गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अफगानिस्तान में तालिबानी आधिपत्य

अवधेश कुमार

अफगानिस्तान की तस्वीरें अंदर से हिला देने वाली है। तालिबान की अफगानिस्तान में आधिपत्य के साथ विश्व समुदाय के अंदर फिर नए सिरे से चारों ओर इस्लामिक हिंसक कट्टरवाद के उभरने तथा आतंकवादी हमलों के बढ़ने की आशंकाएं बलवती हो रही है तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। वैसे जिस तरह तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया है वह अपने आपमें भयावह है। पूरा परिदृश्य विचलित और आतंकित करने वाला है ।  एक घोषित मजहबी आतंकवादी संगठन सशस्त्र संघर्ष करते हुए देश पर आधिपत्य जमा ले, निर्वाचित व विश्व द्वारा मान्यता प्राप्त सरकार को सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर कर दे और विश्व समुदाय मूकदर्शक बना देखता रहे सामान्यतः इस स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह तथाकथित आधुनिक दुनिया है जहां संयुक्त राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य देशों ने आतंकवाद को नष्ट करने का सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया हुआ है। ध्यान रखिए,  2001 का प्रस्ताव भी तब अफगानिस्तान के संदर्भ में ही था। तालिबान और अलकायदा की मजहबी आतंकवादी विचारधारा के विरुद्ध विश्व समुदाय का वह भी एक वैचारिक संकल्प था । इस दृष्टि से अफगानिस्तान में तालिबानी आधिपत्य आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी विडंबना है। 

अगस्त आरंभ होने के साथ तालिबान ने जिस ढंग से अफगानिस्तान के राज्य -दर राज्य कब्जा करना शुरू किया और अफगान सेना आत्मसमर्पण करती गई उसके बाद यही होना था। हैरत की बात यही है कि करीब 20 वर्षों से अफगान की भूमि पर मौजूद अमेरिका को जमीनी सच का पता नहीं चला। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने काबुल के पतन के लगभग दो सप्ताह पहले वक्तव्य दिया था कि तालिबान ऐसे दिखा रहे हैं मानो जीत रहे हैं जबकि अंतिम अध्याय लिखा जाना बाकी है। कुछ दिनों पहले अफगान पत्रकार बिलाल सरवरी ने एक विदेशी समाचार एजेंसी को जमीनी स्थिति बताते हुए कहा था कि तालिबान के कमांडर गुपचुप तरीके से अफगान सेना के कमांडरों तथा गांवों, जिलों और प्रांतीय स्‍तर पर महत्‍वपूर्ण नेताओं के साथ संपर्क बना रहे हैं। इसके लिए वे उनके कबीले, परिवार और दोस्‍तों की मदद ले रहे हैं ताकि  गुप्‍त समझौता किया जा सके। इसी वजह से अफगान सेना को हार का मुंह देखना पड़ रहा है। कंधार से आई एक रिपोर्ट में कहा गया था कि तालिबान आतंकवादी अफगान नेताओं और कमांडरों को आश्‍वासन दे रहे हैं कि अगर वे मदद करते हैं तो माफ कर दिया जाएगा। तालिबान मुख्यतः पश्तून संगठन है जो अफगानिस्तान की आबादी के 45 प्रतिशत हैं। कुछ ताजिक भी हैं। हालांकि तालिबान विजय क यही कारण नहीं हैं। अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञ और लॉन्‍ग वॉर जनरल के संपादक बिल रोग्गियो का विस्तृत आकलन पिछले दिनों अमेरिका सहित दुनियाभर की मीडिया में प्रकाशित हुआ था । उन्‍होंने कहा कि यह वियतनाम में 1968 के बाद अमेरिका की सबसे बड़ा खुफिया नोनाकामी है। बिल का प्रश्न था कि यह कैसे हुआ कि तालिबान ने योजना बनाई, खुद को एकजुट किया, तैयार किया और देश भर में इतने बड़े आक्रामक अभियान को क्र‍ियान्वित किया वह भी सीआईए, डीआईए, एनडीएस और अफगान सेना की नाक के नीचे? उनके अनुसार अमेरिकी सेना और खुफिया अधिकारियों ने खुद को यह समझा लिया कि तालिबान बातचीत करेगा। तालिबानी आतंकियों की यह सैन्‍य रणनीति थी ताकि वार्ता की मेज पर इसका फायदा उठाया जा सके। अमेरिकी तालिबान की इस साजिश को पकड़ नहीं पाए कि तालिबान सैन्‍य ताकत के बल पर देश पर कब्‍जा कर सकता है। अमेरिका ने अफगान सेना की ताकत के बारे में गलत अनुमान लगाया कि वह एक साल तक तालिबान को रोक सकती है।

बिल की बात से कोई असहमत नहीं हो सकता। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि अफगान सेना में तालिबान को रोकने की पूरी क्षमता है और वे कम से कम एक साल तक उन्हें रोक सकते हैं। अमेरिका में लंबे समय से यह धारणा बन रही थी कि 11 सितंबर 2001 को हमला कराने वाला ओसामा बिन लादेन मारा जा चुका है तो हमारा वहां पड़े रहना मूर्खता है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो प्रश्न उठाते थे कि आखिर अमेरिका वहां क्यों है जबकि भारत ,चीन, रूस तक नहीं हैं? लेकिन पिछले कुछ सालों में अमेरिका में यह मुद्दा रह ही नहीं गया था। ट्रंप ने सैनिकों की वापसी की घोषणा की योजना भी बना ली थी लेकिन एकाएक वापस आने का उन्होंने निर्णय नहीं किया। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने बिना सोचे विचारे 11 सितंबर की अंतिम तिथि निश्चित कर दी और फिर उसके बाद तालिबान के निर्वाचित सरकार उसके नियंत्रण में चलने वाली सेना के पैरों तले जमीन खिसक गई । अमेरिकी सैनिकों की आपसी का मतलब था वहां लड़ने वाली ढांचा का खत्म होना। जब ढांचा ही नहीं रहा तो अफगान सेना बेसहारा हो गई पिछले तीन सप्ताह में अमेरिका ने भारी बमबारी की लेकिन अफगानिस्तान के जमीनी हालात बिल्कुल बदल गए थे। इसमें यही होना था।

कोई अमेरिकी तालिबान का शासन अफगानिस्तान में नहीं चाहता होगा। जिस तालिबान के कट्टर मजहबी आतंकवादी शासन को अमेरिका ने उखाड़ फेंका वही इनके कारण इतनी आसानी से वापस आ गया। करीब 20 वर्षों बाद तालिबान जिस तरह वापस आए हैं उसमें अब उन्हें उखाड़ फेंकना अत्यंत कठिन है। संपूर्ण नाटो सेना और अमेरिकी सेना की शर्मनाक वापसी के बाद कोई संगठन, देश या देशों का समूह अफगानिस्तान में हाथ डालने का साहस नहीं करेगा। निश्चित रूप से 2001 और 2021 में अंतर है किंतु यह तालिबान के लिए ज्यादा अनुकूल है । कतर की राजधानी दोहा में उनका राजनीतिक मुख्यालय है जहां से वे अमेरिका सहित अन्य देशों के साथ बातचीत कर रहे थे। तब ऐसा नहीं था। इस बीच तालिबान ने अपने समर्थक देशों की मदद से ऐसे व्यक्तित्व विकसित कर लिए हैं जो विश्व के साथ सभ्य और सधी हुई भाषा में संवाद करते हैं, कूटनीतिक शब्दावली में बयान देते हैं।।बातचीत के कारण अनेक देशों के नेताओं और राजनयिकों के साथ उनके संबंध बने हैं। पहले केवल पाकिस्तान का हाथ उनके सिर पर था। पाकिस्तान का हाथ आज भी है और तालिबान की ताकत बढ़ाने तथा उनकी जीत में इसकी प्रमुख भूमिका है। इस बार चीन और रूस ने तालिबान के साथ संवाद बढ़ाया। चीन ने पाकिस्तान के माध्यम से तालिबान नेताओं से संपर्क किया, दोहा स्थित राजनीतिक ब्यूरो के प्रमुख मुल्लाह अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबान प्रतिनिधिमंडल को बीजिंग बुलाकर बातचीत की। रूस तालिबान के साथ काम करने में स्पष्ट रुचि दिखा रहा है।

तालिबान ने अपने कट्टर इस्लामी विचारधारा में परिवर्तन किया है इसके प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं। अफगानिस्तान में 1996 से 2001 तक का तालिबानी शासन काल शरिया के नाम पर बर्बरता की मिसाल था। तालिबान उसी की पुनरावृत्ति करते हैं या थोड़ी उदारता दिखाते हैं यह भविष्य के गर्त में है लेकिन किसी भी परिस्थिति में उदार और खुला शासन नहीं  होगा । कंधार पर कब्जे के बाद जब तालिबान लड़ाके अजीज बैंक में गए तो उन्होंने काम कर रही 9 महिलाओं को घर जाने का आदेश दिया तथा ऐलान किया कि उनके पति या परिवार के पुरुष रिश्तेदारों वहां काम कर सकते हैं। सत्ता हाथ में आने के साथ ही उनके रंग बदलने लगे और उन्होंने महिलाओं और विरोधियों के साथ जो कुछ करना शुरू किया है वह भविष्य का ट्रेलर ही है । वास्तव में तालिबान एक ऐसी विचारधारा के झंडाबरदार हैं जो संपूर्ण आधुनिक सभ्यता को नकारती और उसके विनाश का लक्ष्य रखती है। इस तरह अफगानिस्तान में उनकी फिर से वापसी उस विचारधारा की विजय है जो सम्पूर्ण मानवता के लिए खतरा है । पहले तालिबान बिना अंतरराष्ट्रीय मान्यता के शासन करते रहे हैं। सत्ता से वंचित किए जाने तथा आतंकवादी संगठन घोषित होने के कारण प्रतिबंधित होने के बावजूद उनका अस्तित्व कायम रहा। उसी स्थिति में अपने समर्थक देशों के सहयोग से उसने संवाद के जरिए अघोषित मान्यता भी प्राप्त की। भारत के लिए विकट स्थिति पैदा हो गई । चीन और पाकिस्तान के वहां प्रभावी होने का अर्थ भारत के हितों पर सीधा कुठाराघात। भारत में वहां करीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया है। इसके अलावा 34 प्रांतों में लगभग 400 परियोजनाएं शुरू की गई है। अफगानिस्तान के साथ रणनीतिक साझीदार समझौता भी अब गया। तालिबान की विजय से उत्साहित होकर आतंकवादी फिर से भारत को हिंसा में जलाने की कोशिशें बढ़ा सकते हैं। हम तालिबान शासन के साथ संबंध बनाते हैं तो वह उस विचारधारा को मान्यता देना है जहां से इस्लामी साम्राज्य की स्थापना के लिए हिंसा और आतंकवाद निकलता है। नहीं करते हैं तो आर्थिक सामरिक हित प्रभावित होंगे। मुख्य चिंता का विषय यह है एक आतंकवादी संगठन को किस तरह अमेरिका और उसके साथ ही देशों ने अपनी मूर्खता और नासमझी से इस स्थिति में ला दिया कि आज वह फिर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल सहित कुछ स्थानों को छोड़कर लगभग पूरे देश में अपना इस्लामी झंडा लहराने में सफल है।

अवधेश कुमार, ई:30, गणेश नगर ,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली :110092 ,मोबाइल :98210 27208

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