शुक्रवार, 31 मई 2024

FARQ SIRF ITNA SA THA

Urdu is one of the most absorbing and meaningful languages indeed !

NIKAAH  & JANAAZA........

The difference between a Wedding and a Funeral beautifully captured in a poem called :

FARQ  SIRF  ITNA SA THA

Teri doli uthi,
Meri mayyat uthi,
Phool tujh par bhi barse,
Phool mujh par bhi barse,
FARQ SIRF ITNA SA THA
Tu saj gayi,
Mujhe sajaya gaya..

Tu bhi ghar ko chali,
Main bi ghar ko chala,
FARQ SIRF ITNA SA THA
Tu uth ke gayi,
Mujhe uthaya gaya...

Mehfil wahan bhi thi,
Log yahan bhi the,
FARQ SIRF ITNA SA THA
Unka hasna wahan,
Inka rona yahan...

Qazi udhar bhi tha,
Moulvi idhar bhi tha,
Do bol tere padhe, 
Do bol mere padhe,
Tera NIKAAH padha, Mera JANAAZA padha,
FARQ SIRF ITNA SA THA...
Tujhe APNAYA gaya,
Mujhe DAFNAAYA gaya.....

भारत के समाचार पत्रों के महापंजीयक कार्यालयों की मनमानी नीतियों का कड़ा विरोध करने के लिए आंदोलन करने पर विचार

भारत के समाचार पत्रों के महापंजीयक द्वारा इस वर्ष से प्रकाशकों को विषम परिस्थितियों में डाल दिया गया है । प्रेस सेवा पोर्टल के माध्यम से प्रकाशकों को अपने-अपने समाचार पत्र व पत्रिकाओं को बंद करने का कुचक्र रचा गया है । एक तरफ तो समाचार पत्र को व्यवसाय या उद्योग का दर्जा सरकार ने आज तक नहीं दिया है । वर्षों से समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के पंजीयन प्रमाण पत्र जारी नहीं किए गए है । अनेकों मामले शीर्षक संबंधी मामले लम्बित है । पंजीयन प्रमाण पत्र में संशोधन के मामले लम्बित है । इन सब प्रकरणों को निस्तारित किए बिना प्रेस सेवा पोर्टल को लागू किया जाना न्याय संगत नहीं है । ज्ञातव्य हो कि प्रेस सेवा पोर्टल में अनेकों ऐसे प्राविधान रखे गए हैं जिन्हें छोटे व मझौले समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के प्रकाशकों के द्वारा पूरा किया जाना असंभव है । प्रेस सेवा पोर्टल शुरू किए जाने से पूर्व सभी समाचार पत्रों के संगठनों से विचार विमर्श किया जाना चाहिए था । इस वर्ष वार्षिक विवरणी ऑनलाइन दाखिल करने के लिए पहले पंजीकरण करना होगा । फिर मालिक, प्रकाशक, मुद्रक, प्रिंटिंग प्रेस, चार्टर्ड एकाउंटेंट की प्रोफाइल बनाकर अपलोड करनी पड़ेगी । प्रोफाइल के बिना वार्षिक विवरण को दाखिल नहीं कर पाएंगे । साथ ही प्रिंटिंग प्रेस को जीएसटी में पंजीकृत होना चाहिए । अन्यथा प्रकाशक वार्षिक विवरण प्रस्तुत नहीं कर पाएंगे । ऐसा लगता है कि सरकार ने प्रिंट मीडिया को समाप्त करने की योजना को मूर्त रूप देने के लिए प्रेस सेवा पोर्टल की योजना को लागू किया है । हम आव्हान करते कि इस प्रेस सेवा पोर्टल का सभी प्रकाशकों को बहिष्कार करना चाहिए । जब तक प्रेस सेवा पोर्टल में वार्षिक विवरण को दाखिल करने में सरलीकरण न कर दिया जाए तब तक किसी हालत में वार्षिक विवरण प्रस्तुत नहीं किया जाएं । वर्तमान परिदृश्य में सभी प्रकाशकों को एकता के साथ इस सरकारी कुचक्र का कड़ा विरोध करने की जरूरत है । अन्यथा छोटे व मझौले अखबारों को सरकार बंद करने की योजना में सफल हो जायेगी । लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद केंद्रीय संचार ब्यूरो, प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो व भारत के समाचार पत्रों के महापंजीयक कार्यालयों की मनमानी नीतियों का कड़ा विरोध करने के लिए आंदोलन करने पर विचार किया जाएगा । सरकार को दमनात्मक नीतियों को वापिस लेने के लिए मजबूर किया जाएगा ।

सरदार गुरिंदर सिंह, राष्ट्रीय अध्यक्ष
सदस्य, भारतीय प्रेस परिषद

एल. सी. भारतीय
सदस्य, भारतीय प्रेस परिषद

अशोक कुमार नवरत्न, राष्ट्रीय महासचिव
पूर्व सदस्य, भारतीय प्रेस परिषद
All India Small & Medium Newspapers Federation, New Delhi.

कुछ रह तो नहीं गया

*ना जाने किसकी रचना है ?*
*बहुत ही उम्दा लिखा है, झिंझोड कर रख दिया 😥*
     ︵︷︵︷︵︷︵︷︵​︷︵
     ❓​  *कुछ रह तो नहीं गया!* ❓
     ︶︸︶︸︶︸︶︸︶︸︶
           तीन महीने के बच्चे को 
             दाई के पास रखकर
         जॉब पर जाने वाली माँ को 
                 दाई ने पूछा ~
             कुछ रह तो नहीं गया ?
        पर्स, चाबी  सब ले लिया ना ?
                अब वो कैसे हाँ कहे ?
         पैसे के पीछे भागते-भागते
       सब कुछ पाने की ख्वाहिश में 
    वो जिसके लिये सब कुछ कर रही है,
      वही रह गया है !
😑 
      शादी में दुल्हन को बिदा करते ही 
       शादी का हॉल खाली करते हुए 
            दुल्हन की बुआ ने पूछा ~
  भैया,  कुछ रह तो नहीं गया ना ?
                चेक करो ठीक से ..!
       बाप चेक करने गया, तो 
          दुल्हन के रूम में 
        कुछ फूल सूखे पड़े थे.
       सब कुछ तो पीछे रह गया.
        21 साल जो नाम लेकर 
    जिसको आवाज देता था, लाड़ से,
     वो नाम पीछे रह गया, और 
       उस नाम के आगे गर्व से 
         जो नाम लगाता था, 
     वो नाम भी पीछे रह गया अब.

       भैया, देखा ?
   कुछ पीछे रह तो नहीं गया ?
      बुआ के इस सवाल पर 
  आँखों में आये आँसू छुपाता बाप 
  जुबाँ से तो नहीं बोला, पर दिल में 
          एक ही आवाज थी ~
       सब कुछ तो यहीं रह गया .!
😔
     बड़ी तमन्नाओं के साथ बेटे को 
     पढ़ाई के लिए विदेश भेजा था,
   और वह पढ़कर वहीं सैटल हो गया.
       पौत्र जन्म पर बमुश्किल 
       3 माह का वीजा मिला था,
  और चलते वक्त बेटे ने प्रश्न किया ~
      सब कुछ चेक कर लिया ना ? 
          कुछ रह तो नहीं गया ?
         क्या जबाब देते, कि अब
      अब छूटने को बचा ही क्या है ..!
😔
            सेवानिवृत्ति की शाम 
               पी.ए. ने याद दिलाया ~
                 चेक कर लें सर ..! 
             कुछ रह तो नहीं गया ?
      थोड़ा रूका, और सोचा कि 
             पूरी जिन्दगी तो 
       यहीं आने-जाने में बीत गई.
      अब और क्या रह गया होगा ?
😔
      श्मशान से लौटते वक्त बेटे ने ... 
            फिर से गर्दन घुमाई,
         एक बार पीछे देखने के लिए ...
               पिता की चिता की 
             सुलगती आग देखकर 
                  मन भर आया.
                 भागते हुए गया 
       पिता के चेहरे की 
         झलक तलाशने की 
           असफल कोशिश की ....
             और वापिस लौट आया.
                 दोस्त ने पूछा ~
            कुछ रह गया था क्या ?

          भरी आँखों से बोला ~
      नहीं , कुछ भी नहीं रहा अब.
        और जो कुछ भी रह गया है,
          वह सदा मेरे साथ रहेगा .!
😌
एक बार ... समय निकालकर सोचें, 
    शायद ... पुराना समय याद आ जाए, 
              आँखें भर आएं, और
           आज को जी भर जीने का
         !!..   मकसद मिल जाए   ..!!

             यारों !  क्या पता ?
    कब इस जीवन की शाम हो जाये.

             इससे पहले कि ऐसा हो 
               सब को गले लगा लो, 
             दो प्यार भरी बातें कर लो.
         ताकि ... कुछ छूट न जाये ..!!!

           •┈┈┈•✦✿✦•┈┈┈•
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तस्वीर वैसी नहीं जैसा विरोधी बता रहे

अवधेश कुमार

अब जब लोकसभा चुनाव का एक चरण बाकी है नेताओं, पार्टियों और विश्लेषकों के दावों पर बात किया जाना आवश्यक है। विरोधी दलों, नेताओं और उनका समर्थन करने वाले मुख्य मीडिया, सोशल मीडिया के पत्रकारों ,एक्टिविस्टों ने ऐसा माहौल बनाया है मानो 4 जून के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का अंत हो जाएगा और उसकी जगह विपक्ष के गठबंधन की सरकार बनेगी। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जब चौथे दौर के साथ बहुमत एवं पांचवें दौड़ के  साथ 310 सीटों तक पहुंचने की बात की तो ऐसे लोगों ने उसका उपहास उड़ाना शुरू कर दिया। आजकल डिबेट में भी पूछा जा रहा है कि अब भाजपा 400 से आकर 300 की बात कैसे करने लगी है? न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, न गृह मंत्री अमित शाह ने कभी कहा है कि हमारा 400 पार का दावा खत्म हो गया है। सरकार में वरिष्ठ क्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह दूसरे नंबर पर आते हैं लेकिन नेतृत्व और नियंत्रण के आधार पर देखें तो प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्री अमित शाह ही सरकार और संगठन के दूसरे मुख्य निर्णायक हैं। इन दोनों ने 400 पार का दावा छोड़ नहीं है तो विरोधियों की बात कैसे मान ली जाए कि भाजपा ने 300 तक का मन बना लिया है। 4 जून को किसको कितनी सीटें आएंगी इसकी भविष्यवाणी जोखिम भरी होगी। किंतु क्या देश में ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि बहुसंख्य मतदाता मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने की सीमा तक विद्रोह कर दे? इसी के साथ यह भी प्रश्न है कि क्या विपक्ष ने अपनी छवि ऐसी बना ली है कि लोग वर्तमान परिस्थितियों में उनके हाथों सत्ता सौंपने का निर्णय कर लें? 

 निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो इन दोनों प्रश्नों का उत्तर  हां में नहीं आ सकता है। तीन चरणों के मतदान में कमी से माहौल ऐसा बनाया गया मानो लोग मोदी सरकार से रुष्ट थे जिस कारण मतदान गिरा है। यह भी अजीब बात है कि सामान्यतः मतदान घटने को सत्ता के पक्ष का संकेत माना जाता था। हालांकि 2010 से मतदान के घटने या बढ़ने से किसी की सत्ता जाने या आने के संकेत की धारणा खत्म हो चुकी है। विपक्ष का यह दावा कैसे मान लिया जाए कि भाजपा के मतदाता नहीं आ रहे हैं और उनके मतदाता निकल रहे हैं? क्या जिन परिस्थितियों में और जिन अपेक्षाओं से 2014 में भारत के लोगों ने 1984 के बाद एक नेता और दल के नेतृत्व में बहुमत दिया और 2019 में सशक्त किया उनके संदर्भ में ऐसी निराशाजनक प्रदर्शन सरकार है कि लोग उसे वाकई हटाने के लिए तैयार हो जाएं? 

सच यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी ने उन परिस्थितियों और अपेक्षाओं के संदर्भ में कुछ ऐसे काम किए हैं जिनकी उम्मीद उनके अनेक समर्थकों ने नहीं की थी। भाजपा को राजनीति में संघ विचारधारा का प्रतिनिधि माना जाता है। हिंदुत्व, हिंदुत्व आधारित राष्ट्र भाव और वैश्विक दर्शन इसके मूल में है। इस कारण देश  का बहुत बड़ा वर्ग उससे हिंदुत्व के मामलों पर विचार और व्यवहार में प्रखरता की उम्मीद करता है। नरेंद्र मोदी सरकार ने पहले दिन से इस दिशा में पूर्व सरकारों से अलग मुखर भूमिका निभाने की कोशिश की। यह नहीं कह सकते कि हिंदुत्व के मामले में जितनी अपेक्षाएं थीं सब पूरी हुई पर जो कमी पहली सरकार में थी वह अमित शाह के गृह मंत्री बनने के बाद काफी हद तक खत्म हुईं हैं। उदाहरण के लिए किसी ने कल्पना नहीं की थी कि सरकार धारा 370 को एक दिन में समाप्त कर देगी। इसी तरह मुस्लिम समुदाय में समाज सुधार की दृष्टि से एक साथ तीन तलाक जैसे विषय को जिसे गलत तरीके से मजहब से जोड़ दिया गया है उसे खत्म करने का कानून बनाया जाएगा इसकी भी अपेक्षा नहीं थी। 1985 में शाहबानो प्रकरण के बाद भारत के राजनीतिक प्रतिष्ठान में धारणा बन गई थी कि मुसलमान से संबंधित कुरीतियों ,गलत प्रथाओं आदि को यूं ही छोड़ दिया जाए अन्यथा समुदाय कट्टरपंथियों के आह्वान पर उथल-पुथल मचा देगा। अयोध्या में वाकई श्री राम मंदिर बन जाएगा और रामललि की प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी इसकी भी उम्मीद बहुत कम लोगों को थी। उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया लेकिन सभी  केंद्र में सत्ता का नियंत्रण मोदी और शाह के हाथों नहीं होता तथा उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार नहीं होती तो न समय सीमा में मंदिर का निर्माण होता और न रामलला की प्रण प्रतिष्ठा हो पाती। विदेश नीति में  इस समय भारत संपूर्ण विश्व में उस प्रभावी और विश्वसनीय स्थान पर है जहां एक दूसरे के दुश्मन देश या देशों का समूह इसके साथ संबंध बनाए रखने के लिए तत्परता दिखा रहे हैं। पहली बार इतनी प्रखरता से भारत अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी बात रख रहा है और  विश्व समुदाय सुन भी रहा है। चीन जैसा आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली देश हमारे विरुद्ध है। उतना सशक्त न होते हुए भी विश्व कूटनीति में हम सफलतापूर्वक मुकाबला कर रहे हैं। विश्व भर में भारत में वांछित आतंकवादियों की लगातार हत्याएं हो रही हैं। कौन कर रहा है कैसे कर रहा है इस विषय पर अलग-अलग मत हो सकते हैं। कनाडा ने भारत सरकार पर आरोप लगाया तो अमेरिका ने भी आतंकवादी पन्नू की हत्या के प्रयास के पीछे भारत की भूमिका का उल्लेख किया है। पाकिस्तान लगातार कह रहा है कि भारत की एजेंसियां ही उसके देश के अंदर नागरिकों की हत्याएं करा रहा है। पाकिस्तान में जितने को मारा गया वह सब आतंकवादी थे। भारत विरोधी आतंकवादियों में पूरी दुनिया के अंदर दहशत पैदा हो चुका है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में दुनिया की सबसे तेजी से विकास करता हुआ देश भारत है। हमारा शेयर बाजार जबरदस्त ऊंचाइयों पर है। ऐसा नहीं है कि लोगों की सारी अपेक्षाएं पूरी हो गई हैं और हर व्यक्ति सुख समृद्धि और निश्चिंतता की अवस्था में पहुंच गया है। क यूपीए सरकार की निराशाजनक स्थिति से उलट सकारात्मक और आशाजनक तस्वीर अवश्य है।


उम्मीदवारों के चयन, गठबंधन आदि को लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं, नेताओं और समर्थकों के अंदर असंतोष और नाराजगी देखी गई है जो स्वाभाविक है मोदी और शाह का नेतृत्व, प्रबंधन, नियंत्रण, जगह-जगह नेताओं से संवाद करने, उन्हें संभालने की क्षमता तथा उसके साथ केंद्र से प्रदेश के स्तरों पर विश्वसनीय लोगों के समूह की सक्रियता का सामना विपक्ष करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा का समर्थन और विरोध दोनों के पीछे उसकी विचारधारा को लेकर निर्मित सोच होती है। भारत और दुनिया भर के विरोधी अगर मोदी सरकार को हर हाल में सत्ता से हटाना चाहते हैं तो उसके पीछे मूल कारण इस विचारधारा के आधार पर खड़ा होता हुआ स्वाभिमानी भारत ही है जिसे वह पसंद नहीं करते या जो उनके लिए खतरा हो सकता है। भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग इस विचारधारा को समझ कर खड़ा है और उसे लगता है कि हमारे सामने राजनीति में एक मात्र विकल्प इस समय भाजपा ही है। विरोधी भारतीय राजनीति में आए इस बदलाव की शक्ति को अभी तक नहीं पहचान सके। प्रधानमंत्री ने अपने इंटरव्यू में कहा कि पहले केवल मोदी करते थे और बाद में इसमें योगी को भी जोड़ लिया। कानून व्यवस्था के प्रति योगी सरकार की सख्ती और सांप्रदायिकता के आरोपों की चिंता न करते हुए कठोरतापूर्वक कदम उठाने के कारण लोगों में अलग प्रकार की धारणा बनी है। विरोधियों का एक वर्ग हमेशा दुष्प्रचार करता रहता है कि अमित शाह योगी की लोकप्रियता से ईर्ष्या रखते हैं। सच यही है कि उनको मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मोदी और शाह दोनों की भूमिका थी। ऐसी स्थिति में यह मान लेना कि विपक्ष के प्रचार के अनुरूप लोगों ने सरकार को हटाने का मन बना लिया है किसी के गले नहीं उतर सकता। आईएनडीआईए घटकों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जिम्मेवार और देश के लिए दूरगामी वाली सोच, कार्ययोजना एवं नेतृत्व की छवि प्रस्तुत नहीं की है। इसलिए यह मत मानिए कि देश भर के मतदाता उनके दावों के अनुरुप मतदान कर रहा है।

क्या वनवासी-मुसहर मोदी सरकार में समाज की मुख्यधारा में आ सकते हैं

बसंत कुमार

पिछली दीपावली के अवसर पर मुझे अपने गृह जनपद जौनपुर से सोशल मीडिया पर एक पोस्ट देखने को मिली जिसमे वहां के वरिष्ठ भाजपा नेता व सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह पटाखों के साथ पास की मुसहर बस्ती में उनके बच्चों के साथ दीपावली का त्योहार मना रहे थे। उस पोस्ट में पटाखों की रोशनी तो दिखाई दे रही थी पर मुसहर बच्चों के चेहरे की उदासी और उनके तन पर मैले कुचैले फटे कपड़े उनकी बदहाली की दास्तां भी सुना रहे थे कि समाज में गरीबों के साथ खुशिया मनाने का दिखावा करने वाले लोग सही मायने में उनके साथ त्योहार मनाकर उनके साथ खुशिया बांटते हैं या समाज में दिखावा करके उनका मजाक उड़ाते हैं। यह शत प्रतिशत सही है कि श्री राजेश सिंह का मुसहर बस्ती के बच्चों के साथ दीपावली मनाने के पीछे उनकी मंसा अच्छी थी पर समाज के ठेकेदारों को इन मुसहर बस्तियों में रह रहे बच्चो की गरीबी, फटे कपड़े और बच्चों की अशिक्षा दिखाई नहीं देती।

इस विषय में वर्ष 2014 को एक वाक्या मुझे याद है उस समय आम चुनाव चल रहे थे और उत्तर प्रदेश की देवरिया लोकसभा सीट से भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री कलराज मिश्र चुनाव लड़ रहे थे और उनके चुनाव प्रचार की टीम में मैं भी शामिल था और वहां लोग मुझे कलराज जी का हनुमान कहते थे मैं चुनाव प्रचार करते हुए वहां की मुसहरी टोला नामक बस्ती में चला गया और नदी किनारे बसी बस्ती में न कोई स्कूल था, न कोई दुकान थी, न कोई चिकित्सक था बस जिस रास्ते मुसहर बस्ती में घुसा जा सकता था वहां एक देशी शराब की दुकान थी और अगल-बगल चखना (अंडा, नमकीन आदि) बेचने के ठेले थे, जिसका मुख्य उद्देश्य यह था कि शाम को 100 रुपए की दिहाड़ी कमा कर लौटने वाला मुसहर मजदूर उस ठेके पर घर पहुंचने से पहले 60 रु. ठेके पर खर्च कर दे बाकी 40 रु. में उसके घर का खर्च चले। अब आप समझ सकते है कि इन पैसों में उनके बच्चे और बूढ़े खाएंगे क्या और बच्चों को पढ़ायेंगे क्या, मैंने सोचा की अब मोदी जी प्रधानमंत्री बनेंगे और कलराज जी मंत्री बनेंगे तो शायद इस बस्ती के दिन बदलेंगे क्या, पर मोदी जी प्रधानमंत्री बने, कलराज जी मंत्री बने पर, उनकी स्थिति जस की तस रही क्योंकि वहां के चाटुकारों ने मंत्री जी को ऐसा घेरा कि मैं चुनाव के बाद कभी देवरिया जा ही नहीं पाया। अब ठीक दस वर्ष बाद आम चुनाव पुन: हो रहे हैं और उम्मीद है कि मोदी जी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनेंगे फिर मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है कि क्या बनवासी मुसहर समाज की मुख्य धारा में शामिल हो पाएंगे।

यह सिर्फ मुसहरी टोला बस्ती के मुसहरों का हाल नहीं है सदियों से गांव के एक कोने में रहने वाले मुसहर की हालत पूरे देश में ऐसी ही है। पहले के समय में गांव में शादी-विवाह में पत्तल और दोने बनाकर देते और शादी विवाह में बचा-खुचा ले जाते। इनके बच्चों को स्कूल जाने के विषय में सोचना भी दुस्कर था। बच्चे बड़े होते ही पेड़ों पर चढ़कर पत्तल बनाने के लिए पत्ता इकट्ठा करते या ईट के भट्ठे पर बोझाइ करते या जमींदार के यहां ठटवारी (बंधुआ मजदूरी) करते। यही जीवनपर्यंत पेशा रहता, पर जब से शादियों में पेपर प्लेट्स का चलन हो गया और खाना बनाने और खिलाने का काम कैटरर्स ने शुरू कर दिया तब से मुसहरों का दोना पत्तल बनाने का काम भी ठप्प हो गया और इनकी जिंदगी उन्ही अंधेरो में भटक रही है जहां सदियों पहले थी और आजादी के 7 दशक के बाद भी इनके जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ा।

ब्रिटिश इंडिया के समय में एक क्रिमिनल ट्राईबस एक्ट आया जिसके अंतर्गत जब कोई भी अपराध होता था तो पुलिस मुसहरों सहित अन्य आदिवासियों को संदेह के घेरे में ले लेती थी। आजाद भारत में ये एक्ट तो समाप्त हो गया पर उत्तर भारत में मुसहरों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है। 70-80 के दशक में उत्तर प्रदेश में जब वी.पी. सिंह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने डाकू उन्मूलन अभियान शुरू किया पर उस अभियान में डाकू तो मरे नहीं पर डाकू कहकर सैकड़ों मुसहरों को मौत के घाट उतार दिया गया।

आज भी जब किसी अपराध में गिरफ्तारी के लिए दबाव पड़ता है तो पुलिस द्वारा इन बेचारे मुसहरों को गिरफ्तारी दिखाकर जेल में डाल दिया जाता हैं आए भी उत्तर प्रदेश और बिहार की जेलों में सैकड़ों मुसहर जेल में बंद मिल जाएंगे, जिन्हें चोरी, गांजा चरस आदि नशीले पदार्थों के धंधे में लिप्त होने के आरोप में डाल दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इन बेचारों का इन अपराधों से कोई वास्ता नहीं होता उन्हें तो असली गुनहगार को बचाने के उद्देश्य से बलि का बकरा बना दिया जाता है क्योंकि इनका इतनी हैसियत नहीं होती कि ये अपने को बेगुनाह साबित करने हेतु वकील कर सके। गावों में ग्राम प्रधानों के इनके प्रति पूर्वग्रहों के चलते इन्हे बीपीएल और सरकारी आवास की सुविधाएं नहीं मिल पाती है और ये आज भी समाज से दूर झोपड़ियों में बनवासी जंगली की तरह रहने को मजबूर है।

देश में वर्ष 2014 के चुनावों में जहां भारत की राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के सितारे का उदय हुआ और वहीं बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने दलितों के लिए अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए मुसहर परिवार में जन्मे जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया और उन्होंने अपने 14 माह के कार्यकाल में दलितों पिछड़ों के कल्याण से संबंधित लिए और मुसहरों सहित अन्य वनवासियों के समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की संभावना दिखने लग गई थी पर नीतीश जी को जीतन राम मांझी जी का फैसले लेने वाले मुख्यमंत्री का रूप पसंद नहीं था। उन्हें तो ऐसा दलित मुख्यमंत्री चाहिए था जो रिमोट से चले, इसी लिए उन्हें पूरा कार्यकाल देने के बजाय कुछ ही माह में गद्दी से उतार दिया गया और मुसहरों एवं अन्य वनवासियों को समाज की मुख्यधारा में लाने का स्वप्न अधूरा रह गया।

जैसा कि संभावना दिख रही है कि 4 जून की मतगणना के बाद के मोदी जी तीसरी बार देश की बागडोर सम्हालेंगे और मुसहर परिवार में जन्मे जीतन राम मांझी पहली बार ससद सदस्य के रूप में देश की राजनीति में प्रवेश करेंगे और यह देश के सभी मुसहरों के लिए गौरव का क्षण होगा। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी यह भली भांति जानते हैं कि जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा का एनडीए से गठबंधन होने के कारण पूरे उत्तर भारत में मुसहर समेत अन्य महादलितों ने भाजपा के समर्थन में वोट दिया है और जीतन राम मांझी के बिहार के मुख्यमंत्री और मंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों और उनके अनुभव के कारण उनको मोदी सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलना भी लगभग तय लगता है तो क्या यह मान लिया जाए कि सदियों से समाज की धारा से अलग थलग पड़े वनवासी मुसहरों का समाज की मुख्य धारा में शामिल होने का समय आ गया है।

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