। पर तस्वीर बता रही है कि उनके हाथ से नियंत्रण बाहर जा चुका है। इस घटना का तीन और पहलुओं के आधार पर संपूर्ण विश्लेषण किया जा सकता है। पहला , यह राकांपा की टूट है तो इस पर किसका दावा बनता है? दूसरे, इसका महाराष्ट्र की राजनीति में क्या असर होगा? और तीसरा, राष्ट्रीय राजनीति यानी नरेंद्र मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी एकजुटता इससे कितनी प्रभावित होगी?

प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि पार्टी ने फडणवीस और शिंदे सरकार में शामिल होने और समर्थन करने का फैसला किया है। यानी यह टूट नहीं पार्टी का निर्णय है। यह भी कहा कि शरद पवार हमारे नेता थे, हैं और रहेंगे। अजित पवार ने भी राकांपा के संदर्भ में यही बात कही। यानी ये कह रहे हैं कि पार्टी के फैसले से हम गए हैं हमने न बगावत की, न पार्टी तोड़ा है। यह स्टैंड ऐसा है जिसकी काट जरा मुश्किल होगी। शरद पवार के विरुद्ध ये कुछ नहीं बोलेंगे ,लेकिन स्टैंड यही रहेगा। उद्धव ठाकरे के विपरीत  शरद कह रहे हैं कि वे कानूनी लड़ाई नहीं लड़ेंगे, जनता के बीच जाएंगे। हालांकि विधानसभा में अजित और विद्रोहियों की सदस्यता रद्द करने की मांग की गई है। तो होगा क्या?

अजीत और प्रफुल्ल कह रहे हैं कि वह राकांपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ेंगे। यानी चुनाव के पूर्व पार्टी चुनाव चिन्ह को लेकर अभी तक दोनों पक्ष दावा करने के लिए चुनाव आयोग जाने का संकेत नहीं दे रहे।  शरद अगर चुनाव के दौरान चुनाव आयोग के पास जाते हैं तभी इसकी कानूनी लड़ाई आरंभ होगी। वैसे विधानसभा में अध्यक्ष के पास आवेदन देने के साथ कानूनी और संवैधानिक लड़ाई आरंभ हो गई है। कानूनी लड़ाई का व्यवहार में बहुत ज्यादा मायने नहीं होता। किसी को चुनाव चिन्ह मिल जाए और नेता, विधायक, सांसद  साथ नहीं हो तो उसका कोई अर्थ नहीं। प्रफुल्ल पटेल ,छगन भुजबल जैसे नेता शरद पवार से अलग निर्णय करते हैं तो यह साधारण घटना नहीं है। प्रफुल्ल पिछले करीब ढाई दशक से शरद पवार के सर्वाधिक विश्वसनीय एवं निकटस्थ नेताओं में हैं । छगन भुजबल की हैसियत भी बहुत बड़ी है। यही स्थिति लगभग दिलीप वलसे पाटील की भी है। ऐसे नेताओं के बाहर जाने के बाद शरद पवार के साथ पूरे प्रदेश में पहचान रखने वाले नेताओं की तलाश करनी पड़ेगी। अगर भारी संख्या में विधायक, सांसद और नेता इनके साथ हैं तो स्वाभाविक है कि वर्तमान राकांपा पर इन्हीं का नियंत्रण है। शरद पवार की मराठवाडा में प्रतिष्ठा है खासकर गांव में और उनके साथ लोग खड़े होंगे किंतु यह स्थाई नहीं हो सकता। 84 वर्ष की उम्र के व्यक्ति के साथ राजनीति का कोई व्यक्ति तभी खड़ा होगा जब उसे आगे अपना भविष्य दिखाई दे। सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्याध्यक्ष बनाकर उन्होंने अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। सुप्रिया संगठन की व्यक्ति नहीं हैं। उनकी पूरी ताकत शरद पवार हैं। सुप्रिया के साथ जाकर कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा। दूसरे, महाराष्ट्र विधानसभा में कांग्रेस को छोड़कर शरद के साथ बचे राकांपा और उद्धव शिवसेना के बचे-खुचे नेताओं की यह हैसियत नहीं कि वे ज्यादा लोगों को साथ ला सके। वहां का माहौल एकपक्षीय होगा। शरद पवार स्वयं विधानसभा में नहीं है। तो इसका भी असर होगा। इसलिए इस समय शरद पवार के साथ खड़े लोगों, या उनकी रैली आदि में संख्या के आधार पर भविष्य का निष्कर्ष मत निकालिए।

चूंकि शरद पवार पटना की विपक्षी बैठक में शामिल हो चुके हैं इस कारण उन्हें उन पार्टियों का समर्थन मिलेगा। उसका धरातल पर कोई मायने नहीं होगा। धरातल का सच यही है कि शरद पवार की राजनीतिक पारी का लगभग अंत हो चुका है। 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के सैद्धांतिक मुद्दे को उठाकर उन्होंने कांग्रेस से अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। यह बात अलग है कि बाद में वह कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़े, यूपीए सरकार में मंत्री रहे,प्रदेश में भी सरकार चली। पार्टी शायद अभी कुछ दिन रहेगी किंतु उसका बड़ा हिस्सा उनके साथ नहीं। शरद के कमजोर होने और राकांपा के बड़े समूह का प्रमुख और प्रभावी नेताओं के साथ भाजपा गठबंधन में साथ आने के बाद महाराष्ट्र का पूरा राजनीतिक वर्णक्रम बदल गया है। अब महाविकास अघाडी में कांग्रेस प्रमुख पार्टी है और शरद पवार के नेतृत्व वाला राकांपा ,उद्धव ठाकरे की शिवसेना काफी कमजोर। इस तरह तात्काल प्रदेश की राजनीति एकपक्षीय रूप से भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर झुका दिखाई देता है। वर्तमान राष्ट्रीय राजनीति पर इसका दो तरीकों से असर होगा। पहला , शरद पवार भाजपा और मोदी विरोधी मोर्चाबंदी के वरिष्ठ नेता है। पार्टी के इस बड़े टूट के बाद उनका वह प्रभाव नहीं होगा। भाजपा के लिए इसका बड़ा मायने यही है कि महाराष्ट्र 48 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे ज्यादा सांसद देने वाला प्रदेश है जो चुनावी दृष्टि से ज्यादा सुरक्षित हो गया दिखता है। इस समाचार की पुष्टि हो रही है कि अलग होने वाले नेताओं ने शरद पवार से विपक्षी मोर्चाबंदी में न जाने का आग्रह लगातार किया था। यानी पार्टी का बहुमत मोदी विरोधी गठबंधन में जाने के पक्ष में नहीं था। इसका अर्थ यही है कि अजित पवार ,प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा गठबंधन में जाने का मन बना चुके थे। अजीत पवार ने अपनी पत्रकार वार्ता में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया।  इस तरह यहां राजनीतिक विचारधारा की भी भूमिका है। मान सकते हैं कि अजित विचारधारा के स्तर पर कोई सिद्धांतवादी नेता नहीं है। बावजूद वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का अच्छा भविष्य होने की बात कह रहे हैं तो इसे केवल टूट के लिए गढ़ा गया तर्क मानना उचित नहीं होगा। निस्संदेह , इसके पीछे अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता होगी। किसके साथ जाने से हमारा राजनीतिक लाभ होगा यह कोई भी सोचता है पर आधार ठोस होता है। शरद पवार विरोधी इस समूह का कदम बताता है कि उनकी दृष्टि में महाराष्ट्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा प्रबल है। यह न केवल महाराष्ट्र बल्कि देश के विपक्षी गठजोड़ की दृष्टि से बहुत बड़ी टिप्पणी है। जो नेता विपक्षी मोर्चाबंदी में बैठ रहे हैं उनकी पार्टी साथ है या नहीं इसे लेकर बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है।

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