रविवार, 3 नवंबर 2013

भाजपा मुख्यालय बनाम सपा मुख्यालय

श्याम कुमार

दिल्ली के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने मुझसे कहा-आप बहुत वरिष्ठ पत्रकार हैं और जनता की नब्ज पहचानते हैं, इसलिए कुछ राय दीजिए कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को कैसे प्राणवान किया जाय। मैंने उनसे कहा कि आप लखनऊ में विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित समाजवादी पार्टी के कार्यालय में चुपचाप किसी भी दिन जाकर अवलोकन कर लें, वहां आप हर समय सौ-दो सौ कार्यकर्ता मौजूद पाएंगे। सपा मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की समस्याओं की नित्य सुनवाई की व्यवस्था तो रहती ही है, सप्ताह में एक दिन षिवपाल सिंह यादव स्वयं पर्याप्त समय वहां रुककर कार्यकर्ताओं की समस्याओं का समाधान करते हैं। मन्त्री व प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी नित्य सुनवाई करते हैं। मुलायम सिंह यादव भी प्रायः पार्टी कार्यालय में उपस्थित रहते हैं। जब समाजवादी पार्टी सत्ता में नहीं थी और उसकी कट्टर विरोधी मायावती का शासन था, उस समय भी समाजवादी पार्टी के कार्यालय में कार्यकर्ताओं का हर समय पर्याप्त जमावड़ा रहा करता था। सपा कार्यकर्ता पार्टी के आवाहन पर जब-तब धरना- प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर लाठियां खाया करते थे। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी के लखनऊ-मुख्यालय में पूरे दिन शायद ही कोई आम कार्यकर्ता दिखाई देता हो। पूरा परिसर सन्नाटे में डूबा रहता है तथा कभी-कभी गिनेचुने पदाधिकारी कक्षों में दिखाई देते हैं। वहां कार्यकर्ताओं की समस्याओं की सुनवाई की कोई व्यवस्था नहीं रहती है।

मैं नहीं जनता कि भाजपा के उन वरिष्ठ नेता को मेरी बात कैसी लगी, किन्तु यथार्थ यही है। जब सुन्दर सिंह भण्डारी प्रदेश के भाजपा-प्रभारी थे और कल्याण सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे, उस समय भाजपा-परिसर में आम कार्यकर्ताओं का जो जमघट और रौनक रहती थी, वह अतीत की वस्तु हो चुकी है। जब भाजपा सत्ता में आई और उसमें कांग्रेसी संस्कृति वाले भ्रश्ट एवं ठेकेदार तत्व घुसकर हावी हो गए तो उन्होंने भाजपा के लोगों को भी अपने रंग में रंग लिया। भाजपा का अपना व्यक्तित्व एवं कलेवर धीरे-धीरे गायब होता गया। जब भाजपा सत्ता में थी, मुझे याद है कि सफेद-बुर्राक कपड़े पहने हुए अनेक नेता कमरों में बैठे रहते थे और यदि उनके पास कोई कार्यकर्ता अपनी समस्याएं लेकर आता था तो उसे बुरी तरह दुत्कारकर भगा देते थे। भाजपा में जो गुटबन्दी पनप रही थी, उसकी खबरें ये नेता चटखारे लेकर पत्रकारों के कानों में फूंकते रहते थे। उस समय प्रदेशभर में अहंकार में चूर भाजपा नेता पार्टी-कार्यकर्ताओं की ऐसी ही घोर उपेक्षा करने लगे थे। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे भाजपा में नेताओं की तो बहुतायत हो गई, किन्तु कार्यकर्ताओं का अभाव होता गया।

विगत वर्शों में लोकसभा या प्रदेश विधानसभा के जितने भी चुनाव हुए हैं, हर चुनाव से पूर्व भाजपा नेता बड़े जोरषोर से ‘एक बूथ, दस यूथ’ की अपनी रणनीति प्रचारित करते हैं। लेकिन वह दावा ‘थोथा चना बाजे घना’ सिद्ध होकर रह जाता है। इस बार भी ‘एक बूथ, बीस यूथ’ का दावा किया जा रहा है, किन्तु इस दिशा में अधिकांशतः कागजी कार्य ही हो रहे हैं। सुमित शाह तक उत्तर प्रदेश में भाजपा के जमीनी खोखलेपन की बात कदाचित नहीं पहुंच पा रही है। पहले जब भाजपा नेता सत्ता के नषे में चूर नहीं हुए थे और पार्टी में कार्यकर्ताओं का भरपूर सम्मान हुआ करता था, उस समय चुनाव के समय किसी को रणनीति बनाने की आवष्यकता ही नहीं होती थी। हर बूथ पर भाजपा कार्यकर्ता सुबह से शाम तक भूखे-प्यासे रहकर डटे रहते थे और घर-घर जाकर लोगों को वोट डालने के लिए मतदान-केन्द्र पर लाते थे।

जब से अमित शाह उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रभारी बने हैं, उन्होंने गुजरात के अनुभवों के आधार पर उत्तर प्रदेश में मुर्दा पड़ी भाजपा को प्राणवान बनाने की चेश्टा की है। उनके प्रयासों का बहुत असर होता प्रतीत हो रहा है। लेकिन वह प्रदेश में भाजपा की निश्क्रियता, कार्यकर्ताआंे की उपेक्षा, नेताओं के भाई-भतीजावाद व अहंकार एवं आपसी कलह का कितना उन्मूलन कर पाएंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा!

(श्याम कुमार)

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