सोमवार, 24 जुलाई 2023

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता

डॉ. मीना शर्मा
व्यक्ति का व्यक्त रूप अभिव्यक्ति है। व्यक्त रूप लिखित और मौखिक होता है। यानी व्यक्ति खुद को लिखकर और बोलकर अभिव्यक्त करता है। और इसी अभिव्यक्ति द्वारा हम सामने वाले व्यक्ति को जान सकते हैं कि वह कैसा है। जानने के लिए अभिव्यक्ति चाहिए और इस अभिव्यक्ति के लिए आजादी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का सीधा मतलब है-लिखने की आजादी और बोलने की आजादी। समस्या तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति के लिखने और बोलने पर प्रतिबन्ध कोई रोक, सत्ता का भय अथवा सेंसर या अन्य किसी प्रकार की कोई बाधा, रुकावट खड़ी कर दी जाती है। और समस्या क्यों उत्पन्न होती है? इसलिए कि जब व्यक्ति लिखता है और बोलता है तब वह यह अभिव्यक्त करता है कि यह सही है, वो गलत है; यह धर्म है, वो अधर्म है; यह हित है, वो अहित है; यह न्याय है, वो अन्याय है; यह नीति है, वो अनीति है; यह राजधर्म है, वो राजअधर्म, अभी दिन है, रात नहीं वगैरह-वगैरह। वह दिन को रात नहीं कहता, गलत को सही नहीं कहता, वो अन्याय को न्याय नहीं कहता, अधर्म को धर्म नहीं कहता, जो रामधर्म के विरुद्ध है, उसे राजधर्म नहीं कहता, जनता के अहित को जनता का हित नहीं कहता वगैरह-वगैरह। यानी वह सामने वाले के सुर मिलाकर अपना एक अलग सुर ही अलापता है। सामने वाले कोई भी हो सकता है- सामने वाला कोई व्यक्ति, साज, समूह, संस्था, राष्ट्र सत्ता, प्रतिष्ठान, सुर न संस्थान या अन्य कोई ताकतवर वर्ग हो सकता है कि अपना सुर का आधार व्यक्तिनिष्ठ हो जैसा आपको लगता है, जिसमें आपका कोई व्यक्तिगत हित और व्यक्तिगत सरोकार जुड़ा हुआ है या फिर आपके सुर का आधार वस्तुनिष्ठ हो जैसा सभी को लगता है और जिसमें सार्वजनिक हित और सामाजिक सरोकार जुड़ा हुआ हो। हो सकता है कि जैसा आपको लगता है, वैसा सभी को लगता हो और सब की तरफ से आपने बात रख दी या फिर जैसा सभी को लगता है, उससे अलग आपकी राय हो। सुर का आधार जो भी हो व्यक्तिगत अथवा सामाजिक, सुर का सरोकार जो भी हो व्यक्तिगत सरोकार अथवा सामाजिक सरोकार, दोनों ही स्थितियों में आपका सुर ज्योंहि सामने वाला प्रभुत्व वर्ग (सत्ता वर्ग) के सुर से अलग हुआ, विसादृश्यता या टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। प्रभुत्व वर्ग को लगता है कि सुर अलग तो आप अलग, आप अलग तो आप साथ नहीं, आप साथ नहीं तो आप विरोध में है। आप विरोध में हैं तो आप खतरनाक हैं। आप खतरनाक हैं तो आप नुकसान / हानि पहुँचा सकते हैं। अतएव वह शक्ति अथवा सत्ता प्रतिष्ठान या प्रभुत्व वर्ग आपके लिखने और बोलने की आजादी को स्वयं अथवा उसकी व्यवस्था के लिए खतरा जानकर आपकी अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबन्ध, अंकुश, नियन्त्रण, सत्ता का सेंसर लगाकर अथवा अन्य कोई बाधा, रुकावट पैदा करने, दण्ड देने मैनेज करने डील की युक्ति और रणनीति लगाएगा। समस्या और संकट यही से पैदा होता है।
मानव जाति और समस्या के विकास के इतिहास की यह विचित्र विडम्बना रही है कि ईश्वर ने तो मनुष्य को स्वतन्त्र पैदा किया है, स्वतन्त्रता ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है, किन्तु हर युग में सत्ता और शासन अलग-अलग व्यवस्थाएँ बनाकर मनुष्य को कैद किया है या कैद करना चाहा है। चाहे वह व्यवस्था धर्म की व्यवस्था बनाकर हो, चाहे वह व्यवस्था राजनीति की व्यवस्था आर्थिक उत्पादन प्रणाली के आधार पर आर्थिक सम्बन्ध व्यवस्था बनाकर हो, चाहे वह व्यवस्था रंग-जाति-लिंग- नस्ल वर्ण आदि के आधार पर कोई भी व्यवस्था हो उसे तो हर तरफ उसे कैद की बेड़ियों में जकड़ दिया गया था। मानव जाति का इतिहास इसी पराधीनता के खिलाफ संघर्ष का इतिहास रहा है। यानी मानव जाति का इतिहास स्वतन्त्रता संघर्ष का इतिहास रहा है। इतिहास साक्षी रहा है कि जिसने भी लीक से हटकर, भीड़ से हटकर, स्थापित मान्यताओं, विधानों के खिलाफ जाकर अस्तित्व की खोज में प्रश्न उठाया है, असुविधाजनक सवाल खड़े किए हैं उन्हें तमाम यातनाएँ कैद और मौत का सामना करना पड़ा है। चाहे वह सामन्ती युग में किसी दार्शनिक की अभिव्यक्ति हो या विज्ञान युग में किसी वैज्ञानिक की सबसे दण्ड का भागी यानी अभिव्यक्ति की कीमत चुकानी पड़ी है। भारत में तो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का लम्बा और मार्मिक इतिहास रहा है। देश में आपातकाल (1975) और आजादी (1947) से पूर्व भी न जाने कितने सम्पादक- पत्रकार देशभक्तों को देश की आजादी की अभिव्यक्ति के लिए भयंकर कष्ट और मौत का सामना करना पड़ा था। 1857 की क्रान्ति के लिए समर्पित पत्र पयाम-ए-आजादी तो जिस देशभक्त के पास से मिल जाती थी, उसे तत्काल ही मौत के घाट उतार दिया जाता। एक लम्बी संघर्ष के बाद 1947 में देश को आजादी मिली, तो क्या अभिव्यक्ति को भी आजादी मिल गयी? साथ ही उन तमाम संघर्षों की प्रकृति क्या थी वैयक्तिक अथवा सामाजिक या मानवीय?
वास्तव में मानव जाति का समस्त संघर्ष और भारत में स्वाधीनता संघर्ष की प्रकृति सामूहिक और मानवीय थी। यह अभिव्यक्ति-संग्राम मानवता एवं राष्ट्र की स्वाधीनता के संग्राम के लिए था। उस संघर्ष में व्यक्तिगत हित और वैयक्तिक सरोकार के स्थान पर सामाजिक, राष्ट्रीय और मानवीय सरोकार था। स्वाधीनतापूर्व का पत्रकारिता कर्म व्यावसायिक हित, व्यक्तिगत हित के लिए न होकर समाज हित और राष्ट्रहित के लिए समर्पित था। समाचार-पत्र के माध्यम से समस्त राष्ट्र बोलता था, पत्रकार माध्यम बना और पत्रकारिता समस्त जनता की आवाज तभी सभी स्वातन्त्र्यप्रेमी समाचार-पत्र सम्पादकों संचालकों ने अपनी गाँठ से पैसे लगाकर, अंग्रेजी शासकों के आर्थिक कृपा के बिना तथा कंजुस पाठकों/अल्प पाठकों के दौर में भी महत् राष्ट्रीय उद्देश्य राष्ट्रहित एवं राष्ट्रोन्नति के लिए अपना खून सुखाकर भी अखबार निकारते रहे। चाहे वह हिन्दी के प्रथम अखबार पत्र सम्पादक पं. युगल किशोर शुक्त हो या पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र हो, पं. बालकृष्ण भट्ट हो, प्रतापनारायण मिश्र हों या ऐसे अनगिनत नाम।
उन्होंने जनता की सेवा समाज की सेवा और राष्ट्र की सेवा पत्रकारिता के माध्यम से निःस्वार्थ त्याग समर्पण भाव से की थी, तभी उनकी पत्रकारिता का मूल्य है। यह संघर्ष भी तब जब उन दिनों पत्रकारिता में खतरे ही खतरे थे। विदेशी सरकार तेजस्वी पत्रों की जमानत की मोटी रकमें जमा करने का हुक्म देकर बन्द करा देती थी। तेजस्वी पत्रकारों के लिए जेल का दरवाजा प्रायः खुला रहता था। इसलिए जिन लोगों में उज्ज्वल देशभक्ति होती, या जिनके हृदय में रूमानियत के लिए कसमसाहट होती वे ही पत्रकारिता के पेशे की ओर बढ़ते ।"
तब पत्रकारिता 'प्रोफेसन' या अर्थसिद्धि नहीं था बल्कि मिशन' या राष्ट्रयज्ञ था, जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। सब कुछ झोंक दिया, जिन्दगी खपा दी। लेकिन 'कण्ठावरोध' की राह, पत्रकारिता का स्पिरिट नहीं छोड़ा। वे स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र और पत्रकारिता का आदर्श नहीं त्यागा। पत्रकारिता उनके लिए सरोकार थी, कारोबार नहीं उनकी अभिलाषा राष्ट्र की अभिलाषा से जुड़ी हुई थी। उनकी कोई व्यक्तिगत स्वार्थ की अभिलाषा न थी, मक्खन रोटी के लिए दिनभर में कई रंग बदलने को वे ठीक नहीं मानते थे सर्वसाधरण उनके लिए कन्सर्न की वस्तु थी प्रयोग या इस्तेमाल की वस्तु नहीं। उन्हें न तो सुविधाओं की चाहत थी और न ही सुविधाओं की लत (आजकल के पत्रकारों की तरह) एवं तब तो सुविधाओं का अम्बार भी नहीं था । और न ही उपभोक्तावाद, बाजारवाद की संस्कृति थी। न टीवी, न रेडियो, न एसी, न कार, न हवाई जहाज, न फोन, न पंचसितारा होटल और न ही सुविधावादी जिन्दगी की संस्कृति थी। कुल मिलाकर 'सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श के साथ पत्रकारिता जन-शिक्षण, जनचेतना की जायति, नयी सामाजिक चेतना का निर्माण, राष्ट्र-निर्माण का जनसंचार माध्यम था । पत्रकारिता कमाने की चीज या मलाई खाने की चीज नहीं था। पत्रकारिता समाज और राष्ट्र को बनाने की चीज थी। यही कारण है कि आजादी पूर्व के अधिकांश स्वाधीनता सेनानी, समाज सुधारक, साहित्यकार ही पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक-संचालक थे और अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का प्रयोग राष्ट्रीय भावनाओं के प्रचार-प्रसार, समाज-सुधार, जन-जाग्रति, मानवीय चेतना के प्रसार एवं देश की आजादी जैसे मिशन के लिए करते थे। पत्रकारिता का सरोकार सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकार था। सरोकार की पत्रकारिता के आदर्श महान थे। उनकी अभिव्यक्ति सम्पूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति थी। पत्रकारिता की आवाज जनता की आवाज बन गई थी। पत्रकारिता के माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र बोलता था। पत्रकारिता की वाणी राष्ट्र की वाणी का प्रतीक थे। अतएव 19वीं सदी की पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की प्रकृति रचनात्मक एवं समाज- राष्ट्र के निर्माण के महान उद्देश्यों से निर्मित थी। देश बेशक आजाद न हो लेकिन पत्रकार की चेतना स्वतन्त्र थी, पत्रकार की निष्ठा प्रतिबद्ध थी अतएव एक पत्रकार कलम के स्तर पर आजाद था। उनकी वाणी स्वतन्त्र थी और चेतना आजाद । न कलम बिकाऊ था और न ही पत्रकारिता बाजारू थी। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का तब मायने ही कुछ और था। यही वह कलम और अखबार की ताकत थी जिसने पूरे देश में स्वाधीनता आन्दोलन की लहर पैदा कर दी थी और उसी कलम की ताकत के बूते पर बिना किसी सेना, तोप, हथियार के देश की आजादी हासिल की गई।
स्वातन्त्र्योत्तर भारत में आकर पत्रकारिता का चाल, चरित्र और चेहरा सब बदलने लगा। आजादी का मिशन पूरा होते ही अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब भी बदलने लगा। स्वाधीनता सेनाना, समाजसुधारक, प्रतिबद्ध साहित्यकारों के स्थान पर अब बड़े-बड़े पूँजीपति, धन्ना सेठ आदि पत्रकारिता के क्षेत्र में घुसने लगे। अब पत्रकारिता, पत्रकारिता न होकर पत्रकारिता उद्योग हो गया था। पत्रकार, पत्रकार न होकर एक नौकरी पेशा कर्मचारी हो गया था। अब अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब सरोकार की पत्रकारिता न होकर कारोबार की पत्रकारिता हो गया था। एक प्रोफेशनल युग की शुरुआत होती है, कारोबार की पत्रकारिता का युग आरम्भ होता है। पत्रकारिता के मायने बदल गए। पत्रकारिता के उद्देश्य, चरित्र और राह सब बदल गए थे क्योंकि आजादी के मिशन के बाद आगे क्या? यह सवाल एक शिथिलता, एक रिक्तता, एक ठहराव को जन्म दे रहा था। स्वाधीनता मिलते ही हमारा संघर्ष ठण्डा हो रहा था, जिससे एक गतिरोध, एक खालीपन पैदा हो रही थी। राष्ट्र की ओर से हम निश्चित हो गए। जबकि यह वक्त आजाद भारत के नवनिर्माण, आजादी के सपनों को पूरा करते हुए भारत और भारत की जनता के भविष्य को बेहतर बनाने की थी और उसके लिए अभिव्यक्ति की आजादी में साहस, प्रण, प्रतिबद्धता भरकर शब्दों को परिवर्तन का वाहक बनाने की थी। और यहीं पर हम चूक गए। यह एक ऐतिहासिक भूल थी। पत्रकार और पत्रकारिता लोकतन्त्र और जनता के पहरेदार बनकर शासन को लड़खड़ाने से बच तो, उसे सन्मार्ग दिखाते, अन्तिम आदकी का आँसू पोछने के लिए, एक विपक्ष की भूमिका निभाते क्योंकि तब संसद में प्रतिपक्ष भी नगण्य था और जो था वो भी कमजोर एवं बेअसर। और जब विपक्ष गौण एवं गायब हो, आदर्श न हो तो सक्रियता के स्थान पर शिथिलता तो आएगी ही। एक वैक्यूम तो क्रिकेट होगा ही और वही हुआ। उसी समय पत्रकारिता जगत में पूँजीपति, धन्ना सेठ, बड़े कारोबारी आदि प्रवेश कर उस 'वैक्युम' को अपनी पूँजी के फेवीकोल से भरा वे प्रेस अखबार और सम्पादक के मौलिक बन बैठे और सम्पादक अपने मालिक के इशारे पर चलने वाला एक मुजालिम हो गया। पत्रकारिता पूँजीवादी पत्रकारिता के साथ जुड़कर अपना उद्देश्य और आदर्श भूल बैठी, जिसके लिए उसने वर्षों संघर्ष किया था, पत्रकारिता में उच्च मानदण्ड निर्धारित किया था, जनता की आवाज बना था। अब पत्रकारिता में जब बड़ी पूँजीपति प्रवेश करेगा, पैसा लगायेगा, अखबार को खरीद लेगा तो स्वाभाविक तौर पर वो चाहेगा कि वो चाँदी काटे, माल बनाए और अपने कारोबारी हितों को ऊपर रखकर अपने विचारों को जनता के ऊपर लादे तथा अपने विरोधियों के विचार कॉट-छाँट कर तोड़-मरोड़कर अपने मन मुताबिक रखे। समाज हित तो पीछे रह गया।
अब ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसकी? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का, प्रेस की स्वतन्त्रता का क्या मतलब है? किसकी स्वतन्त्रता और किसका सरोकार ? यहाँ पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू का उल्लेख आवश्यक हो जाता है। वे भी स्वतन्त्र प्रेस के हिमायती थे किन्तु उनके लिए स्वतन्त्रता इस बात पर निर्भर करती है कि स्वतन्त्रता रूपी गाड़ी को चला कौन रहा है। वे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर विचारते हु कहते थे-
"मैंने कई बार सोचा है कि प्रेस की स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ क्या है? प्रेस क्या है? क्या यह पत्रकार, मालिक या सम्पादक है? किसकी स्वतन्त्रता ? स्पष्टतः प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ जानकारी की स्वतन्त्रता न होकर मालिकों की स्वतन्त्रता हो सकती है, जिसका प्रयोग वे जनहित में न कर अन्य उद्देश्यों के लिए करे।"
सवाल वैध है कि स्वतन्त्रता किसकी? वेतन भोगी पत्रकार सम्पादक की? (जो अपने पूँजीपति मालिक के इशारे पर चलता है), पूँजीपति मालिक की? (जो अपने व्यापारिक हितों की सुरक्षा में लीन रहता है, जिसके लिए कारोबार सर्वोपरि है) और जब वेतनभोगी पत्रकार या सम्पादक कानूनी तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिलने पर भी उसके इस्तेमाल पर बन्दिशों के साये में जीता है, मालिक के अधीन काम करता है, व्यावहारिक- व्यावसायिक स्तर पर संचालन और व्यवस्था की अनेकानेक सीमाओं, बन्धनों में रहकर मालिक की इच्छा अनिच्छा पर नौकरी करता है ऐसे में कृपा संस्कृति पलने वाला व्यक्ति (पत्रकार/सम्पादक) से यह अपेक्षा करना कि स्वतन्त्र होकर वो जो चाहे वह लिख दे। यह बात अब हास्यास्पद है। नौकरी करना है कि नहीं उसे? बीवी-बच्चे पालना है? घर लेना है? गाड़ी लेना है..... लिस्ट लम्बी है, फिलहाल इतना ही काफी है कि वह एक मजबूर व्यक्ति है, जो दुनियाँदारी और अखबार की दुनियाँ में फँसा हुआ है। उसके अपनी जरूरतों और बन्धन के वातावरण के आगे सामाजिक सरोकार या अन्य बड़े सवाल कहाँ ठहरते हैं। अगर मान भी लें कि एक प्रेस में एक पत्रकार ज्वलन्त सामाजिक सरोकार से जुड़ी एक 'स्टोरी' लेकर आया तो सम्पादक ही शायद रोक दे क्योंकि ये फलानां मामला फलाने साहब का है जो अपनेसाहिब (मालिक) के खास है। सम्पादक उसे सलाह देगा कि कुछ और करो, कोई और स्टोरी लिखो। अच्छा सलमान और शाहरुख खान में दोस्ती हुई कि नहीं? अगर दोनों गले मिलते दिखे तो एक अच्छी स्टोरी, फोटोग्राफी (गले मिलने वाला) समेत छाप दो लोग चाव लेकर पढ़ेंगे। अच्छा सर, कहकर पत्रकार निकल लेगा। अगर ताव में आकर विरोधस्वरूप किसी दूसरे प्रेस में नौकरी के लिए गया तो वहाँ भी हालत एवं वातावरण लगभग समान ही उसे मिलेगा तो फिर वो जाए कहाँ? लिखे क्या? कहाँ है आजादी? कानूनी तौर पर तो है।
मान लीजिए कि पत्रकार के स्थान पर यदि यही काम सम्पादक करता तो तमाम दिशा निर्देश और फिक्सड लाइन पर लिखने की शर्तें उसके लिए भी लागू होती है। पत्रकार के लिए यदि सम्पादक चेकपोस्ट है तो सम्पादक के लिए मालिक और मालिक के लिए उसका व्यापारिक हित/उददेश्य और व्यापारिक सरोकार के ऊपर सत्ता- सरकार इस बिन्दु के ऊपर से जुड़ी दो चीजें ही नीचे जाकर लिखने की लाइन तय करती है। सता सरोकार और अखबार का व्यापारिक सरोकार का एक नेक्सस बन जाता है। सरकार और व्यापारिक सरोकार के बीच के गठबन्धन से चलने वाली सत्ता ही अदृश्य रूप में खबरों के सत्य और सत्य के स्वरूप को बनाते और चलाते हैं। पत्रकारिता का यही सत्य आज जितना उफान पर है उतना पहले कभी न था। ज्यों-ज्यों पत्रकारिता कारपोरेट के गिरफ्त और घसती जा रही है त्यों-त्यों पूँजीवादी व्यापारिक सरोकार का एकाधिकार एवं उसका सहयोगी पार्टनर राजनीतिक सत्ता शासक का एकाधिकार अखबारों के ऊपर हावी होता जा रहा है। आप अखबार खोलकर देखिए या तो अखबार विज्ञापनों से पटा होगा अथवा सत्ता में बैठी पार्टी जिसके साथ उसका गठबंधन है, उसी का गठबन्धन धर्म की भक्ति आपको मिल जाएगी। अखबार खोलते ही आपको पता चल जाएगा हम अखबार की पोलिटिक्स क्या है, विचारधारा क्या है। अब तो राजनीतिक पार्टियाँ भी अपना अखबार और टीवी चैनल खोल का बैठ गयी है। इस बाजार के कारोबार में कि 'भैया ई काम तो हमें भी आता है।' अखबार का सम्पादक अपने-अपने मालिकों के लिए पीआरोशिप का काम करने लगा है। कि अपने मालिक को राज्यसभा पहुँचाने का बेचारा सम्पादक दलाल बनता जा रहा है। सवाल है फिर सामाजिक सरोकार और सत्य का क्या होगा, जनता की आवाज का क्या होगा? वह कहाँ जाए, क्या करे?
पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य वास्तव में चिन्तनीय है। कारपोरेट कल्चर एवं पूँजीवादी महाशक्तियों के दबाव में उसकी कमर टूट गई है और गर्दन दबी पड़ी है तथा मुँह में बैल वाली जाबी लगी हुई है। यह केवल खिंची हुई लकीर पर चल रही है। आज पत्रकारिता की आजादी को सर्वाधिक खतरा इन्हीं आर्थिक महाशक्तियों से है, सत्ता के सेंसर से भी ज्यादा पत्रकारिता हो अथवा मीडिया (इलैक्ट्रानिक) इन आर्थिक महाशक्तियों के कैद से आजादी दिलाए बिना कोरे अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है। इन शक्तियों ने सरोकार के साथ-साथ विचार भी कैद कर लिए हैं। सत्य कैद कर लिया है। आजादी की दूसरी लड़ाई पत्रकारिता के क्षेत्र में भी लड़ना होगा। कैसे? इस पर आप भी सोचे, हम भी सोचें और पत्रकार बिरादरी भी सोचे क्योंकि जब तक विरासत में बची-खुची साख एवं विश्वसनीयता है तब तक तो यह धन्धा चलेगा (गन्दा है, पर धन्धा है ये) और जिस दिन यह सब जमा पूँजी जो उनके पूर्वजों (स्वाधीनता सेनानियों, देशभक्त साहित्यकारों आदि) ने कमायी थी और जिसे आजादी के बाद खर्चना शुरू कर दिया था, वो अब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। वैसे भी लोग तभी तक पुराने माध्यम, पुराने विकल्प के साथ जुड़े रहते हैं जब तक कि नया माध्यम, नया विकल्प का दरवाजा नहीं खुल जाता। सोशल मीडिया, न्यू मीडिया के उभारते हुए इलेक्ट्रानिक विकल्पों ने इन्हीं खालीपन और खालीपेट को भरने का भरपेट काम शुरू कर दिया है। लाखों-करोड़ों लोगों का उन नवीन इलैक्ट्रानिक वैश्विक लोकमंच पर आकर अभिव्यक्त करना (क्या कर रहे हैं, वह एक अलग मामला है) सिर्फ सोशल मीडिया की वेबप्रियता, लोकप्रियता का प्रमाण मात्र नहीं है बल्कि वह लोगों की अतृप्ति, जनाकांक्षाओं का खाली पेट, जनता की आवाज का जन-प्रतिनिधित्व अतएव अभिव्यक्ति को आकुल "पैसिव' जनता के विक्षोप के विस्फोट का सूचक भी है। जो न्यूटन के सिद्धान्त के आधार पर ही क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए बराबर किन्तु विपरीत दिशा (सोशल मीडिया) में पैसिव जनता (अखबार का पाठक मुक्त पाठक ही होता है) का ऐक्टिव होकर अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रगटीकरण है, सक्रिय प्रतिबिम्बन है।
(लेखिका पी.जी.डी.ई.वी.(सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।)
संदर्भ
1. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, विशाल भारत, मई 1931
2. समाचार पत्रों का इतिहास, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी
3. समाचार दर्पण, अंक 5
4. हिन्दी पत्रकारिता, डा. कृष्ण बिहारी मिश्र।
5.धर्मवीर धरती का लेख, हिन्दी पत्रकारिता: विविध आयाम।

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