गुरुवार, 19 नवंबर 2015

कहां तक जाएगा भाजपा का ये बवण्डर

 

अवधेश कुमार

भाजपा एक बार फिर आंतरिक बवण्डर का शिकार हो रही है। 2004 के बाद से भाजपा में ऐसे बवण्डर कई बार उठे लेकिन इस समय यह अकल्पनीय था। कारण, बिहार में भले पार्टी को करारी पराजय मिली है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता अभी असंदिग्ध है। पार्टी में अभी उनकी तुलना मेें कोई ऐसा कोई नेता नहीं जो कि अपनी बदौलत कोई जीत  दिला सके। मोदी की लोकप्रियता की आभा में इतनी चमचमाहट दिखती थी कि उनके धूर विरोधी भी उसमें चौंधिया जाते थे। लेकिन इस समय लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा ने जो तेवर दिखाया है उसका अर्थ कई प्रकार से निकाला जा सकता है। इनके पूर्व बेगूसराय से सांसद एवं बिहार के वरिष्ठ नेता भोला सिंह ने तो नाम लेकर प्रधानमंत्री एवं अध्यक्ष अमित शाह को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। हो सकता है कुछ और बयान सामने आ जाए। प्रश्न है कि ये बवण्डर आखिर किसी सीमा तक जाएंगे? क्या इससे पार्टी में हम कुछ ईमानदार आत्मचिंतन की उम्मीद कर सकते हैं? क्या ये नेता इतनी हैसियत रखते हैं कि जो कुछ इनने अपने बयान में लिखा है उसे तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ खड़े हो सकें और इनको पार्टी के अंदर नेताओं-कार्यकर्ताओं का समर्थन मिले?

कांग्रेस से लेकर विरोधी पार्टियों का बयान इसकी गवाह है कि वो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थे। पार्टी के बाहर से तो इनको समर्थन मिल रहा है लेकिन उसका कारण केवल इतना है कि ये भाजपा में आंतरिक संघर्ष को और तेज होने देखना चाहते हैं ताकि मोदी की आभा मलीन हो। मोदी इनके सत्ता तक जाने के मार्ग की अब भी बड़ा बाधा हैं। बहरहाल, पहले यह देखें कि इनने अपने लिखित बयान में जो कुछ कहा है कि उसका अर्थ क्या है? इन्होंने मुख्यतः चार बातें कहीं हैं। एक पार्टी ने दिल्ली में मिली हार से कुछ नहीं सीखा। दो, बिहार में जो हार हुई है उसकी  जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। तीन, हार के कारणों की पूरी समीक्षा हो। और चार, इस समीक्षा में वो लोग ना शामिल हों जो बिहार चुनाव प्रबंधन में शामिल थे। गहराई से देखें तो ये चारों बातें एक ही हैं। इसमें मुख्य बात यही है कि हार की ईमानदार समीक्षा हो ताकि जो जिम्मेवार हैं उनको चिन्हित किया जाए। जाहिर है, यदि समीक्षा वही लोग करेंगे जो कि चुनाव की व्यवस्था में शामिल थे तो उसमें ईमानदारी नहीं होगी इसलिए अलग के लोग करें? तो कौन करे? क्या किसी एजेंसी से इसे कराया जाएगा? या ये लोग स्वयं इसकी समीक्षा करना चाहते हैं ताकि अपने अनुसार उसका निष्कर्ष लाकर वर्तमान नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। वैसे देखा जाए तो यशवंत सिन्हा के हस्ताक्षर से भेजे गए इस बयान में पूरे शीर्ष नेतृत्च यानी संसदीय बोर्ड की ईमानदारी पर प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। जो लोग चुनाव पंबंधन में शामिल थे वे समीक्षा न करें, इसका अर्थ आखिर क्या है? फिर इसी बयान में आगे कहा गया है कि इस हार के लिए सब को जिम्मेदार बताना खुद को बचाना है। ध्यान रखिए 9 नवंबर को पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद अरुण जेटली ने पत्रकार वार्ता में यही कहा कि जीत और हार दोनों सामूहिक होते हैं। निस्संदेह, ऐसे बयानों का कोई अर्थ नहीं है। यह पार्टी की दुर्दशा का आवश्यक निर्ममता से पोस्टमार्टम करने से बचना है। जब आप पूरी निर्ममता से पोस्टमार्टम ही नहीं करेंगे, समीक्षा ही नहीं करेंगे तो फिर न आप सही कारण तक पहुंच पाएंगे और जब कारण तक ही नहीं जाएंगे तो फिर सुधार एवं बदलाव कहां से हो सकेगा। इसलिए संसदीय बोर्ड के निष्कर्ष पर बिना नाम लिए इन बुजूर्ग नेताओं ने जो प्रश्न उठाए उसे एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता।

लेकिन ये लोग अपना निष्कर्ष भी दे रहे हैं। मसलन, इनने यह भी कह दिया कि पिछले एक साल में पार्टी को प्रभावहीन किया गया। लेकिन ये बयान बिल्कुल अस्पष्ट श्रेणी का है। इनके समानांतर भोला सिंह ने तो सीधा कह दिया कि भाजपा ने हार नहीं की आत्महत्या की है और उसके लिए नेतृत्व जिम्मेवार हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री भी उसमें शामिल हैं तो उन्होंने कहा बिल्कुल। क्या उनको त्यागपत्र देना चाहिए तो उनका उत्तर था उनकी नैतिक शक्ति पर निर्भर है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री किसी की बेटी-बेटा पर प्रश्न उठाएगा, तंत्र मंत्र की बात करेगा यह प्रधानमंत्री का स्तर है नेता बोल सकता है प्रधानमंत्री नहीं। यह बुजूर्ग नेताओं के  अस्पष्ट बयानों से परे एकदम सीधा-सपाट है। भोला सिंह पुरानी पीढ़ी के नेता है जब भाजपा के नेताआंे की पहचान उनके संयमित और संतुलित बयानों से होती थी और दूसरी पार्टियां भी उनके सामने निरुत्तर हो जाते थे। वे ऐसा बोल सकते है। उस तरह बोलने का साहस आसानी से आज के समय कोई नहीं करता। बुजूर्ग नेताओं में आडवाणी और जोशी मार्गदर्शक मंडल के सदस्य भी हैं।

इसे देखने का दो नजरिया हो सकता है। एक नजरिया यह है कि पार्टियों में खुलकर अपनी बात कहने की सामान्य लोकतांत्रिक प्रवृृत्ति का लोप हो गया है जो केवल पार्टी के लिए ही नहीं हमारे लोकतंत्र के लिए भी विनाशकारी परिणामों वाला साबित हो रहा है। उसमे ंयदि भोला सिंह जैसे लोग इस तरह स्पष्ट शब्दों में अपने नेतृत्व की जिन बातों को वे गलत मानते हैं उनको सुस्पष्ट ढंग से मुखर होकर रख रहे हैं तो इसे अच्छा संकेत मानना चाहिए। हम आप उनसे सहमत हो या नहीं, पर सभ्य भाषा में इस तरह की आंतरिक आलोचना को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इससे पार्टी में खुलापन आएगा, शीर्ष नेताआंे की निचले स्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूरियां घटेंगी, पार्टी में खुलकर बहस की स्थिति पैदा होगी जो पार्टी एवं पार्टी आधारित हमारे लोकतंत्र को ज्यादा स्वस्थ व मजबूत बनाएगा। यह देखना होगा भाजपा नेतृत्व भोला सिंह के साथ क्या व्यवहार करता है। लेकिन बुजूर्ग नेताओं के बयानों को इसी श्रेणी का नहीं माना जा सकता। मुरली मनोहर जोशी के घर हुई बैठक में अरुण शौरी भी शामिल थे जिनने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मोदी की नीतियों की आलोचना करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इशारा किया एवं कहा कि देश डॉ. साहब यानी इनकी प्रतीक्षा करने लगा है। उनका निशाना कहीं और है। शौरी कभी संगठन के आदमी रहे भी नहीं और भाजपा पार्टी के लिए कभी कोई काम नहीं किया। उस बैठक में के. एन. गोविन्दाचार्य भी उपस्थित थे। यह हैरत मेें डालने वाला है, क्योंकि वो सक्रिय राजनीति से अपने को दूर कर चूके हैं तथा जब वे भाजपा में थे जोशी से उनका रिश्ता छत्तीस का था।

बहरहाल, ये कहते हैं कि एक साल में पार्टी को प्रभावहीन कर दिया गया तो इसका यह अर्थ निकलता है कि एक साल पहले पार्टी बिल्कुल सही रास्ते पर चल रही थी एवं प्रभावहीन नहीं थी। तो फिर 2004 की बुरी पराजय क्यों हुई? 2009 में पराजय क्यों हुई? पार्टी में 2004 से लेकर 2009 तक लगातार विद्रोह क्यों होते रहे? अनके राज्यांे के चुनाव भाजपा क्यों हारी? एक समय तो आडवाणी और वाजपेयी ही पार्टी के मुख्य निर्णायक थे और उसी दौर में पार्टी सत्ता तक पहंुंची फिर ढलान पर भी आ गई और नेताओं ने विद्रोह किया, कई को पार्टी से निकालना पड़ा। वास्तव में यह सच है कि पार्टी का सांगठनिक ढांचा आम कार्यकर्ताओं के लिए अलोकतांत्रिक है,पर पार्टी की आंतरिक दुर्दशा पुरानी है जिसमें आडवाणी की भूमिका सर्वप्रमुख है, क्योंकि वाजपेयी और उनकी जोडी जो चाहती कर सकती थी। इन पर कोई प्रश्न उठाने वाला नहीं था। सच यह है कि 2014 में आकर मोदी ने अपने अभियानों से जो आलोड़न पैदा किया उसने भाजपा की आंतरिक जड़ता, निरपेक्ष हो चुके कार्यकर्ताओं-समर्थकों को आलोड़ित किया जा सका तथा फिर ऐतिहासिक जीत प्राप्त की। आडवाणी, जोशी, शांताकुमार एवं यशवंत सिन्हा सबको प्रश्न उठाने एवं नेतृत्व से कुछ मांग करने का अधिकार है, लेकिन छायावादी शैली में बात करने की जगह वो सीधे अपनी बात क्यों नहीं कहते कि पार्टी किस तरह और क्यों प्रभावहीन हुई, वे इसके लिए किसे जिम्मेवार मानते हैं, किस तरह की समीक्षा चाहते हैं, उनकी नजर में पराजय के क्या कारण हैं, इसके लिए क्या और कौन-कौन दोषी है....आदि पर खुलकर बात करते। जब ये खुलकर इतनी बात नहीं कर सकते तो फिर ये अपनी बातों को किसी तार्किक परिणति तक ले जाएंगे इसका कोई विशेष असर होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं होगा। भविष्य का नहीं कह सकते लेकिन इस समय तो यही लगता है कि यह केवल मीडिया और आम लोगों के बीच चर्चा तक सीमित बवण्डर बनकर रह जाएगा। पार्टी की ओर से तीन पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह एवं नितीन गडकरी ने बयान जारी कर साफ कर ही दिया है कि सामूहिक जिम्मेवारी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की परंपरा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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