शनिवार, 26 मार्च 2016

भगत सिंह का आजादी के बाद सबसे बड़ा अपमान

 

अवधेश कुमार

क्या संयोग है! भगत सिंह की शहीदी दिवस के ठीक दो दिनों पूर्व हमारे देश की सबसे पुरानी पार्टी की उत्तराधिकारी कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उन्हें ऐसी श्रद्धांजलि दी जिससे उनकी आत्मा तृप्त हो गई होगी। शशि थरुर जैसा गहराई से पढ़ा-लिखा व्यक्ति यदि कन्हैया कुमार जैसे एक छात्र नेता को आज का भगत सिंह कहते हैं तो इससे हमारे चिंतन की सामूहिक विकृति का पता चलता है। हालांकि कांग्रेस ने शशि थरुर के बयान से अपने को अलग कर लिया है, लेकिन यह एक ऐसे देशभक्त शहीद का अपमान है जिसकी स्मृतियां आज भी भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के करोड़ों लोगों को रोमांचित करतीं हैं। जिस व्यक्ति ने आजादी के संघर्ष में अपने विचारों और कर्तृत्व से न जाने कितनों को आत्मबलिदान की प्रेरणा दी, जिसकी लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेजों ने समय के पूर्व ही फांसी पर चढ़ा दिया और जिसके लिए पूरा देश रोता-बिलखता रहा...जिसने उतनी कम उम्र में इन्कलाब और क्रांति की अपनी व्यावहारिक परिभाषा दी, जिसने आजादी के संघर्ष के साथ आजाद भारत के लक्ष्य पर विस्तृत ंिचंतन देश को दिया.... उसकी तुलना कांग्रेस पार्टी का एक बड़ा नेता ऐसे नवजवान से करता है जिसके जीवन की कुल उपलब्धि इतनी है कि सारे वामपंथी संगठनों के समर्थन से जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष बन गया। जो चर्चा में इसलिए आया कि उसने जिस कार्यक्रम के रद्द होने का विरोध किया उसमें देशद्रोही नारे लगे...नारा लगाने में यह शामिल था या नहीं इसमें संदेह है, पर उसने नारा को रोका हो इसके प्रमाण नहीं है। जिसने जेल से छूटने के बाद अभी तक अफजल गुरु को आंतकवादी और दोषी मानने का एक बार भी बयान नहीं दिया उसे यदि शशि थरुर आज का भगत सिंह कहते हैं तो इसके विरुद्व देश मे उबाल पैदा होना स्वाभाविक है। थरुर अकले नहीं, एक सोच के प्रतिनिधि हैं जिनके मुंह से ऐसी शर्मनाक तुलना हुई है।

शशि थरुर जवाहर लाल नेहरु की सोच का वाहक होने का दावा करते हैं। क्या पंडित नेहरु कन्हैया जैसे छात्र को कभी आदर्श बनाकर पेश कर सकते थे?

जवाहरलाल नेहरू तो भगत सिंह के तरीकों और सोच के समर्थक नहीं थे, फिर भी उन्होंनेे अपनी आत्मकथा में लिखा है कि साण्डर्स की हत्या का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी। क्या कन्हैया ने ऐसा कुछ कर दिया है जिससे उसके बारे में ऐसी बातें लिखीं जा सकें? इसके उलट उसने तो भगत सिंह के विपरीत काम किया। भगत सिंह का समाजवाद पूरी तरह मार्क्सवाद नहीं था जिसकी चर्चा शशि कर रहे थे। भगत सिंह तो शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां- मेरा रंग दे बसंती चोला, इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला, मेरा रंग दे बसंती चोला, यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला, नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला, मेरा रंग दे बसन्ती चोला.....गाते थे। आज के वामपंथियों के लिए चाहे वे किसी कम्युनिस्ट पार्टियों में हों या कांग्रेस में या कहीं यह भगवाकरण का प्रतीक हो जाएगा, सांप्रदायिकता का प्रतीक हो जाएगा, क्योंकि शिवाजी और महाराणाप्रताप तो इनके लिए देशभक्ति के परिचायक है ही नहीं।

जेल की कालकोठरी में उनकी लिखी पुस्तकें- आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर), आइडियल ऑफ़ सोशलिज़्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार... को पढ़िए तो कन्हैया जैसे चरित्र से आपको घृणा जाएगी। डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने तो लिख दिया कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गाँधीजी का। 1927 में लाहौर में अपनी गिरफ्तारी की चर्चा करते हुए भगत सिंह मैंं नास्तिक क्यों हूं में लिखते हैं-एक दिन सुबह सी.आई.डी. के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन मेरे पास आए। लंबी-चौड़ी सहानुभूतिपूर्ण बातों के बाद उन्होंने मुझे, अपनी समझ में यह अत्यंत दुखद समाचार दिया कि यदि मैंने उनके द्वारा मांगा गया वक्तव्य नहीं दिया तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा बम उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिए मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे। आगे उन्होंने मुझे यह भी बताया कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकाने के लिए उचित प्रमाण मौजूद हैं। उन दिनों मुझे यह विश्वास था, यद्यपि मैं बिल्कुल निर्दाेष था, कि पुलिस यदि चाहे तो ऐसा कर सकती है। .... एक क्षण को भी अन्य बातों की कीमत पर अपनी गर्दन बचाने की मेरी इच्छा नहीं हुई। ... पहले ही अच्छी तरह पता है कि मुकदमें का, क्या फैसला होगा। एक सप्ताह में ही फैसला सुना दिया जाएगा। मैं अपना जीवन एक ध्येय के लिए कुर्बान करने जा रहा हूँ, इस विचार के अतिरिक्त और क्या सांत्वना हो सकती है?

जरा सोचिए, देश के लिए सर्वस्व अर्पण करने के इस भाव के कारण सभी प्रकार के मोहपाश से मुक्त व्यक्तित्व, जिसमें मृत्यु के भय से मुक्ति भी शामिल है, से आज हम किसकी तुलना कर सकते हैं? वो एक अनोखी दीवानगी थी, जिसमें देश की आजादी और आजादी के बाद की व्यवस्था के अलावा कुछ समा ही नहीं सकता था। वो ऐसी आसक्ति थी, जिसमें रिश्ते, नाते ही नहीं अपने शरीर तक की कोई चिंता नहीं। वो लिखते हैं कि मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा - वही अंतिम क्षण होगा। .... एक छोटी सी जूझती हुई जिंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो। यही सब कुछ है। बिना किसी स्वार्थ के, यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने आसक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। भगत सिंह ने केवल ऐसा लिखा नहीं। फांसी से दो घंटे पहले भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता मिलने आए थे। उन्होंने पूछा कि तुम कैसे हो? भगत सिंह ने कहा कि हमेशा की तरह प्रसन्न हूं। उन्होंने जब पूछा कि तुम्हारी कोई इच्छा है तो भगत बोले कि हां मैं फिर इस देश में पैदा होना चाहता हूं ताकि इसकी सेवा कर सकूं। तो जो कुछ उन्होंने लिखा वाकई उनका व्यवहार एकदम मृत्यु के सामने वैसा ही था।

...’ शशि थरुर को क्या भगत सिंह के ये पंक्तियां याद नहीं हैं? शशि थरुर और उनके जैसे लोगों को जो जेएनयू में प्रतिदिन राष्ट्रवाद की ऐसी परिभाषा गढ़ रहे थे जिसमें उन सारे शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों तथा स्वतंत्रता के बाद भारत के पुनर्गठन और पुनर्निर्माण में अपना जीवन लगाने वालों का अपमान हो रहा था भगत सिंह की इन्कलाब की सोच भी याद दिलाना आवश्यक है। माईन रिव्यू के संपादक रामानंद चटर्जी को लिखे पत्र में भगत सिंह कहते हैं कि इस नारा का मतलब यह नहीं कि सशस्त्र संघर्ष सदा चलता रहेगा। इन्कलाब जिन्दाबाद से हमारा मतलब है कभी पराजय स्वीकार न करने वाली वह भावना जिसने जतिन दास जैसे शहीद पैदा किए। हमारी इच्छा है कि हम यह नारा बुलंद करते समय अपने आदर्शों की भावना को जिंदा रखें। इन्कलाब सिर्फ बम और पिस्तौल के साथ ही नहीं जुड़ा होगा। बम और पिस्तौल तो कभी-कभी इन्कलाब के भिन्न-भिन्न रुपों की पुष्टि के लिए साधन मात्र हैं। हम यह स्वीकार करते हैं कि केवल बगावत को इन्कलाब कहना ठीक नहीं है। इसी में भगत सिंह ने लिखा कि हम देश में बेहतर बदलाव के लिए इस शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।

 इन सारे तथ्यों के आलोक में यह कहना बिल्कुल सही होगा कि आजाद भारत में भगत सिंह का, उनके विचारों का, सपनों का, बलिदान का.... सबसे बड़ा कोई अपमान हुआ है तो वह जेएनयू मंे शशि थरुर जैसों के द्वारा। शशि थरुर तो बोल गए, लेकिन वहां जाने वाले दर्जनों महानाम बिना बोले ही भगत सिंह सहित अन्य शहीदों का अपने शर्मनाक वक्तव्यों से लांछित करते रहे। ऐसे लोगों के लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए? इनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए यह देश के लोग तय करें। कारण, शहीदों और मनीषियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष अपमान सहन करना भी देशविरोधी व्यवहार ही होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूर.ः01122483408, 09811027208

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