सोमवार, 30 अक्तूबर 2023

नेताजी : एक स्वाधीन आत्मा

डॉ. मीना शर्मा
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक, आधुनिक भारत के निर्माताओं में अग्रगण्य, भारत माता का मस्तक ऊँचा करने वाले भारत माता के लिए अपना तन-मन-धन, अपना संपूर्ण जीवन, अपनी प्राणात्मा का उत्सर्ग करने वाले मां भारती की सेवा में, अर्चना में अपना शीश फूल चढ़ा देने वाले स्वाधीनता के सबसे बड़े पुजारी और स्वाधीनता के सबसे बड़े सिपाही एवं निर्भय आत्मबलिदानी महापुरुष का नाम 'सुभाष चन्द्र बोस' है।
सुभाषचन्द्र बोस सिर्फ एक व्यक्ति का नाम नहीं है, बल्कि एक संस्था का नाम है, एक विचार का नाम है। निरर्थक चिंतन या विकास में समय लगाना वे समय की बर्बादी मानते थे। स्वाधीनता के विचार और स्वाधीनता के व्यवहार का नाम है। विचार की सार्थकता उनके कदमों में होती है। जहाँ स्वाधीनता के विचार और उसका मूर्तरूप व्यवहार एक दूसरे से रचे-बसे हुए हैं, घुले-मिले हुए हैं। समरूप हैं। समरस हैं। जहाँ अपना सर्वस्व, अपनी एक एक सांस आखिरी सांस लहू का एक- एक कतरा आखिरी कतरा भी भारत माता की अनन्य भक्ति में स्वतंत्रता की देवी के श्रीचरणों में आत्मत्याग और आत्म समर्पण कर दिया जाता है। शीश रूपी फूल को स्वाधीनता के अनुष्ठान में मां भारती के कदमों में भेंट चढ़ा दिया जाता है। कुछ भी अपने पास निःशेष नहीं होता है।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 'नेताजी' के सर्वोच्च आत्मबलिदान, आत्मोत्सर्ग की भावना को इन शब्दों में रेखांकित करते हुए कहा था कि- 'He was one of India's greatest and he fearlessly sacrificed everything for the cause of his country's freedom. His life and career will serve as a source of insipiration to generations of Indians Irrespective of caste, creed or community'.
राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की 'पुष्प की अभिलाषा' सबने पढ़ी होगी किन्तु क्या किसी ने स्वयं अपने शीश को ही पुष्प समझा, पुष्प मानकर स्वाधीनता देवी को भेंट चढ़ाने की अभिलाषा क्या किसी ने रखी है और उसे ही साकार करने, उसे ही जीने में अपना संपूर्ण जीवन न्यौछावर कर दे, खुद को ही अर्पित कर दे, अपना जीवन खपा दे, प्राणों की आहुति, आत्मबलिदान कर दे, नेताजी न केवल आजादी के यज्ञ में प्रस्तुत हैं, बल्कि राष्ट्र के नवयुवकों, आजाद हिन्द सेना, देश के सिपाहियों के रग-रग में, कण कण में जोश का संचार करते हुए सर्वोच्च बलिदान का आह्वान करते हुए शीश पुष्प गुच्छों की अभिलाषा को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
'स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। उसके लिए सबकुछ देना है। आपने आजादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आजादी को आज अपने शीष फूल चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। हमें ऐसे नवयुवकों की आवश्यकता है जो अपने हाथों से अपना सिर काटकर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सके। आप मुझे अपना खून दें, मैं आपको आजादी दूंगा।'
आजाद हिन्द सेना और उसका प्रतिज्ञापत्र राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की पाठशाला थी। जहां प्रत्येक सिपाही देश के लिए मर-मिटने का जज्बा लेकर प्राणों की आहुति के लिए हर क्षण तत्पर एवं स्वयं को प्रस्तुत करते हुए यह शपथ लेता था कि- 'मैं स्वयं आजाद हिन्द सेना में भर्ती होता हूं। भारत की स्वतंत्रता के लिए तन-मन-धन न्यौछावर कर देने की दृढ़ प्रतिज्ञा करता हूँ। भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने को भी तैयार हूँ। मैं स्वयं को छोड़कर अपने देश की सेवा करूंगा। देशवासियों से चाहे वह किसी जाति, संप्रदाय व प्रांत से हों, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखूंगा और सभी भारतीयों को अपना भाई समझंगा।'
सुभाषचन्द्र बोस के लिए स्वाधीनता का कार्य पुण्य का कार्य और पराधीन रहना पाप समान था। अपने जीवन के अंतिम सांस तक वे इसी स्वाधीनता यज्ञ के पुजारी थे। इस निर्मल यज्ञ में स्वाधीनता के साथ किसी भी प्रकार के समझौते के लिए कोई स्थान नहीं था। यही वजह थी कि कांग्रेस के समझौतावादी नीतियों और सत्ता प्राप्ति के लिए औपनिवेशिक शासन के साथ गांधी जी और नेहरू जी का समझौता रास नहीं आया। जिस अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने देश के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ढांचे को नष्ट, तहस नहस कर दिया था। वे गुलामी को मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप समझते थे और ब्रिटिश सरकार के अन्याय, उत्पीड़न के साथ समझौता करना सबसे बड़ा अपमान मानते थे। अपने स्वाधीनता के ऊंचे आदर्श एवं सिद्धांत के साथ सुभाषचन्द्र बोस फिर वो कैसे सोच सकते थे, और न ही औपनिवेशिक शासन के साथ कांग्रेस की समझौतावादी नीतियों को ही वे बर्दाश्त कर सकते थे। वसूलों पे आंच आना उन्हें कतई पसंद नहीं था।
सुभाषचन्द्र बोस के लिए देश सबसे ऊपर था, दल या व्यक्ति नहीं। दल या सत्ता के लिए समझौता करना नैतिकता, आदर्श, सिद्धांत के लिए नैतिकता के दलदल के समान था। अतएव वे गांधीजी का सम्मान करते हुए भी जहां उनके सिद्धांत एवं आदर्श गांधी के साथ टकराते थे वहां वे ससम्मान निर्भय एवं अडिग स्वर में बापू से कहते- "मैं आपका अन्धाअनुकरण नहीं करता 'वे उसी रास्ते पर चलना पसंद करते थे, जो देश की स्वाधीनता के लिए सर्वोत्तम हो। आंतरिक प्रेरणा से जिस व्यक्ति ने जन्मभूमि की सेवा का आजीवन व्रत रखने का संकल्प लिया हो, सिविल सर्विस में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया हो उसके बावजूद भी उस अंग्रेजी व्यवस्था के सरकारी नौकरी को लात मार दिया हो, क्योंकि उसके शपथ ग्रहण में ब्रिटेन की महारानी के प्रति निष्ठा की शपथ और अंग्रेजी सरकार की सेवा का पाठ पढ़ाया जाता था। सुभाष अंग्रेजों की सेवा और देश की सेवा दोनों भला एक साथ कैसे कर सकते थे? दोनों में से किसी एक को चुनना था। सुभाष ने देश की सेवा को चुना। यहां भी उनका मान और देश का अभिमान एक दूसरे में घुले-मिले थे। ब्रिटिश सरकार की बुनियाद को मजबूत करने की जगह उससे पृथक हो जाना ही वे श्रेष्ठ समझते थे।
जिस आई.सी.एस. यानी सिविल सर्विस को युवा पद - लालसा के कारण मोह और सपने पालता है, उसी नौकरी को बिना किसी शिकन के यूं लात मार दिया सुभाष ने, क्योंकि उनका देश के प्रति मोह और सपने कहीं अधिक बड़े थे। जिसे वे नि:स्पृह भाव से त्यागकर आत्मत्याग के आदर्श को लेकर ही अपने जीवन को देशहित में आरंभ करना चाहते थे। तभी नौकरी छोड़ते ही तुरन्त राष्ट्र सेवा के कार्य में लग गए। आत्मत्याग के आह्वान को वे साहस के साथ, धैर्य के साथ स्वीकार करते हुए समझौते के स्थान पर सिद्धांत को, अंग्रेजी सेवा के स्थान पर देश सेवा दल के स्थान पर देश को चुना ओर गांधीजी और कांग्रेस की ढुलमुल समझौतवादी नीतियों के कारण विवश होकर देश छोड़ विदेश से ही आजाद हिंद फोर्स बनाकर भारत की स्वतंत्रता संग्राम का संघर्ष का रास्ता चुना । सुविधा और ऐशोआराम की जगह वैरागी एवं कष्ट का जीवन चुना। भारतीय जेलों में रहकर सड़कर मरने से अच्छा देश की आजादी के लिए प्राण न्यौछावर कर एक शहीद जवान का जोखिम भरा बलिदान वाला रास्ता चुना।
आहार, निद्रा, सन्तानोत्पत्ति तक सीमित लोक लीक चलन नीति उनके लिए किसी जीवित राष्ट्र का मरण के समान था। ऐसा राष्ट्र मरणोन्मुख होता है। भारतीय इतिहास और मध्य युग में व्याप्त अंधकारपूर्ण युग या मुगलराज का कारण भी किसी राष्ट्र का इस लोक लीक चलन नीति से ग्रसित होना होता है। परन्तु नवजागरण की झलक का प्रकाश पाकर अंधकार मिटने लता है और नवजागरण की चेतना जीवन का उद्देश्य और जीवन धर्म को पुनः प्रकट करने लगती है। केवल जिंदा रहने के लिए जिन्दा रहना सुभाष को वरेण्य नहीं था। देश, जीवन और भारतीय सभ्यता के उद्देश्य के लिए वे बंगाल और भारत के नवयुवकों के जीवन को एक उद्देश्य एक मिशन के साथ जोड़कर युवाओं और राष्ट्र की नवीन शिराओं में नवीन रक्त का संचार, जागरण की नई चेतना का उन्मेष करते हैं। नई ऊर्जा, नई दिशा, नया जोश नया आत्मविश्वास भरते हैं।
व्यक्ति हो या फिर राष्ट्र दोनों के लिए ही आत्मविश्वास (Self believe ) जरूरी होता है, खड़ा होने के लिए सपनों को साकार करने के लिए। अस्तित्व की सार्थकता का विश्वास किसी व्यक्ति या राष्ट्र को जिंदा रखती है। और अस्तित्व की सार्थकता को रास्ता भूमिका के निर्वहन से होकर गुरजता है। बिना भूमिका के व्यक्ति या राष्ट्र को पुनः जीवित कर देता है। वह सपना देखने के लिए साहस करता है और फिर साहस के लिए सपने देखता है। If you dare to Dream than Dream to dare.'
महीनों महीनों जेल में रहकर आजादी की लड़ाई में तमाम यातनाएं, क्रूरताएं, मार, चोट, दर्द आदि को सहते हुए भी इसी आत्मविश्वास इसी अन्तःप्रेरणा ने सुभाषचन्द्र बोस को टूटने नहीं दिया। बल्कि और भी अधिक, पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो उठते हैं। अक्सर यातनाएं सहते समय उनका मन उत्तर देता था 'भारत का एक मिशन है, एक गौरवपूर्ण भविष्य, भारत के उस भविष्य के उत्तराधिकारी हम हैं। नये भारत के, मुक्ति के इतिहास की रचना हम ही कर सकते हैं और हम ही करेंगे।'
भारत के आत्मप्रतिष्ठा का मार्ग इस खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त कर अटल आस्था के साथ देश की युवाशक्ति को मृत्युजयी बनाते हुए भारतमाता के लिए अपना जीवन उत्सर्ग करने प्रबल उत्कंठा में बदलकर सुभाष युवाओं की चेतना में क्रांतिकारी परिवर्तन कर देते हैं। वो अब आदर्श के कठोराघातों से यथार्थ के निष्ठुर सत्य को भी धूल में मिला सकता था।
जीवन उत्सर्ग की प्रेरणा, अदम्य साहस, भारत की श्रेष्ठता पुनः प्रतिपादित करने की प्रबल भावना एंव कामना ने सुभाष चन्द्र बोस को 'नेताजी' सुभाषचन्द्र बोस बनाता है। 'नेता' का अर्थ राजनीतिज्ञ या चुनाव लड़ने वाला छुटभैये नेता न होकर वे इस शब्द में एक नवीन अर्थ, नया अर्थ गौरव भरते हैं। 'नेता' का अर्थ 'नेतृत्व' देने वाला व्यक्ति, Leader 32 A Person who can lead the Nation, the Society is called a Leader.'
देश, समाज और युवाओं को एक नई दिशा देने वाला व्यक्ति ही वास्तविक अर्थों में Leader या नेता कहलाता है। इतिहास के उस दौर में युवाओं का उनसे बेहतर दिशा और नेतृत्व प्रदान करने वाला व्यक्ति और कौन हो सकता है? आजाद हिन्द फौज की स्थापना एवं नवयुवकों की फौज खड़ी करना, जो आत्मबलिदान की भावना से लबालब थे, लैश थे, इसी का जीवन्त ऐतिहासिक प्रमाण एवं उदाहरण है। इस युवा शक्ति को सुभाष जीने को, जीवन को राष्ट्र को एक उद्देश्य से संपृक्त करते हैं, जो पतनशीलता के अंधकार को दूर करने का बीड़ा उठाते हुए तमाम कष्ट सहता है, यातनाएं भोगता है, इस विश्वास के मनोबल पर कि 'जब इस जीवन में कोई श्रेष्ठ कर्म नहीं कर सकते तो जीवित रहना व्यर्थ है।'
देश के लिए जीना धर्म है। धर्म और देश के लिए जीवित रहना ही यथार्थ जीवन है। 'भारत और भारतवासियों एवं भारतमाता की दुर्दशा, गुलामी, अन्याय, घोषणा, उत्पीड़न को देखकर परतंत्र भारत माता के साथ-साथ भारतमाता की संतान की आत्मा भी हो उठती है। वह नेताजी सुभाष चन्द्र के नेतृत्व में स्वार्थरहित होकर भारतमाता के लिए अपना जीवन बलिदान, उत्सर्ग की भावना से भरकर युवाशक्ति हुंकार भरता है। आत्मप्रतिष्ठा का मार्ग का वरण कर मातृभूमि पर शीश फूल चढ़ाने निकल पड़ता है। फिर क्या था 'वन्दे मातरम' राष्ट्रीय अभियान और राष्ट्रीय अभियान बनकर पूरे बंगाल और देश में गूंजने लगती है। विपत्तिकाल में मां के आह्वान के अतिरिक्त कोई और दूसरा नाम होता है क्या? 'भारत माता' के चरणों में आत्मोत्सर्ग आत्मत्याग की भावना से भरकर राष्ट्र सेवा के मार्ग में युवाओं का पथ प्रदर्शक बनकर सुभाष पूरी निष्ठा के साथ परतंत्र भारत मात्रा को युक्त कराने के राष्ट्रीय कार्यों में खुद को लाखों युवाओं के साथ झोंक देते हैं। जिदंगी दांव पे लगा देते हैं। प्राण न्यौछावर कर अदम्य उत्साह के साथ करते हैं।
सुभाष और भारत माता के नेतृत्व को पूरे बंगाल, देश और युवा हृदय से स्वीकार करने लगता है। भारत माता के प्रति हृदय में अटूट श्रद्धा रखकर मातृभूमि की सेवा के अधिकार का, कर्त्तव्य का उत्साह के साथ पालन करता है। क्योंकि मां के अतिरिक्त अन्य कोई चीज पूज्य नहीं, और विपत्ति में मां के अतिरिक्त अन्य कोई नाम नहीं होता है। अन्य नाम है क्या? क्योंकि इतिहास गवाह है कि विपत्ति काल में सदा हमने मां का आह्वान किया है।

शनिवार, 28 अक्तूबर 2023

फूल वालों की सैर 29 अक्टूबर से 4 नवंबर 2023 तक

 नई दिल्ली। मुगल काल से चला आ रहा साप्रदायिक सौहार्द व राष्ट्रीय एकता का संदेश वाहक मेला फूल वालों की सैर इस साल 29 अक्टूबर 2023 को रंगारंग उत्सव का रूप लेगा। इस दिन सुबह 10:30 बजे सर्वोदय को एड सीनियर सेकेंडरी विद्यालय कुतुब महरौली में की चित्रकला प्रतियोगिता होगी। मेने की समारोह की विस्तृत जानकारी देते हुए मेले की आयोजन समिति अजुमन सर ए गुल फरोसा की महासचिव श्रीमती उषा कुमार ने बताया कि इस वर्ष यह मेला 29 अक्टूबर 2023 से प्रारंभ होगा। 30 अक्टूबर 2023 को फूलों का पखा दिल्ली के उपराज्यपाल श्रीमान विनय कुमार सक्सेना जी को उनके निवास स्थान पर पेश किया जाएगा और साथ ही शहनाई वादन भी होगा फिर इसके बाद फूलों के पंखे दिल्ली के डिवीजनल कमिश्रर को पेश किए जाएंगे और फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री यो अरविंद केजरीवाल जी व मुख्य सचिव को पंखे पेश किए जाएंगे और इसके बाद दिल्ली के पुलिस कमिश्रर श्री संजय अरोड़ा जी को पंखा पेश किया जाएगा।

दिनांक 31 अक्टूबर 2023 को दोपहर 3:00 बजे सद्भावना वाला फूलों के शहनाई ढोलताशा के साथ इंडिया गेट पर निकल जाएगी. जिनमें सभी समुदायों के लोग वह सदस्य शामिल होंगे और इसके बाद सद्भावना यात्रा फूलों के पचे शहनाई और ढोल ताशा के साथ चांदनी चौक के गौरीशंकर मंदिर में से टाउन हॉल होते हुए पुन गौरी शंकर मंदिर पर समाप्त होगी। इस वर्ष साहित्य कला परिषद द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए जाएंगे।

दिनाक 1 नवंबर 2023 को दोपहर से कुश्ती कवडी आदि खेलों का आयोजन महरौली के डीटीए आम बाग पर होगा जिसमें विधायक श्री सोमनाथ भारती जी और नरेश यादव जी मुख्य अतिथि होंगे।

दिनांक 2 नवंबर 2023 की शाम 4:00 बजे महरौनी स्थित महान सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काफी की दरगाह पर दोनों समुदाय के लोग परंपरा के मुताबिक मिलजुल कर फूलों की चादर चढाएंगे। दिल्ली बालों के इस दल का नेतृत्व माननीय उपराज्यपाल श्री विनय कुमार सक्सेना साहब करेंगे। नागरिक और उपराज्यपाल के हाथों चादरपोशी के बाद अगले दिन 3 नवंबर 2023 को शाम 6:00 बजे दोनों समुदाय के लोग व माननीय उपराज्यपाल श्री विनय कुमार सक्सेना साहब मिलजुल कर पांडव कालीन श्री योगमाया मंदिर महरौली में फूलों का पखा और छत्र चढ़ाएंगे।

फूल वालों की सैर का समापन दिनांक 4 नवंबर 2023 को महरौली के ऐतिहासिक जहाज महल के प्रांगण में होगा। इसमें हमारे देश की विविधता और राष्ट्रीय एकता और अखंडता का भव्य और समृद्ध स्वरूप दर्शाने वाले समारोह होगे। उल्लेखनीय है कि विभिन्न राज्यों से आने वाले सांस्कृतिक दल इस समारोह में अपने लोक कथा लोक कलाओं की अलक पेश करते हैं और दरगाह व मंदिर के लिए सजा ध्वज पथा लाते हैं। यह पंखा उसके राज्य के अनुभवी शिल्पकार और दस्तकार तैयार करते हैं। इसके बाद साहित्य कला परिषद द्वारा कल्चर प्रोग्राम व पूरी रात भर कव्वाली का दिलकश मुकाबला होगा।

फूल बालों की सैर के लिए भारत सरकार द्वारा आयोजन समिति बंजुमन सैर ए गुप्त फरोसा को राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार से भी नवाजा है। समिति को यह पुरस्कार भारत की पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी द्वारा 12 अगस्त 2009 को प्रदान किया गया था। समिति की महासचिव श्रीमती उषा कुमार ने बताया कि सन 1812 से 1842 तक हर साल लगने वाले इस मेले को अंग्रेजा ने भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध में तथा अपने विभाजन कार्य नीति के तहत फूट डालो राज करो के अंतर्गत बंद कर दिया। था। इसे दोबारा 1961 में दिल्ली वासियों की अपील पर भारत सरकार ने दोबारा से शुरू कराया था।

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

कुछ भ्रांतियों को तोड़ गए स्पिन के सरदार ‘बिशन सिंह बेदी’

 

बसंत कुमार

इस समय देश में पांच राज्यों के विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं और वोटरों को आकर्षित करने के उद्देश्य से हर राजनीतिक दल चुनावी रेवड़ियां बांटने के चुनावी वायदों की झड़ी लगा रहा है। ऐसे चुनावी वातावरण में छत्तीसगढ़ की एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा कर दी कि देश के 81 करोड़ गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त अनाज वितरण योजना पांच वर्ष तक जारी रहेगी। प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद केंद्र सरकार के कई वरिष्ठ मंत्रियों ने ट्वीट करके वाहवाही लूटने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने इसे चुनावी रेवड़ी मानकार इसकी शिकायत चुनाव आयोग से करने का फैसला किया। इसके बाद आर्थिक जानकारों के बीच यह बहस छिड़ गई कि विश्व की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति का दावा करने वाले देश में 81 करोड़ से अधिक जनसंख्या बीपीएल कार्ड धारक हैं और मुफ्त अन्न वितरण योजना का लाभ उठाने के हकदार हैं अर्थात जिस देश की आबादी 141 करोड़ हो और उसमें से 81 करोड़ (58%) लोग अपना पेट भरने के लिए मुफ्त अन्न वितरण योजना पर निर्भर करते हो तो उस देश को विश्व की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति कैसे माना जा सकता है।

ताजा आंकड़ों के अनुसार ऐसे लाभार्थियों की संख्या बढ़कर 81.35 करोड़ हो गई है और नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट की शुरुआत वर्ष 2013 में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने की थी। इस योजना के तहत बीपीएल कार्ड धारकों को एक रुपए किलो गेहूँ और तीन रुपए किलो चावल देने की बात की गई थी। इसके तहत प्रति व्यक्ति को हर माह 5 किलो अनाज मिलता था फिर नरेंद्र मोदीजी की सरकार अंत्योदय योजना लेकर आई जिसमें 35 किलो अनाज की सीमा निर्धारित की गई, फ्री राशन योजना इस वर्ष दिसंबर में समाप्त होने वाली थी जिसे अब प्रधानमंत्री ने इसे पांच वर्ष के लिए बढ़ा दिया है। पौने दो लाख करोड़ की राहत से यह योजना शुरू की गई थी, निश्चित तौर पर यह योजना कोरोना काल में गरीब परिवारों को मुसीबत की घड़ी में बहुत कामयाब रही परंतु इस योजना के चलते अधिकांश लोगों के घर बैठने की प्रवृत्ति के कारण मजदूरों की कमी से छोटे और मझोले उद्यमों को बहुत झटका लगा है तब इस योजना की उपयोगिता पर प्रश्न खड़ा करना जायज लगता है।

प्रश्न यह है कि देश के मध्यम वर्ग के बूते पर करोड़ों लोगो को फ्री राशन मिलेगा। भोजन की गारंटी देना किसी भी जन कल्याणकारी सरकार की अहम् जिम्मेदारी है पर उसके लिए मध्यम वर्ग की जेब काटना कोई भी समझदारी नहीं है। फ्री राशन और हर चीजों पर सब्सिडी देने से करोड़ों की आबादी नकारा बन जाती है पर हमारे देश में सरकारों द्वारा वोट पाने के लिए फ्री राशन और फ्री भोजन की योजनाएं चलाई जा रही हैं जबकि होना यह चाहिए कि सबको शिक्षा और स्वास्थ के साथ-साथ रोजगार की गारंटी दी जानी चाहिए। इस बारे में मुगलकाल में उप्र की राजधानी लखनऊ स्थित इमाम बाड़ा के निर्माण की कहानी से प्रेरणा ली जानी चाहिए, इसका निर्माण 1784 में अवध के नवाब आसिफउद्दौला ने अकाल के दौरान इसलिए कराया था कि लोगों को रोजगार मिल सके, दिन में इसका निर्माण होता और रात में इसे गिरा दिया जाता, कहते हैं कि इस इमाम बाड़ा का निर्माण और अकाल, 11 साल तक चला, इमाम बाड़े के निर्माण में करीब 20000 श्रमिक शामिल थे और इसके निर्माण में उस जमाने में 8 से 10 लाख रुपए की लागत आई पर नवाब ने अकाल के समय काम दिया पर खैरात नहीं दी।

अब राजनीतिक दलों के लिए यह नुस्खा बन गया है कि मुफ्त राशन, सस्ते भोजन की घोषणाएं करो और जब किसी को मुफ्त भोजन मिलेगा तो वह काम क्यों करेगा। देश में पहले विकसित देशों की कंपनिया आकर कारखाने लगाती थीं इससे मजदूरों को बेहतर रोजगार मिलता था और उनके जीवन का स्तर ऊपर उठता था क्योंकि विकसित देशों में आबादी कम होने के कारण मजदूर बहुत महंगे मिलते थे इसलिए ये कंपनियां भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश की तरफ रुख करती थीं परंतु अब भारत में मुफ्त राशन मिलने से यहां के मजदूर कामचोरी करने लगे हैं। अब उनके लिए काम हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें अब मुफ्त का राशन मिल ही रहा है। अब तो शहरों के छोटे कारखाने के लिए मजदूर मिलना बहुत मुश्किल हो गया है क्योंकि जो लोग कोरोना काल में शहरों को छोड़कर गांवों में पलायन कर गए थे वे फिर वापस नहीं आये।

दुर्भाग्य यह है कि मुफ्त राशन और फ्री बिजली बांटने का काम हर राजनीतिक दल कर रहा है, इस समय मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान सभी पार्टियों में परस्पर होड़ मची हुई है कि कि मुफ्त बिजली, मुफ्त भोजन बांटने की घोषणा में कौन किससे आगे दिख रहा है। दिल्ली में तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उत्तर भारतीय वोटरों को मुफ्त राशन, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, महिलाओं के लिए मुफ्त डीटीसी बस कि ऐसी आदत डाली कि उसके बुते पर वे दो बार से लगातार एकक्षत्र राज कर रहे हैं। उनकी देखा-देखी कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल यह सीखने की कोशिश कर रहे हैं कि मुफ्तखोरी की लालच से वोटरों को पटाया जाए। अब वोटरों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इस सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं क्योंकि जनता को फ्री की रेवड़ी खाने की आदत पड़ गई है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग गांव के कोटेदार के यहां अपनी चौपहियां गाड़ी से बीपीएल कार्ड पर मुफ्त राशन लेने जाते हैं। ये तथ्य हमारी व्यवस्था में भारी पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते हैं और इसी कारण देशभर में गरीबों के लिए प्रारंभ की गई योजनाओं का लाभ लाखों की गाड़ियों में घूमने वाले और करोड़ों के घरों में रहने वाले लोग उठाते हैं। फिर भी गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त राशन वितरण कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या 81 करोड़ से अधिक हो जाना सचमुच चिंता की बात है आखिर देश में मुफ्त रेवड़ी बांटने की प्रथा कब खत्म होगी।

(लेखक भारत सरकार में उप सचिव पद पर रह चुके हैं।)

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

समलैंगिकों पर न्यायालय के फैसले के निहितार्थ

अवधेश कुमार

समलैंगिकों को विवाह की कानूनी अनुमति देने संबंधी याचिका का उच्चतम न्यायालय द्वारा अस्वीकृत करना संपूर्ण समाज के लिए राहत लेकर आया है। यह लाखों वर्षों की सभ्यता संस्कृति वाले देश की प्रमाणित जीवन शैली एवं चिंतन की रक्षा करने वाली है। यह पहली दृष्टि में उस पूरी लौबी के लिए धक्का है जिसने लगातार एक गैर मुद्दे को मुद्दा बनाकर समलैंगिकों के पक्ष में माहौल बनाया तथा न्यायालय से भी अनुकूल फैसले पाए। उच्चतम न्यायालय ने सन 2018 में समलैंगिकता को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को खत्म कर दिया था। इससे उस लौबी के अंदर यह भावना पैदा हुई कि लंबी लड़ाई के बाद हम ऐसे स्थान पर पहुंच गए हैं जहां से अब समलैंगिकों के विवाह को मान्यता देने के लिए भी पूरी ताकत से न केवल माहौल बनाना चाहिए बल्कि न्यायालय से भी आदेश पारित करने की कोशिश करनी चाहिए। भारत में लंबे समय से मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर गोष्ठियों, सेमिनारों में इसके पक्ष में माहौल बनाने की का अभियान चलता रहा। अलग-अलग तरीके के ऐसे-ऐसे तथ्य और तर्क दिए गए जिनसे लगता था कि वाकई समलैंगिकता विज्ञान एवं प्रकृति की कसौटी पर सही है तथा इनके जोड़ों को शादी करके व साथ रहने की मान्यता न देना ही मानवता विरोधी व्यवहार है।  जिन लोगों ने उच्चतम न्यायालय में इस मामले पर जारी बहस तथा न्यायमूर्तियों की टिप्पणियां सुनी है , पढीं है उन्हें पता है कि इसके पीछे कितनी बड़ी लौबी लगी हुई थी। नामी वकील इस मामले को ऐसे लड़ रहे थे मानो इससे बड़ा कोई मुद्दा देश के सामने हो ही नहीं। जरा सोचिए, लाखों - करोड़ों में फीस लेने वाले इन वकीलों का भुगतान काम कहां से कर रहा था? 

इसके विपरीत देश की बहुमत आबादी ने अलग-अलग तरीकों से अपना मत प्रकट किया और ऐसा लग रहा था की आम भारतीय उच्चतम न्यायालय में इस मामले की सुनवाई को ही उचित नहीं मानता है। तो तत्काल इससे राहत मिल गई है। किंतु कोई यह न मान ले कि समलैंगिकता को विपरीत लिंगी यानी स्त्री पुरुष संबंधों के समानांतर खड़ा करने वाली लौबी शांत हो जाएगी। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि भले अभी अनुमति नहीं मिली लेकिन उन्हें संतोष है कि उनके तर्कों तथ्यों को स्वीकार किया गया है। वास्तव में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ में यह तीन और दो का आदेश है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हिमा कोहली, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति रविंद्र भट और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई की थी। यहां दोनों न्यायाधीशों की अंतिम फैसले से पूरी सहमति नहीं है। अभी इस मामले को पुनर्विचार याचिका के रूप में ले जाया जा सकता है और उच्चतम न्यायालय ने बड़ी पीठ गठित कर दी तो फिर एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। अगर पूरे आदेश को देखें तो साफ हो जाएगा कि न्यायालय ने समलैंगिकता के विरुद्ध कोई टिप्पणी नहीं की है। केवल यह कहा है  कि समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती है क्योंकि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है और न्यायालय इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता।‌ न्यायालय सिर्फ कानून की व्याख्या कर उसे लागू करा सकता है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट या विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधानों में बदलाव की जरूरत है या नहीं, यह तय करना संसद का काम है। सभी 21 याचिकाकर्ताओं ने संबंधित विवाह को विशेष विवाह अधिनियम के तहत निबंधित करने की अपील की थी।  न्यायालय का फैसला मुख्यत: दो आधारों पर टिका है। एक, शादी विवाह मौलिक अधिकार के तहत आता है या नहीं तथा, दो,  न्यायालय इसमें बदलाव कर सकता है या नहीं? पीठ का कहना है कि विवाह मौलिक अधिकार नहीं है तथा न्यायालय कानून में परिवर्तन नहीं कर सकता है क्योंकि कानून बनाना यह संसद का विशेषाधिकार है। 

सच यह है कि न्यायालय द्वारा पूछे जाने पर केंद्र सरकार ने जो उत्तर दिया उसमें ऐसे सारे तर्क दिए गए थे जिनसे समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने का कानूनी, संवैधानिक, सांस्कृतिक, सामाजिक हर स्तर पर विरोध होता था।  केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि सरकार बाध्य नहीं है कि हर निजी रिश्ते को मान्यता दे। याचिकाकर्ता चाहते हैं कि नए मकसद के साथ नई श्रेणी बना दी जाए। इसकी कभी कल्पना नहीं की गई थी। अगर ऐसा किया गया तो भारी संख्या में कानून में बदलाव लाने पड़ेंगे जो संभव नहीं होगा।

बावजूद न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट ने जो लिखा उसकी कुछ पंक्तियां देखिए,  सरकार को इस मसले पर कानून बनाना चाहिए, ताकि समलैंगिकों को समाजिक और कानूनी मान्यता मिल सके।‌ न्यायालय समलैंगिक जोड़ों के लिए कोई कानूनी ढांचा नहीं बना सकती है और यह विधायिका का काम है, क्योंकि इसमें कई पहलुओं पर विचार किया जाना है। सभी समलैंगिक व्यक्तियों को अपना साथी चुनने का अधिकार है, लेकिन राज्य को ऐसे समूह को मिलने वाले अधिकारों को मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।  

न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक ऐसी समिति बनाने का भी निर्देश दिया जो राशन कार्ड में समलैंगिक जोड़ों को परिवार के रूप में शामिल करने, समलैंगिक जोड़ों को संयुक्त बैंक खाते के लिए नामांकन करने में सक्षम बनाने और उन्हें पेंशन, ग्रेच्युटी आदि से मिलने वाले अधिकार का अध्ययन करेगी। समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया और केंद्र और राज्य सरकारों को समलैंगिकों के लिए उचित कदम उठाने का आदेश भी दिया। कहा  कि सरकार, समलैंगिक समुदाय के खिलाफ भेदभाव रोकने के लिए सकारात्मक कदम उठाए।‌ यही नहीं केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि समलैंगिकों के लिए सेफ हाउस और डॉक्टर की व्यवस्था करे। साथ ही एक फ़ोन नंबर भी हो, जिसपर वो अपनी शिकायत कर सकें। यह भी सुनिश्चित करें कि उनके साथ किसी तरह का सामाजिक भेदभाव न हो, पुलिस उन्हे परेशान न करे और जबरदस्ती घर न भेजे, अगर वो घर नहीं जाना चाहते हैं तो।तो उनकी सामाजिक स्वीकृति तथा जन कल्याणकारी कार्यक्रम में समान हिस्सेदारी का आधार तो न्यायालय ने दे ही दिया है।  इस पूरे मामले में विवाह संस्था से लेकर समलैंगिकता, विपरीत लिंग आदि पर खूब बहस हुई। न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि विवाह की संस्था बदल गई है जो इस संस्था की विशेषता है, सती और विधवा पुनर्विवाह से लेकर अंतरधार्मिक विवाह में बदलाव हुए हैं और ऐसे कई बदलाव संसद से आए हैं।‌ इसलिए यह कोई स्थिर या अपरिवर्तनीय संस्था नहीं है।‌ न्यायालय ने यह तर्क दिया कि हम विशेष विवाह अधिनियम को सिर्फ इसलिए असंवैधानिक नहीं ठहरा सकते क्योंकि यह समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देता है। 

इस तरह पूरे फैसले को देखें तो न्यायालय ने भले समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं दी लेकिन उसे अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक या कुछ लोगों तक सीमित नहीं माना है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने समलैंगिक संबंधों को शहरी और अभिजात्य वर्ग तक सीमित बताने के तर्कों पर कहा कि यह विचित्रता यानी क्विर्नेस शहरी या अभिजात्य वर्ग की चीज नहीं है। उनके अनुसार भारत में यह प्राचीन काल से जाना जाता है और प्राकृतिक है। विवाह की अवधारणा कोई सार्वभौमिक अवधारणा नहीं है और न ही यह स्थिर है। अगर संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 को सातवीं अनुसूची की तीसरी सूची की पांचवी प्रविष्टि के साथ पढ़ा जाए तो क्वियर यानी एलजीबीटी की शादी को मान्यता और उस पर कानून बनाने का अधिकार संसद और राज्य विधानसभाओं के पास है। उन्होंने यह भी लिखा है कि संविधान के भाग तीन यानी मौलिक अधिकार में क्विअर लोगों सहित सभी को एक साथ रहने का संरक्षण मिला हुआ है। राज्य का दायित्व है कि वह संघ यानी साथ संबंध रखने वाले, बनाने वाले उन सभी की तरह क्विर को भी वही लाभ दे। ऐसा नहीं होने से समलैंगिक जोड़ों पर असमान प्रभाव पड़ेगा जो कि मौजूदा कानूनी व्यवस्था में शादी नहीं कर सकते। इन पंक्तियों को देखने के बाद निश्चित रूप से समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता नहीं मिलने पर प्रसन्न होने वाले पूरी तरह राहत की सांस नहीं ले सकते। मुख्य न्यायाधीश की इन पंक्तियों से अन्य न्यायाधीशों ने भी सहमति जताई है। जिसकी मूल पंक्ति यही है कि अगर स्पेशल मैरिज एक्ट को खत्म कर दिया जाता है तो यह देश को आजादी से पहले के समय में ले जाएगा। अगर न्यायालय दूसरी अप्रोच अपनाता है और इसमें नई बातें जोड़ता है तो वह विधानपालिका का काम करेगा। इस तरह जो नहीं चाहते कि समलैंगिक विवाह को मान्यता दिया जाए उन्हें संगठित होकर सामाजिक, धार्मिक एवं न्यायिक स्तरों पर ज्यादा सक्रिय होना होगा। इसकी लॉबी काफी मजबूत और प्रभावी है। अवधेश कुमार, ई-30 ,गणेश नगर , पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092,  मोबाइल - 9811027208

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

बाल्मीकि के राम: विविध आयाम

डा. मीना शर्मा

जिसमें मन रमे, वो राम
जन जन में बसे, वो राम
तन मन में बसे वो राम
मेरे मन में बसे हैं राम
मेरे जीवन में बसे हैं राम
मृत्यु बाद भी लें जो नाम
ऐसे आराध्य देव हैं राम।
गिलहरी से लेकर वानर तक, निर्धन की झोपड़ी से लेकर सोने की लंका तक, कण-कण तक एक ही नाम है, जय श्रीराम जय श्री राम! जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी । जीवनकाल में राम का नाम सत्य है तो मृत्यु की बेला में भी राम नाम सत्य है, नहीं अन्य कोई नाम, नहीं अन्य कोई देवता का नाम, सिर्फ राम नाम सत्य है।
जीवन और मृत्यृ दोनों ही आयामों में राम और राम नाम का विस्तार है। राम से ही जीवन में निस्तार है। मृत्यु की बेला के आखिरी क्षणों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अकारण नहीं 'हे राम' का नाम लिया था। राम का नाम लेकर ही शरीर त्याग कर जीवन से मुक्ति पाई थी।
क्रौंच पक्षी वध का आत्र्त पुकार सुनकर जो वेदना प्रस्फुटित हुई थी, उसने करुणा के सागर श्रीराम के नाम के उच्चारण ने, करूणा पुकार ने बाल्मीकि से महर्षि बाल्मीकि का जन्म एक आदिकवि को जन्म दिया। रामायणकार को जन्म दिया। स्वयं बाल्मीकि के जीवन को एक नया आयाम एक नया मुकाम दिया। बाल्मीकि से महर्षि बाल्मीकि का यह रूपान्तरण अद्भुत और अविश्वसनीय है।
राम के बाल्मीकि और बाल्मीकि के राम का आयाम ससीम से असीम तक, जन्म से मरण तक, लोक से परलोक तक, मनुष्य लोक से मानवेत्तर लोक तक स्त्री से पुरुष तक, अवर्ण से सवर्ण तक, विचार से आचरण तक, भारत से लेकर पूरे विश्व तक अनंत विस्तार में फैला हुआ है। अपने-अपने राम नहीं, सबके राम हैं। बाल्मीकि के राम की प्रकृति समावेशी है, जिसमें सभी के लिए स्थान एवं स्पेस है।
राम सबके हैं और सब राम का ही है। बाल्मीकि के राम, शबरी के राम हैं, केवट के राम हैं, अहिल्या के राम हैं, गिलहरी के राम हैं, मधुकर के राम हैं, वानर के राम हैं, दीन के राम हैं, हीन के राम हैं, हर होम में राम हैं, रोम-रोम में राम हैं, आरत के राम हैं, भारत के राम हैं। भारत के चरित्र को मर्यादा पुरुषोत्त भगवान श्रीराम से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता है। भारतीय जीवन का चरित्र भगवान श्रीराम के चरित्र से होकर गुजरता है। भारत के राष्ट्रवाद और क्छ। में श्रीराम के जीवन की मर्यादा, आदर्श एवं आचरण शामिल है। राम रसायन भी हैं। राम सेतू भी हैं। सेतू की तरह राम भी सभी को जोड़ते हैं। भारत को राम से छोड़कर नहीं, जोड़कर ही देखा और समझा जा सकता है। जहां गांव की सुबह ही राम-राम जी से शुरू होती है। जहां भोर की पहर राम नाम का पहर होता है। जहां गिनती एक से नहीं, राम से शुरू होती है। ग्रामीण भारत में किसान तौल की गिनती एक से नहीं, राम से शुरु करता है, फिर दो फिर तीन क्रमशः बोलता जाता है। तौलता जाता है।
राम पूरी भारतीयता के प्रतीक हैं। मर्यादित आचरण का आदर्श भारतीय आदर्श मॉडल है । मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों स्तरों पर जो संरचित होता है। जो आचरण के स्तर पर घटित होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मर्यादा का पालन करना सबसे बड़ी चुनौती है, चाहे अत्ता/राजगद्दी को ठोकर मारकर 14 वर्ष का कठिन वनवास को धारण करने की चुनौती ही क्यों न हो। राम अपने पिता के वचन को अस्वीकार भी कर सकते थे, पिता के खिलाफ विद्रोह कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसे कुछ भी नहीं किया। वो भी उस कुर्सी के लिए जिसके लिए महाभारत का युद्ध तक, विश्व युद्ध तक हो जाता है। मुगल शासन में पिता-पुत्र का सत्ता संग्राम सबने देखा है। सत्ता, वैभव, ऐश्वर्य का त्याग की संस्कृति को दुनिया ने यदि श्रीराम के आदर्शों से प्रभावित होकर अपने जीवन में उतार लिया होता, तो कदाचित युद्ध की संस्कृति ही संसार में नहीं होती। कोई देश किसी दूसरे देश को गुलाम बनाता। औपनिवेशिक शासन की संस्कृति, दास प्रथा आदि का दुनिया में अस्तित्व ही नहीं होता। यदि सभी प्राणियों में जीव दयावान के आधार पर एक मानवता का पाठ पढ़ लिया होता, प्रेम का पाठ पढ़ लिया होता जो प्रेम राम ने सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति के आदिवासी शबरी के जूठे बेर खाकर प्रोमाप्लावित होकर दिखाया था। माननीय करूणा और सामाजिक समरसता का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है राम शबरी कथा | भारतीय जीवन में इसे यदि मानवीय मूल्य के रूप में धारण किया जाता तो देश जातिवाद का दंश का खत्मा हो जाता। जब भगवान स्वयं जातीय भेद-भाव नहीं करते थे, तो भक्त भला कैसे कर सकता है? राम के आचरण में कहीं भी वर्णगत कट्टरता और जातिगत संकीर्णता का भाव नहीं है। प्रेम और करुणा मानवीय एकता की माला को एक धागे में पिरोने का काम करता है।
प्रेम की यही सृष्टि व्यापिनी भावना का विस्तार राम के 14 वर्षों के वनवास काल में भी परिलक्षित होता है। जब सीताहरण के पश्चात् राम जंगल में / वन में पशुपक्षी सभी से आत्मीय रूप से हृदयस्थ एकता स्थापित करते हुए पूछते हैं:-
हे खग हे मधुकर श्रेणी
तुम देखी सीता मृगनयनी।
आत्म का विस्तार ही भाव का विस्तार, व्यक्तित्व का विस्तार करती है। इसके अभाव में समस्त ज्ञान धरे के धरे रह जाते हैं। बड़ा बड़ा ज्ञानी भी रावण बन सकता है, अहंकार ग्रस्त हो सकता है और सत्ता के मद में, ऐश्वर्य के नशे में किसी स्त्री का भी हरण कर पशुता मर्यादाओं को तार-तार कर सकता है और मर्यादाविहीन समाज बर्बरता और के स्तर पर भी गिर सकता है और जिसका अंत रावण वध के रूप में रावण और तामसिक प्रवृत्ति के खात्मे के लिए युद्ध के रूप में होता है। राम-रावण युद्ध दो व्यक्तियों की लड़ाई न होकर दो अलग रूचि, दो अलग-अलग दृष्टि, विषम संस्कृति, मानसिकता की प्रतीकात्मक लड़ाई है।
समाज में मर्यादा स्थापित करने के लिए और मर्यादाओं के स्खलन पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भी शस्त्र धारण करना पड़ता है जो अधर्म पर धर्म की जीत है बुराई पर अच्छाई की जीत है। अर्थात् आचरण की मर्यादा ही धर्म है, अच्छाई है। शक्ति को शील से जोड़कर ही समाज में सौन्दर्य स्थापित किया जा सकता है। शक्ति निर्बल की रक्षा और दुर्जनों को दंड देने के लिए होती है। जो समाज की मर्यादा को भंग करते हैं।
रामायण में केवट का प्रसंग भी सामाजिक समरसता की मर्यादा को स्थापित करने के संदेश का मानवीय दृष्टान्त है। मानवीय करूणा और प्रेम की भावना से परिचालित होकर राम सामाजिक रूप से पिछड़े पाद प्रक्षालन करते हैं, उसे गले से लगाते हैं। आत्मप्रसार श्रेष्ठ मानवीय भावभूमि पर इस मिलन में जातिगत कहरता एवं वर्णगत संकीर्णता का समस्त मानवीय दीवारों को गिरा देता है। रामायण का यह करूणा मानवीय प्रसंग समावेशी मर्यादित समरसता का एक आदर्श भारतीय सामाजिक माडल है। भक्ति में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होता है, बड़ा छोटा का कोई अंतर नहीं होता है। जिसके अपने सामाजिक निहितार्थ है । समस्त मानवीयता और भारतीयता के प्रतीक श्रीराम के नाम को, जीवन को, आदर्श के मर्यादा को न अपनाना एक बहुत बड़ा पाखंड है। वैसे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का नाम लेने से कोई कैसे साम्प्रदायिक हो सकता है। और नाम न लेने से धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है? यह विवेक की कसौटी से प्रतिकूल कार्य होगा। और यही कोई छटा सेक्यूलरिज्म के नाम पर बड़े-बड़े प्रगतिशील लेखकों और इतिहासकारों ने किया है। जिनके मरने पर भी उनके परिवार वाले वहीं श्रीराम का नाम लेकर अंतिम संस्कार के समय 'राम नाम सत्य है' के स्वर ध्वनियों के साथ मोक्ष द्वार तक ले जाते हैं।
राम को सिर्फ जाति या धर्म (हिन्दू) से जोड़कर देखना भी संकीर्णता का परिचायक है, जो संकीर्णता राम के जीवन और रामायण में कहीं नहीं दिखाई पड़ती है। यह अत्यन्त विरोधाभासी और पूर्वाग्रह से प्रेरित है। बाल्मीकि के राम दलित विरोधी कैसे हो सकते हैं? बाल्मीकि को मानना और राम को न मानना स्वयं महर्षि बाल्मीकि का अपमान है और उनके संपूर्ण सृजनकार्य, ज्ञान का तिरस्कार एवं अनादर होगा। बाल्मीकि के राम सभी के राम हैं बाल्मीकि से लेकर शबरी के राम, केवट के राम, जन-जन के राम हैं, कण-कण के राम हैं। राम-राम में राम हैं, हर होम के राम हैं।
तथापि धर्म और जाति का चश्मा लगाकर देखने वाले कुछ राह भटके लोग श्रीराम को जाति विशेष और धर्म विशेष से जोड़कर सीमित एवं संकुचित दृष्टिकोण से देखकर मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रति अमर्यादा का प्रदर्शन राजनीतिक निहितार्थों के कारण करते हैं। अभी राममंदिर निर्माण के दौरान कुछ ऐसे ही विद्वान श्रीराम को सवर्णों के भगवान के रूप में स्थापित करते नजर आए। राम को रामायण से एवं रामायण को राम से अलग और रामायण को बाल्मीकि से अलग नहीं किया जा सकता है। यह भगवान श्रीराम और महर्षि बाल्मीकि दोनों का ही अपमान अनादर है। उनके अस्तित्व और उपलब्धि के आगे प्रश्न चिन्ह लगाना एवं मर्यादा का अतिक्रमण कर पाप की श्रेणी तक ले जाने वाला कुकृत्य है। ऐसे परम ज्ञानी बाल्मीकि का अपमान कर स्वयं को किस मुंह से बुद्धिजीवी एवं सेक्युलर कहते हैं, यदि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का नाम लेने में शर्म आती है। जबकि रामायण में रमा भी उदाहरण सामाजिक न्याय और दलित पिछड़ों के विरोधी के रूप में दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत सामाजिक समरसता, मानवीय करूणा, विशुद्ध प्रेम से एक आदर्श एक सामाजिक मानवीय माइल का आदर्श दिखलाई पड़ता है।आदि सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों का मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम से अलग करे नहीं देखा जा सकता है। जब राम स्वयं अलग नहीं हुए तो ये छ सेक्यूलर बुद्धिजीवी राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण कैसे अलग कर सकेत हैं?
राम के प्रेम को शबरी और केवट से अलग किया जा सकता है और न बाल्मीकि को रामायण से एवं राम को बाल्मीकि से और बाल्मीकि को समाज से अलग किया जा सकता है। ये सभी एक ही प्रेम के धागे से एक माला के रूप में एक साथ गूंथे हुए हैं। धागा तोड़ते ही माला के साथ-साथ मर्यादाएं बिखड़ जाएंगी। ये नव्य छुआछूत होगा जो भक्त और भगवान के बीच जाति एवं धर्म की ऊंची दीवार खड़ी करने की साजिश पर आधारित होगी, जहां राजनीतिक पूर्वाग्रह मानवीय सरोकार को अपदस्त करने की ओछी राजनीति करते हुए दिखाई पड़ती है।
बाल्मीकि के रमा के मानवीय प्रेम एवं करूणा के रास्ते में न तो कोई छुआछूत है और ना ही जातिवाद है, फिर भी जातिवाद से स्पाम करना हास्यास्पद है। बौद्धिकता और बाल्मीकि दोनों का उपहास है। बाल्मीकि के रामायण में न ही आभिजात्य और सामान्य लोक के बीच का ही कोई अंतर या दीवार है, बल्कि उस दीवार को गिराकर ईश्वर को सामान्य लोक के बीच प्रतिष्ठित लौकिक प्रेम और मानवीय करुणा के साथ चित्रित किया गया है । बाल्मीकि के राम और शबरी के राम शबरी के जूठे बेर भी प्रेम भाव से खाते हैं और शबरी भी प्रेम भावना से ओत-प्रोत होकर बेच चखती है कि कहीं राम का कोई खट्टा बेर न मिल जाए और स्वाद न खराब हो जाए। बेर के आस्वाद से बड़ी बात प्रेमासवादन की है। यदि राम और शबरी के परस्पर इस प्रेम भावना को ठीक पढ़ लिया जाय, आत्मसात कर लिया जाय तो भारत में करुणा, प्रेम, मानवीयता, सामाजिक मर्यादा, मानवीय नैतिकता के प्रेम की धाप ऐसी प्रवाहित हो जाय जिसमें भारत से तमाम छुआछूतसामाजिक भेदभाव, संकीर्णता आदि सब कुछ बह कर निकल जायेगी बचेगा तो सिर्फ विशुद्ध मानवीय प्रेम और करुणा जो सभी को जोड़ती है, तोड़ती नहीं। राम ने तो इसे शबरी की आंखों में, केवट की आंखों में पढ़ लिया था, अब आवश्यकता है कि तथाकथित हृदय बुद्धिजीवियों और सेक्युलर जमात को पढ़ने की। जिन्होंने श्रीराम के प्रेम का पढ़ा ही नहीं, यदि ऐसा वे करते तो राम को लोक से और लोक को राम से जोड़ते, तोड़ते नहीं और धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं। यही धर्म का मूल स्थिति है मूल आदर्श है। और धर्म की इस मूल भावना की मर्यादा बनी रहे, अक्षुण्ण रहे।
डा. मीना शर्मा

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

शास्त्रीय नृत्य सांस्कृतिक धरोहर: डॉ. संदीप कुमार शर्मा

पुस्तक समीक्षा

इस बार डायमंड बुक्स आपके समक्ष लेकर आया है डॉ. संदीप शर्मा की पुस्तक "शास्त्रीय नृत्य सांस्कृतिक धरोहर "। अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हमारे देश में नृत्य कला का शुभारंभ दक्षिण भारत से हुआ है। जबकि सभ्यता का विकास हिमालय से हुआ। देवभूमि हिमालय को माना जाता है। दक्षिण भारत में महर्षि अगस्त्य के आगमन के उपरांत ही वहां आर्य सभ्यता का विकास हुआ। सभ्य समाज का गठन हुआ। शिक्षा का विस्तार हुआ। जोवन शैली बदली। विचार बदले और बदल गई दक्षिण भारत की दुनिया ।। दक्षिण भारत में तमिलनाडु ने भरतनाट्यम और केरल राज्य ने कथकली एवं मोहिनीअट्टम शास्त्रीय नृत्य को विकसित किया। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश में कुचिपुड़ी नृत्य, ओडिशा में ओडिसी नृत्य, मणिपुर में मणिपुरी नृत्य, असम में सत्रिया यो सतिया नृत्य एवं सत्रिया नृत्य और उत्तर प्रदेश में कत्थक नृत्य विभिन्न काल खंडों में विकसित हुआ। यही कारण है कि आज हमें दो प्रकार के नृत्य देखने को मिलते हैं- लोकनृत्य और शास्त्रीय नृत्य दोनों ही नृत्य विधाओं में गीत, संगीत और वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। नृतः केवल नृत्य है। जिस में शारीरिक मुद्राओं का फलात्मिक प्रदर्शन है किन्तु उन में किसी भाव का होना आवश्यक नहीं यहाँ आज कल का ऐरोबिक नृत्य है। नृत्य में भाव दर्शन की प्रधानता है। जिस में नृत्य का प्रदर्शन करने वाले मुख, पद, हस्त मुद्राओं का प्रयोग कर भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन करता है। नाट्य में वार्तालाप तथा संवाद को भी शामिल किया जाता है। सृष्टि के कल्याण और व्यवस्थित संचालन के लिए परमपिता परमेश्वर द्वारा सृष्टि के प्रारंभ से ही दिए गए ज्ञान के भंडार को वेद कहा जाता है।

नृत्य धरोहर को भी माना जाना चाहिए। निश्चित रूप से शास्त्रीय नृत्य कालांतर में विकसित हुआ लेकिन उससे पहले। लोकनृत्य परिपक्व अवस्था में मिलता है। मैंने पहले लिखा है कि धरोहर केवल पुरातात्विक इमारतों, प्राचीन साहित्य और अन्य कलाकृतियां ही नहीं होतीं अपितु कुछ धरोहर सदैव गतिशील होती हैं। इसके अन्य उदाहरण भी है किन्तु हम विषय विस्तार में न जाते हुए केवल नृत्य कला की बात करेंगे।

आशा करते हैं कि पाठकों को यह पुस्तक शास्त्रीय नृत्य के दृष्टिकोण से बौद्धिक समृद्धि देगी।

अनुभव और भावनाएँ प्रो. पुष्पिता दुकान -

डायमंड बुक्स इस बार सुप्रसिद्ध प्रवासी लेखिका पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक 'अनुभव और अनुभूतियाँ आपके समक्ष लाया है। 'अनुभव और अनुभूतियों' के इस विशेष संचयन में विश्व के सर्वोच्च शांति गुम्बद, अहिंसा, आध्यात्मिकता और वैज्ञानिकता के अंतरसम्बन्धों को लेकर वैचारिक आलेख है तो दूसरी और पुस्तक के ऑतम आलेखों में क्रम से श्रीराम और सीता के वैश्विक महत्त्व को उकरते हुए अंतर्दृष्टि सम्पन्न विशिष्ट आलेख है। इसके साथ ही पाठकों की पुस्तक में विन्यस्त मेरी दृष्टि की सिद्धि का अभिप्राय तब और अधिक सिद्ध हो सकेगा जब वे अन्तिका से प्रकाशित छिन्नमूल उपन्यास (2016) और किताब पर से प्रकाशित 2015 "भारतवंशी भाषा एवम् संस्कृति" अनुसन्धान मूलक पुस्तकें पढ़ेंगे। अहिंसा, श्रीराम और गीता पर केन्द्रित आलेखों को मैंने विश्व के भारतवंशियों की इन शक्तियों के प्रति प्रेम के कारण ही इस पुस्तक में संजोया है। जिससे वे सम्मान और तृप्ति की अनुभूति कर सके श्रीराम और गीता संस्कृति की शक्ति की वजह से हो वे भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों को बचाने में समर्थ हुए हैं। वस्तुतः भारतीयता के मूल सांस्कृतिक बीज मन्त्रों से ही विश्व के भारवंशियों ने अपने चित्त और चेतना में मनुष्यता का जादुई पर्यावरण रथा रखा है जिसको शक्ति को मैं 23 वर्षों से अपनी रूह में अनुभव कर रही हूँ। जिसके परिणाम रचित आलेख हैं। आशा करते हैं यह पुस्तक पाठकों के मन को भाएंगी।

जातीय जनगणना की राजनीति कितनी कारगर

बसंत कुमार

आज देश मे चुनाव नजदीक आते ही जातीय जनगणना की चर्चा बहुत जोरों पर चल रही है हर राजनीतिक दल अपनी सहुलियत् के हिसाब से जातीय जनगणना के पक्ष विपक्ष मे तर्क दे रहा है आइये इस विषय मे संविधान निर्माता डा आंबेडकर के क्या विचार थे। डा आंबेडकर ने 26 अक्टूबर 1947 को इस विषय में इस प्रकार अपनी राय व्यक्त की, "भारत की जनगणना कई दशकों से जनसांख्यिकी में एक आपरेशन बन कर रह गई है। यह एक राजनीतिक मामला बन गया है ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक समुदाय अधिक से अधिक राजनीतिक शक्ति अपने हाथ मे लेने के लिए किसी अन्य समुदाय की कीमत पर कृतिम रूप से अपनी संख्या अधिक होने का प्रयास कर रहा है। ऐसा लगता है अन्य समुदायों की अधिक लालच की संतुष्टि के लिए अनुसूचित जातियों को एक आम शिकार बनाया गया है जो अपने प्रचार को गणनाकारों के माध्यम से जनगणना के संचालन और परिणामों को नियंत्रित करने मे सक्षम है।" इस समय चारो ओर से मांग उठ रही है कि इस बार की जनगणना जाति बार पर आधारित हो! देश मे जातीय ज नगड़ना1931 मे हुई थी। उसके बाद सरकारो ने जातीय जनगणना को नजर अंदाज किया और विभिन्न समुदायों की सटीक जनसंख्या जाने बिना विभिन्न समुदायों के कल्याण के लिए नीतियां बनाती जा रही है जो गलत है।

पहली जाति जनगणना 1871 में ब्रिटिश शासन के दौरान की गई थी जिसके परिणाम 1972 मे घोषित हुए और इस कब्जे वाले या नियंत्रित सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया था, उस समय से 1931 तक ब्रिटिश सरकार द्वारा जाति जनगणना नियमित तौर पर की जाती रही और हर कोई जनता था कि समाज में विभिन्न जातियों का प्रतिशत क्या है। सन् 1941 मे जनगणना तो हुई पर दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो जाने के कारण जनगणना के आकड़े जारी नही हो पाए।

देश आजाद होने के पश्चात स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना 1951 मे होनी थी लेकिन नेताओ ने तर्क दिया कि भारत अब स्वतंत्र हो गया है और आधुनिक दुनिया और लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है इसलिए जाति जनगणना की कोई अवश्यकता नही है और जनगणना अधिनियम 1948 लागू हुआ और स्वतंत्रता के बाद की जनगणनाएं इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार लागू की गयी और कहा गया की भारत मे अब जातिया अप्रासंगिक हो जायेगी और विभाजन पैदा करने वाली जनगड़ना 1951 मे नही की जायेगी बस एससी/एसटी जनगणना जारी रहेगी क्योंकि उनको आरक्षण देने के प्रावधान थे। देश की राजनीति की यह सबसे बड़ी भूल थी क्योकि देश मे आज भी आदमी की पहचान जाति से होती है और हर भारतीय के गुण या प्रतिभा का मूल्यांकन इस बात पर निर्भर करता है की वह किस जाति मे पैदा हुआ है।

देश में ओबीसी जातियों का कोई आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण और उनके प्रतिनिधित्व की मांग दिन ब दिन बढ़ने के कारण 1979 मे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान करने के लिए मण्डल आयोग की स्थापना की गई। मण्डल आयोग ने ओबीसी की जनसंख्या का प्रतिशत जानने के लिए 1931 के आंकड़ो और कुछ नमूना सर्वेक्षणों का प्रयोग किया और मण्डल आयोग ने सिफारिश की कि ओबीसी के बेहतर विकाश के लिए जाति जनगणना जल्द से जल्द करायी जाए इसके पीछे यह तर्क था कि संशधनो पर सबसे अधिक सवर्णो का कब्जा है और जाति के असली आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये जाते, वर्ष 1991 मे मण्डल आयोग की सिफारिशे लागू की गयी और निर्णय लिया गया कि, 2001 की जनगणना के साथ जातीय जनगणना कराई जाए, क्योंकि जाति जनगणना से यह पता लग जायेगा कि कौन-सा जाति समूह किसका हिस्सा खा रहा है जैसा कि डाॅ. आंबेडकर ने कहा था कि पिछड़ी व वंचित जातिया भ्रामक जनसंख्या का शिकार हो रही है इसलिए देश मे निष्पक्ष जातीय जनगणना कराई जानी चाहिए। उन्होंने संविधान सभा मे कहा था की 26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोध से भरे एक जीवन में प्रवेश करने जा रहे है राजनीति मे हमारे पास समानता होगी जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन असमानता से भरा होगा राज नीति मे हम एक मनुष्य एक वोट के सिद्धांत पर चल रहे है पर अपने सामाजिक और राजनीतिक सोच के चलते जीवन मे एक मनुष्य- एक मूल्य के सिद्धांत का अनुसरण नहीं कर पाएंगे। आजाद भारत मे सरकार ने काका कालेलकर कमेटी और मण्डल आयोग का गठन किया पर इसकी रिपोर्ट आने के बाद कांग्रेस दशकों तक इस पर बैठी रही और इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया पर, 1990 में वीपी सिंह ने इसे लागू कर ओबीसी के 27% आरक्षण का मार्ग प्रसस्थ किया, यह बाबा साहब का ही करिश्मा था कि कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल 'जितनी जितनी है आबादी उतनी उसकी हिस्सेदारी' का नारा लगाकर जातिगत जनगणना का समर्थन कर रहे है।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जातिगत
जनगणना से जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा दूसरी ओर डाॅ. आंबेडकर का कहना था कि जाति अव्यवस्थित है और इससे हिंदू समाज हतोत्साहित होता है और उन्होंने पिछड़ों और वंचितो को जनसंख्या के अनुरूप हिस्सा मिले सदैव इसका समर्थन किया। जब समाज में व्यक्ति अपनी जाति से जाना जाता है तो देश मे किस जाति की कितनी आबादी है यह जानने में हर्ज ही क्या है या तो हम एक जाति विहीन समाज की स्थापना करे या पारदर्शी तरीके से जाति पर आधारित जनगणना होने दे क्योकि ढुलमुल तरीका अपनाने से सामाजिक ताना बाना  नष्ट हो जायेगा।
आज लोकसभा या विधानसभा चुनावों में टिकट देते समय हर राजनीतिक दल टिकट मांगने वालों से उसकी जाति और अपने निर्वाचन क्षेत्र मे प्रत्येक जाति की जनसंख्या पूछती है और हर टिकट मांगने वाला अपने पक्ष के हिसाब से फर्जी आंकड़े पेश करता है जबकि सबको पता है देश में 1931 के बाद कोई जाति की
जनगणना हुई ही नहीं, ऐसे मे बेहतर है कि जाति की जनगणना करा कर इस फर्जी वाड़े से बचा जाए, जब हर पार्टी चुनाव जीतने के लिए जाति जाति खेल रही है तो जाति की जनगड़ना का विरोध का ढोंग क्याें। देश एवं सरकार को फैसला करना होगा कि एक जाति विहीन समाज की स्थापना की जाये या फिर जाति की जनगणना करा कर जिसकी जितनी हो आवादी उसकी उतनी हिस्सेदारी के आधार पर संसाधनों का वितरण करे, वैसे डा अम्बेडकर जाति प्रथा को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप माना था और उसे दूर करने के लिए जीवन पर्यंत प्रयास करते रहे!
(लेखक राष्ट्रवादी विचारधारा के लेखक है और भारत सरकार के पूर्व उप सचिव हैं।)

बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

हमास की पराजय से ही विश्व होगा सुरक्षित

अवधेश कुमार

हाल के वर्षों में इस तरह का युद्ध नहीं देखा गया और न ऐसी बर्बरता सामने आई। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक 500 के आसपास बच्चे और 300 के लगभग महिलाएं हमास इजरायल युद्ध में मारे जा चुके हैं। हमास ने बर्बरता की सीमा को किस तरह पार किया इसके कई उदाहरण सामने आ गए हैं। एक इजरायली यहूदी गर्भवती महिला का पेट काट कर पहले उसके बच्चे को निकाला गया फिर उसे मारा गया तथा बाद में उस औरत को भी। सभ्य सैनिकों का समूह इस तरह की बर्बरता नहीं कर सकता। संपूर्ण विश्व आहत है। इजरायल और गाजा पट्टी की सीमा पर आयोजित संगीत महोत्सव में जुटे लोगों पर आतंकवादियों ने हमला किया, इस्लामी नारे लगाए ,महिलाओं को नग्न कर सड़कों पर घुमाया, दुष्कर्म किया, छोटे-छोटे बच्चों के सिर में गोलियां मारी गई, उसके बाद उनके प्रति किसी की भी सहानुभूति नहीं हो सकती। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार, उनकी हत्या और मृत्यु के बाद भी बलात्कार के वीडियो आए हैं। एक कमरे में 15 लड़कियों को बंद कर उसे उड़ा दिया गया। बर्बरता की ऐसी अनेक कहानियां अभी तक इस युद्ध ने हमारे सामने लाईं हैं जिनकी कल्पना से ही दिल दहल जाता है। आगे युद्ध समाप्त होने के बाद या उसके बीच भी ऐसी अनेक घटनाएं सामने आएंगी जो हमको आपको अंदर से पूरी तरह हिला कर रख देगा। आश्चर्य की बात है कि कुछ देशों द्वारा और यहां तक कि भारत के अंदर भी हमास के प्रति सार्वजनिक सहानुभूति तथा इजराइल का विरोध किया जा रहा है। 

वास्तव में कुछ देशों और समूहों की ओर से इसे संपूर्ण इस्लाम की लड़ाई बनाने की कोशिश हो रही है। आखिर सीरिया और लेबनान की ओर से भी हमास के समर्थन में इजरायल पर हमले किए गए। ईरान भी हमास का समर्थन करता है तथा जो सूचना है ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी स्वयं अरब देशों के नेताओं से बातचीत कर रहे हैं। हालांकि दो प्रमुख देश संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब हमास के साथ नहीं है। हमास ने इसके विरुद्ध भी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उसने कहा है कि जो मुस्लिम देश इजरायल के साथ संबंध बढ़ा रहे हैं उनके लिए भी हमारा हमला एक संदेश है। इजरायल ने अपने पूर्व चरित्र के अनुभव हमास और उसके समर्थकों के विरुद्ध शत- प्रतिशत दृढ़ संकल्प प्रदर्शित किया है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहु ने कहा कि अब सारे हमास के आतंकवादी मृतक हैं। जिस तरह इस्लामिक स्टेट आईएस को कुचल दिया गया उसी तरह से हम इसको भी कुचल देंगे। जिस तरह का सघन हमला गाजा पट्टी पर हुआ है , वहां की पूरी आपूर्ति श्रृंखला काट दी गई है वैसे ही रहा तो इजरायल की सफलता निश्चित है। हालांकि दुनिया भर से छाती पीटने वाले गाजा पट्टी की घेरेबंदी के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं पर इजरायल ने स्पष्ट कर दिया है कि जब तक बंधक रिहा नहीं किए जाते न बिजली का एक स्विच ऑन किया जाएगा, न पानी का नल खोला जाएगा, न ही ईंधन का एक ट्रक गाजा में दाखिल होगा। उम्मीद करनी चाहिए कि इजरायल अपने संकल्प पर अडिग रहेगा। हमास के आतंकवादी मारे जाएं या आत्मसमर्पण करें यही दो विकल्प उनके सामने होना चाहिए।


हमास ने 7 अक्टूबर को जिस तरह 5000 से ज्यादा रॉकेट इजरायल पर दागे उसकी कल्पना किसी को नहीं थी। इजरायल की खुफिया एजेंसी मोसाद तथा उसकी सुरक्षा व्यवस्था खासकर सीमाओं पर आयरन डोम एअर डिफेंस सिस्टम का विश्व लोहा मानता था। इतने बड़े हमले की पूर्व सूचना न मिलना निश्चित रूप से इजरायल के लिए शर्मसार होने का विषय है। इजरायली सेना के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हर्जी हलेवी ने इसे स्वीकार किया और कहा कि इजरायली डिफेंस फोर्स यानी आईडीएफ देश और इसके नागरिकों की रक्षा के लिए जिम्मेवार है और शनिवार सुबह गाजा के आसपास के क्षेत्र में हम इस पर खरे नहीं उतरे। हम इससे सीखेंगे, जांच करेंगे लेकिन अभी युद्ध का समय है। वास्तव में संपूर्ण इजरायल एक साथ खड़ा हो गया है। युद्ध के साथ वहां नेशनल यूनिटी सरकार गठित हो गई जिसमें सत्तारूढ़ और विपक्ष सभी शामिल हैं। इजरायल में बेंजामिन नेतान्याहू के विरोधियों की बड़ी संख्या है और इस कारण हम वहां लंबे समय से राजनीतिक अस्थिरता देख रहे हैं।  लेकिन हमास को खत्म करने को लेकर संपूर्ण एकता कायम हो चुकी है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का वहां पहुंचकर समर्थन दोहराना बताता है कि इजरायल को अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों का हर तरह का समर्थन, सहयोग और मदद हासिल है। ब्लिंकन ने कहा कि हम जानते हैं कि आपके पास अपनी रक्षा की पूरी क्षमता है लेकिन हमारे रहने तक आपको इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उसके बाद अमेरिकी रक्षा मंत्री वहां पहुंचे और राष्ट्रपति जो बिडेन भी जाने वाले हैं।

  हमारा विश्व इस समय कई दृष्टियों से खतरनाक स्थिति में है। हमास जैसे आतंकवादी संगठनों के पक्ष में अगर देश व समूह खड़े हैं तो कल्पना किया जा सकता है कि एक बड़े वर्ग की सोच कैसी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमले के बाद इसे आतंकवादी घटना करार देते हुए इजरायल का समर्थन व्यक्त किया जो हमारे देश के अंदर ही बहुत लोगों के गले नहीं उतरा जबकि हम स्वयं आतंकवाद का दंश लंबे समय से झेल रहे हैं। विरोधी यह भूल गए कि हमास फिलीस्तीन मुक्ति संगठन का भी विरोध करता है तथा राष्ट्रपति अब्बासी तक को अवैध करार दे चुका है। भारत की फिलिस्तीन मामले पर न नीति बदली है न बदलेगी। भारत की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि हम हमेशा से बातचीत के माध्यम से सुरक्षित और वैध सीमाओं के भीतर एक संप्रभु, स्वतंत्र और व्यावहारिक फिलिस्तीन राज्य की स्थापना का समर्थन करते हैं। नरेंद्र मोदी भारत के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने इजरायल और फिलिस्तीन दोनों की यात्रा की। इसलिए किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि युद्ध में इजरायल के समर्थन देने का अर्थ फिलिस्तीन राज्य का विरोध है। आतंकवादी संगठन मजहबी सोच और हिंसा के बल पर राज्य पर कब्जा करें, दूसरे राज्य को मजहबी आधार पर भयभीत कर उसे नष्ट करने की कसमें खायें तो उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। हमास के प्रवक्ता ने बार-बार कहा है कि उसका लक्ष्य यहूदियों और यहूदी राज्य का नाश है। हमास ने तो एक बार धरती से यहूदियों और ईसाइयों दोनों के खत्म करने तक की बात कर दी। 

 1967 के युद्ध के समय भी इजरायली एजेंसियों को अरब देशों के चारों ओर से किए हमले की जानकारी नहीं मिल सकी थी।  उसने सामना किया और सफलता पाई। कुछ अरब देशों के अंदर इसकी टीस आज तक बनी हुई है। आश्चर्य की बात है कि इस क्षेत्र में इजरायल के सारे मित्र देशों की खुफियां एजेंसियां भी सक्रिय रहती हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने कहा है कि हिटलर के समय यहूदियों के नरसंहार के बाद यह उस तरह की दूसरी घटना है। यह सच भी है , क्योंकि इतनी संख्या में यहूदी उसके बाद कभी इस तरह नहीं मारे गए। किंतु इस मामले में जो बिडेन की नीति प्रश्नों के घेरे में है। ऐसा लगता है कि लेबनान, सीरिया, फिलिस्तीन,  कतर और ईरान में इस हमले की योजना बनी और वहीं से इन्हें समर्थन भी मिला। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी ने आरोप लगाया है कि हमास ने इस हमले में उस छह अरब डॉलर की राशि का उपयोग किया है जिसे जो बिडेन प्रशासन द्वारा ईरान पर प्रतिबंधों में ढील दिए जाने के कारण जारी किया गया। अमेरिका की नीति समझ में नहीं आई जब उसने ईरान पर प्रतिबंधों में तब ढील दी जब वह यूक्रेन युद्ध में रूस को ड्रोन दे रहा है। हमास के ज्यादातर नेता कतर में रह रहे हैं जो उस क्षेत्र में अमेरिका का दोस्त है। कतार में अमेरिका का पश्चिम एशिया का सबसे बड़ा सैन्य अड्डा है। तो अमेरिकी नीति पर निश्चित रूप से प्रश्न उठेगा किंतु उनके सामने इजरायल को बचाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस घटना ने साफ कर दिया है कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध से पीछे लौटकर अमेरिका ने संपूर्ण विश्व को खतरे में डाल दिया। इससे विश्व भर के आतंकवादी संगठनों का हौसला बढ़ा और हमास के हमले पर जगह-जगह उत्सव मनाते देखे जा रहे हैं। युद्ध में इजरायल की विजय संपूर्ण विश्व की सुरक्षा और शांति के लिए अपरिहार्य है। इससे इस्लामी कट्टरपंथ और आतंकवाद कमजोर होगा।  केवल भारत, इजरायल और पश्चिमी देशों के लिए ही नहीं, कई अरब देशों के लिए भी जरूरी है। मिस्र, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश हैं जहां इजरायल के सफल न होने पर इस्लामी कट्टरपंथी बड़े खतरे बन जाएंगे। इसलिए भारत ने बिना लाग लपेट समर्थन व्यक्त कर विश्व शांति और सुरक्षा की दृष्टि से सही फैसला किया।

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