शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

नागरिकता विधेयक पारित होना ऐतिहासिक

 


अवधेश कुमार

नागरिकता विधेयक का संसद के दोनों सदन से पारित होना एक ऐतिहासिक घटना है। इस विधेयक द्वारा नागरिकता कानून, 1955 में संशोधन किया गया है ताकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोगों को आसानी से भारत की नागरिकता मिल सके। किसी व्यक्ति को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम पिछले 11 साल यहां रहना अनिवार्य है। इस नियम को आसान बनाकर इन लोगों के लिए नागरिकता हासिल करने की अवधि को एक साल से लेकर 5 साल कर दिया गया है। यानी इन तीनों देशों के छह धर्मों के बीते एक से छह सालों में भारत आकर बसे लोगों को नागरिकता मिल सकेगी। नागरिकता कानून, 1955 के मुताबिक अवैध प्रवासियों को भारत की नागरिकता नहीं मिल सकती थी। उन लोगों को अवैध प्रवासी माना गया है जो वैध यात्रा दस्तावेज जैसे पासपोर्ट और वीजा के बगैर आए हों या वैध दस्तावेज के साथ तो आए लेकिन अवधि से ज्यादा समय तक रुक जाएं। अवैध प्रवासियों को या तो जेल में रखा जा सकता है या विदेशी अधिनियम, 1946 और पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 के तहत वापस उनके देश भेजा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने साल 2015 और 2016 में 1946 और 1920 के इन कानूनों में संशोधन करके अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को छूट दे दी है। आज  ये वैध दस्तावेजों के बगैर भी रह रहे हैं और उनको नागरिकता के लिए अब किसी दस्तावेज की आवश्यकता नहीं है।

विरोध नहीं होता तो नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 में ही पारित हो जाता। 8 जनवरी, 2019 को विधेयक को लोकसभा में पास कर दिया गया लेकिन राज्यसभा में पारित हो नहीं सकता था। राजनीतिक पक्ष-विपक्ष से अलग होकर विचार करें तो इस विधेयक को विभाजन के समय आए शरणार्थियांें की निरंतरता के रुप देखे जाने की जरुरत थी। किंतु राजनीति जो न करे। कई प्रकार की गलतफहमी पैदा करने की कोशिश हुई। विरोध का एक बड़ा मुद्दा है, इसमें मुस्लिम समुदाय को अलग रखना। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश तीनों इस्लामिक गणराज्य यानी मजहबी देश हैं। पाकिस्तान में शिया, सुन्नी, अहमदिया की समस्या इस्लाम के अंदर का संघर्ष है। वस्तुतः वहां उत्पीड़न दूसरे धर्म के लोगों का है। दूसरे, मुसलमान को भारत की नागरिकता का निषेध नहीं है। कोई भी भारत की नागरिकता कानून के तहत आवेदन कर सकता है और अर्हता पूरी होने पर नागरिकता मिल सकती है। जैसा गृह मंत्री अमीत शाह ने बताया पिछले पांच वर्ष में इन देशों के 566 से ज्यादा मुसलमानों के नागरिकता दी भी गई है। यह तर्क भी हास्यास्पद है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, जो समानता के अधिकार की बात करता है। इसमें कौन सी समानता का उल्लंघन है? तब तो इसके पहले जहां से जहां से लोग आए और नागरिकता दी गई वो सब असंवैधानिक हो जाएगा। अनुच्छेद 14 उचित वर्गीकरण की बात करता है और किसी एक समुदाय को नागरिकता दी जाती तो शायद इसका उल्लंघन होता। चौथे, यह कहा जा रहा है कि इससे भारत पर भार बढ़ेगा और नागरिकता के लिए बाढ़ आ जाएगी। निस्संदेह, इस कानून के बाद उत्पीड़ित वर्ग भारत आना चाहेंगे। पर इस समय तो ये भारत में वर्षों से रह रहे हैं। अलग से भार बढ़ने की समस्या नहीं है।

इसे लेकर सबसे ज्यादा विरोध पूर्वोत्तर में दिखाई पड़ रहा है। हालांकि सिक्किम को छोड़कर सभी सांसदों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया। क्यों? क्योंकि उनकी ज्यादातर आशंकाओं को निराकरण किया है। पूर्वाेत्तर क्षेत्र में यह आशंका पैदा करने की कोशिश हो रही है कि अगर नागरिकता संशोधन लागू हो गया तो तो पूर्वोत्तर के मूल लोगों के सामने पहचान और आजीविका का संकट पैदा हो जाएगा। यह व्यवस्था पूरे देश के लिए बनी है केवल पूर्वोत्तर के लिए नहीं। अमित शाह द्वारा मणिपुर को इनरलाइन परमिट (आईएलपी) के तहत लाने की घोषणा के बाद पूर्वाेत्तर के तीन राज्य अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मणिपुर पूरी तरह से नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 के दायरे से बाहर हो गए। शेष तीन राज्य- नागालैंड (दीमापुर को छोड़कर जहां आईएलपी लागू नहीं है), मेघालय (शिलॉन्ग को छोड़कर) और त्रिपुरा (गैर आदिवासी इलाकों को छोड़कर जो संविधान की छठी अनुसूची में शामिल नहीं हैं) को प्रावधानों से छूट मिली  है। असम को लें तो छठी अनुसूची के तहत आने वाले तीन आदिवासी इलाकों (बीटीसी, कर्बी-अंगलोंग और दीमा हसाओ) के अलावा यह असम के सभी हिस्सों पर लागू होगा। इन आदिवासी इलाकों पर स्वायत्त जिला परिषदों का शासन है। तो स्थानीय संस्कृति, परंपरा तथा स्थानीय निवासियों के अधिकारों पर अतिक्रमण की आशंकाओं को खत्म करने के ठोस प्रावधान हैं। असम में इस कानून से केवल दो लाख लोगों को लाभ होगा। गृहमंत्री ने स्पष्ट कहा है कि जो इलाके बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत आते हैं उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि विधेयक वहां लागू नहीं होगा।

यह विधेयक अचानक नहीं लाया गया। जैसे हमने उपर याद दिलाया कि पिछली सरकार में भी इसे पारित कराने की कोशिश हुई थी। 2019 के आम चुनाव के घोषणा पत्र में भाजपा ने नागरिकता कानून बनाने का वायदा किया था। वैसे सरकार के कदमों पर ध्यान दें तो वह लगातार इस दिशा में आगे बढ़ रही थी। सरकार ने उन्हें अनेक वैसी सुविधाएं दी जाने की घोषणा कर दी थी जो नागरिकों को प्राप्त है। पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यकों को कुछ शर्तों के साथ संपत्ति खरीदने, पैन व आधार कार्ड बनवाने और बैंक खाता खुलवाने की अनुमति मिली। यही नहीं उन्हें राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में कहीं भी आने जाने की छूट मिल गई। जैसा हम जानते हैं पाकिस्तान से आने वालों पर आम पाकिस्तानी नागरिकों की तरह एक ही जगह रहने की बाध्यता है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने सितंबर 2015 में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू-सिख शरणार्थियों को वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी भारत में रुकने की अनुमति दी थी। ये सुविधा उन लोगों को दी गई थी जो 31 दिसंबर 2014 को या इससे पहले भारत आ चुके थे। इस तरह एक क्रमबद्ध प्रक्रिया चल रही थी।

वसतुतः इसे सांप्रदायिक नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। वहां हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसियों एवं विभाजन पूर्व भारत का नागरिक रह चुके ईसाइयों पर जुल्म होगा तो वे अपनी रक्षा और शरण के लिए किस देश की ओर देखेंगे? विभाजन के बाद वे वहां रह गए या गए तो उसके पीछे कई कारण रहे होंगे। धार्मिक कट्टरता के कारण उनके लिए अपनी धर्म-संस्कृति एवं परंपराओं का पालन करते हुए रहना संभव हीं रहा। या तो वे मुसलमान बन जाएं या फिर उनके साथ तरह-तरह की यातनायें। वास्तव में 1947 में शरणार्थी के रुप में पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं एवं सिख्खों को जिस तरह स्वाभाविक नागरिकता मिल गई उसी व्यवस्था को आगे बढ़ाते हुए इनको भी स्वीकार किया जाना चाहिए था। विभाजन के समय अल्पसंख्यकों की संख्या पाकिस्तान में 22 प्रतिशत के आसपास थी जो आज तीन प्रतिशत है। बांग्लादेश की 23 प्रतिशत आबादी 8 प्रतिशत से कम रह गई है। कहां गए वे? या तो मुसलमान बना दिए गए, मार दिए गए या फिर भाग गए। वहां जिस तरह के अत्याचार अल्पसंख्यकों पर होने आरंभ हुए वे अकल्पनीय थे। इससे अनुसूचित जाति के अनेक नेताओं, जिनने मुस्लिम लीग के साथ दोस्ती गांठकर पाकिस्तान का रुख किया था को आठ-आठ आंसू बहाना पड़ा। जब उनके धार्मिक उत्पीड़न की खबर आने लगी तो गांधी जी ने 4 नवंबर 1947 को बयान दिया कि सभी हरिजनों को भारत ले आओ। 1950 में प. जवाहर लाल नेहरु और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच दिल्ली समझौता हुआ जिसमें दोनों देशों ने अपने यहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, उनका धर्म परिवर्तरन नहीं करने से लेकर सभी प्रकार का नागरिक अधिकार देने का वचन दिया। इस समझौते के बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यक वहां के प्रशासन की दया पर निर्भर हो गए। धार्मिक भेदभाव और जुल्म की इंतिहा हो गई। शत्रु संपत्ति कानून का दुरुपयोग करते हुए संपत्तियों पर जबरन कब्जा सामान्य बात हो गई और इसके खिलाफ शिकायत के लिए कोई जगह नहीं। अत्याचार, संपत्ति लूटने, महिलाओं की आबरु लूटने,  धर्म परिवर्तन कर निकाह करने की खबरे आतीं रहीं, लेकिन भारत ने कभी प्रभावी हस्तक्षेप करने का साहस नहीं दिखाया जो उसकी जिम्मेवारी थी। पूर्वी पाकिस्तान में वर्तमान पाकिस्तान की सेना ने जिन हजारों महिलाओं के साथ बलात्कार किया, उनकी निर्ममता से हत्याएं कीं उनमें हिन्दुओं की ही संख्या ज्यादा थीं। अफगानिस्तान में कट्टरपंथी तालिबानी शासन और उसके बाद संघर्ष में धार्मिक उत्पीड़न के कारण उनकी भी चिंता की गई है।

सच कहा जाए तो उनको नागरिकता देकर भारत अपने पूर्व के अपराधों का परिमार्जन करेगा जिनके कारण कई करोड़ या तो धर्म परिवर्तन की त्रासदी झेलने को विवश हो गए या फिर भारत की मदद की आस में उत्पीड़न-अत्याचार सहते चल बसे। इस कानून के द्वारा एक इतिहास के एक नए अध्याय का निर्माण हुआ है जिसमें आने वाले समय में कई ऐसे पन्ने जुड़ेंगे जो अनेक परिवर्तनों के वाहक बनेंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

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