शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

उत्तराखंड पर उच्चतम न्यायालय ही अंतिम फैसला दे सकता है

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय ने मामला स्वीकार कर लिया है। उसके द्वारा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक के बाद प्रदेश फिर से राष्ट्रपति शासन के तहत है। इस मामले को उच्चतम न्यायालय में आना ही था। उच्च न्यायालय ने जैसी टिप्पणियां कीं तथा जिस तरह के प्रश्न खड़ा कर दिए उनके निपटारे के लिए उच्च्तम न्यायालय ही एकमात्र संस्था है। नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन निरस्त करने के दो पहलू थे, संवैधानिक एवं राजनीतिक। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो तत्काल यह निर्णय नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए पहला ऐसा झटका था जिसका जवाब देने की स्थिति में भाजपा के प्रवक्ता नहीं थे। न्यायपालिका के मामले पर कोई पार्टी, भले वह फैसले से जितनी क्षुब्ध हो, खिलाफ टिप्पणी नहीं कर सकती। उनकी नजर में फैसला चाहे गलत ही क्यों न हो आपके पास तत्काल उसे स्वीकारने और उसके विरुद्ध अपील करने का ही विकल्प बचता है। अगर उच्चतम न्यायालय इस फैसले को कायम रखता है तो फिर कांग्रेस और सारी विरोधी पार्टियों के पास केन्द्र सरकार के विरुद्ध यह ऐसा अस्त्र होगा जिससे वे लगातार हमला करते रहेंगे। कांग्रेस के बयानों को देख लीजिए। उसके प्रवक्ता कह रहे थें कि भाजपा की उनकी सरकारों पर लालची नजर है और इस फैसले से साबित हो गया कि अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर वह सरकारों का गला घोंटना चाहती है। अन्य विरोधी दलों ने भी सरकार के खिलाफ तीखे तेवर अपनाए। लेकिन यदि उच्च्तम न्यायालय ने केन्द्र के निर्णय को सही करार दे दिया तो फिर यही स्थिति पलट जाएगी।

उच्च न्यायालय के फैसल से राजनीति में कांग्रेस बाजी मार ले गई दिखती थी। राष्ट्रपति शासन लगाने और विधानसभा निलंबित रखने के बाद हरीश रावत ने राज्य भर में सभाएं की और अपने पक्ष में सहानुभूति पाने की रणनीति अपनाई था। भाजपा इसमें भी पीछे रह गई थी। भाजपा के पास अपने कदम की रक्षा करने का विकल्प था। उसने रावत के खिलाफ इस तरह आक्रामक अभियान नहीं चलाया जैसा रावत भाजपा एवं मोदी सरकार के खिलाफ चला रहे थे। उच्च न्यायालय के फैसले न रावत की इस कोशिश को और ताकत दे दिया था। हालांकि इस बात से इन्कार करना कठिन है कि सदस्यों द्वारा विद्रोह करने के बावजूद रावत का पद पर बने रहना नैतिक नहीं था। कम से कम उस समय रावत को बहुमत नहीं प्राप्त था। इसी तरह स्टिंग में उन्हें भी सदस्यों के समर्थन के लिए मोलभाव करते देखा गया। यानी उनके पक्ष को नैतिक नहीं कहा जा सकता। जो स्थिति उत्तराखंड मंें पैदा हो गई थी उसमें हरीश रावत की सरकार बगैर लोभ लालच में बच नहीं सकती थी।

उच्च न्यायालय ने ऐसी कुछ सख्त टिप्पणियां कर दीं जो केन्द्र सरकार पर धब्बे की तरह है। मसलन, न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए जिन तथ्यों पर विचार किया गया उसका कोई आधार नहीं है....केन्द के पास ऐसा कुछ नहीं है जिससे साबित हो कि राज्य में आपातकाल जैसे हालात हैं...निलंबन या भंग किया जाना निर्वाचित सरकार को गिराया जाना ही है...यहां कुल मिलाकर जिसे दांव पर लगाया गया वह लोकतंत्र था...। जब न्यायालय में केंद्र की ओर से कहा गया कि यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि इस राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाया जाएगा तो न्यायालय ने कहा कि आपके इस रवैये पर हमें अफसोस है। केन्द्र की ओर से यह कहने पर कि हम चाहते हैं कि इस मामले में कोई फैसला होने तक राष्ट्रपति शासन लागू रहे पीठ ने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता है तो उन्हें इस बात की चिंता है कि भाजपा को यह मौका मिल जाएगा कि वह यह साबित कर सके कि उसके पास नई सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में विधायकों का समर्थन है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर कल आप राष्ट्रपति शासन हटा लेते हैं और किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर देते हैं, तो यह इंसाफ का मजाक उड़ाना होगा। उच्च न्यायालय की सरकार के खिलाफ सबसे सख्त टिप्पणी इस प्रश्न के साथ आई कि क्या केंद्र सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है?

हमारे देश में न्यायालय की टिप्पणियां एक लक्ष्मण रेखा की तरह बन जातीं हैं जिनको भविष्य में बार-बार उद्धृत किया जाता है। केन्द्र सरकार इन टिप्पणियां को स्वीकार कर चुपचाप नहीं रह सकती थी। इसलिए उच्चतम न्यायालय का मत अपरिहार्य है। फैसला देने के एक दिन पहले उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति पर जो टिप्पणी कर दी उसे कायम रखा जाएगा या नहीं इसे लेकर संविधान विशेषज्ञों ने भी असहजता प्रकट की।  आम सोच यह थी कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं.....उनसे भी गलतियां हो सकतीं है....जैसी टिप्पणियों से न्यायालय को भी बचना चाहिए था। दरअसल, किसी मामले में राष्ट्रपति पर ऐसी सख्त टिप्पणी पहली बार आई है। अभी तक उच्चतम न्यायालय ने भी कभी राष्ट्रपति पद या किसी राष्ट्रपति के विरुद्व नकारात्मक टिप्पणी नहीं की थी। वैसे भी हमारे संविधान में राष्ट्रपति केवल नाममात्र के ही कार्यकारी प्रधान हैं। वे मंत्रिमंडल के फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं। हां, वे पुनर्विचार के लिए अवश्य इसे वापस कर सकते हैं, लेकिन अगर दोबारा वही वापस आ गया तो उन्हें हस्ताक्षर करना होगा। देखते हैं इस पर उच्चतम न्यायालय क्या रुख अपनाता है। कम से कम अभी तक के उच्चतम न्यायालय के रुख से ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रपति के विरुद्ध टिप्पणी को वह जारी रखेगा।

वास्तव में राजनीति से परे उच्च न्यायालय के फैसले में बहस के मुख्य पहलू संवैधानिक एवं संसदीय परंपराओं के संदर्भ में हैं। इनमें ऐसे पहलू हैं जिनका अंतिम फैसला उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है। उच्च न्यायालय ने 18 मार्च को विनियोग विधेयक को पारित मान लिया है। संविधान विशेषज्ञों ने कहा था कि अगर एक भी सदस्य मत विभाजन मांगता है तो फिर अध्यक्ष को ऐसा करना होगा। संसद की यह परंपरा रही है। सदस्य का अर्थ सदस्य है...वह सत्ता एवं विपक्ष किसी का भी हो सकता है। तो संसद की इस परंपरा का क्या होगा? इसका उत्तर तो उच्चतम न्यायालय ही देगा? दूसरे, विनियोग विधयेक यदि पारित हो गया है तो फिर सदन के अंदर दलबदल कैसे मान लिया जाए? सारी समस्या तो वहीं से पैदा हुई। कांग्रेस के नौ विधायकों का पाला बदलना उसी कारण माना गया। उनकी सदस्यता अध्यक्ष ने इसी आधार पर भंग की कि उनने अपने पार्टी के खिलाफ काम किया। कोई सदन के बाहर पार्टी के खिलाफ काम करे इसके लिए उसकी सदस्यता भंग नहीं हो सकती। तो यह बड़ा प्रश्न सामने है। तीसरे, अभी तक किसी उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को निरस्त करने का आदेश नहीं दिया था। केवल उच्चतम न्यायालय ही यह फैसला कर रहा था। क्या उच्च न्यायालय आगे ऐसा करेगा या यह विशेषाधिकार उच्चतम न्यायालय के पास रहेगा इसका निर्णय होना भी आवश्यक है। यह बहुत बड़ा प्रश्न है। यही नहीं अनुच्छेद 356 पर शायद एक और बड़े फैसले की आवश्यकता है ताकि 1994 के बोम्मई मामले के फैसले में छुटे पहलुओं पर न्यायिक मत सामने आ सके। आखिर उत्तराखंड जैसी स्थिति में कोई केन्द्र सरकार क्या कर सकती है इसका मार्गदर्शन भी उच्चतम न्यायालय को करना चाहिए। और सबसे बढ़कर जैस उपर कहा गया राष्ट्रपति पद पर टिप्पणी का मामला है।

तो हमें उच्चतम न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस समय बाबा साहब अम्बेदकर की यह टिप्पणी कई जगह उद्धृत की जा रही है कि अनुच्छेद 356 संविधान में तो है, पर इसका उपयोग होने की नौबत कभी नहीं आएगी। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति ने संविधान की उस भावना का पालन नहीं किया। इस समय हम भाजपा को कितने भी कठघरे में खड़ा कर दें, पर सबसे ज्यादा इस अनुच्छेद का दुरुपयोग कांग्रेस के शासनकाल में हुआ। वैसे कोई भी सरकार ऐसी नहीं रही जिसने इसका उपयोग नहीं किया। अनेक बार उससे बचा जा सकता था। इसका कारण राजनीति में गिरावट रहा। तो 356 हमारी राजनीति में गिरावट का हथियार बन गई। अगर उत्तराखंड में ही कांग्रेस के अंदर विद्रोह नहीं हुआ होता...या उसके बाद रावत नैतिकता के आधार पर कम से कम त्यागपत्र की पेशकश कर देते...भले कांग्रेस आलाकमान इसे नहीं मानती तो तस्वीर दूसरी होती।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/