शुक्रवार, 22 जून 2018

इस गठबंधन की यही नियति थी

 

अवधेश कुमार

जब 19 जून की सुबह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भाजपा अध्यक्ष अतिम शाह से मिलने आए और उसके बाद उनकी जम्मू-कश्मीर के भाजपा नेताओं के साथ बैठक हुई तो यह आभास हो गया कि कुछ होने वाला है। हां, ये प्रदेश सरकार से बाहर आने का ऐलान करेंगे यहां तक शायद ही किसी की सोच गई हो। हालांकि भाजपा पीडीपी सरकार कार्यकाल पूरा करती तो यह आश्चर्य का विषय होता। जम्मू कश्मीर के संदर्भ में दोनों की विचारधारा में दो ध्रुवों को अंतर है। उसमें यह गठबंधन करीब सवा तीन वर्ष चल गया यही सामान्य बात नहीं है। 8-9 जून को गृहमंत्री राजनाथ सिंह जम्मू कश्मीर की यात्रा पर थे जिसमंे मेहबूबा मुफ्ती के साथ जब भी वे सामने आए ऐसा आभास हुआ ही नहीं कि वाकई गठबंधन को लेकर कोई तनाव है। प्रदेश सरकार द्वारा भारी संख्या में पत्थरबाजों की रिहाई पर उनसे प्रश्न किया गया तो उन्होंने का कि बच्चे थे माफ कर दिया। इसका संदेश यही गया कि मेहबूबा की इस नीति को केन्द्र सरकार का समर्थन है। गृहमंत्री के पूर्व 19 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वहां गए थे। उन्होंने अपनी यात्रा में करीब 32 हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं की नींव रखी या शिलान्यास किया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि सभी समस्याओं का हल विकास है। हम दीपावली मनाने भी आपके बीच आए थे और इस बार रमजान में आए हैं। इन सबका संदेश यही था कि केन्द्र सरकार भी मेहबूबा मुफ्ती और उनके मरहूम पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की तरह लोगों का विश्वास जीतने की नीति पर चल रही है। तो फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि भाजपा ने प्रधानमंत्री की यात्रा के एक महीने तथा गृहमंत्री की यात्रा के दस दिनों बाद ही सरकार से अलग होने का फैसला कर लिया?

सरकार से अलग होने की घोषणा करते हुए भाजपा के महासचिव राम माधव ने कहा कि घाटी में आतंकवाद, कट्टरपंथ और हिंसा बढ़ रही है। लोगों के जीने का अधिकार और बोलने की आजादी भी खतरे में है। पत्रकार शुजात बुखारी की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई किंतु सरकार कुछ नहीं कर सकी। रमजान के दौरान हमने ऑपरेशन रोके, ताकि लोगों को सहूलियत मिले। हमें लगा कि अलगाववादी ताकतें और आतंकवादी भी हमारे इस कदम पर अच्छी प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। महबूबा मुफ्ती हालात संभालने में नाकाम साबित हुईं। राज्य के तीनों क्षेत्र जम्मू, लद्दाख और कश्मीर के समान विकास के लिए केंद्र ने पूरा सहयोग दिया पर राज्य सरकार द्वारा जम्मू क्षेत्र के साथ भेदभाव किया गया। अगर यहीं कारण हैं तो ये एक दो दिनों में पैदा नहीं हो गए। फिर इसी समय क्यों?

वस्तुतः केन्द्र सरकार ने मेहबूबा का आग्रह मानकर रमजान के दौरान सैन्य कार्रवाई स्थगित कर दिया, जिसका परिणाम अच्छा नहीं आया। एक महीने की समीक्षा के बाद इसे बनाए रखने का कोई आधार नहीं था। सरकार ने अपनी गलती सुधारी और सेना को ऑपरेशन ऑल आउट फिर से चलाने का आदेश मिल गया। मेहबूबा किसी सूरत में इसके पक्ष में नहीं थीं। वो सैन्य कार्रवाई स्थायी रुप से रोकना चाहतीं थीं। मेहबूबा का यही बयान है कि जम्मू-कश्मीर में सख्ती की नीति नहीं चल सकती है। इससे कौन राष्ट्रीय पार्टी सहमत हो सकती है। यह मतभेद ऐसा था जिसमें बीच का रास्ता नहीं बचा था। संभव था मेहबूबा इसे एक बड़ा मुद्दा बनाती, इसके साथ कुछ और मुद्दे जोड़ती और इस्तीफा देती। भाजपा उनको ऐसा मौका नहीं देना चाहती थी इसलिए उसने पहले ही फैसला कर लिया। वैसे अनेक विषय थे जिनमें दोनों के बीच एक राय नहीं हो सकती। भाजपा के फैसले के बाद मेहबूबा ने पत्रकार वार्ता करके यह बताने की कोशिश की कि उन्होंने खंडित जनादेश को देखते हुए केन्द्र सरकार की पार्टी के साथ इसलिए गठबंधन करके सरकार बनाया ताकि कश्मीर समस्या का हल किया जा सके। उन्होंने अपनी उपलब्धियां क्या गिनाईं? रमजान के दौरान संघर्ष विराम, करीब 11 हजार पत्थरबाजों से मुकदमा हटाना, अनेक नेताओं पर से मुकदमा खत्म करना, भाजपा के साथ रहते हुए अनुच्छेद 370 को बचाना, भारत पाकिस्तान के बीच बातचीत करवाना.... आदि। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिसंबर 2015 में लाहौर जाने का श्रेय भी स्वयं ले लिया।

हम जानते हैं कि न प्रधानमंत्री के लाहौर जाने में उनकी कोई भूमिका थी और न अनुच्छेद 370 बचाने में। भाजपा अनुच्छेद 370 हटाने की दिशा में कोई काम कर ही नहीं रही है। यह सही है कि भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार चलाने के लिए सीमा से ज्यादा समझौता किया। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने ही मशर्रत आलम जैसे कई अलगावादी नेताओं के मुकदमे वापस लिए। आसिया अंद्राबी द्वारा पाकिस्तानी झंडा फहराने एवं भारत के विरुद्ध देशविरोधी भाषण के बावजूद कार्रवाई नहीं हुई। यह सब भाजपा की नीति के विरुद्ध था।  कहने का तात्पर्य यह कि पीडीपी जितना संभव था अपने एजेंडे को पूरा करने में लगी रही। मुफ्ती सईद के इंतकाल के बाद मेहबूबा भी उसी रास्ते चलीं। इससे गठबंधन के अंदर तनाव बढ़ता रहा। पत्थरबाजों की रिहाई के बारे में गृहमंत्री चाहे जो कहें स्थानीय पार्टी ईकाई तथा सरकार के भाजपा में मंत्रियों के लिए अपने मतदाताओं को जवाब देना कठिन था। उसके बाद कठुआ में नाबालिग बच्ची से दुष्कर्म एवं हत्या की घटना में मेहबूबा ने कश्मीर की अपराध शाखा से जांच कराई। पूरे जम्मू में यह वातावरण बना कि निरपराध हिन्दुओं को फंसाया जा रहा है, भाजपा के दो मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया, पूरा आंदोलन चला लेकिन हुआ कुछ नहीं। फिर सरकारी भूमि से गुज्जर, बक्करवालों को न हटाने जैसे फैसले कर मेहबूबा ने भाजपा के लिए मुश्किलें पैदा की। मजहबी संगठन अहले हदीस को सरकारी भूमि देने के मामले में भी मेहबूबा ने भाजपा की नहीं सुनी। एक ओर वो अपने अनुसार फैसले ले रहीं थी लेकिन श्री बाबा अमरनाथ भूमि आंदोलन में हिस्सा लेने वाले युवाओं के खिलाफ मामले वापस लेने के लिए राजी नहीं हुई। भाजपा के सामने साफ हो गया कि जिस जम्मू ने उसे 25 सीटें दीं वहां से उसका जनाधार खिसक रहा है।

मेहबूबा आतंकवादियों के केवल सैन्य कार्रवाइयों के ही खिलाफ नहीं थीं, वो बार-बार पाकिस्तान के साथ बातचीत करने का अनुरोध कर रहीं थीं। पाकिस्तान से बातचीत राष्ट्र की विदेश नीति का विषय है। मेहबूबा चाहती थी कि केंद्र सरकार हुर्रियत समेत सभी अलगाववादियों से भी बातचीत करे। हालांकि उसके लगातार आग्रह पर केन्द्र सरकार ने दिनेश्वर सिंह को वार्ताकार नियुक्त किया लेकिन यह साफ नहीं किया कि उनको किससे बात करनी है और उसका आधार क्या होगा। हुर्रियत के बारे में मोदी सरकार का कड़ा रुख रहा है। मेहबूबा के कारण कुछ नरमी आई लेकिन एक सीमा से आगे जाना उसके लिए राजनीतिक मौत होता और इससे कश्मीर समस्या के समाधान की भी कोई संभावना नहीं बनती। इसके पहले भी हुर्रियत के साथ बातें हुईं हैं उनका जब कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला तो आगे निकलेगा यह मानने का कोई कारण ही नहीं था।

सच यह है कि भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार के लिए एजेंडा नामक एक साझा कार्यक्रम बनाकर गठबंधन अवश्य किया लेकिन साफ था कि इसमें भाजपा ने अपने लगभग सारे मुद्दों का परित्याग किया। पीडीपी को यदि 28 सीटें मिलीं थीं तो भाजपा को 25। तब भाजपा को दो निर्दलीयों का भी समर्थन मिल गया था। ंिकंतु उसे कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिला। उसके मंत्री सरकार में दोयम दर्जे की मानसिकता में काम कर रहे थे। ऐसे गठबंधन को तो खत्म होना ही था। हालांकि यह मानना भी गलत होगा कि भाजपा ने बिल्कुल हथियार डाल दिया। एनआईए ने आतंकवाद के वित्त पोषण की जांच करते हुए अलगाववादी नेताओं को जेल में डाला है। यह मेहबूबा को नागवार गुजर रहा था। एनआईए की छानबीन से साफ हो रहा था कि कुछ और नेता अंदर जा सकते हैं। वैसे पीडीपी के साथ 2002 में कांग्रेस ने भी गठबंधन किया था। मुफ्ती सईद तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे एवं कांग्रेस के लिए परेशानियां पैदा करते रहे। समझौते के अनुसार जब गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री हुए उन्होंने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया। आजाद के लिए काम करना मुश्किल हो गया और एक समय आया जब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। जब कांग्रेस के साथ पीडीपी की पटरी नहीं बैठी तो भाजपा के साथ कैसे निबह सकती थी। भाजपा ने इस गठबंधन से काफी कुछ खोया है। अब उसके पास अवसर है कश्मीर में आतंकवादियों का सफाया कर और अलगाववादियों की कमर तोड़कर इसकी भरपाई करे। हां, वहां ज्यादा दिनों तक राज्यपाल शासन लगाए रखना भी उचित नहीं होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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