गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

इस अतिवाद से देश में क्षोभ पैदा हो रहा है

 

अवधेश कुमार

देश में फिर एक बार ऐसी स्थिति बनाई जा रही है मानो सांप्रदायिकता में समाज उबल रहा है और कुछ सेक्यूलर देवदूत उसको बचाने के लिए अपनी बलि चढ़ाने तक को तैयार हैं। क्या वाकई ऐसी स्थिति है? जिस तरह कुछ स्वनामधन्य महानुभावों ने अपना पुरस्कार लौटाना आरंभ किया है उससे तो ऐसा ही लगता है। अलग-अलग हुई जघन्य अपराधों की घटनाओं को एक साथ जोड़कर ऐसी स्थिति बनाई जा रही है मानो इस देश में जो सेक्यूलर हैं उनकी खैर नहीं, जो अल्पसंख्यक हैं उनकी खैर नहीं..... एक विचारधारा के लोग जो चाहेंगे वही होगा...और वे हाथों में फरसा लेकर निकल पड़े हैं कि जो हमारे विरोध में होगा उसको काट देंगे। इन बनाए गए माहौल से परे जरा अपने आसपास नजर दौड़ाइए और देखिए कि क्या वाकई ऐसा ही है? जोे उत्तर आएगा वही सच्ची स्थिति का द्योतक होगा। सच यही है कि ऐसा कोई वातावरण देश में नहीं है।

दादरी बिसहारा मामले की एक जघन्य घटना हमारे सामने है और सारी प्रतिक्रियाएं उस पर आ रहीं हैं। जरा एक और घटना को याद करिए। पिछले  10 सितंबर को बरेली के फरीदपुर थाने के दारोगा मनोज मिश्र को पशु तस्करों ने गोली मार दी। उस दारोगा का दोष इतना था कि वह तस्करी के लिए यानी काटने के लिए ले जा रहे पशुओं से भरे ट्रक को पकड़ने के लिए घात लगाए हुए था। जब ट्रक पकड़ में आ गए तो उनने गोली मारी और मनोज मिश्र की मृत्यु हो गई। क्या उसकी जान की कीमत नहीं थी? आज जो लोग छाती पीट रहे हैं इनमें से किसी की आवाज उस घटना पर सुनाई दी? बिसहारा में तो इखलाक के परिवार को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पास बुलाया, उनसे बात की, 45 लाख रुपया का मुआवजा दिया तथा घटना की जांच चल रही है। हालांकि पुलिस दबाव के कारण कुछ ऐसे लोगों को गिरफ्तार कर रही है जो शायद दोषी नहीं हैं जिनके विरुद्ध वहां प्रदर्शन भी हो रहा है। लेकिन दारोगा की मृत्यु पर तो मुख्यमंत्री का भी बयान नहीं आया। इन दो घटनाओं पर ऐसे दो प्रकार के व्यवहार को हम क्या कहेंगे? बिसहाड़ा की घटना घोर निदंनीय है, उसके असली दोषियों को पकड़कर कानून में जो सख्त सजा हो वो मिलनी चाहिए, लेकिन उसी गांव में और मुसलमान रहते हैं उनके साथ तो कुछ नहीं हुआ। अगर किसी संगठन की दंगा की साजिश होती तो नजारा दूसरा होता। स्वयं उत्तर प्रदेश सरकार ने गृहमंत्रालय को जो रिपोर्ट भेजी है उसमें कहा है कि अभी तक इस घटना का कारण पता नहीं चला है और जांच चल रही है। जिस सरकार की पुलिस जांच कर रही है उसको घटना का कारण ही पता नहीं और देश में घटना के दोषियों की पहचान करके कुछ झंडाबरदार लोगों ने अपने स्तर पर फैसला भी कर लिया।

आजम खान जैसे नेता, जिनके पास मुस्लिम सांप्रदायिकता के अलावा कोई अस्त्र ही नहीं वो संयुक्त राष्ट्र संघ जाने का ऐलान करते हैं। उसके विरुद्ध इस देश में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती कि आखिर एक अपराध के मामले पर आप देश विरोधी हरकत क्यों कर रहे हैं? कल्पना करिए दारोगा मनोज मिश्र की हत्या पर किसी हिन्दू नेता ने ऐसा किया होता तो आज क्या स्थिति होती? वह जेल में होता। आजम खान उस सरकार में मंत्री हैं जिस पर ऐसी कार्रवाई रोकने का दायित्व है। कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी उ. प. सरकार की है। अगर उ. प्र. सरकार की जांच मंे किसी संगठन की साजिश नजर आती है वह सामने लाए और फिर कार्रवाई करे। किसी ने उसका हाथ रोका नहीं है। कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या राज्य सरकार की विफलता है। उसकी जांच भी चल रही है। महाराष्ट्र में दो बहुचर्चित हत्याएं कांग्रेस के शासनकाल मेें हुईं और वहां की पुुलिस इसका पता तक नहीं लगा सकी कि आखिर कैसे हत्या हुई और कौन दोषी थे। उनमें से एक पनसारे की हत्या के लिए वर्तमान महाराष्ट्र सरकार के तहत सनातन संस्था के एक व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई है। अगर पक्षपात का मामला होता तो उसे आराम से रफा दफा किया जा सकता था। कांग्रेस सरकार के रहते किसी ने सरकारी पुरस्कार नहीं लौटाया।

अब कह रहे हैं कि सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगा दो। सनातन संस्था पर पिछले 7-8 सालों से महाराष्ट्र सरकार की खुफिया विभाग और पुलिस की नजर रही है। अगर उनको उसकी गतिविधियां संदिग्ध लगीं तो प्रतिबंधित क्यों नहीं किया? तब तो कांग्रेस-राकांपा की सरकार थी। आज सेक्यूलरवादी तोप के गोले दागने वालों में से कितने लोगों ने ऐसा ही रवैया पहले अख्तियार किया था? संगठन कोई भी हो उसका अगर एक व्यक्ति अपराध में पकड़ में आता है तो उससे पूरे संगठन को दोषी नहीं माना जा सकता। गुजरात दंगे में भाजपा, विहिप के नेताओं के पकड़े जाने की चर्चा होती है लेकिन उसमें कांग्रेस के लोग भी पकड़े गए हैं और उनको सजा हुई है। तो क्या कांग्रेस पार्टी को ही दंगाई मान लिया जाए? ऐसा नहीं हो सकता। आखिर दादरी बिसहारा, महाराष्ट्र, कर्नाटक की घटना पर क्या होना चाहिए? उत्तर एकदम सरल है। राज्य सरकारें निष्पक्षता से जांच करे और जो दोषी हो चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उस पर कानूनी कार्रवाई करे। यह राज्य सरकारों का मामला है। केन्द्र की भूमिका तब आएगी जब राज्य सरकारें अपना काम नहीं करेंगी। अगर केन्द्र हस्क्षेप करे तो तथाकथित संघवाद पर हमला हो जाएगा। अगर विरोध करना है तो कर्नाटक सरकार का किया जाना चाहिए, उत्तर प्रदेश सरकार का किया जाना चाहिए जहां ऐसी घटनाएं हुईं हैं।

भारत की अजीब स्थिति है। यहां मुद्दों पर तो संघर्ष करने या विरोध जताने के समय ऐसे लोग पता नहीं कहां रहते हैं, लेकिन जो मुद्दा नहीं होना चाहिए उसे मुद्दा बनाकर और सेक्यूलर कहलाने के लिए ये इस तरह प्रतीकात्मक विरोध करते हैं या बयान देते हैं जिनमें इनका अपना कुुछ जाता नहीं। उल्टे इससे वातावरण विषाक्त होता है, समाज में तनाव बढ़ता है। अब इनकी राग है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू राज्य बनाने की साजिश चल रही है। कहां चल रही है? इस देश के करोड़ों लोगों को ऐसा नहीं लगता लेकिन कुछ सूक्ष्मदर्शी तत्व हैं जिनको यह नजर आ जाता है। सच यह है कि केन्द्र सरकार की ओर से किसी स्तर पर ऐसा कदम नहीं उठाया गया है जिससे वाकई देश को हिन्दू राज में बदलने का संदेह भी पैदा हो। कुछ लोगों की समस्या है। भाजपा या संघ परिवार के विचारों से मतभेद में समस्या नहीं है। एक जागरुक समाज मंे विचारधारा के आधार पर सहमति-असहमति, समर्थन-विरोध होता है और होना चाहिए। इससे संतुलन भी बना रहता है तथा अतिवाद की ओर जाने का खतरा कम होता है। किंतु यह व्यवहार तो स्वयं में अतिवाद है। हिन्दू राज स्थापित करने का आरोप लगाकर देश को बदनाम करना है। इस देश में आधी से ज्यादा राज्य सरकारें दूसरी पार्टियों की हैं। हमारे यहां संविधान की मूल अवधारणा में परिवर्तन संभव ही नहीं। कुछ होगा तो न्यायपालिका है। क्या ये सब ऐसा कुछ होगा तो मूकदर्शक बने रहेंगे? भारत देश हिन्दू मुसलमानों के साथ सभी छोटे पंथों-संप्रदायों का है और रहेगा। किंतु यह नहीं हो सकता कि एक संप्रदाय को कुछ हो गया तो वह बड़ा मुद्दा बन जाए और दूसरे संप्रदाय के साथ हो तो उसे सामान्य मान लिया जाए।

सच यह है कि ऐसे रवैये से आम आदमी के अंदर क्षोभ पैदा होता है और वो विद्रोह में प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है। ऐसे लोगों के अतिवादी रवैये के विरुद्व ही पहले गुजरात की जनता नरेन्द्र मोदी को निर्वाचित करती रही और फिर इनके तमाम प्रचारों के बावजूद देश के बहुमत ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया। दिक्कत यह है कि कुछ लोग अभी भी यह दिल से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि वाकई नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हो गए। उनका कोई इलाज नहीं है। लेकिन वो जो कुछ कर रहे हैं उससे संाप्रदायिक शांति की जगह तनाव बढ़ेगा, दोनों के बीच दूरिया घटने की बजाय बढ़ेगी, खाई पटने की जगह चौड़ी होगी। इसलिए समाज के असली खलनायक ये ही हैं। पुरस्कर लौटाने वालों में कुछ ऐसे लोग है,ं जो उन पुरस्कारों के हकदार थे लेकिन ऐसे भी हैं जिनको केवल सरकार की कृपा से पुरस्कार का प्रसाद मिल गया। वे लौटा भी दे ंतो उससे क्या फर्क पड़ता है। उनको समस्या है तो वो देश भी छोड़कर चले जाएं कोई समस्या नहीं आने वाली। इस देश से मुसलमानों को कोई बाहर नहीं कर सकता, उनको दोयम दर्जे का नागरिक कोई नहीं बना सकता इसकी पूरी गारंटी है और देश उस दिशा में न पहले जा रहा था न आज जा रहा है। यह सब कुछ लोगों की मानसिक समस्या है जो एक विचार और संगठन से घृणा की फासीवादी प्रवृत्ति से निकलती है। हां, जहां अतिवाद पैदा हो रहा है उस पर अंकुश की आवश्यकता है और राज्य सरकारें उस दिशा में सख्ती बनाए रखे। बस, इससे ज्यादा कुछ करने की आवश्यता भी नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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