गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

इस टूट को कैसे देखें

अवधेश कुमार

बिहार की रजनीति अचानक उन खबरों के लिए सुर्खियों में आ गई है, जिनको सामान्यतः कोई पसंद नहीं करेगा। पहले राजद के 13 विधायकों को अपनी पार्टी से नाता तोड़ने की खबरें आई और ऐसा लगा जैसा भूचाल आ गया। हालांकि उसके कुछ ही दिनों बाद विधानसभा में दल के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ छः विधायक पत्रकार वार्ता में आ गए और आरोप लगाया कि उनके साथ धोखाधड़ी हुआ है। किसी ने कहा कि उन्होंने हस्ताक्षर किया ही नहीं है तो कुछ ने कहा कि उनसे कागज पर हस्ताक्षर कराए गए थे, पर वह दल बदल का नहीं था। लालू यादव प्रसाद के पटना पहुंचने तक स्थिति काफी बदल गई थी और विधायक दल की बैठक में उन 13 में से 9 विधायक शामिल हो गए। यानी टूटे समूह में केवल चार विधायक रह गए है। लालू यादव तत्काल कुछ हद तक राहत महसूस कर सकते हैं,पर उनके लिए निश्चिंतता का कोई कारण नहीं है। उनके लिए स्थितियां अनुकूल नहीं हो पा रहीं हैं। पहले चारा घोटाला में जेल, और सजा के कारण चुनाव लड़ने से वंचित, फिर राम विलास पासवान के भाजपा के साथ जाने की खबर और अब विद्रोह, जिसका पूरी तरह अंत नहीं हुआ। निश्चय ही लालू यादव अपने जीवन के सबसे बुरे राजनीतिक दौर से गुजर रहे हैं। हालांकि बिहार की वर्तमान राजनीति में लालू यादव को खत्म मान लेना भूल होगी, पर यह घटना उनके लिए आघात है, क्योंकि ऐन लोकसभा चुनाव के पूर्व इससे जनता के बीच गलत संदेश जा सकता है। 

इस बात पर कौन विश्वास कर सकता है कि विधायकों की आंखों में धूल झांेककर हस्ताक्षर करा लिया गया। ध्यान रखने की बात है कि पिछले 14 फरबरी को ही इन विधायकों के हस्ताक्षर से विधानसभा अध्यक्ष को पत्र सौंपा गया था जिसमें इन्हें अलग दल के रुप में मान्यता देने का अनुरोध किया गया था। खबर तो तब बाहर आई जब सचिव ने उन्हें अलग बैठने की व्यवस्था करने वाला पत्र जारी कर दिया। जनता दल-यू के नेताओं ने जिस तरह इस खबर पर प्रसन्नता व्यक्त की उससे यह समझने में किसी को कठिनाई नहीं हो सकती थी कि इसके पीछे लंबे समय से खेल हो रहा था। जब नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होने का निर्णय किया उसी समय से बिहार में यह खबर फैल गई थी कि राजद के ज्यादातर विधायक किसी दिन उनके पाले में आ सकते हैं। लालू यादव नीतीश कुमार को जमकर कोस रहे हैं। उनका आरोप है कि उनकी सरकार अल्पमत में आ गई और इसे बचाने के लिए वो तोड़ फोड़ कर रहे हैं। इसके जवाब में नीतीश कुमार कहते हैं कि पार्टियों को तोड़ने में तो लालू जी को महारत हासिल है। यह ठीक है कि अपने कार्यकाल में लालू यादव ने बिहार के सभी पार्टियों में सेंध लगाई थी। कांग्रेस को तो उन्होंने लगभग साफ ही कर दिया है। बहरहाल, इससे तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि नीतीश कुमार और उनके साथियों के गोपनीय तरीके से शह देने के कारण ही ऐसी नौबत आई है। नीतीश के लिए अपनी सरकार को निर्धारित समय तक बनाए रखने के लिए अतिरिक्त विधायकांे का समर्थन चाहिए। 

हालांकि दल बदल कानून के अनुसार राजद के 22 विधायकों में से अगर दो तिहाई यानी कम से कम 16 विधायक हों तो वे अलग होकर किसी पार्टी में सामूहिक रुप से शामिल हो सकते हैं। अगर नहीं हों तो उनकी सदस्यता जा सकती है। किंतु यहां पहले अध्यक्ष ने 13 विधायकों को अलग मान्यता दे दी तभी सचिव ने पत्र जारी किया। यह अध्यक्ष की जिम्मेवारी है कि वह यह निश्चित कर ले कि जिन विधायकों का नाम उसमें शामिल हैं उनके हस्ताक्षर सही हैं या नहीं। वे उन सारे सदस्यों से बात करके संतुष्ट हो सकते हैं। अध्यक्ष ने ऐसा किया या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। टूटे गुट के नेता सम्राट चौघरी का दावा है कि विधानसभा अध्यक्ष के पास सब गए थे और सभी ने हस्ताक्षर किया था। अगर लालू यादव के राजभवन मार्च को देखा जाए तो उसमें भी वे नौ विधायक शामिल थे। इससे स्थिति जटिल हो गई है। संविधान का प्रावधान जो भी हो, पर सदन के अंदर अध्यक्ष के अधिकार विस्तृत हैं। यदि एक बार अध्यक्ष ने उनको मान्यता दे दी तो फिर उसे बदलने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना होगा। न्यायालय का सम्मन, जवाब, बहस इसमें काफी समय लगेगा। उनकी सदस्यता रहने या जाने का निर्णय इस समय अध्यक्ष को ही करना है। न्यायालय में यह मामला बाद में जाएगा। 

निस्संदेह, इस प्रकार अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में जाने की घटना को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता है। 80 के दशक में इसे आयाराम गयाराम नाम दिया गया था। उससे बचने के लिए राजीव गांधी मंत्रिमंडल ने 1985 में संविधान की 10वीं अनुसूची के रुप में दल बदल का प्रावधान बनाया। उसमें पाला बदलने के लिए कम से कम एक तिहाई दल के सदस्यों का साथ होना आवश्यक बना दिया गया। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में इसमें संशोधन किया गया। इसके अनुसार दलबदल की मान्यता खत्म की गई, लेकिन बाद में इसमें यह प्रावधान जोड़ा गया कि अगर दे तिहाई सदस्य एक साथ किसी दल में शामिल हो जाते हैं तो इसे स्वीकार किया जा सकता है। इसमें अध्यक्ष ने पहले 13 सदस्यों को कैसे मान्यता दे दी यह समझना कठिन है। लेकिन संवैधानिकता से परे यहां सबसे पहले इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर शुचिता की राजनीति का दावा करने वाले नीतीश कुमार को आने वाले समय में किसी प्रकार के मुख्यमंत्री के रुप में याद किया जाएगा? उनकी ओर से भले इसके पीछे किसी भूमिका से इनकार किया जाए, पर सच तो सच है। उनके सारे प्रवक्ता एक स्वर में इस टूट का समर्थन करते रहे। 

हालांकि इसका दूसरा पहलू कहीे ज्यादा महत्वपूर्ण है। सजा के बाद लालू प्रसाद यादव की महिमा पहले से ज्यादा कमजोर हुई है अन्यथा एक भीं विधायक उनका साथ छोड़ने का साहस नहीं करते। इस समय भले उने साथ 18 विधायक दिख रहे हैं, पर इनमें से कितने दिल से उनके साथ है कहना कठिन है। सभी नौ लोगों की असहमति के बावजूद सम्राट चौधरी ने उनका नाम लिख लिया होगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। वास्तव में सच यही है कि राजद में कुछ विश्वसनीय लोगों को छोड़ दें, विधायकों एवं नेताओं में असंतोष और अपने भविष्य की चिंता गहरे समाई हुई है। सम्राट चौधरी ने लालू पर कांग्रेस के पाले में बैठने को अपने कदम का आधार बताया है। चौधरी ने यह भी कहा है कि लालू सामाजिक न्याय के रास्ते से भटक गए हैं। इस बात में दम तो है। गैर कांग्रेसवाद पर राजनीति में एक समय हीरो बने लालू यादव जिस तरह कांग्रेस के पाले में गए उसके पीछे कोई नैतिक सोच नहीं हो सकती है। सामाजिक न्याय के सिद्धंात का लालू यादव ने केवल अपने जन समर्थन और चुनाव जीतने के हथियार के रुप में उपयोग किया। हालांकि तब इन नेताओं ने उनके खिलाफ विद्रोह नहीं किया। इसलिए इनकी बातें सही होते हुए भी इसे ईमानदार वक्तव्य नहीं माना जा सकता। वैसे लालू यादव के विधायकों के अंदर असंतोष के कई दूसरे कारण भी हैं। लगातार दो विधानसभा चुनाव में पराजय, फिर लोकसभा में पराजय से निराशा तो थी ही। ज्यादातर नेता यह सोचते थे कि इस पार्टी में उनका कोई भविष्य नहीं है। लालू यादव द्वारा पत्नी राबड़ी देवी के बाद अपने पुत्र के हाथों नेतृत्व थमाने के निर्णय ने भी नेताओं व विधायकों के असंतोष को बढ़ाया है। 

बावजूद इन सबके यदि नीतीश कुमार की सरकार न होती तो इस तरह का विद्रोह नहीं होता। नीतीश इनके संपर्क में तब से थे, जब भाजपा का साथ उन्होंने छोड़ा भी नहीं था। यदि उन्हें उड़ीसा के नवीन पटनायक की तरह भाजपा को अलग करना था तो फिर लालू की पार्टी के विधायकों को गटकना जरुरी है। इसमें यदि समय लगा तो उसका कारण सिर्फ इतना है कि विधायकों को पुरस्कार का निश्चित वायदा नहीं मिल पा रहा था। संभवतः कुछ विधायकों के वापस आने का कारण भी यही है कि उन्हंे पुरस्कार की गारंटी नहीं मिली है। चलिए लालू यादव की पार्टी में असंतोष है, पर यहां यह भी निष्कर्ष निकलता है कि नीतीश कुमार ने केवल अपने अहं और नासमझी में राजग को तोड़ दिया। भाजपा के मंत्री उनके नेतृत्व में पूरे अनुशासन से काम कर रहे थे। अगर वे अपने अहं और गलत सोच का शिकार होकर भाजपा से अलग नहीं होते तो फिर इस तरह टूट और दलबदल को प्रोत्साहित करने के कलंक का आरोप उन पर नहीं लगता। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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