शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

कांग्रेस के इस रवैये का अर्थ क्या है

 

अवधेश कुमार

नेशनल हेराल्ड मामले पर जिस ढंग से कांग्रेस ने संसद के दोनों सदनों में हंगामा किया है तथा संसद के बाहर जो रवैया अपनाया हुआ है वह अस्वाभाविक नहीं है। सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करने की किसी भी घटना पर कांग्रेस विरोध की अंतिम सीमा तक जाएगी यह निश्चित है। इसलिए इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि कांग्रेस जो कुछ कर रही है या सरकार पर बदले की कार्रवाई का जो आरोप लगा रही है उसे सही मान लिया जाए। वास्तव में इस मामले पर सतही नजर रखने वाला भी कह सकता है कि अभी तक सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं है। नेशनल हेराल्ड मामले के सारे पहलू सामने लाए जा चुके हैं, इसलिए इसके बारे में यहां विस्तार से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। यंग इंडिया कंपनी बनाकर नेशनल हेराल्ड को उसके अंदर लाने की पूरी प्रक्रिया कानूनी रुप से सही थी, गलत थी, कंपनी नियमों का इसमें पालन हुआ या नहीं इसका फैसला न्यायालय करेगी। हालांकि निचले न्यायालय ने सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी को सम्मन जारी करते समय तथा दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले को खारिज करने की अपील अस्वीकारते हुए जो टिप्पणियां की हैं उनमें ऐसा बहुत कुछ है जो तत्काल सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मोतीलाल वोरा, ऑस्कर फर्नांडिस, सुमन दुबे एवं सैम पित्रोदा की भूमिका को कानूनी तरीके से संदेह के घेरे में लाती है। इससे कांग्रेस की परेशानी समझ में आ सकती है।

लेकिन इस विषय पर संसद की कार्यवाही बाधित करने का क्या अर्थ है? न्यायालय ने अगर सम्मन जारी किया है तो क्या सरकार वहां उपस्थित होकर कहे कि आप अपना सम्मन वापस ले लीजिए? यदि दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले को समुचित छानबीन एवं न्यायालय में चलाने लायक करार दिया है तो वहां सरकार क्या कर सकती है? क्या सरकार दिल्ली उच्च न्यायालय से अपना फैसला बदलने के लिए आवेदन करेगी? सोनिया गांधी कह रहीं हैं कि वो इंदिरा गांधी की बहू हैं और किसी से नहीं डरतीं। क्या न्यायालय इस आधार पर फैसला देगा कि सोनिया गांधी देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बहू हैं? क्या सरकार न्यायालय मंे यह अपील करेगी कि ये पं. जवाहरलाल नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी की बहू हैं, इसलिए उनको हर प्रकार के मुकदमे से मुक्त रखा जाना चाहिए? देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी का यह रवैया निश्चय ही चिंताजनक है। सामान्य गरिमामय आचरण तो यही था कि सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी स्वयं आगे आकर कहतें कि अगर न्यायालय ने सम्मन जारी किया है तो हमेें उसका सम्मान करते हुए अपनी बात वहां रखनी चाहिए। उन्हें अपनी पार्टी के लोगों को न्यायालय का मसला संसद से दूर रखने का आग्रह करना चाहिए था। न्यायालय के कदमों का फैसला न तो संसद में हो सकता है और न संसद के निर्णयों का फैसला न्यायालय में। ऐसा होने लगे तो संसदीय लोकतंत्र के तीनों अंगांें का संतुलन ध्वस्त हो जाएगा एवं व्यवस्थागत अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। कांग्रेस की भूमिका इसी दिशा का है।

राहुल गांधी आरोप लगा रहे हैं कि यह स्पष्ट तौर पर राजनीतिक बदले की कार्रवाई है तथा प्रधानमंत्री कार्यालय इसमें सीधे संलग्न है। राजनीतिक बदले की कार्रवाई किस तरह है तथा प्रधानमंत्री कार्यालय किस तरह इसमें लिप्त है इसे भी उन्हें एवं उनकी पार्टी को स्पष्ट करना चाहिए। कांग्रेस का तर्क है कि एक ओर पी. चिदम्बरम के बेटे की कंपनी पर छापा मारा जा रहा है, हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के यहां छापा मारे गए हैं और अब सीधे हमारे नेतृत्व पर मुकदमा। तथ्यों के आधार पर ये सारे आरोप खारिज हो जाते हैं। कारण, ये सारे मामले यूपीए सरकार के समय के हैं। एअरसेल्स मैक्सिस मामला यूपीए के दौरान दायर हुआ। उसी कारण दयानिधि मारन को मंत्री पद से हटना पड़ा। उसमें उनके मंत्री रहते समय उनकी भाई की कंपनी सन टीवी से जिन कंपनियों का लेनदेन हुआ उसमें चिदम्बरम के पुत्र कीर्ति चिदम्बरम की कंपनी भी है। जांच तो होगी। इसमें बदले की कार्रवाई का मतलब क्या है। वीरभद्र सिंह का मामला भी पुराना है। नेशनल हेराल्ड मामला भी सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2013 में ही दायर किया था। उस समय वे भाजपा में नहीं थे। वैसे भी स्वामी भाजपा में अवश्य हैं, पर वे अंग्रेजी में जिसे वन मैन आर्मी कहते हैं वही हैं। सोनिया गांधी परिवार के खिलाफ वे कई मामले लाते रहे हैं। आज तक उस परिवार या कांग्रेस की हिम्मत नहीं हुई कि वह उनके खिलाफ मुकदमा करे। स्वामी ने चिदम्बरम के खिलाफ भी मुकदमा किया था। 2 जी मामला भी न्यायालय वही लेकर गए थे। अगर नेशनल हेराल्ड को हथियाने का पूरा मामला यदि संदेह में है तो भाजपा क्या किसी पार्टी को इसे न्यायालय में ले जाने का अधिकार है और इसे प्रतिशोध की कार्रवाई नहीं माना जा सकता। न्यायालय तो किसी के प्रभाव में आकर फैसला नहीं लेता। यह मामला प्रवर्तन निदेशालय एवं आयकर विभाग में भी है। अभी तक उनका छापा नहीं हुआ। उनने पूछताछ भी नहीं की है। अगर वो पूछताछ करें तो कांग्रेस फिर हंगामा करेगी। फिर राजनीतिक बदले का रोना रोया जाएगा।

प्रश्न है कि मामला कोई लेकर गया हो, अगर न्यायालय ने उसे मुकदमा चलाने के योग्य समझा, आपको सम्मन जारी कर अपना पक्ष रखने के लिए कहा तो आपको समस्या क्या है? अगर आप अपने को पाक साफ समझते हैं तो न्यायालय में अपना पक्ष रखिए और बरी हो जाइए। यह कम हैरत की बात नहीं है कि कांग्रेस के नेता एवं नामी वकीलों ने भी यहां न्यायालय की भूमिका को प्रश्नों के घेरे में ला दिया है। कांग्रेस एक ओर तो कह रही है कि वह न्यायपालिका का सम्मान करती है दूसरी ओर वह उसके फैसले पर प्रश्न खड़ा करती है। एक ओर कहती है कि वे न्यायालय में उपस्थित होंगे वहीं दूसरी ओर सरकार की भूमिका का आरोप लगाकर ऐसा संदेश दे रही है मानो न्यायालय सरकार की मंशा के अनुसार काम कर रही है। यह अत्यंत ही निंदनीय रवैया है और गंभीर भी। सच कहा जाए तो कांग्रेस का रवैया स्पष्टतः न्यायालय की अवमानना है। कांग्रेस ने यही काम उस समय किया था जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला खदान आवंटन मामले में न्यायालय ने आरोपी बनाया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के नेतागण 24 अकबर रोड यानी कांग्रेस मुख्यालय से मनमोहन सिंह के आवास पर मार्च किया था। उस समय भी यही सवाल उठा था कि आखिर कांग्रेस किसका विरोध कर रही है? कारण, यह न्यायालय का आदेश था और वहां भी मामला यूपीए सरकार के कार्यकाल का ही था।

नेशनल हेराल्ड मामले में उच्च न्यायालय ने इतना तो कहा ही है कि शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए तथ्यों एवं बचाव की ओर से दी गई दलीलों के विश्लेषण से पूरे मामले के तौर तरीकों में अपराधिक इरादा दिखता है। इसे गबन माना जाए, आमनत में खयानत या और कुछ इसका फैसला तो छानबीन के बाद ही होगा लेकिन आरोपी नेताओं और कांग्रेस पार्टी प्रश्नों के घेरे में आती है। न्यायालय ने यह सब सरकार के कहने पर तो नहीं लिख दिया है। कांग्रेस के वकील नेताओं के पास उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला हुआ है। संसद में हंगामे से न्यायालय का फैसला तो नहीं बदल जाएगा। कांग्रेस जैसी देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए यह परीक्षण का समय था। उसे दिखाना था कि वह एक साथ न्यायालय का भी सम्मान करती है तथा संसदीय व्यवस्था को बनाए रखने में भी उसकी आस्था है। वह न्यायालय में अपना पक्ष रख सकती थी तथा संसद में कार्यवाही चलने देने में सहयोग करते हुए वह सामान्य विपक्ष की भूमिका निभा सकती थी। इन दोनों कसौटियों पर उसने स्वयं को विफल साबित किया है और यह हमारे लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः0112483408,09811027208

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