शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

राहुल मानते ही नहीं कि पार्टी के संकट के कारण चुनाव हारे

 

इसमें कांग्रेस के उबरने की संभावना खत्म है

अवधेश कुमार

अगर संसद का सत्र नहीं होता तथा राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद छोड़ने का अपना साढे तीन पन्नों का पत्र ट्वीटर के माध्यम से सार्वजनिक नहीं किया होता तथा उसके बाद कर्नाटक से लेकर गोवा तक पार्टी संकट में नहीं आती तो काग्रेस घुप अंधेरे कमरे के सन्नाटे में छिपी नजर आती। लोकसभा के अलावा पार्टी की कोई गतिविधि थी तो यही कि जो भी कार्यकर्ता या नेता राहुल गांधी तक पहुंच पाते वे उन्हें अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे थे। राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं से मुलाकात में जब कहा कि मुझे दुख इस बात का है कि मेरे इस्तीफा देने के बावजूद किसी नेता को अपनी जिम्मेवारी का अहसास नहीं हुआ तो उसके बाद हार की जिम्मेवारी लेने और इस्तीफा देने का सिलसिला आरंभ हुआ। जिस पार्टी के नेतृत्व मंडली की यह दशा हो उसके इतनी बड़ी पराजय के आघात से उबरकर फिर मुख्य धारा में आने तक पहुंचने की कल्पना कोई नहीं कर सकता।

हर संकट में सुअवसर अंतर्निहित होता है। प्रश्न है कि क्या कांग्रेस में संकट को अवसर में बदल देेने की क्षमता बची हुई है? अगर संकट के बहुआयामी कारणों को समझ कर उसे दूर करने के लिए संकल्प के साथ सही योजना से लगातार प्रयास किया जाए तो संभव है कांग्रेस धीरे-धीरे संकटों से मुक्त हो। किंतु उसका तरीका यह नहीं हो सकता कि राहुल गांधी एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखकर कहें कि मैं अध्यक्ष नहीं हूं और इस्तीफा इसलिए दे रहा हूं क्योंकि हमारी पार्टी के भविष्य के लिए जवाबदेही महत्वपूर्ण है।  2019 की हार के लिए बहुत से लोगों को जिम्मेदार ठहराने की जरूरत है। ऐसे में यह बिल्कुल भी न्यायोचित नहीं है कि मैं दूसरों को जिम्मेदार ठहराता रहूं, और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अपनी जवाबदेही को नजरअंदाज करता रहूं। प्रथमदृष्ट्या सुनने में यह अच्छा लगता है कि आज भी कांग्रेस के सर्वमान्य नेता ने पराजय की जिम्मेवारी लेकर इस्तीफा दिया और उस पर अड़ा रहा। किंतु सच यही है कि 25 मई को जब कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई उसमें राहुल गांधी ने हार के लिए वहां उपस्थित नेताओं और मुख्यमंत्रियों को ज्मिमेवार ठहराया। प्रियंका बाड्रा ने कहा कि कांग्रेस की हत्या करने वाले इसी कमरे में मौजूद हैं। जो भी बड़े नेता अकेले या समूह में राहुल गांधी से मिलने आए उन सबके प्रति कठोर शब्दों में उन्होंने नाराजगी प्रकट की।

  इस समय कांग्रेस के सामने अध्यक्ष चुनने की चुनौती आ गई है। कांग्रेस एक परिवार पर नेतृत्व के लिए निर्भर रहने के कारण जिस अवस्था में आ गई है उसमें राहुल का इस्तीफा और उसके पीछे की सोच उसके संकट को बढ़ाने वाला है। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में अध्यक्ष का चयन अत्यंत कठिन है। कई नामों पर चर्चा हो रही है। कांग्रेस का अध्यक्ष कौन होगा या होना चाहिए इसके जवाब के लिए हमें यह देखना होगा कि इस समय अध्यक्ष के रुप में कैसा व्यक्तित्व चाहिए? सबसे पहले तो वह ऐसा व्यक्ति हो जो समझ सके कि उसके सामने 2014 में अस्तित्व का जो संकट पैदा हुआ वह 2019 में ज्यादा गहरा हुआ है। दो, वह इतना दूरदर्शी हो कि संकट को सही परिप्रेक्ष्य में समझे। तीन, राजनीति की बदलती हुई धारा को देख पाए। चार, जनता या मतदाताओं का भारत को लेकर जो सामूहिक आकांक्षायें हैं, वो जिस प्रकार की राजनीति और नेता की कल्पना करता है उनको ठीक प्रकार से समझ सके। पांच, साथ ही उसके अंदर यह क्षमता हो कि उसके अनुरुप पार्टी के विचार एवं संगठन को बदल सके। यानी पार्टी का वैचारिक अधिष्ठान ऐसा बनाए जिससे लगे कि वो लोगों की सोच को अभिव्यक्त कर रहा है और संगठन को इस तरह ढाले जिससे वह वर्तमान राजनीति में प्रासंगिक हो सके। इसके लिए उसमें सोच के साथ भाषण देने यानी अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखने की क्षमता भी होनी चाहिए। राजनीति में वक्तृत्व कला का बहुत महत्व है। आपके सामने नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह जैसे वक्ता हैं जिनका मुकाबला करना है। संगठन को ढालने का मतलब है ऐसे योग्य एवं सक्षम लोगों की टीम बनाना जो प्राणपण से कांग्रेस का वैचारिक एवं सांगठनिक रुप से पुनर्निर्माण कर सकें। इतना हो सके तो धीरे-धीरे कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी भूमिका में आ सकती है। 

समस्या यह है कि पिछले साढ़े तीन दशक में नेहरु इंदिरा परिवार के प्रत्यक्ष या परोक्ष वर्चस्व के कारण कांग्रेस के पास सीमित व्यक्तियों में से ही चुनने का विकल्प रहा गया है। राज्यों से सक्षम और स्वाभिमानी नेता इन वर्षों में या तो पार्टी छोड़कर जा चुके हैं या फिर कुछ को हाशिये में डालकर राजनीति से बाहर हो जाने के लिए मजबूर कर दिया गया।  कांग्रेस की आकाशगंगा में आपको एक भी ऐसा चमकता सितारा नहीं दिखेगा जो उपरोक्त कसौटियों पर खरा उतरता है। अगर किसी को अध्यक्ष बना भी दिया जाए तो उसे काम करने की आजादी चाहिए। क्या आज की परिस्थिति में इतनी आजादी किसी अध्यक्ष और उसकी टीम को मिलने की संभावना है? क्या वह राहुल गांधी, प्रियंका बाड्रा या सोनिया गांधी को कोई निर्देश देने का साहस दिखा सकता है? क्या इनमें से कोई यदि बयान जारी करना चाहे, जो अध्यक्ष को मंजूर न हो तो उसे रोका जा सकता है? अगर नहीं तो वह अध्यक्ष करेगा क्या? राहुल गांधी के पत्र को देखिए तो वे कहते हैं कि मेरे सहयोगियों को मेरा सुझाव है कि अगले अध्यक्ष का चुनाव जल्द हो। मैंने इसकी इजाजत दे दी है और पूरा समर्थन करने के लिए मैं प्रतिबद्ध हूं। जब आपने पद छोड़ दिया तो इजाजत किस बात की?

कांग्रेस का संकट नीति यानी विचारधारा, नेतृत्व, रणनीति और संगठन चारों का है। राहुल गांधी ने अपने पत्र में ही विचारधारा को सीमित कर दिया है। उनका कहना है कि कोई भी चुनाव स्वतंत्र प्रेस, स्वतंत्र न्यायपालिका और पारदर्शी चुनाव आयोग के बगैर निष्पक्ष नहीं हो सकता है। और यदि किसी एक पार्टी का वित्तीय संसाधानों पर पूरी तरह वर्चस्व हो तो भी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो सकता है। हमने 2019 में किसी एक पार्टी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ा। बल्कि हमने विपक्ष के खिलाफ काम कर रहे हर संस्थान और सरकार की पूरी मशीनरी के खिलाफ चुनाव लड़ा है। हमारे संस्थानों की निष्पक्षता अब बाकी नहीं है। देश के संस्थानों पर कब्जा करने का आरएसएस का सपना अब पूरा हो चुका है। इसे स्वीकार कर लिया जाए तो फिर कांग्रेस को जनता ने नकारा ही नहीं। इन संस्थओं के कारण वे हार गए। वायनाड में उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी ने झूठ बोलकर तथा भ्रम फैलाकर जनता का वोट ले लिया है। इस तरह नए अध्यक्ष के लिए विचार, संघर्ष और संगठन का लक्ष्य भी राहुल गांधी ने सीमित कर दिया है। इसमें संकट अवसर में कैसे बदलेगा? उनसे पार्टी में कौन पूछ सकता है कि 2014 में हम क्यों 44 सीटों तक सिमट गए?

 सच कहें तो पार्टी मंे इतनी अंतःशक्ति बची ही नहीं थी कि वह भाजपा के विस्तारित होते जनाधार को चुनौती देेने की अवस्था में आ सके। कांग्रेस के सामने भाजपा के अकेले 31 प्रतिशत मत को नीचे लाना तथा अपने 19 प्रतिशत मत को 28-30 प्रतिशत तक ले आने की असाधारण चुनौती थी। वह भी उस स्थिति में जब मोदी सरकार समाज के निचले तबके के लिए आवास, शौचालय, बिजली, पानी, रसोई गैस का सिलेंडर, मुद्रा योजना से कर्ज तथा कौशल विकास को बड़े अभियान का रुप दे चुकी हो। आज दोनों पार्टियों के बीच 18 प्रतिशत मतों यानी कम से कम दोगुने का फासला है। क्या कांग्रेस यह कल्पना कर सकती थी कि अमेठी से राहुल गांधी पराजित हो जाएंगे? अगर केरल का वातावरण सबरीमाला आंदोलन के कारण वामपथियों के खिलाफ नहीं होता तथा तमिलनाडु में द्रमुक की कृपा नहीं होती तो कांग्रेस 2014 से भी नीचे आ जाती तथा राहुल लोकसभा से बाहर होते। 52 में से 23 सीटें इन्हीं दोनों राज्यों की हैं। कांग्रेस का आघात केवल 2019 तक सीमित नहीं है। आप थोड़ी गहराई से अंकणित का विश्लेषण करेंगे तो निष्कर्ष यही आएगा कि अंधेरे के सन्नाटे से निकल पाने की संभावना न के बराबर है। जिन राज्यों मंे सीधा मुकाबला है वहां या तो कांग्रेस को भाजपा से आधा से कम वोट मिले या 24-25 प्रतिशत तक का अंतर हैं। जहां गठबंधन में चुनाव लड़ा गया वहां भी 20 से 25 प्रतिशत तक का अतर है। ऐसी पराजय ईमानदार आत्ममंथन मांगती है जिसका रास्ता राहुल ने स्वयं बंद कर दिया है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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