गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

भारी संख्या में मतदान मशीन का बटन दबने का अर्थ

अवधेश कुमार

राज्य विधानसभा के चुनावों में जिस तरह मतदाताओं ने भारी संख्या में घरों से निकलकर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों का बटन दबाने का रिकाॅर्ड कायम किया है उससे संसदीय लोकतंत्र में आस्था रखने वालों का उत्साह यकीनन बढ़ा होगा। छत्तीसगढ़ के दूसरे दौर में कुल 74.7 प्रतिशत मतदान हुआ। जिस बस्तर क्षेत्र के 19 विधानसभाओं में माओवादियों ने उंगली काटने से लेकर अन्य सजाओं की धमकी दी थी वहां भी आश्चर्यनक रुप से 75.53 प्रतिशत मतदान हुआ था। 2008 में कुल 71.09 प्रतिशत मतदान हुआ था। मध्यप्रदेश में 71.24 प्रतिशत मतदान 2008 के 69.78 प्रतिशत से 1.46 प्रतिशत ज्यादा है। यहां भी नक्सल प्रभावित बालाघाट में तो 80 प्रतिशत मतदान की खबरें आईं। मिजोरम में भी 83 प्रतिशत से ज्यादा होने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि वहां 2008 में भी 82.35 प्रतिशत मतदान हुआ था। राजस्थान में 75.2 प्रतिशत मतदान हुआ। 2008 में 66.39 प्रतिशत मतदान हुआ था। यनी 8.63 प्रतिशत अधिक। यह असामान्य वृद्धि है। जैसलमेर में रिकाॅर्ड 85.26 प्रतिशत तो हनुमानगढ़ में 84.93 प्रतिशत मतदान हुआ। 2008 की तुलना में राजस्थान के 33 जिलों में से 31 में मतदान वृद्धि हुई। दिल्ली में पिछली बार 57.8 प्रतिशत मदान हुआ था। जाहिर है अगर 69 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ है तो यह 11 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोत्तरी है। दिल्ली के राज्य बनने के बाद 1993 के पहले मतदान में 61.8 प्रतिशत मतदान हुआ था। तो इस बढ़ते मतदान प्रतिशत का क्या अर्थ लगाया जाए?

पिछले तीन सालों में रिकाॅर्ड मतदान भारत की प्रवृत्ति बन चुकी है। आप याद करिए पिछले वर्ष उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब में कड़ाके की ठंढ के बीच भारी संख्या में मतदाता मतदान करने बाहर आए थे। उत्तराखंड में 67 प्रतिशत मतदान 2007 के 59.45 प्रतिशत से करीब 8 प्रतिशत अधिक था। पंजाब में भी रिकाॅर्ड 76.63 प्रतिशत मतदान हुआ है। यह 2007 के रिकाॅर्ड 75.47 प्रतिशत से 1.16 प्रतिशत अधिक था। उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने भी आजादी के बाद सभी रिकाॅर्ड घ्वस्त करते हुए 59.50 प्रतिशत मतदान किया। यह अन्य राज्यों की तुलना में कम लगता है, लेकिन 2007 से करीब 14 प्रतिशत ज्यादा था। 14 प्रतिशत का अर्थ उत्तरपदेश के लिए औसत से करीब 2 करोड़ 40 लाख ज्यादा मतदाताओं द्वारा मत प्रयोग करना था। इसके पूर्व भी विधानसभा एवं स्थानीय चुनावों में मतदान बढ़ने की ही प्रवृत्ति थी। प. बंगाल में 84 प्रतिशत तमिलनाडु में 80 प्रतिशत तथा पुड्डुचेरी में 86 प्रतिशत मतदान का रिकाॅर्ड कायम हुआ। असम में भी 76 प्रतिशत एवं केरल में 75 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का रिकाॅर्ड कायम किया। तमिलनाडु के मतदान ने 1967 के 75.67 प्रतिशत के रिकाॅर्ड को ध्वस्त कर दिया तो केरल में 2006 के ही 72.38 प्रतिशत के। तमिलनाडु के करुर जिला में 86 प्रतिशत से ज्यादा तो केरल के कोझिकोड में 81.30 प्रतिशत तथा असम के धुबरी में 85.65 प्रतिशत मतदान हुआ। यही नहीं पिछले वर्ष जम्मू कश्मीर के स्थानीय चुनावों में भी अगल-अलग क्षेत्रों में 76 प्रतिशत से 82 प्रतिशत के बीच मतदान हुआ। इस पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान तक मतदाताओं ने मत डालने का जो रिकाॅर्ड बनाया है वह अब भारतीय चुनाव का स्थापित संस्कार बन रहा है। किंतु इसके कुछ तो अर्थ हैं।

हमने देखा है कि पिछले कुछ सालों से चुनाव आयोग से लेकर मीडिया, नागरिक संगठन आदि मतदाता जागरुकता अभियान चला रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता भी अपने भाषणों के अंत में घरों से निकलकर मतदान करने की अपील करने लगे हैं। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तो पहले मतदान फिर जलपान का नारा लगवाते रहे। चुनाव आयोग का सुरक्षा संबंधी सख्त कदम भी लोगों के अंदर से भय का अंत करने में योगदान कर रहा है। मत डालने के संकल्प के बावजूद नक्सली क्षेत्रों में सुरक्षा का माहौल नहीं होता तो मतदान करने के लिए इतनी संख्या में आगे आने की संभावना कायम नहीं होती। यह भी ध्यान रखें की 2006 के बाद मतदाता बने युवाओं की संख्या 21 प्रतिशत से ज्यादा है। संपूर्ण भारत में 40 प्रतिशत से ज्यादा मतदाता 35 वर्ष की आयु सीमा के नीचे हैं। हमने मतदान केन्द्रोें पर युवाओं की संख्या देखी है। यही बात महिलाओं के साथ भी है। अब महिलाएं भी ज्यादा संख्या में निकलने लगीं हैं।  मतदान करने वालों में युवा वर्ग एवं महिलाओं की संख्या काफी देखी जाती है। इन सबके साथ कुछ नेताओं के प्रति विशेष आकर्षण भी लोगांे को बाहर आने को प्रेरित करता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की उपस्थिति ने यकीनन मदतान को रोचक बनाया है और अन्ना अनशन अभियान की ओर आकर्षित लोगों के एक समूह ने भी कुछ क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या बढ़ाने में भूमिका दी गी है। अगर संक्षेप में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि लोगों  के अंदर मतदान से सत्ता निर्माण का भाव तीव्र हो रहा है। पर क्या इतने मात्र से मतदान की बढ़ती प्रवृत्ति की व्याख्या पूरी हो जाती है?

अगर कोई शासन मतदान पर ही निर्मित या विघटित होता है तो फिर उसमें अधिकाधिक लोगों की भागीदारी अपरिहार्य है। हमारी संसदीय व्यवस्था की एक प्रमुख कमजोरी यही रही है कि चाहे केन्द्र हो या राज्य कुल मतों के बहुमत से बहुत कम पर सरकारें सत्तासीन हो जातीं हैं। लोकसभा चुनाव में औसत मतदान 58 प्रतिशत रहा है। इसमें 27-28 प्रतिशत मत पाने वाला दल यदि सरकार गठित कर सकता है तो वह करीब 15 प्रतिशत मत की सरकार हुई। राज्यों में उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश को लीजिए।  2008 के विधानसभा चुनाव में 3 करोड़ 62 लाख 66 हजार 969 मतदाता थे। इनमें से 2 करोड़ 51 लाख 27 हजार 120 ने वोटिंग की। यानी कुल 69.28 प्रतिशत मतदताओं ने मताधिकार का उपयोग किया। भाजपा ने इसमें से केवल 94 लाख 93 हजार 641 मत पाया। यानी केवल 37.64 प्रतिशत मत। अगर कुल मतदान के अनुसार देखें तो यह 26-27 प्रतिशत के आसपास है। तो सरकार बहुमत की कहां हुई। अगर अधिकाधिक संख्या में मतदाता बाहर आते हैं तो फिर वास्तविक बहुमत की सरकार कायम हो सकती है। मतदान है तो आंकड़ों का गणित, लेकिन इसके सामाजिक, राजनीतिक,सांस्कृतिक, आर्थिक सारे निहितार्थ होते हैं। कम मतदान से आम जनता चाहती क्या है यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सकता। इसलिए भी ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं का मत प्रयोग जरुरी है। अगर आपकों राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों से कोई उम्मीद नहीं हैं तो आप कोई नहीं का भी बटन दबा सकते हैं। यह हमारे पास असंतोष प्रकट करने का एक नया विकल्प है। इसका असर चुनाव पर हो या न हो, पर इससे विश्लेषकों को यह अनुमान लगाने में सुविधा होगी कि हमारे राजनीतिक तंत्र से असंतुष्ट लोगों की संख्या कितनी है। यह बढ़ रही है या घट रही है।

इस प्रकार मतदान करने के विस्तारित होते संस्कार के कारक और उसके निहितार्थों के बारे में और भी बातें कहीं जा सकतीं हैं। पर इससे अभी यह मान लेना उचित नहीं होगा कि लोगों की अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास पहले से ज्यादा सुदृढ़ हुआ है, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के प्रति उनकी वितृष्णा कम हुई है। सामान्यतः मतदान बढ़ने के साथ ही सरकार की विदाई तय हो जाती थी। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड , प. बंगाल, तमिलनाडु, केरल एवं पुड्डुचेरी इसके उदाहरण हैं। लेकिन पंजाब, बिहार और असम जैसे अपवाद भी हैं। वस्तुतः कई जगह मतदान बढ़े, लेकिन शासन नहीं बदली। हां, किसी के काम से खुश होकर भारी संख्या में मतदान करने की प्रवृत्ति अभी सामने नहीं आई है। इस बार का परिणाम इसे थोड़ा और स्पष्ट कर सकता है। कई बार कुछ नेता लोगों को प्रेरित करने में सफल हो जाते हैं और उम्मीद से लोग मतदान करने निकलते हैं। आप देख लीजिए, दिल्ली को छोड़कर किसी राज्य में नेतृत्व, नीति के स्तर पर कोई नया विकल्प जनता को नहीं मिला है। लेकिन उन्हें वोट देना है तो वे किसी को तो देंगे ही। यह संभव है कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी में से किसी के प्रति उम्मीद की किरण भी इन्हें खींच ला रही हो। किंतु यह किसी दृष्टि से राजनीतिक तंत्र के प्रति असंतोष के कम होने का प्रमाण नहीं हो सकता। अगर आप विभिन्न सर्वेक्षणों पर नजर दौड़ाएं तो लोगों ने अपने विधायकों से वैसी उम्मीदें बताईं या उन कामों के न किए जाने पर निराशा जताई जो कि पंचायतों और नगर निकायों या प्रशासनिक अधिकारियों, कर्मचारियों के जिम्मे है। यह सामूहिक अपरिपक्ता का परिचायक है। इसलिए भारत में अभी सही समझ वाले जनमत निर्माण का कार्य ही अधूरा है। ऐसा जनमत निर्माण हो, फिर चुनाव इतने व्यापक सुरक्षा तामझाम और खर्चों से परे आयोजित हों, उनमें मतदाता भारी संख्या में निकलें तो उसे परिपक्व जनमत से उभरे स्वस्थ लोकतांत्रिक या राजनीतिक व्यवस्था का प्रमाण माना जा सकता है। अगर चुनाव आयोग के नेतृत्व में कठोर सुरक्षा व्यवस्था के तहत हम मतदान के लिए बाहर आते हैं तो यह किसी दृष्टि से स्वस्थ स्थिति नहीं हो सकती। वैसे भी हमें लोकसभा चुनाव की प्रतीक्षा करनी चाहिए।  

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः22483408, 09811027208

 


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