गुरुवार, 10 जनवरी 2019

प्रधानमंत्री के साक्षात्कार में प्रश्नों पर विवाद उचित नहीं

 अवधेश कुमार

वर्ष 2019 के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यदि एक एजेंसी को 95 मिनट का लंबा साक्षात्कार देते हैं तो निश्चित रूप से उसका राजनीतिक उद्देश्य होगा। वैसे भी प्रधानमंत्री यदि देश के नाम संदेश देते तो वह भी इसी तरह सभी चैनलांे पर लाइव दिखाया जाता और चैनलों पर बहस के अलावा सामचार पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटांें पर भी उस पर टिप्पणियां आतीं। जाहिर है, प्रधानमंत्री भाषण की जगह साक्षात्कार के रुप में अपनी बात कहना चाहते थे। एजेंसी को साक्षात्कार देने का हेतु यही था कि वह सभी चैनलों पर चले। इसमें उन्होंने लगभग उन प्रश्नों का तो उत्तर दिया ही जो विपक्ष की ओर से उन पर एवं उनकी सरकार पर उठाए जाते रहे हैं, अपने संगठन परिवार को भी अयोध्या में राममंदिर मुद्दे पर संकेत देने की कोशिश की। इसमें बहुत सारे प्रश्न और उत्तर वही थे जो हम प्रधानमंत्री के मुंह से पहले भी सुन चुके हैं। बावजूद इसके देश के सामने एक साथ उन सबको रखना राजनीति के लिए जरुरी था। किंतु इस समय पूरे साक्षात्कार को ही विवादास्पद और स्टेज मैनेज्ड बताने की मुहिम चल रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने साक्षाकार लेने वाली पत्रकार को कठघरे में खड़ा करते हुए उसे अंग्रेजी में प्लायबल यानी आज्ञाकारी करार दे दिया। राहुल ने यह भी कह दिया कि वो प्रश्न पूछ रही थी और जवाब भी स्वयं दे रही थी। देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी के अध्यक्ष का एक पत्रकार के बारे ऐसा बोलना अनुचित और अस्वीकार्य था।

यह ठीक है कि कई जगह पत्रकार को जितनी मर्यादित आक्रामकता प्रदर्शित करनी चाहिए थी उतनी वह नहीं कर पाईं। कई काउंटर प्रश्न पूछे जा सकते थे जो उन्होंने नहीं पूछा। किंतु हर पत्रकार का अपना तरीका होता है। वैसे राहुल गांधी एवं अन्य आलोचकों को कुछ बातें पता होनी चाहिए। यूपीए सरकार में भी आप किसी मंत्री से साक्षात्कार के लिए समय मांगते तो उनके सहायक का फोन आ जाता था कि प्रश्न बनाकर मेल कर दीजिए। इस सरकार में भी कुछ मंत्री ऐसा करते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो साक्षात्कार उस दौरान दिए उसमें भी ऐसा ही हुआ था। हालांकि ऐसे कुछ पत्रकार तब भी थे और आज भी हैं जो साक्षात्कार के बीच कुछ प्रतिप्रश्न या दूसरे प्रश्न भी पूछ लेते थे और पूछते हैं। सोनिया गांधी के दो साक्षात्कार मुझे याद हैं जिनमें राजनीति और सरकार पर कोई प्रश्न पूछा नहीं गया। उनसे सास इंदिरा गाधी से संबंधों, उनके खानपान, परिवार के रिश्ते जैसे प्रश्न पूछे गए। सरकार के किसी निर्णय या अन्य घटना पर साक्षात्कार या पत्रकार वार्ता की जगह उनका बयान आ जाता था और वह मीडिया की सुर्खियां बनता था। पूरे दस वर्ष ऐसे ही चला। सोनिया गांधी की चर्चा इसलिए क्योंकि वो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष थीं जिनके सुझाव यूपीए सरकार के लिए आदेश के समान होते थे। प्रधानमंत्री न होते हुए भी वो सुपर प्रधानमंत्री की भूमिका में थीं। राहुल के एक साक्षात्कार में तो उनके पेट का हालचाल तथा खानपान पूछा गया। तब उन पत्रकारों पर कोई प्रश्न नहीं उठा।

नरेन्द्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री पत्रकार वार्ता नहीं की। मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल में पांच पत्रकार वार्तायें की थीं। मोदी को पत्रकार वार्ता करनी चाहिए थी। पता नहीं क्यों वो पत्रकार वार्ता से बच रहे है। गुजरात में राष्ट्रीय चैनलों और प्रिंट के पत्रकारों के साथ उनका कड़ाव अनुभव शायद आड़े है। इससे उन्हें बाहर आना चाहिए था। किंतु जरा पत्रकार वार्ताओं का भी सच जान लीजिए। मनमोहन सिंह के हर पत्रकार वार्ता के पहले मीडिया संस्थानों से पत्रकारों के और उनके प्रश्न मंगाए जाते थे। प्रधानमंत्री कार्यालय उन प्रश्नों में से चयन करता था और उनके अनुसर पत्रकारों का क्रम निर्धारित होता था। पत्रकार का नाम लिया जाता था और उसके अनुसार प्रश्न आता था। हालांकि दो-चार अतिरिक्त प्रश्न भी हो जाते थे। या कोई पत्रकार अपने मूल प्रश्न में एकाध प्रश्न जोड़ देता था। हमने ऐसे दृश्य देखे जब एकाध असुविधाजनक प्रश्न पर मनमोहन सिंह को कठिनाई हुई तो उनके साथ बैठे मीडिया सलाहकार या दूसरे अधिकारी ने इस पर नाखुशी जाहिर की और प्रश्न को टालकर दूसरे का नाम ले लिया। मोदी सरकार में भी कई मंत्रियों की पत्रकार वार्ता में नाम और प्रश्न मांग लिए जाते हैं। हां, मंत्री जी की कृपा से कुछ ऐसे पत्रकारों को भी प्रश्न पूछने की अनुमति मिल जाती है जो सूचि में नहीं हैं। यह एक विकृत और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति है। किंतु इसके विरोध में मीडिया संस्थानों एवं पत्रकारों को ही खड़ा होना पड़ेगा।  क्या हम ये नहीं कह सकते कि पत्रकार वार्ता करनी है तो हमें प्रश्न पूछने की पूरी आजादी होनी चाहिए? 

इस समय ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो मोदी के साथ सब कुछ पूर्व लिखित पटकथा के अनुसार ही मंचित होता है। यह गलत आरोप है। मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में कई साक्षात्कार दिए हैं जिनमें ऐसे प्रश्न भी पूछे गए जो वाकई पत्रकार के मन से तत्क्षण निकले थे। अधिकतर टीवी संस्थानों से लेकर प्रिंट के प्रमुख अखबारों से उन्होंने बातचीत की है। उन्होंने कई अखबारों को ईमेल प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। हम यह मान लें कि जिनने मोदी का साक्षात्कार लिया सब सत्ता के सामने झुके हुए या मोदी की चापलूसी करने वाले पत्रकार थे तो इसका कोई तार्किक जवाब देने की आवश्यकता नहीं। किसी पत्रकार का नाम लेना उचित नहीं, अन्यथा इनका भी सप्रमाण चरित्र चित्रण किया जा सकता है। मोदी का तरीका यह है कि वो पत्रकार के साथ साक्षात्कार लेने के पहले औपचारिक नहीं रहते जैसे मनमोहन सिंह रहते थे। बातचीत कर पत्रकार को सहज संबंध की अवस्था में ले आते हैं। उनका हालचाल पूछते हैं, कुछ समस्यायें हैं तो उनकी जानकारी लेते हैं। इसका असर पत्रकार पर हो सकता है। वर्तमान साक्षात्कार को लेकर इतना नकारात्मक और विवाद का माहौल केवल मोदी के प्रति व्याप्त घृणा की परिणति है। प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए जवाबों से सहमति-असहमति हो सकती है जिसे प्रकट करने का सबको अधिकार है। उसका तार्किक और तथ्यात्मक विरोध करने तो कोई समस्या ही नहीं है। पर मोदी साक्षात्कार दें, कोई वक्तव्य दें वो सब केवल अभिनय है, जिस पत्रकार को साक्षात्कार का अवसर मिल गया वह गिरा और बिका हुआ है ऐसी ओछी मानसिकता रखने से हम कभी निष्पक्ष आकलन नहीं कर सकते। ऐसा करने वाले हैं कौन उनके चेहरे देखिए, थोड़ी पृष्ठभूमि खंगालिए, सच सामने आ जाएगा।

मोदी या किसी भी मंत्री या नेता को इतना अधिकार मिलना चाहिए कि अगर वो कुछ बात करना चाहते हैं तो वो इसका चयन करें कि किस संस्था और पत्रकार से करेंगे। ऐसा पहले से होता रहा है। मूल बात होती है उसमें उन्होंने कहा क्या। इस साक्षात्कार में मुख्यतः चार बातों पर देश को कुछ नया सुनने को मिला- सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, रिजर्व बैंक के गवर्नर का इस्तीफा एवं राममंदिर निर्माण। सर्जिकल स्ट्राइक की जो विस्तृत कथा उन्होंने बताई उसमें कुछ अंश नये थे और यह देश को जानना जरुरी था। नोटबंदी को भी उन्होंने झटका न मानकर इसका थोड़ा नया विश्लेषण किया। इसी तरह उर्जित पटेल के इस्तीफा पर उन्होंने कहा कि वो छः महीना पहले से उनसे मुक्त करने की मांग कर रहे थे। प्रधानमंत्री ने उनके कार्यों की प्रशंस भी की। इस पर यकीनन काउंटर प्रश्न बनता था। किंतु पत्रकार नहीं पूछ पाई तो उनकी कमजोरी हो सकती है, इसके लिए उसे बिका हुआ कहना उचित नहीं। सबसे महत्वपूर्ण बात मंदिर निर्माण पर थी। प्रधानमंत्री ने कहा कि न्यायालय की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही सरकार कोई कदम उठा सकती है। साक्षात्कार से यह तो सामने आया कि प्रधानंमंत्री मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं लेकिन वो उच्चतम न्यायालय का सम्मान बचाए रखकर ही कदम उठाना चाहते हैं। हालांकि भाजपा के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून में उच्चतम न्यायालय द्वारा परिवर्तन को संसद में पलटना बना है। इस विषय पर कुछ सामने आया  ही नहीं। इन पर बहस करने की जगह साक्षात्कार को नाटक और पत्रकार को उसका पात्र बनाने वाले अपने को ही छोटा साबित कर रहे हैं। कौन पत्रकार है जिसे प्रधानमंत्री या कोई मंत्री बात करने के लिए बुलाए और वह तैयार नहीं होगा?

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

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