मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने अन्य पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों से परे जितने कम समय में चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की वह प्रशंसनीय है। हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 2 नवंबर एवं महाराष्ट्र का 9 नवंबर को खत्म हो रहा है। चुनाव आयोग के लिए उसके पूर्व चुनाव प्रक्रिया संपन्न करना अनिवार्य था। 21 अक्टूबर को दोनों राज्यों में मतदान संपन्न हो जाएगा एवं 24 अक्टूबर को मतगणना। तो आइए दोनों राज्यों के राजनीतिक समीकरणों तथा चुनावी संभावनाओं का पूर्वावलोकन करें। यह चुनाव नरेन्द्र मोदी सरकार-2 के संसद के पहले सत्र में रिकॉर्डतोड़ काम करने के आलोक में हो रहा है। वर्षों से भाजपा के घोषणा पत्र में शामिल अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर से खत्म किया जा चुका है। एक साथ तीन तलाक को अपराध बनाने का कानून भी बन चुका है। ध्यान रखिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी तक की अपनी सभाओं में इनको मुद्दा बनाया है। प्रधानमंत्री ने दोनों मामलों पर कांग्रेस ही नहीं राकांपा के शरद पवार को भी कठघरे में खड़ा किया है। इसका अर्थ स्पष्ट है। 370 एवं तीन तलाक तथा इन पर कांग्रेस एवं राकांपा की भूमिका इन चुनावों में बहुत बड़ा मुद्दा होगा। यह सच है कि पाकिस्तान ने कांग्रेस नेताओं के बयानों को भारत के खिलाफ अपने प्रचार एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिवदेनों में शामिल किया है। इसका असर मतदाताओं पर कितना होगा यह देखने लायक है।
महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा एवं शिवसेना के बीच ढाई दशक में पहली बार गठबंधन नहीं हुआ था। लेकिन भाजपा कुल 288 में से 122 सीटें जीतने में कामयाब रही, जबकि शिवेसना 63 पर सिमट गई। बाद की परिस्थितियों में दोनों को मिलकर सरकार बनाने को विवश होना पड़ज्ञ। इसके मुकाबले कांग्रेस को 42 एवं राकांपा को 41 सीटें मिलीं थीं। भाजपा को 27.81 प्रतिशत तथा शिवेसना को 19.35 प्रतिशत मत मिला था। इसके समानांतर कांग्रेस को 17.95 प्रतिशत तथा राकांपा को 17.24 प्रतिशत मत मिला। यदि दोनों को मिला दे ंतो कांग्रेस राकांपा को 35.19 प्रतिशत एवं भाजपा शिवसेना को 46.16 मिला। इस तरह दोनों के बीच करीब 11 प्रतिशत मतों का अंतर था। एआइएमआइएम ने 0.93 प्रतिशत मत लेकर 2 सीटें जीतीं थीं। अगर कांग्रेस के 94 लाख 96 हजार 95 और राकांपा के 91 लाख 22 हजार 285 मतों को मिला दे ंतो 1 करोड़ 86 लाख 18 हजार 380 हो जाता है। दूसरी ओर भाजपा के 1करोड़ 47 लाख 9 हजार 276 तथा शिवसेना के 1 करोड़ 2 लाख 35 हजार 970 मतों को मिलने पर 2करोड़ 49 लाख 45 हजार 246 मत होते हैं। इस तरह दोनों के मतों में 83 लाख 26 हजार 866 मतों का अंतर था। लोकसभा चुनाव में भाजपा एवं शिवेसना में समझौता हो गया था। भाजपा ने 23 तथा शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं। राकांपा ने 4 तथा कांग्रेस ने केवल एक सीट जीतीं। भाजपा का 27.59 प्रतिशत और शिवसेना का 23.29 प्रतिशत मिलकर 50.88 प्रतिशत मत हो जाता हैं इसके सामनांतर कांग्रेस के 16.27 प्रतिशत एवं राकांपा 15.52 प्रतिशत को मिला दे ंतो यह 31.79 प्रतिशत ही होता है। इस तरह दोनों के बीच करीब 19 प्रतिशत मतों का अंतर है। इतने भारी मतों को पाटना तभी हो सकता है जब सरकार के खिलाफ व्यापक असंतोष हो या विपक्ष के विरुद्ध लहर।
हरियाणा में भाजपा ने 90 में से 47 सीटें पर जीतकर पहली बार अपने दम पर सरकार बनाई। 19 सीटें लेकर दूसरे स्थान पर आईएनएलडी एवं 15 सीटों के साथ कांग्रेस तीसरे नंबर पर रही। अन्य ने 9 सीटें प्राप्त कीं जिनमें शिरोमणी अकाली दल और बसपा को 1-1, हरियाणा जनहित कांग्रेस को 2, और निर्दलीयों ने 5 सीटें शामिल थीं। भाजपा ने 33.20 प्रतिशत, आईएनएलडी ने 24.11 प्रतिशत और कांग्रेस ने 20.58 प्रतिशत मत मिला। बसपा ने 4.37 प्रतिशत, हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 3.57 प्रतिशत मत प्राप्त किया था। भाजपा को 41 लाख 25 हजार 285, आईएनएलडी को 29 लाख96 हजार 203 तथा कांग्रेस 25 लाख 57 940 मत मिला था। हरियाणा जनहित कांग्रेस ने 4 लाख 43 हजार 444 तथा बसपा ने 5 लाख 42 हजार 985 मत पाए थे। हरियाणा लोकसभा चुनाव में में भाजपा को 58.02 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 28.42 प्रतिशत मत मिला। सभी 10 सीटें भाजपा के खाते में गईं। भाजपा का अपना मत ही विधानसभा चुनावो से 25 प्रतिशत ज्यादा हो गया। अगर दोनों चुनावों के मतों के अनुसार गणना करें तो भाजपा के निकट कोई पार्टी नहीं है। महाराष्ट्र की तरह हरियाणा में भी भाजपा को हराने के लिए उसके खिलाफ जनता में व्यापक असंतोष तथा विपक्ष यानी कांग्रेस के पक्ष में लहर चाहिए।
अब दोनों राज्यों की राजनीतिक स्थिति पर नजर दौड़ाएं। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से महाराष्ट्र में कुल 16 विधायकों तथा 16 पूर्व विधायकों ने पाटी छोड़कर भाजपा एवं शिवसेना का दामना थामा है। नारायण राणे ने अपनी पार्टी स्वाभिमान पक्ष की भाजपा में विलय की घोषणा कर दी है। इस स्थिति का अर्थ यही है कि दूसरी पार्टियों के नेताओंं को लग रहा है कि अगर प्रदेश की राजनीति में प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो भाजपा या शिवेसना की ओर प्रयाण करना होगा। पांच वर्ष तक महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता ही लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में प्रचार कर पार्टी में आ जाते हैं और मंत्री भी बन जाते हैं। आज की स्थिति यह है कि भाजपा ने शिवेसना को छोड़ दिया होता तो शिवेसना से भी भारी संख्या में नेता भाजपा की ओर भागने की कोशिश करते। तो यह है महाराष्ट्र की स्थिति। हरियाणा में आईएनएलडी बंट चुकी है। दुष्यंत चौटाला जननाययक जनता पार्टी बनाकर चुनाव में मैदान में उतरे हैं। कांग्रेस में अंदर इतना कोहराम मच गया था कि अपनी बात पहुंचाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को रैली कर पार्टी नेतृत्व की यह कहते हुए आलोचना करनी पड़ी कि यह पहले वाली कांग्रेस नहीं है। हालांकि सोनिया गांधी ने एकता के लिए अशोक तंवर की प्रदेश अध्यक्ष पद से छुट्टी कर दी लेकिन पार्टी में चुनाव पूर्व एकता कामय करना कठिन है। हरियाणा में भी दूसरी पार्टियों के नेताओं ने भारी संख्या में भाजपा का दामन थामा है।
परंपरागत चुनावी विश्लेषण के दायरे में कोई महाराष्ट्र एवं हरियाणा के जातीय-सांप्रदायिक समीकरणों के अनुसार गणना कर सकता है कि फलां जाति का इतना मत और फलां समुदाय का इतना मत फलां के पक्ष में जाता हैं। आज का सच यह है कि 2014 के आम चुनाव से जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को धक्का लगना आरंभ हुआ और वह प्रक्रिया पीछे नहीं लौटी है। नरेन्द्र मोदी का नाम ज्यादातर प्रदेशों में सभी समीकरणों पर भारी पड़ा है। पिछले चुनावों के बाद भाजपा ने दोनों राज्यों में लीक से हटकर मुख्यमंत्री दिया था। महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस प्रदेश के दूसरे ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने तथा हरियाणा में भजनलाल के बाद दूसरी बार मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में किसी गैर-जाट को मुख्यमंत्री बनाया गया। पिछली बार चुनाव से पहले भाजपा ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया था। इस बार दोनों राज्यों में मतदाताओं के सामने मुख्यमंत्री विद्यमान हैं। ये किसी प्रभावी जातीय समीकरण में नहीं आते। ऐसा नहीं है कि प्रदेशों में समस्यायें नहीं हैं, सरकारों के खिलाफ मुद्दे नहीं हैं ऐसा भी नहीं है। कितु एक तो देश के स्तर पर मोदी और शाह की लोकप्रियता, प्रदेशों के स्तर पर फडणवीस तथा खट्टर व अन्य मंत्रियों की लगभग स्वच्छ छवि तथा देश एवं प्रदेश दोनों में हताश विपक्ष उन मुद्दों को उस सीमा तक ले जाने में सक्षम नहीं है कि वह दोनों सरकारों को कठघरे में खड़ा होकर जवाब देने को विवश कर सके। दोनों प्रदेश सरकारों ने कम से कम पूर्व सरकारों की तुलना में निराश अवश्य किया है। वैसे भी अनुच्छेद 370 हटाने तथा पाकिस्तान के भारत के खिलाफ आग उगलने के विरुद्ध शांत रहकर मोदी सरकार ने जिस तरह दुनिया में उसे अलग-थलग करने में सफलता पाई है उसका जनमानस पर व्यापक असर है। विपक्ष सरकार के विरुद्ध जम्मू कश्मीर या पाकिस्तान को लेकर जितनी आलोचना करता है उतनी ही मात्रा में जनता उसके खिलाफ जाती है। यह मुद्दा दोनों प्रदेशों में प्रबल है। दोनों प्रदेशों में कांग्रेस के नेताओं ने जनता का मूड भांपकर ही तो पार्टी लाईन से अलग होकर अनुच्छेद 370 हटाए जाने का समर्थन कर दिया। तीन तलाक विरोधी कानून भाजपा के हिन्दुत्व के अनुकूल है। तो हिन्दुत्व एवं राष्ट्रीयता दोनों का माहौल है। इस माहौल में हो रहे चुनाव इससे प्रभावित नहीं होंगे ऐसा नहीं माना जा सकता।
अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूरभाषः01122483408, 9811027208
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