शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

मोदी की अमेरिका यात्रा को सफल मानना ही होगा

अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक साथ होेने की जितनी भी तस्वीरें या विजुअल्स हैं उनमें प्रत्येक में स्वाभाविक गर्मजोशी, आपसी बातचीत की सहजता तथा एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव देखा जा सकता है। कूटनीति में चेहरे के हाव भाव सब कुछ बयान कर देते हैं। सच कहें तो पांच दिनों के अमेरिकी प्रवास, जिनमें दो दिनों की अमेरिका की राजकीय यात्रा शामिल थी, में ऐसा कोई क्षण नहीं होगा जिसे हम यह कह सकें कि यह ठीक नहीं था। प्रधानमंत्री का पूरा कार्यक्रम जितना सोचा गया होगा उससे कई मायनों में बेहतर ही हुआ। न्यूयॉर्क हवाई अड्डे पर उतरने से लेकर संयुक्त राष्ट्संघ का भाषण, युवाओं के कर्न्स्ट में भाषण, मेडिसन स्क्वायर का सबसे प्रचारित और प्रभावी कार्यक्रम....नेताओं और प्रमुख कारोबारियों से मुलाकात......सब एकदम सहज सामान्य रुप से पूरे होते गए। प्रवासी भारतीयों में जिस तरह का उत्साह देखा गया वैसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। उनलोंगों ने जहां जहां मोदी गए एक प्रकार के उत्सव जैसे माहौल में परिणत कर दिया। निश्चय ही इसका असर अमेरिकी नागरिकों, वहां के रणनीतिकारों पर पड़ा होगा। आप अपने लोगों के बीच कितने लोकप्रिय हैं, वे आपको लेकर कितने उत्साहित हैं, इसका मनोवैज्ञानिक असर कूटनीति और द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ता ही है।
यहां हम मुख्यतया प्रधानमंत्री की अधिकृत दो दिवसीय अमेरिका की राजकीय यात्रा पर केन्द्रित करेंगे। शुरुआत करते हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक पर मोदी एवं ओबामा के एक साथ जाने से। वह एक असाधारण और अस्वाभाविक दृश्य था। दोनों के बीच जिस तरह सामान्य बातचीत देखी गई वह उत्साहवर्धक था। अमेरिकी राष्ट्पति ओबामा का स्वयं मोदी के साथ वहां तक जाना एवं उनके साथ अकेले समय बिताना असाधारण है। यह पहली बार हुआ कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने किसी भारतीय नेता को स्वयं एस्कोर्ट किया। दोनों जिस तरह बातचीत कर रहे थे उनके शरीर के हाव भाव एकदम सामान्य एवं हसंमुख चेहरे अपने आप बहुत कुछ संदेश दे रहे थे। लगता था कि दोनों के मानसिक वेब लेंथ मिल रहे हैं। साथ में कोई अनुवादक नहीं।  ओबामा ज्यादा से ज्यादा समय मोदी के साथ बिता रहे थे और खूब बातचीत कर रहे थे। ओबामा भी मुस्करा रहे थे, सामान्य थे, मोदी भी मुस्करा रहे थे सामान्य थे। मोदी उनसे पूछ रहे थे और ओबामा उन्हें जानकारियां दे रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि संबंधों के रास्ते जमी हुई बर्फ पिघली है। दोनांे नेताओं के बीच इस तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि आगे भी उनके बीच संवाद होता रहेगा।
पूर्व कार्यक्रम के अनुसार मोदी को किंग के स्मारक पर सुबह आना था, लेकिन बाद में यह बदल गया। ओबामा ने ही हस्तक्षेप करके इसे बदलवाया ताकि वो भी रह सकें। ओबामा संबंधों पर पड़े हुए बर्फ पिघलाने में माहिर हैं और मोदी ने कूटनीति की ऐसी शैली विकसित की है, जिसमें पुरानी औपचारिकतायें, शब्दावलियां हाव-भाव सब बदल रहे हैै। ओबामा को बातचीत के बाद उन्हें लगा कि यह आदमी खरी-खरी मुद्दों पर बात करता है, इसलिए इसके साथ कार्य व्यवहार किया जा सकता है। दोनों नेताओं की संयुक्त पत्रकार वार्ता की यकीन मानिए पूरी दुनिया के सभी प्रमुख देशों को प्रतीक्षा रही होगी।  संयुक्त पत्रकार वार्ता बिल्कुल समानता का परिचय दे रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे विश्व की दो बड़ी शक्तियां आपसी द्विपक्षीय संबंधांे के साथ पूरी दुनिया की समस्याओं पर विचार कर रहीं हैं एवं एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर हैं। मोदी ने अपने बयान में दक्षिण एशिया से लेकर, एशिया प्रशांत, पश्चिम एशिया, अफ्रिका, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, वैश्विक आतंकवाद एवं उसके विरुद्ध युद्ध, विश्व व्यापार संगठन...सहित सारे मुद्दों की चर्चा की। इस प्रकार की बातचीत दो महाशक्तियों के बीच होती थी। यानी ओबामा से बातचीत में मोदी ने जता दिया कि भारत अब अपने साथ-साथ फिर से वैश्विक सोच की ओर अग्रसर हो चुका है। अमेरिकी विश्लेषक टेलीविजन चैनल पर कह रहे हैं कि मोदी एक वरदानसंपन्न राजनेता हैं। वे कह रहे हैं कि मोदी ने अमेरिकी लोगों, यहां की मीडिया, अकादमिशियन, राजनयिक, नेताओं, कारोबारियों....सब पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।
लंबे समय बाद ऐसा हुआ है जब एक-एक विषय पर खुलकर बातचीत हुई। जो साझा वक्तव्य जारी हुआ, दोनों नेताओं ने अखबार यानी वाशिंगटन पोस्ट में संयुक्त लेख लिखने का जो ऐतिहासिक कार्य किया, और बाद में जो सुयक्त पत्रकार वार्ता हुई उन सबसे यह साफ हो गया कि संबंधों का पूरा रोड मैप यानी आगे का नक्शा तैयार हो चुका है, विन्दु सारे उतने स्पष्ट हो चुके हैं जो पहले नहीं थे और आगे इस पर काम करना है। यह गंभीर संबंधों के लिए बातचीत की गंभीरता को दर्शाता है। मोदी ने कहा कि  ओबामा से हुई बातचीत से विश्वास दृढ हो गया है कि दोनों देशाों के बीच सामरिक साझेदारी स्वाभाविक है जो हमारे हितों, साझा मूल्यों पर आधारित हैं। इसमें रक्षा संबंध, आतंकवाद, अफगानिस्तान, नागरिक नाभिकीय साझेदारी, व्यापार, विश्व व्यापार संगठन, जलवायु परिवर्तन....इबोला संकट.....आदि एक-एक पहलू पर बात हुई।
ओबामा ने अपनी चिंता जताई कि भारत से उनको कहां कहां समस्या है तो मोदी ने उसका संज्ञान लेते हुए उसे दूर करने का वचन दिया लेकिन साथ में अपनी चिंता भी जता दी। मसलन, ओबामा ने कहा कि हम भारत से व्यापार को आसान बनाने की उम्मीद करते हैं तथा विश्व व्यापार संगठन में रुख के बदलाव की भी तो मोदी ने कहा कि व्यापार को आसान करने पर हम सहमत हें, जो भी बाधा डालने वाले नियम कानून हैं उसे बदलेंगे, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन अमेरिका को भी हमारी चिताओं को समझना होगा। तो कैान सी चिंता? हमारे यहां खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल निकालना होगा, अन्यथा विश्व व्यापार संगठन में कृषि मुद्दे पर हम साथ नहीं दे पाएंगे। एकदम दो टूक कि आप खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल कर दीजिए हम उसे स्वीकार करने को तैयार हैं। तो इस तरह गेंद अमेरिका के पाले में डाल दिया है। दूसरे, मोदी ने कहा कि अमेरिका भी ऐसे कदम उठाए जिससे हमारे देश की सेवा देने वाली कंपनियोें के लिए यहां काम करना आसान हो जाए।
मोदी ने लूक ईस्ट एवं लिंक वेस्ट को भारत की विदेश नीति का अभिन्न अंग बताकर यह संदेश दिया कि वह एशिया की ओर देखने की नीति पर चलने के साथ पश्चिम को जोड़ने या एशिया और पश्चिम के बीच पुल का काम करने की भूमिका निभाना चाहते हैं। हम जानते हैं कि मोदी का मुख्य मिशन निवेश के लिए अमेरिकी कंपनियों को आमंत्रित करना था, उन्होंने किया, रक्षा कंपनियों को भारत में आकर कारखाने लगाने का आमंत्रण दिया और उसके रास्ते की बाधाओं को खत्म करने का आश्वासन। वैसे भी मोदी अमेरिका जाने के पहले अपना मेक इन इंडिया कार्यक्रम का उद्घाटन करके गये थे ताकि निवेशकों को यह विश्वास हो कि भारत के व्यवहार में अब व्यवसाय आ गया है।
इन सबके परिणाम क्या होंगे यह आने वाले दिनों में ही पता चलेगा, लेकिन अमेरिकी कंपनियों की दिलचस्पी बढ़ी है यह साफ है। ध्यान रखिए कि अमेरिका आज भी हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। करीब 100 अरब डॉलर का व्यापार हमारा है और यह चीन से भारी घाटे के विपरीत भारत के पक्ष में हैं। अमेरिका को संदेह की दृष्टि से देखने वाले इस पक्ष की अनदेखी करते हैं। मोदी ने स्वयं विदेश नीति परिषद के भाषण में कहा कि व्यापार का जो मसला है वह लाभ हानि पर चलता है। आपको लाभ होगा आप व्यापार करेंगे, हमें लाभ दिखेगा तो हम करेंगे। यानी उनके दिमाग में यह बात साफ है कि कोई भी निवेशक यहां सेवा करने नहीं आएगा, वह व्यापार करने और मुनाफा कमाने आएगा, लेकिन हमारा हित उसी में है कि हमारे यहां रोजगार मिले, वस्तुओं का उत्पादन हो जिससे खजाने में कर बढ़े, बैंक गतिशील हों....यही तो बाजार पूंजीवाद में विकास का चक्र है।
वैसे रक्षा संबंधों को 10 वर्ष आगे बढ़ना स्वाभाविक था। आखिर 30 सितंबर को ही तो भारत अमेरिकी सैन्य अभ्यास खत्म हुआ। लेकिन इसमें मूल बात तकनीकों के हस्तातरण तथा रक्षा अभ्यास को और व्यापक करने का है। भारत की नीति अब रक्षा खरीद के साथ तकनीके लेना भी है जिससे अमेरिका बचता है। मोदी के साफ करने के बाद शायद अंतर आए। इसी तरह आतंकवाद के मामले पर हमने साथ देने का वायदा किया है, पर युद्ध में कूदने का नहीं, अफगानिस्तान में भी सुरक्षा से ज्यादा विकास केन्द्रित सहयोग की बात मोदी ने रखी जिसे अमेरिका ने स्वीकार किया है। यहां इन सबमें विस्तार से जाना संभव नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि नरेन्द्र मोदी की अमेरिकी कूटनीति, जापान, ब्रिक्स, नेपाल और भूटान की तरह ही सफल मानी जाएगी। ओबामा के सामने मोदी जब भी हैं एकदम आंखों में आखें मिलाते एवं मुस्कराते हुए। नेता की यह भंगिमा सामने वाले को प्रभावित करती है। जाहिर है, अमेरिका के साथ संबंधों में हम एक नए दौर की उम्मीद कर सकते हैं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
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