शुक्रवार, 24 जून 2022

सामान्य नहीं यह हिंसा

अवधेश कुमार

 अग्निपथ के विरोध में हुई हिंसा और आगजनी ने पूरे देश को चौंकाया है। आप किसी भी दृष्टिकोण से अग्निवीर को देख लीजिए विरोध के नाम पर ऐसी हिंसा और अराजकता का कोई कारण नजर नहीं आएगा। कुछ समय के लिए अग्निवीर के तथ्यों को अलग रख दीजिए। जरा सोचिए,  इसमें ऐसा क्या है जिसके सामने आते ही विरोध के नाम पर भीषण आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा होने लगे? 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब पिछड़ों के लिए आरक्षण की योजना केंद्र की सेवाओं में भी लागू की तो इस तरह का विरोध हुआ था। उसमें गैर दलित व गैर पिछले पिछड़ी जातियों के छात्रों को लगा था कि आरक्षण से उनके लिए नौकरियों के अवसर कितना जाएंगे। इस कारण विरोध में व्यापक हिंसक हुआ और छात्रों द्वारा आत्मदाह करने तक की घटनाएं हुई। अग्निवीर योजना में किसी का कुछ जाना नहीं है। यह योजना अनिवार्य नहीं है। जिसे पसंद होगा वह योजना में आवेदन करेगा और जाएगा जिसे नहीं पसंद होगा नहीं जाएगा। विरोधियों ने देश और दुनिया में ऐसे प्रस्तुत कर दिया है मानो हजारों -लाखों लोग सेना में भर्ती होने वाले थे जिनको इस योजना से वंचित कर दिया गया है। यही नहीं भविष्य के लिए उनके रास्ते अवरुद्ध कर दिए गए हैं तथा केवल 4 वर्ष की अवधि के लिए निश्चित वेतनमान पर सेवा लेकर उन्हें जीवनभर के लिए निराश्रित और बेरोजगार छोड़ दिया जाएगा। यानी कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी सरकार की छवि ऐसी बनाई गई है कि यह रोजगार की तलाश कर रहे युवाओं और छात्रों की दुश्मन है। उन्हें सेना जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के रोजगार से वंचित रखना चाहती है। ध्यान रखने की बात है कि जिस दिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस योजना की घोषणा की उसके कुछ ही देर बाद से इसका विरोध आरंभ हो गया जो धीरे-धीरे भारी हिंसा आगजनी तोड़फोड़ से बढ़ता चला गया। क्यों? अग्निवीर योजना की पूरी जानकारी इतनी जल्दी विरोध करने वालों के पास कैसे पहुंच गई?

यद्यपि हिंसा कई राज्यों में हुए लेकिन सबसे ज्यादा शिकार बिहार हुआ है। तो यह प्रश्न भी उठेगा कि आखिर बिहार में सबसे ज्यादा हिंसा क्यों? अगर सेना में भर्ती से वंचित होने का ही सवाल है तो हिंसा देखकर निष्कर्ष यही निकलेगा कि बिहार से भारी संख्या में नौजवान हर वर्ष भर्ती होते हैं। सच यह है कि प्रतिवर्ष बिहार से सेना में जाने वाले युवाओं की संख्या औसत ढाई हजार है। उत्तर प्रदेश की भी औसत संख्या 6500 है। इतनी कम संख्या में जहां लोग सेना में जाते हो वहां इतनी बड़ी हिंसा अग्निवीर के कारण तो नहीं हो सकती। बिहार से ज्यादा हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड से लोग सेना में जाते हैं। जाहिर है, ऐसी हिंसा का मूल कारण कुछ और है। यह नहीं कह सकते कि इस आंदोलन में छात्र और नौजवान नहीं है लेकिन आंदोलन केवल उनका नहीं है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। हिंसा के आ रहे विजुअल की थोड़ी गहराई से समीक्षा करेंगे तो साफ दिख जाएगा कि अनेक जगह आग लगाने वाले बिल्कुल पारंगत है। जिस तरह रेलवे की बोगी में पेट्रोल डालकर आग लगाया जा रहा है इससे पता चलता है कि इसका ज्ञान उनको है। सामान्य आंदोलनों की आगजनी में थोड़ा जला ,थोड़ा रह गया, कहीं आग लगा फिर बुझ गया। इस आंदोलन में ज्यादातर जगहों की आगजनी में संपत्तियां पूरी तरह खाक हो गई। एक विजुअल में साफ दिखा कि बिहार के तारेगाना रेलवे स्टेशन में स्टेशन मास्टर का केबिन व्यवस्थित तरीके से जल रहा है । तारेगना रेलवे स्टेशन में पुलिस के साथ मोर्चाबंदी में प्रदर्शनकारियों की ओर से गोलियां चलीं। गोलियां चलाने वाले क्या सामान छात्र और नौजवान थे? ये तो कुछ उदाहरण हैं। आप देखेंगे कि चेहरे पर कपड़ा बांधे हुए हाथों में लाठी ,डंडे, पेट्रोल के कनस्तर लिए ऐसे लोगों की बड़ी संख्या इस हिंसा में चारों तरफ नजर आ रही है। बिहार में 8 बजे रात से सुबह 4 बजे तक ट्रेनों का चालन निश्चित किया गया क्योंकि पुलिस का ने बताया 5 बजे सुबह से पत्थरबाजी शुरू हो जाती है। इतने पत्थरबाज कहां से आ गए? कश्मीर से निकलकर पत्थरबाजी उत्तर प्रदेश से बिहार और झारखंड तक पहुंची है।

 

ऐसे अनेक डरावने तथ्य हैं जिनके आधार पर आप मोटा -मोटी अनुमान लगा सकते हैं कि विरोध और आंदोलन के नाम पर कैसी शक्तियां इसके पीछे हैं।

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल ,कांग्रेस सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने आंदोलन और दूसरे दिन आयोजित बंद का समर्थन किया था।  जब आंदोलन के नाम पर इतनी हिंसा होने लगी राजनीतिक पार्टियों का दायित्व था कि अपने को अलग होने की घोषणा करते। इसकी जगह इन्होंने दूसरे दिन बंद का समर्थन किया और राजद, कांग्रेस जनाधिकार पार्टी तथा कम्युनिस्ट पार्टियों के कार्यकर्ता जगह-जगह स्वयं जबरन बंद कराते देखे गए । 18 जून के दिन टेलीविजन में ज्यादातर बायट राजद नेताओं के आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यह आंदोलन उस पार्टी का है । राजद कहती है कि हिंसा से उसका कोई लेना-देना नहीं तो फिर इसकी जिम्मेवारी किसके सिर जा सकती है ? राजद बिहार की बड़ी राजनीतिक शक्ति है ।उसके सहयोग और साथ के बिना सरकार के विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन संभव नहीं था। बिहार में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री सहित कई नेताओं के घरों पर हमले हुए और तीन जिलों में कार्यालय जला दिए गए। यह सब किसी सामान आंदोलन का उदाहरण तो नहीं हो सकता।

 वास्तव में देखा जाए तो 2018 के बाद से भारत में केंद्र की मोदी सरकार के विरोध में होने वाले अभियान ऐसे ही हिंसक होते गए हैं। नागरिकता कानून संशोधन के दौरान जामिया मिलिया से आरंभ हिंसा कई जगह गया। कृषि कानून विरोधी आंदोलन में लाल किले की हिंसा सबको याद है। पिछले दिनों एक परीक्षा को लेकर व्यापक पैमाने पर इसी तरह हिंसा हुई। ज्ञानवापी और भाजपा के एक प्रवक्ता के टेलीविजन डिबेट मेंदिए गए जवाब विरोध के नाम पर प्रदर्शन और हिंसा सबसे ताजा है।10 जून जुम्मे की नमाज के बाद की हिंसा भुला नहीं जा सकता। कई मुस्लिम नेताओं ने अगले जुम्मे को भी बंद और विरोध की घोषणा की थी । ध्यान रखिए ,17 जून के मुख्य विरोध प्रदर्शन का दिन भी जुम्मा का ही था। देश में और बाहर ऐसी बड़ी शक्तियां किसी भी मुद्दे को लेकर विरोध के नाम पर हिंसा, आगजनी तथा उसके दुष्प्रचार के लिए पूरी तैयारी से काम करता है। इन शक्तियों की पूरी कोशिश भारत में केवल अशांति, अराजकता और हिंसा ही पैदा करना नहीं, दुनिया को संदेश देना है कि केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की भाजपा सरकार से शासन संभल नहीं रहा, देश में उनके विरुद्ध आक्रोश है, इसलिए लोग सड़कों पर उतर कर आगजनी कर रहे हैं, कानून व्यवस्था विफल है। दूसरी ओर सरकार के स्तर पर कभी इनसे कड़ाई से निपटने और इनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का कदम नहीं उठाया गया। पहली बार उत्तर प्रदेश विरोध प्रदर्शन में हिंसा करने वालों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई हो रही है। चाहे शाहीनबाग का नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध अवैध धरना हो या जामिया मिलिया की हिंसा या फिर किसी कानून विरोधी आंदोलन में लाल किले की भयानक हिंसा, इनके पीछे की ताकतों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई हो ऐसा देश के सामने नहीं आया। इससे हिंसा पकरने वालों का हौसला बढ़ता है कि हम कुछ भी करेंगे हमारे विरुद्ध कार्रवाई नहीं होगी। दूसरे ,कृषि कानूनों की वापसी से इनका हौसला बढ़ा। इतने मान लिया कि हमने सरकार पर दबाव बनाया तो चाहे उसकी योजना जितनी सही हो वह वापस ले लेगी। विरोधियों की समस्या यह भी है कि वे नहीं चाहते कि 2024 तक मोदी सरकार की लोकप्रियता बनी रहे। इसलिए ऐसी योजनाओं को हर हाल में विफल करना चाहते हैं जिनसे मोदी सरकार की लोकप्रियता में वृद्धि हो। अग्निवीर योजना में अगर प्रति वर्ष 60 हजार के आसपास दसवीं से बारहवीं पास नौजवान ,जिनके लिए रोजगार नहीं होता, जाते हैं तो वे जो कुछ सीखेंगे, नौकरी से निकलने के बाद उन्हें जो अवसर और लाभ मिलेंगे वह सब उनको मोदी सरकार का समर्थक बना सकती है। तो यह भाव भी विरोधियों के अंदर काम कर रहा है ।इसलिए विपक्षी दल हिंसा, उपद्रव और अराजकता देखते हुए साथ दे रहे हैं और केवल औपचारिक घोषणा करते हैं कि हिंसा नहीं होनी चाहिए। 

सच कहा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे धीरे-धीरे देश उस दशा में जा रहा है जहां सरकार के विरोध के नाम पर ऐसी हिंसा और तोड़फोड़ सामान्य घटना बन जाएगा। इसमें पहली आवश्यकता तो लोगों के सामने सच लाने की है ताकि भ्रमित होने की गुंजाइश न रहे। हिंसा जब जहां हो वहां कुछ कार्रवाई करने की रणनीति के परे मोदी सरकार पिछले 3 वर्ष के ऐसे आंदोलनों की समीक्षा कर एक समग्र रणनीति बनाए ताकि उन तत्वों की पहचान कर उन से निपटा जाए और भविष्य में इस तरह के साजिश करने वालों से देश सुरक्षित रहे।

अवधेश कुमार,ई- 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 1100 92, मोबाइल 98210 27208



रविवार, 19 जून 2022

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था ने 195 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई

नई दिल्ली। नई पीढ़ी-नई सोच संस्था की ओर से 195 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई। संस्था की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 195 बच्चों ने पोलियो की दवा पी।   यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लीनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाई जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 195 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाई गई। संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्राोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए। संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्रामों के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा। संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज ने कहा कि सरकार द्वारा चलाई जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल कर लेगी और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है। संस्था के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की मदद करते रहें क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो सुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता।  समाजसेवी अब्दुल खालिक ने कहा कि लोगों को अपने बच्चों को हमेशा सरकार के कार्यक्रमों में भाग लेना चाहिए चाहे वह कोई भी हो और यह तो बच्चों के जीवन से जुड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि लोग आज भी बच्चों को पोलियो की दवा नहीं पिलाते हैं जो कि गलत है। इस अवसर पर संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, संस्था के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मौ. रियाज, राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी, सदरे आलम, आजाद, मौ. सज्जाद, शान बाबू, इरफान आलम, यामीन, मो. मुन्ना अंसारी, अब्दुल रज्जाक, मो. सलीम आदि मौजूद थे।


शनिवार, 18 जून 2022

विरोध और हिंसा के पीछे कौन है

अवधेश कुमार

निस्संदेह, इससे भयावह परिदृश्य देश के लिए शायद ही कुछ होगा। जुम्मे की नमाज के बाद कई राज्यों में एक साथ जिस तरह उग्र हिंसक प्रदर्शन हुए उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। जो कुछ हुआ वह सबके सामने है। इसलिए उसे दोहराने की जरूरत नहीं। जब भी इस तरह का हिंसा होती है हर विवेकशील भारतीय सोचता है कि इस समय हमारा दायित्व सबसे पहले देश में शांति स्थापित करना है। निंदा, आलोचना और विरोध बाद में कर लेंगे पहले देश को बचाना जरूरी है । जाहिर है, ऐसे समय हमेशा शांति , सद्भावना तथा मेल मिलाप की बात को ही प्राथमिकता दी जाती है और यह सही है । किंतु अगर कुछ समूह, संगठन या लोग हर दृष्टि से सक्रिय हो कि यहां अशांति और उपद्रव पैदा करना है तो शांति और सद्भाव की भाषा सफल नहीं होती। यह प्रयास तभी सफल होग जब समूची स्थिति को ठीक से समझा जाए। लोकतांत्रिक देश में सबको किसी मुद्दे पर अपना विरोध प्रकट करने का अधिकार है। किंतु विरोध हमेशा क्यों ,कब और कैसे के साथ आबद्ध रहना चाहिए। जुम्मे की नमाज के बाद मस्जिदों से निकलकर किए गए विरोध प्रदर्शन ज्यादातर जगह डरावने थे। अनेक जगह जिस तरह की हिंसा हुई उनसे साफ हो गया कि विरोध नियोजित करने वाले के इरादे कुछ और थे और हैं। धीरे धीरे सच सामने आ भी रहा है। यह बात सामान्य लोगों के गले नहीं उतरती कि विरोध प्रदर्शन के लिए जुम्मे का दिन और नमाज के बाद का समय ही क्यों चुना गया होगा?

देश के अनेक हिस्सों में एक ही समय एक साथ एक ही तरह के प्रदर्शन स्वतः स्फूर्त नहीं हो सकते। निश्चित रूप से इसके पीछे योजना थी। कुछ समूह, संगठन और लोग निश्चित रूप से इसकी योजना बना रहे होंगे। इतने क्षेत्रों में ये बातें कैसे और क्यों पहुंची होंगी यह प्रश्न भी मायने रखा जाना चाहिए। टेलीविजन डिबेटों में बैठने वाले अनेक मुस्लिम चेहरे बता रहे हैं कि मुसलमान सब कुछ सहन कर लेगा लेकिन अपने नबी का अपमान नहीं सहेगा। इस तरह की सोच इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि हिंदुओं के अंदर दूसरे मजहब के या उनके संस्थापकों- पैगंबरों के बारे में हमेशा सम्मान का भाव रहा है। अपमान की तो सोच भी नहीं सकते।  टेलीविजन डिबेट में भाजपा की एक प्रवक्ता द्वारा की गई टिप्पणी को इन सबका कारण बताया जा रहा है। किसी सभ्य समाज का तकाजा यही है कि अगर कोई टिप्पणी आपको गलत लगता है तो उसका जवाब तथ्यों और तर्कों से दिया जाए। अगर भारत के कानून का उसमें उल्लंघन है तो कानूनी एजेंसियों को कार्रवाई करने दी जाए। कानूनी एजेंसियां कार्रवाई नहीं करतीं तो आपके पास न्यायालय में जाने का रास्ता खुला हुआ है। न्यायालय भी अंततः कानूनी दायरे में ही कार्रवाई करेगा। यहां समस्या यह है कि एक ओर तो ये संविधान और कानून की बात करते हैं, न्यायालयों में विश्वास प्रकट करते हैं, लेकिन दूसरी ओर स्वयं देश को भयभीत करते हैं। आखिर इस तरह के विरोध प्रदर्शनों का लक्ष्य क्या हो सकता है? यही न कि आक्रामक उग्र प्रदर्शनों से सरकार, पुलिस, प्रशासन और गैर मुस्लिमों को डराया जाए? संदेश दिया जाए कि हमारे विरुद्ध किसी प्रकार की कार्रवाई हुई तो हम देश में उथल-पुथल मचा देंगे?

अगर लोकतंत्र का किंचित भी सम्मान इनके मन में होता तो इस तरह जुम्मे की नमाज के बाद आक्रामक और विरोध प्रदर्शन नहीं होते, आपत्तिजनक नारे नहीं लगाए जाते, हिंसा नहीं होती। लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून के शासन में किसी भी प्रकार के आरोप या अपराध के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की निर्धारित प्रक्रिया है। प्राथमिकी दर्ज हो गई है तो प्रक्रिया के हिसाब से कार्रवाई होगी। गिरफ्तारी का मूल मकसद यही है कि आरोपी बाहर रहा तो वह साक्ष्यों को नष्ट कर सकता है, छेड़छाड़ कर सकता है। इस मामले में सबूत छिपाने, नष्ट करने या छेड़छाड़ करने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि जो बोला गया और लाइव डिबेट का हिस्सा है और उसके वीडियो हर जगह उपलब्ध है। बावजूद पुलिस या न्यायालय को आवश्यक लगा तो गिरफ्तारी भी हो सकती है। कानूनी प्रक्रिया हिंसा के दबाव में तो नहीं बदल सकती।

ध्यान रखने बात है कि अगर मुसलमानों में इतना गुस्सा था तो डिबेट के दो-चार दिनों के अंदर विरोध विरोध प्रदर्शन होना चाहिए। घटना के 17 दिनों बाद प्रदर्शन का मतलब है कि कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाने वाली बात है। डिबेट के बाद दो जुम्मे के नमाज भी निकल गए। साफ है कि भाजपा प्रवक्ता के टीवी डिबेट के उस हिस्से को बहाना बनाया गया। असल मकसद कुछ और है। वास्तव में मुसलमानों के अनेक बड़े चेहरों का अस्तित्व भाजपा, संघ यहां तक कि हिंदुओं से भय बनाए रखने पर टिका है। वे ऐसे अनेक समूहों संगठनों व्यक्तियों से रिश्ता रखते हैं जो सामने नहीं दिखते। पिछले काफी समय से दुष्प्रचार किया जा रहा है कि मुसलमानों की सारी मस्जिदें छीन जाएगी, एक दिन उनके लिए अपने मजहब का पालन करना संभव नहीं रहेगा, नमाज नहीं पढ़ सकेंगे, रोजा नहीं रख सकेंगे आदि आदि। ज्ञानवापी मामला उभरने के बाद हमने देखा कि मजहबी राजनीतिक मुस्लिम नेताओं ने कैसी आग लगाने वाली भाषायें बोली है। असदुद्दीन ओवैसी ने सिर पर सफेद कपड़ा बांध लिया जो कफन का प्रतीक है। 

कानपुर के एक मौलाना ने कहा कि सिर पर कफन बांध कर निकलेंगे। देवबंद में जमीयत ए उलेमा ए हिंद के सम्मेलन में पारित प्रस्ताव व भाषण उत्तेजित करने वाले थे। दुष्प्रचार यह  किया गया है कि मोदी और योगी सरकार जानबूझकर ज्ञानवापी मामले को सामने लाई है जबकि पूरा मामला ही न्यायालयों के कारण आया है। यह भी दुष्प्रचार हो रहा है कि धीरे-धीरे सारे प्रमुख मस्जिदों पर ये दावा करेंगे कि यह पहले हिंदू मंदिर था। मुसलमानों के अंदर या भावना तीव्रता से पैदा करने की कोशिश हुई है कि अगर उठकर लड़ने मरने को तैयार नहीं हुए तो तुम और तुम्हारा मजहब दोनों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में ये लोग भाजपा के पराजय की कामना कर रहे थे।  इसके उलट योगी आदित्यनाथ फिर मुख्यमंत्री बन गए। रमजान के महीने में एक भी नमाज सड़क पर नहीं हुआ। मुस्लिम नेता सड़कों पर नमाज को भी सरकार एवं प्रशासन पर दबाव के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। मुसलमानों को बताया जाता था कि सड़क पर उतरने से तुम्हारी संख्या बहुत ज्यादा दिखती है और इसका असर नेताओं व प्रशासन पर होगा। सड़क से हटाने का मतलब तुमको कमजोर बना देना है। यह समय है कि उठो सड़कों पर उतरो और अपने अस्तित्व बचाने के लिए लड़ाई लड़ो अन्यथा भाजपा की सरकारें हमें कहीं का नहीं रहने देंगी। इससे आम मुसलमानों में भय और आशंका पैदा होना स्वभाविक है।

निश्चित रूप से इस तरह का भाव पैदा करने के साथ कोई संगठन ,समूह , व्यक्तियों का समूह इसकी तैयारी में सक्रिय था। एक ही समय में देश के 11 राज्यों में जुम्मे की नमाज के बाद मस्जिदों के बाहर प्रदर्शन बगैर बड़ी तैयारी के संभव ही नहीं थी। जगह जगह पत्थरबाजी और तोड़फोड़ एकाएक हुए प्रदर्शन में संभव नहीं। प्रयागराज में तो बम तक चले। पश्चिम बंगाल में कई दिनों तक हिंसा होती रही है। मुस्लिम समुदाय के अंदर से ही कुछ संगठन और व्यक्तियों के नाम सामने आ रहे हैं। पुलिस की कार्रवाई से भी काफी सच सामने आ रहा है। उत्तर प्रदेश में इनके विरुद्ध कानून की सख्ती से काफी लोग पकड़े गए हैं । आने वाले समय में इसका भी खुलासा होगा कि किन-  किन स्रोतों से इसके लिए धन आया किन्हें किस तरह मिला। या राज्यों के पुलिस प्रशासन की जिम्मेवारी है कृषक सामने लाए और दोषियों के विरुद्ध इस तरह की कार्रवाई हो कि आगे ऐसा अपराध करने की कोई सोचे तक नहीं। इन्हें समझना पड़ेगा कि भारत में मुसलमानों की संख्या 2 देशों के बाद सबसे ज्यादा है लेकिन हम इस्लामी मुल्क नहीं है कि ईशनिंदा जैसा कानून बना दें। हमारे यहां फार्म और पंथ के अंदर भी बाहर और विमर्श की परंपरा है। हिंदू धर्म के देवी देवताओं के विरुद्ध ना जाने कितनी अपमानजनक टिप्पणियां पुस्तकों में भरी है। पता चलने पर उनका विरोध भी होता है पर ऐसी नौबत कभी नहीं आई की भारी संख्या में लोग सड़कों पर उतर कर हिंसा और उत्पात कर दें। लेकिन प्रश्न है कि जो इस तरह के विवेक सम्मत बार किया उत्तर सुनने को ही तैयार नहीं उनके साथ क्या किया जाए?

अवधेश कुमार को,ई 30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 1100 92, मोबाइल 98110 27208

शुक्रवार, 10 जून 2022

इन देशों का रवैया चिंतित करने वाला है

अवधेश कुमार

भाजपा नेताओं द्वारा इस्लाम से संबंधित टिप्पणी पर कई इस्लामिक देशों में हो रही प्रतिक्रियाएं किसी दृष्टि से सामान्य घटना नहीं है। कतर ,कुवैत और ईरान ने भारतीय राजदूतों को सम्मन कर लिखित नाराजगी जताई। यही नहीं सऊदी अरब, कुवैत और बहरीन के स्टोरों से भारतीय चीजें हटाए जाने की अपील सोशल मीडिया पर आने लगी और ऐसा होते देखा भी गया। ओमान के ग्रैंड मुफ्ती ने सभी मुस्लिम राष्ट्रों से इस मुद्दे पर एकजुट होने को कहा। पाकिस्तान और इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी ने इस पर बयान जारी कर दिया। पूरा विवाद एक टीवी बहस से संबंधित है जिसमें ज्ञानवापी में शिवलिंग की आकृति को फव्वारा बताने के विरुद्ध भाजपा की एक प्रवक्ता ने प्रश्नवाचक लहजे में कुछ टिप्पणी की थी। एक नेता ने उसको रीट्वीट कर दिया। यह इतना बड़ा विवाद बन जाएगा इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। 

टीवी डिबेट में आजकल तनाव बढ़ने पर ऐसी कई टिप्पणियां आती हैं जिनको मुद्दा बना दिया जाए तो हर दिन देश में तनाव और हिंसा हो सकता है तथा इसकी प्रतिध्वनि विदेशों में भी सुनाई पड़ेगी। ऐसे कम ही अवसर आए होंगे जब किसी देश में ऐसे मामले पर दूसरे देश के राजदूत को तलब किया होगा जिसमें द्विपक्षीय या फिर अंतरराष्ट्रीय मसले नहीं हो। किसी देश में टेलीविजन डिबेट या भाषण में की गई किसी नेता की टिप्पणी दूसरे देश के लिए मुद्दा कैसे हो सकता है? भाजपा ने अपने जिन नेताओं के विरुद्ध कार्रवाई की है उन्होंने इन देशों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी। इसलिए यह विषय हमें कई पहलुओं पर गंभीरता से सोचने को बाध्य करता है।  देशों का रवैया देखिए, कतर की सरकार ने दोहा स्थित भारतीय राजदूत को बुलाकर मोहम्मद पैगंबर साहब के बारे में की गई कथित टिप्पणियों का मुद्दा उठाया। कतर के विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि विदेश मंत्री सुल्तान विन साद अरमुरैखी ने नोटिस सौंपा। इसमें कहा गया कि भारत में सत्ताधारी पार्टी के नेता की तरफ से दिये गये इस तरह के बयान को पूरी तरह खारिज करती है। इस तरह की टिप्पणियों से पूरी दुनिया में धार्मिक नफरत बढेगा। यह टिप्पणी भारत समेत पूरी दुनिया में सभ्यता के विकास में जो योगदान इस्लाम ने दिया है उसे कमतर करती है । ध्यान रखिए इसमें साफ कहा गया है की कतर सरकार को उम्मीद है कि भारत सरकार इस बारे में सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी।


जब इसमें सरकार सही है नहीं तो फिर माफी मांगने का सवाल कहां से पैदा होता है ? हालांकि कतर ने भाजपा द्वारा अपने नेताओं के खिलाफ कार्रवाई का स्वागत किया। भारत के प्रतिनिधि के रूप में राजदूतों ने यह स्पष्ट किया कि भारत विविधताओं का देश है। यहां सभी मजहबों के लिए सम्मान है और जिन लोगों ने ऐसा किया उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है। 

किसी भी मजहब या उनके पैगंबरों के सम्मान के विरुद्ध कोई टिप्पणी समाज में स्वीकार नहीं हो सकती । क्या डिबेट में कही गई किसी पंक्ति को वाकई इस श्रेणी का माना जा सकता है? अगर है भी तो क्या भारत के साथ पुराने संबंध रखने वाले इन देशों को पता नहीं कि यहां संविधान में सभी पंथों,मजहबों को अपनी परंपरा के अनुसार जीने, मान्य सीमाओं में प्रचार करने का पूरा अधिकार है? यहां हिंदू ,मुसलमान, सिख, ईसाई आदि के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं है? बावजूद अगर उन्होंने इस तरह का असाधारण कदम उठाया तो इसके कारण साफ हैं। सच यह है कि इन देशों के अंदर ही दूसरे पंथों- मजहबों को वैसी स्वतंत्रता नहीं जैसी भारत जैसे देश में है। गैर मुस्लिम भारतीयों को अपने धर्म के पालन में वहां अनेक कठिनाइयां आती है। लेकिन हमारी सरकार ने कभी वहां के राजदूतों को बुलाकर अपनी आपत्ति और नाराजगी नहीं जताई। दुनिया के ज्यादातर गैर मुस्लिम देशों ने ही शायद ही कभी ऐसा किया होगा। अगर देश किसी दूसरे देश में की गई टिप्पणियों को द्विपक्षीय संबंधों का मुद्दा बनाकर इस तरह उठाने लगे तो फिर दुनिया में अराजकता ही पैदा होगी। न यह किसी अंतरराष्ट्रीय कानून में आता है और न ही अंतरराष्ट्रीय राजनय में इसके बारे में मापदंड तय किए गए हैं। 

भारत बहरीन, कतर ,ईरान ,इराक ,लिबिया नहीं है जहां मजहबों पर खुली बहस नहीं हो सकती। उसमें कई बार संभव है कुछ ऐसी टिप्पणियां हो जाए जो बोलने वाले के लिए सामान्य हो लेकिन दूसरे लोग उसके अपने अनुसार मायने निकालें। जो भी हो यह देश के अंदर का विषय होना चाहिए था। जरा सोचिए, हिंदू धर्म और हमारे पूज्य देवी देवताओं के बारे में स्वयं भारत एवं दुनिया के अलग-अलग देशों में कई बार नकारात्मक टिप्पणियां की गई हैं। ऐसे अनेक रेखाचित्र और व्यंग्य कार्टून बनाए गए जो हमारी भावनाओं के विरुद्ध रहे हैं। मुझे याद नहीं कि कभी भारत सरकार ने इसके लिए उस देश से कभी इस तरह औपचारिक नाराजगी प्रकट की हो । इस आधार पर व्यवहार हो तो दुनियां के अनेक विश्वविद्यालयों में मान्य पुस्तकें हैं जहां हिंदू धर्म के बारे में दी गई जानकारियां सामान्य अपमान की सीमा को पार करती है। तो भारत सरकार को इन सारे देशों से नाराजगी प्रकट कर इन्हें पुस्तकों को हटाने तथा माफी मांगने के लिए कहना चाहिए। द्विपक्षीय संबंधों में कोई देश तभी राजनयिक स्तर पर नाराजगी प्रकट कर सकता है जब सीधे उसके विरुद्ध कोई टिप्पणी हो, कदम उठाया गया या वहां के नागरिकों के विरुद्ध अपराध हुआ है। अगर किसी देश का मजहब द्विपक्षीय संबंधों को निर्धारित करने लगे तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति की पूरी तस्वीर भयानक होगी। हालांकि ऐसी स्थितियां  अलग-अलग रूप में कई बार विश्व में पैदा हुई है। उदाहरण के लिए फ्रांस के  शारलोट हेब्दो पत्रिका में मोहम्मद साहब पर कार्टून छापने के विरुद्ध आतंकवादियों ने हिंसा बाद में की, लेकिन कई देशों ने औपचारिक रूप से फ्रांस से नाराजगी प्रकट की। दुनिया में ईसाई देशों की संख्या सबसे ज्यादा है। अगर ईसा मसीह या बाद क् उनके दूसरे संतों पर कोई टिप्पणी हो जाए और सारे देश उस देश के राजदूत को बुलाकर नाराजगी प्रकट करने लगे तो क्या होगा? स्वयं मुस्लिम देशों के अंदर कई बार ऐसे बयान आते हैं।


जाहिर है , यह प्रसंग भारत के साथ पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। ठीक है कि हमारे भारतीय भारी संख्या में खाड़ी देशों में हैं। उनके साथ हमारे बहुपक्षीय संबंध हैं। किंतु संबंधों के पालन का दायित्व दोनों ओर से होता है। जरा सोचिए ,इन देशों का रवैया कैसा है? उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू कतर में थे और उनकी यात्रा पर इसका असर पड़ सकता था। ईरान की तेल बिक्री पर प्रतिबंध खत्म करने के लिए भारत कोशिश कर रहा है पर उसने इसकी तनिक प्रवाह नहीं की। कुवैत तो भारत के करीबी देशों में माना जाता है। ये सब बातें एक प्रवक्ता के प्रश्नवाचक एक टिप्पणी  के सामने कमजोर पड़ गई। तात्कालिक रूप से भारत ने जो भी किया उस पर अभी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं लेकिन दूरगामी दृष्टि से इन देशों के व्यवहार के को पूरी सच्चाई के साथ स्वीकार कर द्विपक्षीय -अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में नए सिरे से नीति रणनीति बनाने की आवश्यकता उत्पन्न हुई है। भारत ऐसा देश है, जहां किसी आधार पर विदेशों में सवाल उठा नहीं कि एक वर्ग हथियार बनाकर अपनी ही सरकार पर टूट पड़ता है। ये वे लोग हैं जो स्वयं को सेकुलरवाद का पुरोधा बताते हैं। क्या जिन देशों ने भारतीय राजदूत को बुलाकर नाराजगी प्रकट की उन सारे का व्यवहार सेक्यूलरवाद की सीमा में आता है? अगर नहीं आता है तो इनको इससे परेशानी क्यों नहीं हुई? भारत में कोई टिप्पणी हुई है तो यह आंतरिक मामला है। देश की नीति के रूप में हम कभी भी किसी देश के मजहबी ही नहीं,  आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते । भारत के साथ संबंध कायम रखने की कामना करने वाले देशों को भी इसका ध्यान रखना चाहिए। इन देशों ने नहीं रखा है। साफ है इनके लिए मजहब की अपनी सोच सर्वोपरि है। सारे संबंधों की कसौटी इस्लाम मजहब है। उस पर उनके नजरिए से अगर आपके देश में सब कुछ सामान्य है तभी आपके संबंधों का महत्व है अन्यथा नहीं। इस कटु सच्चाई को दुनिया के सभी गैर इस्लामी देश स्वीकार करें तभी यह समझ में आएगा कि भविष्य की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में इस पहलू का निर्धारण कैसे हो।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092,  मोबाइल -98110 27208



शनिवार, 4 जून 2022

मूसेवाला की हत्या से सुरक्षा व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न

अवधेश कुमार 

पंजाब में शुभदायक सिंह सिद्धू मूसेवाला की दिनदहाड़े हत्या सन्न करने वाली घटना है। पंजाब के मानसा में उनके पैतृक गांव मूसा के पास हत्यारों ने केवल दो मिनट में शरीर में इतनी गोलियां मारी की पोस्टमार्टम में ही 24 गोलियां निकली। हत्यारे भी वहां दो ही मिनट रुके । दो गाड़ियों ने मूसे वाला की कार को ओवरटेक किया। इससे पहले उन्होंने मूसेवाला की गाड़ी के पिछले टायर पर गोली मारी जिससे संतुलन बिगड़ गया। मूसेवाला ने कार को संभालने की कोशिश की लेकिन उनमें से 7 लोग उतरे और ताबड़तोड़ फायरिंग करने लगे । हमलावरों ने ऐसा डर का माहौल बनाया कि लोग घरों में घुसने को विवश हो गए। विडंबना देखिए कि गांव के लोगों ने मुसेवाला को घायल स्थिति में अस्पताल ले जाने का भी साहस नहीं दिखाया। एक अनजान व्यक्ति ने मोटरसाइकिल से मूसेवाला को अस्पताल पहुंचाया। आखिर क्यों? इसकी चर्चा इसलिए आवश्यक है ताकि समझा जाए कि पंजाब के अंदर अपराधियों और गैंगस्टरों ने कैसी स्थिति पैदा कर दी है। गांव में जाने-माने शख्स की शाम 5:30 बजे के आसपास हत्या होती है, हत्यारों के डर से लोग घरों में दुबके रहते हैं और उनके चले जाने के बाद भी लंबे समय तक घर से निकलने का साहस नहीं करते।

अभी तक की जानकारी यही है कि तिहाड़ जेल में बंद कुख्यात अपराधी लॉरेंस ने कनाडा में बैठे गोल्डी बराड़ के साथ मिलकर मूसावाला की हत्या को अंजाम दिया। लॉरेंस गैंग ने हत्या की जिम्मेदारी ली है। लॉरेंस गैंग और गोल्डी बरार ने कहा है कि हमने मोहाली में विक्की मिट्ठू खेरा की हत्या का बदला लिया है । इसके अनुसार मूसेवाला भी उसके विरोधी गैंग से जुड़ा था। इस पर अंतिम मत देना कठिन है। ज्ञानी दविंदर बंबीहा समूह ने कहा कि मूसे वाला उनसे जुड़ा नहीं था लेकिन उनके साथ नाम जोड़ा जा रहा है तो वे इसका बदला लेंगे। जाहिर है, इससे पंजाब में नए गैंगवार की भी संभावना बढ़ी है । 


आम आदमी पार्टी कह रही है कि उनके पास बुलेटप्रूफ कार और दो गैंगमैन थे लेकिन वह न उस कार से गए न गैंगमैन को साथ लेकर। वह नहीं बता रही कि बुलेटप्रूफ कार सरकार ने नहीं दिया था, उनका अपना था। दो दिन पहले उनकी सुरक्षा हटा दी गई थी। आम आदमी पार्टी की समस्या है कि वह स्वयं को क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी साबित करने के लिए ऐसे छोटे-  छोटे कदम उठाकर प्रचार करती है जिनमें किसी तरह के परिश्रम की आवश्यकता नहीं हो। उसने पंजाब में 424 लोगों की सुरक्षा हटाने या घटाने का प्रचार किया और सूची जारी कर दी। सरकारी सुरक्षा की समीक्षा और समय-समय पर सुरक्षा में कमी या बढ़ोतरी स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। किंतु आप की भगवंत मान सरकार अपने एजेंडे के अनुसार काम कर रही है। चुनाव में उसने वीआईपी संस्कृति और नेताओं की सुरक्षा व्यवस्था को मुद्दा बनाया था और धराधर सुरक्षा घटाकर या हटाकर उसने वाहवाही लूटने के लिए इसका प्रचार कर दिया। विडंबना यह है कि उनके स्वयं के नेताओं की सुरक्षा बढ़ा दी गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सुरक्षा में पंजाब के कमांडो भारी संख्या में है। यहां तक कि राज्य सभा सांसद बने राघव चड्ढा के पास भी पंजाब की सुरक्षा है। आम आदमी पार्टी का यह वक्तव्य सामान्य लग सकता है कि हत्या पर राजनीति न हो किंतु यह तो पूछा जाएगा कि अपने नेताओं की सुरक्षा में बढ़ोतरी या जिनको सुरक्षा खतरा नहीं है उन्हें सुरक्षा देना तथा दूसरों की सुरक्षा में कटौती या वापस लेना राजनीति की किस नैतिकता के तहत आता है? अगर आप की दिल्ली सरकार के लोगों या उनके सांसदों की सुरक्षा को खतरा होगा तो दिल्ली पुलिस  है। गृह मंत्रालय समीक्षा करके सुरक्षा प्रदान कर सकती है। इसकी जगह पंजाब की सुरक्षा लेना आपत्तिजनक है।

कोई नहीं कहेगा कि आप या भगवंत मान सरकार ने इरादतन ऐसी स्थिति पैदा की जिसमें मूसेवाला की हत्या हो जाए। कोई सरकार अपने शासनकाल में हत्याएं नहीं होने देना चाहेगा। पर तिहाड़ जेल से जो  मोबाइल नंबर सामने आया है। क्या उसका आज पता चला है? नहीं । इसका पता दिल्ली पुलिस को पहले ही चला । वास्तव में मूसावाला की हत्या के षड्यंत्र का पता दिल्ली में कुछ समय पहले गिरफ्तार हुए शाहरूख से मिला।  शाहरुख ने दिल्ली में बताया था कि गोल्डीबरार और लॉरेंस कोई बड़ी साजिश रच रहे हैं। शाहरुख ने स्वयं मूसेवाला की हत्या के लिए रेकी भी की थी। ध्यान रखिए कि हत्याकांड में इस्तेमाल बोलेरो वही है जिसका इस्तेमाल शाहरुख ने साथियों के साथ मूसेवाला की रेकी के लिए किया था। दिल्ली पुलिस को जब इतनी जानकारी थी तो उसने पंजाब से यह जानकारी साझा नहीं किया होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। जरा सोचिए , शाहरुख बता रहा है कि उसकी गोल्डी बरार से सिग्नल ऐप पर बात होती थी। लॉरेंस के भी सिग्नल ऐप पर बात होने का शक पुलिस जता रही है। शाहरुख का फोन दिल्ली पुलिस के पास है । जाहिर है , उसे जितनी जानकारियां मिली अवश्य ही पंजाब पुलिस को साझा किया होगा क्योंकि इस तरह हत्या की साजिश की जानकारी कोई पुलिस अपने पास बंद करके नहीं रखती । दिल्ली पुलिस ने उससे सूचनाएं साझा नहीं की तो पंजाब पुलिस इसकी जानकारी दे।  पंजाब पुलिस को यह भी बताना चाहिए कि उसकी सुरक्षा समीक्षा में मूसावाला के जीवन पर खतरे की आशंका आई थी या नहीं? नहीं आई तो यह खुफिया विफलता है। दिल्ली पुलिस की जानकारी के बाद तो मूसेवाला की सुरक्षा बढ़ाई जानी चाहिए थी। जब गिरफ्तार अपराधी कह रहा है कि उसने स्वयं रेकी की और तिहार में बंद गैंगस्टर के अलावा कनाडा के गैंगस्टर से उसकी बातचीत होती थी तो फिर उसने जिन लोगों के नाम लिए उम्र में जिनका अपराधिक रिकॉर्ड है या संदिग्ध है सबकी गिरफ्तारी की कोशिश होनी चाहिए। नहीं हुई तो जाहिर है इसे या तो गंभीरता से नहीं लिया गया या फिर ऐसा करने के अन्य कारण थे । वे क्या कारण हो सकते हैं?


पंजाब सुरक्षा की दृष्टि से हमेशा संवेदनशील प्रदेश रहा है। सीमा पार से अलगाववाद आतंकवाद को बढ़ावा देने की हर संभव कोशिशें हो रही हैं। पिछले एक वर्ष में काफी संख्या में हथियार और संदिग्ध आतंकवादी पकड़े गए हैं। पुलिस के पास सारी खुफिया सूचनाएं मौजूद हैं। जिस प्रदेश में भारी मात्रा में ड्रग और हथियार आ रहे हैं वहां अपराधी भी भारी संख्या में पैदा हुए होंगे। पंजाब में कई कारणों से अपराधी समूहों के बीच हिंसक टकराव की खबरें भी सामने आती रही है। ऐसे प्रदेश की सरकार को सुरक्षा के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील होना चाहिए। क्या आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेता दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान उतने ही गंभीर और संवेदनशील हैं जितना होना चाहिए? मूसेवाला की पृष्ठभूमि क्या थी यह बहस का विषय हो सकता है, पर किसी भी तरह की व्यक्ति को सरेआम गोली मारना सरकार द्वारा कानून के राज के दावे की धज्जियां उड़ाता है। गाहे-बगाहे कहा जा रहा है कि मूसेवाला कोई नेता नहीं थे बल्कि वे तो हाल में ही कांग्रेस में शामिल हुए थे। पिछले वर्ष 3 दिसंबर 2021 को वे पार्टी में शामिल हुए थे। मानसा से उन्होंने 20 फरवरी के विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार के रूप में अपनी चुनावी पारी की शुरुआत की थी। उन पर गन कल्चर यानी बंदूक संस्कृति को अपने गाने के माध्यम से बढ़ावा देने का आरोप था। वे संजू में अपने गीत से हिंसा और बंदूक संस्कृति को बढ़ावा देने के मुकदमे का भी सामना कर बात कर रहे थे। 2020 में पंजाब पुलिस की शूटिंग रेंज में गोली चलाते मूसे वाला का वीडियो वायरल हुआ था । वायरल वीडियो में सिद्दू मूसेवाला बंदूक दिखा रहे थे । वे एके-47 राइफल के साथ ट्रेनिंग लेते भी दिख रहे थे । निस्संदेह उनका यह पक्ष विवादास्पद था । बावजूद अपनी अनूठी रैंप शैली के साथ गायन व अभिनय में जगह बनाने वाले मूसेवाला लीजेंड ,डेविल, जस्ट सुनो ,जट दा मुकाबला, हथियार जैसे हिट गाने के कारण लोकप्रिय भी थे। दो फिल्म में उन्होंने अभिनय भी किया था। हमारे आपके लिए उनके विचारों से सहमत होना शायद संभव ना हो लेकिन इस तरह की हत्या अंदर से हिला देने वाली है। एक जाने पहचाने चेहरे की सुरक्षा के प्रति राज्य को हर दृष्टि से संवेदनशील होना चाहिए। मूसे वाला की हत्या बता रही है कि पंजाब की भगवंत मान सरकार को आंतरिक सुरक्षा को लेकर ज्यादा गंभीर होने की आवश्यकता है। वास्तव में किसी भी पंजाब सरकार के लिए मादक पदार्थ,   अपराधियों की बढ़ती संख्या तथा उनके बीच आपसी मुठभेड़ से लेकर सीमा पार के खतरों को लेकर राजनीति से परे जागरूक एवं दृढ़ संकल्पित होने की आवश्यकता है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस दुखद घटना के बाद आम आदमी पार्टी, मुख्यमंत्री भगवंत मान सरकार आत्ममंथन कर सुरक्षा के प्रति शत-प्रतिशत गंभीर और जिम्मेदार बनने की कोशिश करेगी। 

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