बुधवार, 2 अप्रैल 2025

भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जद्दोजहद

बसंत कुमार

आजकल देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आवाज सनातनी धर्म के स्वयंभू समर्थकों और कुछ हिंदू संगठनों द्वारा की जा रही है जबकि देश में राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाली पार्टी भाजपा की पिछले 10 वर्षों की सरकार है और इस कार्यकाल में जम्मू कश्मीर से संबंधित आर्टिकल 370 समाप्त हो चुका है, ट्रिपल तलाक़ समाप्त हो गया है वक्फ बोर्ड पर बिल आने वाला है लेकिन इन सकरात्मक कदमों के साथ-साथ तेज त्योहारों पर दुकानदारों को अपने नाम के प्लेट लगाना अनिवार्य करना और नवरात्रों के दौरान मीट की दुकानों को बंद करवाना कुछ ऐसे कदम हैं जो को कुछ लोगों द्वारा हिंदू राष्ट्र बनाने का अनावश्यक प्रयास है। यद्यपि पिछले 11 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी के नेतृत्व में आर्थिक क्षेत्र में, मूलभूत सुविधाएं घर-घर शौचालय, सड़क निर्माण में अपेक्षित विकास हुआ और भारत विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हो चुका है पर कुछ दिनों से देश में कुछ संगठनों द्वारा हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की घोषणाएं की जा रहे है और कुछ सिरफिरे ऐसे हैं जो जाति विशेष के सम्मेलनों का आयोजन करके देश में संविधान के स्थान पर मनुस्मृति के विधान के अनुसार देश चलाना चाहते हैं। क्या यह देश कभी हिंदू राष्ट्र कहा गया या कभी इस देश में 800 साल तक शासन करने वाले मुस्लिम शासकों ने इसे मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने की चेष्टा की! इतिहास के जानकार कहते है कि अंग्रेजों ने देश हिंदू-मुसलमान के रूप में बांटने के मकसद से देश में जनगणना की योजना बनाई। इससे पूर्व इस भूभाग में रहने वाले लोगों को हिंदू कहा जाता था। पर 1891 की जनगणना में पहली बार हिंदू, मुसलमान, ईसाई शब्द आया, प्रश्न जो देश हजारो वर्षों से हिंदुस्तान कहा जाता रहा है और जिसमे रहने वालों को हिंदू कहा जाता रहा है हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है।

दरअसल पूरे समाज के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द हिंदू शब्द को एक वर्ग विशेष तक सीमित करने के लिए एक कुटिल चाल चली। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद जब ब्रिटिश इंडिया की स्थापना हुई तो अंग्रेज एक ओर देश सुधार का दिखावा कर रहे थे वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज को बांटने की संस्थात्मक व्यवस्था कर रहे थे। अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षित वर्ग की सोच बदलने के लिए आर्य शब्द का खुला उपयोग किया। ब्रिटिश इंडिया के कानून मंत्री एवं कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति सर हेनरी मेन ने अपने एक भाषण में एक सिद्धांत प्रस्तुंत किया कि "भारत में जो सवर्ण है उनका मूल आर्य जाति से है और अंग्रेज भी आर्य जाति से हैं पर भारतीय आर्य विकास के क्षेत्र में पिछड़ गए और अंग्रेज आगे निकल गए। विधाता ने हमें भारत भेजा इसलिए है कि हम आपको सभ्यता के रास्ते पर आगे बढ़ाएं"। अंग्रेजों ने अपनी चाल को कामयाब करने के लिए भारतीयों के लिए एक दर्पण तैयार किया कि हम अपने आप को कैसे देखें। इसके लिए उन्होंने बहुत जानकारी इकट्ठी की, गजेटियर बनाए, जनगणना रिपोर्ट बनाई, पूरे भारत को क्षेत्रों में बांटकर एथोलॉजिकल सर्वे कराया। लिंगविस्टिक सर्वे कराया। इन सबके पीछे उनकी सम्राज्य वादी सोच थी जिसमे उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि भारत एक बिखरा हुआ समाज है और भारत (हिंदुस्तान) के विकल्प के रूप में इंडिया नाम दिया।

इसके पूर्व तक भारत के पूरे समाज को व्यक्त करने के लिए जो शब्द प्रचिलित था वह था हिंदू। यहां तक की भारत के बाहर भी भारत में रहने वाले मुसलमानों को भी हिंदू कहा जाता था, जो लोग हिंदू कहे जाते थे उनका उपासना से कोई संबंध नहीं था। सर सैय्यद अहमद खान ने भी गुरुदासपुर में अपने भाषण में कहा था कि हम हिंदू नहीं हैं तो और क्या हैं, पर अंग्रेजों ने अपनी जनगणना नीति से हिंदू शब्द को भू-संस्कृतिक अर्थ से एक धार्मिक अर्थ में रूपांतरित कर दिया। उन्होंने जनगणना के लिए जो खाने बनाए इस्लाम, ईसाईयत के समकक्ष हिंदू को भी रख दिया तब यह तर्क दिया कि यह जनगणना के सीमित उद्देश्य के लिए रखा गया है, फिर हिंदू (सनातनी) सीमाओं को उन्होंने छोटा करना शुरू कर दिया। फिर जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग श्रेणी बनाई गई, फिर सिखों को अलग किया गया। इसके बाद में जैनियों को अलग करने की कोशिश की गई इसी प्रकार बौद्धों को अलग किया गया। सन् 1891 जनगणना के आयुक्त जे.ए. बेंस से पूछा गया कि हिंदू कौन हैं तो उन्होंने कहा कि सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासी और छोटी जातियों को निकाल कर जो बचता है वह हिंदू हैं और हिंदू होने का वही स्वरूप दिख रहा है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदू जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जिन्हें हम दलित या अछूत कहते हैं वे मनुवादी मानसिकता वाले ब्राह्मणों के कारण सदियों से हिंदू समाज से बहिष्कृत कर दिए गए थे। उन्होंने आबादी से बाहर दक्षिण दिशा में बसाया जाता था जिससे इनकी हवा भी हिंदुओं तक न पहुंच सके।

हिंदू समाज का दायरा छोटा करने का जो सिलसिला 1892 में शुरू किया गया। उसे 1904 के भारतीय परिषद अधिनियम ने बढ़ाया। इससे प्रांतीय और केंद्रीय स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया स्थापित की गई, इसे मार्ले मिंटो रिफॉर्म के नाम से जाना गया। इस अधिनियम से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल बनाया गया और पाकिस्तान बनने की नींव इसी अधिनियम के बनने से पड़ी। स्थानीय स्तर पर इसे 1893 में ही लागू कर दिया था लेकिन अब उसे केंद्रीय स्तर पर लागू किया गया। इसका मूल कारण यह था कि मुस्लिम लीग सहित अन्य संगठनों ने इसकी मांग की थी और ऐसा करना अंग्रेजों की बांटों और राज करो की नीति के अनुरूप था, उसके बाद अंग्रेजों ने दलितों के लिए भी पृथक निर्वाचन मंडल का फैसला किया पर यह महात्मा और डॉ. आम्बेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट के कारण दलितों को मुसलमानों की भांति हिंदू समाज से अलग करने की चाल कामयाब नहीं होने पाई पर दुर्भाग्य यह है कि आज भी दलितों को हिंदू नहीं माना जाता न उन्हें मन्दिर में प्रवेश करने दिया जाता और कहीं-कहीं बारात में घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता।

संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर पूरे भारत के समाज को हिंदू ही मानते थे और विभिन्न पूजा पद्धतियों को मानने वाले समूहों को पन्थ मानते थे ये अलग बात है कि हिंदू पंथ में आ गई रुढ़िवादी कुरीतियों से कुपित होकर उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व बुद्ध धर्म अपना लिया। वे चाहते तो अपने समर्थकों के साथ इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लेते लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म इसलिए अपनाया क्योंकि वे जीवन पर्यंत् भारतीय ही रहना चाहते थे इसीलिए इस देश के बारे में उन्होंने कहा-

"हम भारतीय है सबसे पहले और अंत में, समय और परिस्थितियों को देखते हुए, सूरज के नीचे कुछ भी इस देश को, सुपर पॉवर बनने से नहीं रोकेगा"।

इसी कारण वे धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के खिलाफ थे और वे इस मत के थे कि यदि देश का बंटवारा आवश्यक हो ही गया तो जनसंख्या का सम्पूर्ण स्थानांतरण हो अर्थात सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएं और बाकी पंथों के मानने वाले जिन्हें सन् 1891 की जनगणना के पूर्व तक हिंदू शब्द से संबोधित किया जाता था भारत में रह जाएं।

डॉ. आंबेडकर की योजना यह थी कि जिस तरह से आटोमन सम्राज्य के पश्चात ग्रीक, टर्की और बुल्गारिया के बीच जनसंख्या का स्थानांतरण हुआ ठीक उसी प्रकार यह भारत में भी हो सकता था। उन्होंने अपनी योजना में संपत्ति, पेंशन आदि के अधिकारों की अदला-बदली की कार्य योजना सामने रखी जिसे कांग्रेस नेताओ ने असंभव कह कर ठुकरा दिया। क्योंकि कांग्रेस नेता हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ की झूठी कल्पनाओ में भटक रहे थे। डॉ. आंबेडकर की कार्य योजना को अस्वीकार करने के बाद पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदू आबादी रूक गई जिससे कुछ समय बाद हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ का असली चेहरा सामने आ गया और उन्हें जबरन मुसलमान बना दिया गया और भारत में रुके मुसलमान कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के कारण अपने आप को हिंदू कहने से कट गए।

यह निर्विवाद सत्य है कि हिंदू का जो स्वरूप आज दिख रहा है वह अंग्रेजों द्वारा कराई गई 1891 की जनगणना का परिणाम है, जिसमें हर भारतवासी के लिए प्रचिलित शब्द हिंदू को सीमित कर दिया और हिंदू की यह परिभाषा गढ़ दी कि जो मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासियों और छोटी जातियों को निकालने के बाद जो बचता है वह हिंदू है। परंतु यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा जिसे दलित या अछूत कहा जाता है उसे अंग्रेजों के भारत आने से पहले ही मनुवादियों ने हिंदू समाज से बहिस्कृत कर दिया था। अब जब तक इन्हें खुले मन से हिंदू समाज में स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार वे मुस्लिम जिन्ना की बात न मानकर हिंदुस्तान को अपना घर मानकर यही रह गए उन्हें भी हिंदू समाज का हिस्सा मानना होगा। इससे पहले कुछ कट्टरपंथियों द्वारा भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने का सपना नहीं पूरा होने वाला। क्योंकि 1891 की जनगणना से पूर्व का भारत जिसे अंग्रेजों और 1885 में बनी कांग्रेस की मिली भगत से कई पंथों वाले हिंदू समाज को कई धर्मों में बांट दिया गया।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

आयकर कानून संशोधन विधेयक के निहितार्थ

अभिषेक गुप्ता

आजाद भारत में पहली बार नया आयकर कानून बनाया जा रहा हैं। जिसके लिए संसद में संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ है। जिसके सभापति ओडिशा से वरिष्ठ भाजपा नेता सह केंद्रपाड़ा लोक सभा से निर्वाचित बैजयंत पंडा को बनाया गया हैं। इस कानून संशोधन पर भी व्यापक चर्चा होनी चाहिए। आपराधिक कानूनों पर विचार देने के लिए देश के सभी अधिवक्ता संघों और अन्य संस्थाओं को सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसी तरह देश के सभी स्त्तर के चेंबर ऑफ कॉमर्स से सुझाव लिए बिना आयकर कानून में संशोधन करना जनहित में नही होगा। कर प्रबंधन से संबंधित शिक्षा देने वाली संस्थाओं की राय भी ली जानी चाहिए। अन्य व्यवसायिक संगठनों तथा कर दाताओं से सुझाव लिये जाने चाहिए। कर लगाने वाले की अपनी दृष्टि होती हैं। साधारणतः वे सभी को कर की चोरी करने वालें मानते हैं। कर दाता और संग्रह कर्त्ता दोनों की मानसिकता और जीवन यापन करने की प्रणाली और प्रक्रिया अलग होती हैं। एक आय पर कर देता हैं तो दूसरा मूल्यांकन करता हैं। मूल्यांकन करने वाला वर्ग किसी न किसी रूप में कुछ राशि आय कर मुक्त पाता हैं। एक हैं अपने पसीने, पुरुषार्थ और परिश्रम से आय करता हैं और राष्ट्र की पूँजी निर्माण में सहयोग करता हैं। दूसरा खपत करने वाला वर्ग होता हैं। उसमें अनुत्पादक काम में लगा रहता हैं और आय कर मुक्त सुविधा पाता हैं। संविधान का पहला शब्द हैं "समत्ता" क्या उसका पालन होता हैं? सभी नागरिक समान हैं। राष्ट्र की संचित निधि पर सभी का समान अधिकार होता हैं। कर निर्धारण करते समय इस पर गम्भीरता पूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए।

हर क्रय पर और उपभोक्ता सामग्री पर कर चुकता हैं तब फिर अप्रत्यक्ष कर का मूल्यांकन क्यों नही किया जाता हैं। अनेकों प्रकार के अप्रत्यक्ष कर चुकाने के बाद जो राशि बचती हैं फिर उस पर भी एक सीमा के बाद कर लगता हैं। इस पर चिंतन करना चाहिए। आवश्यक जीवनोपयोगी सामग्री और विलासिता वाली सामग्री पर जो खर्च होता हैं वह बराबर नही होना चाहिए। एक खर्च हैं जो जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य होता हैं तो दूसरा आराम दायक और विलासिता की सामग्री पर खर्च किया जाता हैं। दोनों पर कर लगाते समय अंतर होना चाहिए। आज शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन पर खर्चा बढ़ा है। उदाहरण कोई मध्यम आय वर्ग का काफी परिश्रम के बाद जैसे तैसे दस बारह लाख की गाड़ी लेता हैं। डीजल वाली गाड़ी को दस वर्ष में और पेट्रोल वाली गाड़ी को पंद्रह वर्ष में स्क्रैप बना दिया जाता हैं। क्या उतनी अवधि में उसके पास गाड़ी खरीदने के लायक पैसे की बचत हो सकती हैं। वह बैंक का किस्त भी अदा नही कर पाता हैं तब तक गाड़ी स्क्रैप बना दी जाती हैं। क्या यह मानवीय दृष्टि कोण है?

बड़े बड़े लोग ट्रस्ट बनाकर परिवार के लोगों को सदस्य बना लेते हैं और उस पर आयकर की छूट पाते हैं। ट्रस्ट के प्रबंधन पर जो खर्च होता हैं अथवा ट्रस्ट के द्वारा जो सेवा कार्य किया जाता हैं उसका उनके परिवार वालों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिलता हैं। परिवार भी तो प्राकृतिक ट्रस्ट होता हैं। ऐसे हजारों ट्रस्ट वाले उसका लाभ उठाते हैं। नाम कमाते हैं, परोपकार के बहाने अपनी कम्पनी का प्रचार करते है और कर में छूट पाते हैं। क्या यह भी वैधानिक कर की चोरी नही हैं?

व्यवसायिक घराने अपना प्रबन्ध मण्डल बनाते हैं। उसमें उनके परिवार के ही सदस्य होते हैं। एक दो उनके नामित होते हैं। उस कंपनी पर सरकार के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों का कर्ज होता हैं। शेयर बाजार के द्वारा आम लोगों का पैसा लगा होता हैं। परंतु उसके प्रबन्धन और संचालन पर उनके परिवार का नियंत्रण होता हैं। प्रबंध मण्डल के सदस्यों को वेत्तन भत्ता और अन्य सुविधाओं पर निर्णय वे ही करते हैं। इस प्रकार जो सार्वजनिक क्षेत्रों तथा आम नागरिकों के शेयर वाली राशि से चलती है। उस कंपनी पर सरकार का नियंत्रण नही होता हैं। वे स्वयंभू होते हैं। उनके कंपनियों के समारोहों तथा पारिवारिक समारोहों पर जो खर्च होता हैं वह कहां से आता हैं? साधारण लोगों को तो पैसा पैसा का हिसाब देना पड़ता हैं। एक देश में दो नियम क्यों हैं?

किसानों को ज्यादा परेशान किया जा रहा हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 80% किसान सीमांत और लघु किसान हैं। जिनकी जोत अलाभकारी हैं। बिहार में 98% हैं। नए नए नगर निगम, महानगर पालिका और नगर पंचायत बनाए जाते रहते हैं। नगर निगम और महानगर पालिका की सीमा से आठ किलोमीटर तक की जमीन को व्यवसायिक माना गया हैं। जमीन पंचायत के अंदर हैं परंतु व्यवसायिक हैं। खेती होती हैं, एक फसल वाली होती हैं। उसमें व्यवसाय का पता नही है फिर व्यवसायिक बना कर कर लिया जाता हैं। ऐसा कभी नही हुआ था और न हो रहा होगा। उस जमीन का सर्किल रेट काफी होता हैं। उतना पर बिकती भी नही हैं। ऊपर से यह नियम कि उस जमीन के बेचने से जो पैसा आयेगा उससे उस व्यक्ति को अपने नाम से ही जायदाद खरीदना होगा। बेटी की शादी, बच्चों की पढ़ाई, बीमारी के इलाज पर खर्च नही कर सकते हैं। परिवार बढ़ने के कारण अपने बच्चों के लिए नया मकान भी नही बना सकता हैं। कानून हैं कि पिता माता की संपत्ति पर बच्चों का संवैधानिक अधिकार होता हैं। जमीन बेचने से जो पैसा आता हैं उसको वह अपनी मर्जी से खर्च कर सकता हैं। ऊपर से व्यवसायिक बना देने से उस पर तीस प्रतिशत तक टैक्स देना पड़ता हैं। जमीन कृषि वाली हैं परंतु उसको व्यवसायिक बना कर किसानों को लुटा जाता हैं। क्या यह उचित है?

सात लाख सीमा निर्धारित करने का क्या औचित्य है और उसके मूल्यांकन का आधार क्या है? आज कल बच्चों की पढ़ाई पर कितना खर्च आता हैं। परिवार में कई मोटर साइकिल हैं अथवा एक कार है क्या उस पर खर्च नही होता हैं। मकान किराया, बिजली पानी और यातायात पर खर्च नही होता हैं? दूसरी तरफ आवासीय वाहन, कार्यालय व्यय तथा बिजली पानी मुफ्त मिलता हैं। दैनिक भत्ता कर मुक्त होता हैं। एक भारत में दो भारत हैं। एक कर मुक्त सुविधा पाने वाला भारत और दूसरा रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई और दवाई पर खर्चा के लिए भी कर देने वाला भारत। अंग्रेजी राज की मानसिकता से स्वतंत्र भारत का कानून नही बनाया जाना चाहिए। एक है श्रम जीवी भारत तो दूसरा बुद्धिजीवी भारत। एक हैं शारीरिक श्रम करने वाला भारत तो दूसरा हैं बौद्धिक श्रम करने वाला भारत। कानून बनाते समय इस पर चिंतन करना चाहिए। देश के करोड़ों लोगों की भावना को केंद्र सरकार के सामने रख रहा हूँ। स्वतंत्र भारत में नया मन के साथ नया समाज बनाने के लिए नया कानून बनना चाहिए।

समिति के सभी सदस्य इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की कृपा करें। इन विषयों को 50 से 60 के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्त्व में समाजवादी सार्वजनिक तौर पर उठाते रहते थे। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च हैं। आयकर कानून संशोधन विधेयक को लोक हित में लाना होगा न कि मनवाने वालें भाव से पालन करवाना होगा।

लेखक: अभिषेक गुप्ता, राजनैतिक विश्लेषक हैं।

वक्फ संशोधन विधेयक: एक सामाजिक सुधार, न कि धार्मिक विवाद

इंशा वारसी

कार्ल मार्क्स ने एक बार प्रसिद्ध रूप से कहा था – "धर्म जनता के लिए अफीम के समान है", यह वाक्य धर्म की तुलना एक नशे से करता है और रूपक रूप में समझाता है कि धर्म किस प्रकार लोगों को प्रभावित कर सकता है। यह कथन वर्तमान में वक्फ संशोधन विधेयक से जुड़े विवादों पर सटीक बैठता है, क्योंकि कुछ समूह इसे इस्लामी संस्थाओं पर सीधा हमला बताने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, यदि इन संशोधनों का गहराई से विश्लेषण किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि इन बदलावों का उद्देश्य किसी धार्मिक समुदाय को निशाना बनाना नहीं है, बल्कि वक्फ बोर्डों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। धर्म से जुड़े मुद्दे अक्सर जनता की भावनाओं को भड़का सकते हैं, लेकिन बिना उचित जांच-पड़ताल के किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अनुचित होगा। इसीलिए यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि वक्फ संशोधन किसी धार्मिक संघर्ष का हिस्सा नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार से लड़ने और पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में एक आवश्यक सामाजिक सुधार है।

वक्फ की अवधारणा इस्लामी शरीयत में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, जैसा कि कुरान में वर्णित है। कुरान में दान और उदारता को बढ़ावा देने की बात कही गई है, लेकिन वक्फ बोर्ड जैसी किसी संस्था का उल्लेख नहीं मिलता। कई आयतों में अल्लाह के नाम पर संपत्ति दान करने की बात कही गई है, परंतु यह किसी संस्थागत व्यवस्था को निर्देशित नहीं करता। उदाहरण के लिए, "तुम नेक नहीं बन सकते जब तक अपनी प्रिय वस्तुओं में से कुछ दान न करो, और जो कुछ तुम दान करते हो, अल्लाह उसे भली-भांति जानता है।" (सूरह आल-इमरान: 92) और "जो लोग अल्लाह के मार्ग में अपनी संपत्ति खर्च करते हैं और फिर अपने दान का घमंड नहीं करते तथा दूसरों को कष्ट नहीं पहुंचाते, उन्हें उनके ईश्वर की ओर से प्रतिफल मिलेगा।" (सूरह अल-बकराह: 262)। 

इन आयतों का गहराई से अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि वक्फ एक प्रशासनिक संस्था के रूप में सदियों में विकसित हुई है और यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक प्रथाओं के तहत अस्तित्व में आई, न कि किसी धार्मिक आदेश के रूप में। इसलिए, वक्फ संशोधन विधेयक को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से देखना अनुचित होगा। इसके अतिरिक्त, हनफ़ी फिक्ह (जिसे अधिकांश भारतीय मुस्लिम मानते हैं) के अनुसार, किसी वक्फ संपत्ति के मुतवल्ली (प्रशासक) के लिए मुस्लिम होना अनिवार्य नहीं है। प्रसिद्ध इस्लामी शिक्षण संस्थान, दारुल उलूम देवबंद, ने अपने फतवा नंबर 34944 में स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि कोई व्यक्ति वक्फ मामलों की अच्छी जानकारी रखता हो, ईमानदार और सक्षम हो, तो वह वक्फ संपत्ति का प्रबंधन कर सकता है, चाहे उसका धार्मिक मत कुछ भी हो।

सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन वर्तमान वक्फ अधिनियम की संरचनात्मक खामियों को दूर करने के लिए लाए गए हैं। इनमें संपत्तियों के सत्यापन की अनिवार्यता, विवादित संपत्तियों के मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप का अधिकार, वक्फ बोर्डों में अधिक प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए महिलाओं और विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से आने वाले व्यक्तियों की भागीदारी, और वक्फ बोर्डों को दी गई मनमानी शक्तियों को सीमित करने जैसे सुधार शामिल हैं। 

वक्फ संशोधन विधेयक को धार्मिक विवाद के रूप में प्रस्तुत करना न केवल पारदर्शिता और जवाबदेही के मूल मुद्दे को दरकिनार करना है, बल्कि इससे अनावश्यक सांप्रदायिक तनाव भी उत्पन्न हो सकता है। अब समय आ गया है कि हम विश्वास और शासन को अलग रखें और सुनिश्चित करें कि वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन पारदर्शिता, कुशलता और समावेशिता के साथ किया जाए। यह कदम न केवल संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है, बल्कि इस्लामी दान की मूल भावना से भी मेल खाता है।

— इंशा वारसी (फ्रैंकोफोन और पत्रकारिता अध्ययन, जामिया मिल्लिया इस्लामिया)

 

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