भले जम्मू-कश्मीर में किसी पार्टी को बहुमत नहीं आया, पर वहां खुली आंखों कोई भी बदलाव की समां जलते देख सकता था। पहले और दूसरे चरण में जैसे ही 70 -71 प्रतिशत मतदान ने साफ कर दिया कि लोगों की आस्था भारत के संसदीय लोकतंत्र में बढ़ रही है। सभी 5 चरणों में कुल 65 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना कई दृष्टियों से असाधारण था। यह पिछले सारे चुनावों का रिकॉर्ड तो तोड़ा ही है, अन्य कई पहलू भी इसे असाधारण बनाते हैं। 2008 में 61.42 प्रतिशत और 2002 में 43.09 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया था। कंपकंपाती ठंड, कोहरे, लगातार आतंकवादी हमलाें, सामने लटकती मौत के खतरे और अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले अलगावादियों के बहिष्कार के बावजूद मतदाताओं का उत्साह अपने आप बहुत कुछ बयान कर रहा था। जम्मू में एक युवती कह रही थी मैंने उस उम्मीदवार को वोट दिया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेगा और युवाओं को उनकी प्रतिभा के अनुसार अवसर देगा और जिसका कोई पारिवारिक वंशवाद नहीं है। ध्यान रखिए कि दूसरे चरण के मतदान के बाद हर दिन बड़े छोटे आतंकवादी हमले हुए। उड़ी, त्राल और बारामूला ऐसे क्षेत्र थे जहां बड़े आतंकवादी हमले हुए, आतंकवादियों का यहां प्रभाव भी माना जाता है, पर यहां भी लोगों ने बढ़-चढ़कर वोट डाले। क्या इसे असाधारण नहीं माना जाएगा?
निस्संदेह, माना जाएगा। सैन्य शिविर पर हमला झेलने वाले उड़ी में 79 प्रतिशत मतदान हुआ। इस हमले में 11 सुरक्षाकर्मी और छह आतंकी मारे गए थे। आतंकी गतिविधियों के लिए बदनाम रहे बडगाम के चरार-ए-शरीफ इलाके में रिकॉर्ड 82.74 प्रतिशत मतदान हुआ। निस्संदेह, मतदान के बहिष्कार की अपील करने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी के गृह नगर सोपोर में सबसे कम 30 प्रतिशत मतदान हुआ। पर सन 2008 के चुनाव में इस क्षेत्र में 20 फीसद से भी कम मतदान हुआ था। लोकसभा चुनाव में तो वहां एक प्रतिशत के आसपास ही मतदान हुआ था। तीसरे चरण की 16 सीटों पर जब 58 प्रतिशत मतदान हुआ जो आरंभ के दो चरणों से कम था तो लोगों ने कहा कि कहां गया उत्साह, पर वे भूल गए कि सन 2008 के चुनाव में वहां 49 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। इस दौरान कम से कम 20 आतंकवादी हमले हुए जिनमें 18 जवान 22 आतंकी और 9 नागरिक मारे गए। अंतिम तीन चरणों में हर बार एक सरपंच की हत्या हुई। जाहिर है, यह सब मतदाताओं को मतदान से दूर रखने के लिए ही था। लेकिन यहां यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि क्या मतदाताओं के इस उत्साह में किसी पार्टी को बहुमत तक पहुुुंचाने का भाव शामिल नहीं था?
अगर सतही तौर पर परिणामों का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही आएगा। किंतु हम इस पहलू को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि भाजपा को भले अपेक्षानुरुप सीटें नहीं आईं, पर उसने जम्मू कश्मीर के मतदाताओं को पक्ष और विपक्ष में आलोड़ित किया इसमें संदेह की रत्ती भर भी गंुजाइश नहीं। अलगाववादियों के कारण चुनाव बहिष्कार की राजनीति अगर कमजोर हुई तो भाजपा के कारण। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में उमड़ती भीड़ और लोगों का भाजपा की ओर आकर्षण ने भाजपा विरोधियों के अंदर यह भाव पैदा कर दिया कि अगर वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा सत्ता में आ जाएगी। इससे आबोहवा बदलने लगी। उदाहरण के लिए त्राल और सोपोर को लीजिए। त्राल दक्षिण कश्मीर में है और सोपोर उत्तर कश्मीर में। इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा चुनाव में सबसे कम मतदान हुआ था।
वहां एक मतदाता कह रहा था कि यह बीजेपी का डर है। हलमोग हर साल चुनाव का बहिष्कार करते थे। लेकिन इस बार लोग पोलिंग बूथ तक पहुंच रहे हैं। हमलोग डरे हुए हैं कि वोट नहीं किए तो बीजेपी इस सीट को जीत सकती है। बीजेपी की जीत कोई नहीं चाहता। त्राल विधानसभा क्षेत्र दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में है। यहां कुछ हजार सिखों के वोट हैं और 1,445 प्रवासी मतदाता हैं। यहां से भाजपा ने सिख उम्मीदवार को उतारा था। लोकसभा चुनाव में त्राल में कुल 1000 से भी कम वोट पड़े थे। इस बार इस विधानसभा क्षेत्र में 37 प्रतिशत मतदान हुआ। उत्तरी कश्मीर के सोपोर की चर्चा हम कर चुके हैं। यह हुर्रियत चेयरमैन सैयद अली शाह गीलानी का जन्म स्थान है। उम्मीदवारों ने स्थानीय लोगों से मतदान केन्द्र तक आने की अपील की। इन्होंने कहा कि यदि वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा को मदद मिलेगी। सोपोर में भाजपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। ऐसा भाजपा ने सज्जाद लोन की पार्टी पीपल्स कॉन्फ्रेंस को मदद करने के लिए किया है।
कश्मीर घाटी में विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर के जिन इलाकों में चुनाव का सबसे ज्यादा बहिष्कार होता है, वहां आतंकवाद के सिर उठाने के बाद चुनाव में इस बार ज्यादा मतदाता शामिल हुए। श्रीनगर के आठ में चार विधानसभा क्षेत्र में मतदान दोपहर को 2008 का स्तर पार कर गया था। उड़ी में सेना के शिविर पर भयानक आतंकवादी हमले ने भले ही शहर को हिला कर रख दिया हो, लेकिन यह हमला मतदाताओं को अपने मताधिकार का उपयोग करने से रोक नहीं पाया। कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास स्थित इस शहर में सुबह से ही मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करने के लिए मतदान केंद्रों पर आते दिखे। एक ग्रामीण कह रहे थे ,मोहरा में आतंकवादी हमले के पीछे चाहे जो भी कारण रहा हो, हम अपने अधिकारों को छोड़ नहीं सकते। इलाके में कई तरह की समस्याएं हैं और हम हमारे प्रतिनिधियों से उनकी जवाबदेही चाहते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 8 दिसंबर को श्रीनगर के एसके स्टेडियम में चुनावी रैली को संबोधित किया। हालांकि घोषणा के अनुरुप एक लाख लोग नहीं आए, पर जितनी संख्या आई वह पर्याप्त थी। उसका असर भी वहां हुआ। आज अगर पीडीपी को वहां बढ़त मिली तो इसी कारण। अगर भाजपा वहां मौजूद नहीं होती या उसका भय नहीं होता तो हो सकता था परिणाम कुछ और होता। यह पूछा जा सकता है कि आखिर यह कौन सा बदलाव है जिसमें पुरानी पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है? तो यह घाटी की सोच और संस्कृति तथा रणनीतिक मतदानों की परिणति है। हालांकि हम सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस को दो जिलों में मिले मत एवं भाजपा को घाटी में प्राप्त 2.8 प्रतिशत वोट को न भूलें। नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस को यदि मत मिला तो इसका कारण रणनीतिक मतदान था। यानी मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने इस आधार पर अपना निर्णय किया जो भाजपा को हरा सके उसे वोट देे। तो रिकॉर्ड मतदान के बावजूद किसी को बहुमत न मिलने का सूत्र यहां निहित है। कारण बहुमत का निर्धारण तो घाटी से ही मिलता। लेकिन लद्दाख में भाजपा को एक भी सीट क्यों नहीं मिली? वास्तव में भाजपा ने धारा 370 पर, लद्दाख को संघ शासित प्रदेश बनाने के मांग पर तथा पंडितों की पुनर्वापसी सहित अन्य मांगों पर खामोशी धारण करने का भी परिणाम उसे चखना पड़ा है। इनसे उसके अपने मतदाता भी रुठे, अन्यथा उसे ज्यादा सीटें आतीं। अगर ऐसा न होता तो नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस साफ हो गई होती।
हालांकि इसके बावजूद बदलाव की शुरुआत कश्मीर में हो गई है। भाजपा दूसरी सबसे बड़ी शक्ति के रुप में उभरी है जो उसके 44 प्लस से कम है, पर यह उपलब्धि और बदलाव भी छोटी नहीं है। हां, यह साफ है कि नरेन्द्र मोदी बाढ़ में लोगों के साथ खड़े होने, लगातार हर महीने की कश्मीर यात्रा और लोगांें को विश्वास मेें लेने की कोशिशों के बावजूद अभी घाटी में ठोस आधार बनाने में सफल नहीं रही। परिणाम के आधार पर सरकार गठन और उसकी स्थिरता पर समस्यायें साफ दिख रहीं हैं। पर दुनिया ने देख लिया कि वहां के बहुमत में लोकतंत्र के प्रति आस्था है, वे न आतंकवादियों के साथ हैं, न अलगाववादियों के। यह ऐसा पहलू है जो कश्मीर में बदलाव का सबसे ठोस स्तंभ के रुप में हमारे सामने दिख रहा है। भाजपा को घाटी में मत मिलना, सज्जाद लोन की ओर आकर्षण, लोगों का रणनीतिक मतदान करने को मजबूर होना......मोदी की श्रीनगर सभा की भीड़......आदि इस बदलाव के ही संदेश हैं। देखना होगा यह आगे सुद्ढ़ होता है, या फिर किसी दूसरी दिशा में मुड़ता है।
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