बसंत कुमार
6 फरवरी 2025 को दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए और
भाजपा ने 48 सीटें जीत कर 27 वर्षों बाद दिल्ली में सत्ता में वापसी की पर इस चुनाव परिणाम ने कई प्रश्न
खड़े कर दिए जिनका उत्तर निकट भविष्य में खोजना आवश्यक होगा। आखिर अन्ने हजारे के
भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन से निकली राजनीतिक पार्टी मात्र 12 वर्षों में अर्स से फर्स पर आ गई। अपने गठन के बाद पहले ही
चुनाव में 28 सीटे जीतकर कांग्रेस के साथ दिल्ली में सरकार
बनाई और 2015 और 2020 के चुनावों में रिकार्ड बहुमत के साथ कांग्रेस को शून्य पर पहुंचा दिया। परंतु
वर्ष 2025 में केजरीवाल का हीरो से जीरो वाली स्थिति में पहुंच
जाना। जब पूरे देश में ब्रैंड मोदी की धूम मची थी वहीं 2015 और 2020 में केजरीवाल ब्रैंड दिल्ली में इस पर भारी
पड़ा था पर इस चुनाव में केजरीवाल वाला ब्रैंड पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुआ और आम
आदमी पार्टी 22 सीटों पर सिमट गई। सबसे बड़ी बात यह रही कि आम आदमी
के तीनों बड़े नेता अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन अपने-अपने चुनाव हार गए। राजनीतिक
विशेषज्ञों की माने तो ब्रैंड केजरीवाल वर्ष 2012 में इसलिए मजबूत हुआ कि लोगों को लगा कि यह पार्टी अन्य पार्टियों से हटकर
काम करेगी इसी कारण भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों के अलावा झुग्गी-झोपड़ी और मध्यम
वर्ग के लोगों ने इनका साथ दिया।
अरविंद केजरीवाल का उदय जेपी आंदोलन की तरह अन्ना हजारे के आंदोलन से सिर्फ
सरकार बनाने और ऐशो-आराम की जिंदगी जीने के लिए नहीं था बल्कि भ्रष्टाचार खत्म
करने के उद्देश्य से जन लोकपाल की नियुक्ति के लिए हुआ था। परन्तु सरकार बनने के
बाद केजरीवाल जन लोकपाल से हटकर ऐशो-आराम की जिंदगी जीने और लोगों को लुभाने के
लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने में लग गए। शुरु-शुरु में लोगों ने इस उम्मीद में इसे
स्वीकार कर लिया कि उन्हें मुफ्त की योजनाएं भी मिलेगी और भ्रष्टाचार से मुक्ति भी
मिलेगी। पर जब उनकी सरकार पर शराब के घोटाले के आरोप लगे और केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और संजय सिंह जेल पहुंच गए तो लोगों को केजरीवाल
के भ्रष्टाचार को समाप्त करने के संकल्प के प्रति संदेह होने लगा। इसके साथ साथ
लोगों को केजरीवाल का काम करने के बजाय बहुत अधिक बोलना पसंद नहीं आया। कभी वे
कहते यमुना की गंदगी साफ कर दूंगा,
कभी कहते कूड़े के पहाड़ हटा दूंगा पर उन्होंने कुछ भी नहीं किया। इस कारण मतदाताओं
ने उन्हें चुपचाप सत्ता से बेदखल कर दिया।
केजरीवाल दिल्ली के ऑटो चालको, जिनकी संख्या लाखों में है, को अपना वोट बैंक समझते रहे है और इसी कारण केजरीवाल के सत्ता में आने के बाद
ऑटो वाले मीटर से चलने के बजाय सवारी से मनमाना पैसा वसूलने लगे, जिससे ऑटो से चलने वाला मिडिल क्लास तंग हो गया जबकि
केजरीवाल के सत्ता में आने से पहले दिल्ली में ऑटो वालों का मीटर से चलना आवश्यक
होता था और मीटर से न चलने या मीटर में गड़बड़ी पाए जाने पर उनका चलान होता था। केजरीवाल ने इस बात को नजर अंदाज किया किया कि ऑटो से चलने
वाले लोग अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग के लोग होते हैं और ऑटो वालों की मनमानी से
इन्हीं लोगों पर आर्थिक बोझ पड़ता है। हालत ऐसे हो गए कि आज की युवा पीढ़ी यह भूल भी गई की दिल्ली में ऑटो वाले मीटर
से भी चलते हैं, इसलिए ऑटो वालों की गुंडागर्दी से त्रस्त लोगों ने
भी केजरीवाल के विरोध में वोट दिया।
अरविंद केजरीवाल का अतिविश्वास भी उनकी पराजय का
कारण बना। उन्होंने अपने अतिविश्वास के कारण ही लगभग 7% वोट पाने वाली और दिल्ली में 15 वर्षों तक शासन करने वाली कांग्रेस से किसी तरह का समझौता
करने से इंकार कर दिया और सारी 70 सीटों पर अपने
उम्मीदवार खड़े किये। इसके बाद कांग्रेस ने भी सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर कर दिए जिसका सीधा फायदा भाजपा को हुआ।
परिणामों से स्पष्ट हो गया कि यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी साथ मिलकर लड़ते तो
इन्हें 14-15 सीटें अधिक मिल जाती और
चुनाव की तस्वीर अलग होती। इसी प्रकार यदि दोनों हरियाणा में भी मिलकर लड़ते तो
वहां भी चुनाव परिणाम अलग होते। कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की एक्स पर
की गई पोस्ट इसी बात की पुष्टि करती है।
यह चुनाव न सिर्फ आम आदमी पार्टी के लिए ही सबक
लेकर नहीं आया बल्कि यह केंद्र में 16 वर्षों तक शासन कर चुकी भाजपा के लिए सबक लेकर आया। भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में अनुसूचित जातियों के लिए
आरक्षित 12 सीटों में से 8 सीटो पर हार गई और देश के जाने-माने
दलित नेता पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री दुष्यंत कुमार गौतम दलित बाहुल्य सीट
करोल बाग सीट से 7000 से अधिक वोटों से हार गए। यह विचित्र बात है कि
भाजपा के अनुसूचित मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का उत्तरदायित्व निर्वाह कर चुके
सभी नेता अपने अपने चुनाव हारे हैं। चाहे रामनाथ कोविद्, मुन्नी लाल, डॉ. संजय पासवान, विनोद सोनकर, लाल सिंह आर्य और दुष्यंत कुमार गौतम ये सभी एससी मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष
बनने के बाद अपने-अपने चुनाव हार गए और इसके अपवाद के रूप में डॉ. सत्य नारायन
जटिया जो विधानसभा, लोकसभा, राज्यसभा सहित दर्जन भर चुनाव जीते। भाजपा को इस बात का आत्म मंथन करना होगा
कि क्या कारण है कि इतनी बड़ी सफलताएं अर्जित करने के बावजूद वंचित और आदिवासी
आरक्षित सीटों पर वह अपनी पकड़ नहीं बना पा रही है।
भाजपा में सिकंदर बख्त, नजमा हेपतुल्ला, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, आरिफ मुहम्मद खान जैसे कद्दावर मुस्लिम नेता होने के बावजूद मुस्लिम बाहुल्य
इलाकों में पार्टी संघर्ष करती नजर आती है और अब तो स्थिति ऐसी बन गई है कि भाजपा
लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक भी मुस्लिम चेहरे को टिकट नहीं देती। ये अलग
बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर वर्ष ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी की
दरगाह पर अपनी ओर से चादर जरूर भेजते हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ
प्रचारक इंद्रेश कुमार के सानिध्य में राष्ट्रीय मुस्लिम मंच सराहनीय प्रयास कर
रहा है पर भाजपा को मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने हेतु अतिरिक्त प्रयास करना होगा, जिससे इस समुदाय में भाजपा में विश्वास पैदा हो।
दिल्ली के विधानसभा चुनाव के परिणामों ने भाजपा की 27 वर्षों के बाद सत्ता में वापसी कराई है इस चुनाव ने अरविंद
केजरीवाल की पार्टी को यह सबक दे दिया है कि कोरी घोषणाओं से जनता को बहुत दिनों
तक बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। वहीं भाजपा को इस बात का संदेश दे दिया है कि
दलितों, आदिवासियों व मुस्लिम समुदायों का दिल जीतने के
लिए अतिरिक्त प्रयास किये जाएं
क्योकि 12 सुरक्षित सीटों में से मात्र 4 में विजय प्राप्त करना और मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में सारी
सीटें हार जाना एशिया की सबसे बड़ी पार्टी के लिए चिंता का विषय है।
(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और
भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)