गुरुवार, 30 सितंबर 2021

भारत अमेरिकी संबंधों की नियति की झलक

अवधेश कुमार

यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा  पर संपूर्ण दुनिया की नजर लगी हुई थी । हालांकि वे संयुक्त राष्ट्र के वार्षिक सम्मेलन में भाग लेने वहां गए लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति जो बिडेन तथा उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ द्विपक्षीय मुलाकात का कार्यक्रम निर्धारित था। इसके साथ  क्वाड का भी पहला आमने सामने का शिखर सम्मेलन जुड़ गया एवं ऑस्ट्रेलिया तथा जापान के प्रधानमंत्री के साथ बातचीत भी।  ये मुलाकातें तथा क्वाड से निकले संदेश की ओर भी दुनिया की दृष्टि थी। चार महत्वपूर्ण देशों के नेताओं द्वारा एक संगठन के बैनर के तहत किए निर्णयों का व्यापक अंतरराष्ट्रीय प्रभाव होना है। लेकिन दुनिया की  मुख्य अभिरुचि बिडेन तथा कमला हैरिस से मोदी की मुलाकात पर  केंद्रित थी। बिडेन के राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के बाद मोदी की उनसे  आमने सामने की पहली मुलाकात थी। वर्चुअल रूप से  क्वाड सम्मेलन, जलवायु परिवर्तन पर आयोजित सम्मेलन तथा समूह 7 के शिखर सम्मेलन में आमने-सामने थे। इस बीच कोविड सहित ऐसी कई घटनाएं हो गई जिसने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को पूरी तरह प्रभावित किया है। अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के फैसले ने नई विश्व व्यवस्था की एक भयावह तस्वीर दुनिया के सामने रखी है। इसमें बिडेन के साथ मोदी की मुलाकात  का महत्व ज्यादा बढ़ गया था। 

भारत अमेरिकी संबंध केवल दो सामान्य देशों के राजनयिक स्तर तक सीमित नहीं है और न केवल दोनों सामरिक साझेदार हैं, बल्कि 2016 में रक्षा साझीदार बनने के बाद कई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को लेकर इनकी सम्मिलित भूमिका हो चुकी है। इसमें अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी और तालिबान के आधिपत्य के बाद भारतीय उपमहाद्वीप की सामरिक स्थिति अस्त-व्यस्त हो गई है। अमेरिका ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ऑस्ट्रेलिया  से आकुस समझौता किया है जिसके तहत ऑस्ट्रेलिया में परमाणु पनडुब्बियों का निर्माण होगा तथा एशिया प्रशांत के लिए विशेष व्यवस्था में तीनों मिलकर काम करेंगे। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर की पिछली तीन अमेरिकी यात्राओं तथा भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं विदेश सचिव  आदि की अपने अमेरिकी समकक्षों से बातचीत  के बाद भावी संबंधों की तस्वीर को लेकर कुछ निष्कर्ष अवश्य आया होगा। जाहिर है, मोदी _बिडेन और उसके पहले मोदी _हैरिस की बातचीत में निश्चित रूप से ये सारे मुद्दे रहे होंगे । 

बिडेन और मोदी की बैठक 1 घंटे के लिए निर्धारित थी लेकिन यह डेढ़ घंटे तक चली। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बातचीत में कितने विषय और बिंदु शामिल रहे होंगे। स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत के संदर्भ में भावना और भविष्य को लेकर इसके महत्व का भी द्योतक है। बिडेन ने कहा भी कि अगली बार जब हम मिलेंगे तो इसे 2 दिनों से अधिक के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए। यानी हमारे बीच परस्पर सहमति और साझेदारी के इतने मुद्दे हैं कि घंटे -दो घंटे में हम उन्हें निपटा नहीं सकते । हमने देखा भी कि मोदी का व्हाइट हाउस में उन्होंने किस गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्होंने ट्वीट भी किया कि आज मैं व्हाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि आप जिस कुर्सी पर बैठ रहे हैं इस पर हमारी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस बैठती हैं और क्या संयोग है कि वह भी भारतीय मूल की हैं। राजनय में इनका महत्व होता है। इससे पता चलता है कि मेजबान देश आपके प्रति क्या भाव रखता है। वास्तव में बिडेन से बातचीत के पहले उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से मुलाकात एवं बातचीत में आधारभूमि तैयार हो गई थी।  हैरिस ने आतंकवाद को लेकर मोदी की बातों का सार्वजनिक समर्थन किया और कहा कि पाकिस्तान में आतंकवादी हैं और उसे रोकने का कदम उठाना चाहिए ताकि भारत और अमेरिका दोनों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। तो यह अमेरिकी प्रशासन की नीति है। इसमें भारत और अमेरिका दोनों की सुरक्षा को समान स्तर पर रख कर बात करना महत्वपूर्ण है। जैसा विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंखला ने बताया कि दोनों मुलाकातों में हिंद प्रशांत क्षेत्र ही नहीं पूरे विश्व में चीन के उभरते खतरे, अफगानिस्तान में तालिबान के बाद आतंकवाद की चुनौतियां, जलवायु परिवर्तन, उभरती तथा उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी में परस्पर सहयोग आदि को लेकर विस्तृत बातचीत हुई। प्रधानमंत्री मोदी ने यात्रा आरंभ करते समय ट्विट करके बताया था कि हम द्विपक्षीय वैश्विक साझेदारी की समीक्षा करेंगे। जो कुछ जानकारी है उसके अनुसार द्विपक्षीय एवं वैश्विक साझेदारी, रक्षा और सुरक्षा सहयोग मजबूत करना,  आतंकवाद व कट्टरपंथ के खिलाफ साझा रणनीति, सीमा पार आतंकवाद रोकने के तरीकों पर विचार, अफगानिस्तान संकट से निपटने की रणनीति, चीन के विस्तारवाद पर लगाम कसना, द्विपक्षीय व्यापार और निवेश संबंधों को मजबूत करना, जलवायु परिवर्तन, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, स्वच्छ ऊर्जा साझेदारी को बढ़ावा देना आदि विषय बातचीत में समाहित थे।

भारत में मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने माहौल ऐसा बनाया था किअमेरिका में कमला हैरिस मोदी के समक्ष कश्मीर सहित मानवाधिकार के मुद्दे, धार्मिक स्वतंत्रता आदि पर घेरेंगी तथा बिडेन से मुलाकात में भी ये विषय आएंगे। ऐसा कुछ हुआ नहीं, न होना था। कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं और अमेरिकी हितों का संरक्षण उनका मुख्य लक्ष्य। भारत जैसे वैश्विक स्तर के मजबूत साझेदार के प्रति एक भी नकारात्मक शब्द से उल्टा संदेश निकल सकता है और परिणाम भी विपरीत आ सकते हैं। यह मोदी बिडेन की मुलाकात का ही परिणाम था कि क्वाड में जब मोदी ने आतंकवाद और अफगानिस्तान का मुद्दा उठाया तो बिडेन का इसमें समर्थन मिला। ऑस्ट्रेलिया और जापान का समर्थन तो मिलना ही था। तो हम परिणतियों को किस रूप में देखें?  दरअसल, बिडेन के नेतृत्व में अमेरिका ने अभी तक अपनी सुरक्षा सहित संपूर्ण सामरिक-अंतरराष्ट्रीय नीति के जो संदेश दिए हैं उन पर गहराई से विचार कर भारत जैसे देश को भविष्य के लिए अपनी रणनीति बनानी होगी। मोदी से मुलाकात के आरंभ में ही बिडेन ने कहा कि हमें गांधीजी को नहीं भूलना चाहिए जिन्होंने अहिंसा और सहनशीलता की बात की थी। बिडेन लगातार अहिंसा और सहनशीलता की बात कर रहे हैं। पिछले दिनों चीन के संबंध  में भी उन्होंने सहनशीलता तथा बातचीत का बयान दिया है।इसके मायने क्या हो सकते हैं ? अगर अफगानिस्तान का कदम यह संदेश है कि अमेरिका विश्व भर से रक्षा ऑपरेशन या उपस्थिति को खत्म करना चाहता है तथा चीन से निश्चित टकराव देखते हुए भी उससे बचने की नीति होगी  तो इससे पूरे विश्व की सामरिक स्थिति में अकल्पनीय बदलाव आ सकता है। हालांकि मोदी ने बिडेन को कहा कि गांधीजी ने  ट्रस्टीशिप की बात की थी  जिसे द्विपक्षीय एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी ध्यान रखना पड़ेगा । वास्तव में हमें यह ध्यान रखना होगा कि अमेरिका आतंकवाद पर भारत का समर्थन भले करे लेकिन पाकिस्तान को लेकर न उसने निर्णायक कार्रवाई की है और न इसका कोई संदेश दिया है। अमेरिका को जहां - जहां परेशानी महसूस हुई, इराक, लीबिया , सीरिया आदि उसने कार्रवाई की , अफगानिस्तान में 20 वर्ष रहा लेकिन पाकिस्तान को लेकर पता नहीं क्यों हमेशा आगा-पाछा की नीति रही है। इसलिए वे क्या कहते हैं इस पर हमें नहीं जाना है। 

निस्संदेह, मोदी की अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से बातचीत सफल रही। इसमें एक शब्द ऐसा नहीं आया जो भारत की सोच, नीति और भविष्य में दोनों की साझेदारी के विरुद्ध संकेत देने वाला हों। भारतीय मत का इसमें व्यापक समर्थन तथा भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों  के बहुआयामी चरित्र को और सुदृढ़ करने का ही संदेश आया। लेकिन यह भी साफ है कि भारत को  कई मोर्चों पर स्वयं ही लड़ाई लड़नी होगी। आकुस समझौते में भी भारत जापान को बाहर रखा गया जबकि क्वाड में  चारों देश शामिल हैं। पनडुब्बी भारत में क्यों नहीं निर्मित हो सकती?  फ्रांस अमेरिका का पुराना साझेदार है लेकिन अमेरिका ने समझौता करते हुए उसका भी ध्यान नहीं रखा। फ्रांस ने पांच वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया को पनडुब्बी देने  का समझौता किया था। आज फ्रांस ने ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका से राजदूत तक वापस बुला लिए हैं। इस तरह की नीति अकल्पनीय थी। है तो इसको स्वीकार कर ही आगे आना पड़ेगा। बिडेन कई कारणों से इस समय परेशानी का सामना कर रहे हैं। अफगानिस्तान से वापसी को लेकर दुनिया ही नहीं अमेरिका में भी आलोचना और विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिकी साख और इकबाल कमजोर हुआ है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती फिर से साख और प्रभाव को पुनर्स्थापित करने की है। अभी तक इस दिशा में उन्होंने कोई संकेत दिया नहीं। मोदी के साथ दोनों नेताओं की बातचीत में भी इसके कोई संकेत नहीं मिले। अमेरिका भारी कर्ज में भी है। उससे बाहर निकलना भी उसकी समस्या है। जब जो बिडेन सत्ता में आए थे उस समय कोरना का भयानक प्रकोप तेजी से बढ़ा, बीच में थोड़ी कमी आई और इस समय फिर अमेरिका उससे जूझ रहा है। फ्रांस  की नाराजगी को स्वभाविक मानते हुए नाटो के साझेदार भी शंका की दृष्टि से अमेरिका को देख रहे हैं। अमेरिका से जुड़े तथा जहां उसके सैन्य अड्डे हैं, उन देशों के  अंदर यह भय पैदा हो गया है कि जब तक उसका स्वार्थ होगा तब तक वह ठहरेगा और वापस चला जाएगा। चीन इसका लाभ उठाने के लिए आतुर है।  ये सब ऐसे मामले हैं जिनको लेकर अमेरिकी प्रशासन के साथ लगातार बातचीत, नेताओं के शीर्ष स्तर पर मुलाकात और उसमें आए निष्कर्षों के अनुरूप साझेदारी को नए सिरे से विकसित करने की आवश्यकता दिखाई पड़ रही है।

 अवधेश कुमार, ई- 30, गणेश नगर , पांडव नगर कौम्प्लेक्स,  दिल्ली 110092, मोबाइल- 9811027208 

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

पड़ोसी राज्यों को भी पराली जलाने के मामले में दिल्ली मॉडल अपनाना चाहिए: अरविंद केजरीवाल

पंजाब में कांग्रेस का आत्मघाती फैसला

 अवधेश कुमार

पंजाब के मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरिंदर सिंह का त्यागपत्र कतई आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। पिछले एक वर्ष से पंजाब कांग्रेस के अंदर जो कुछ चल रहा था और केंद्रीय नेतृत्व जिस ढंग से वहां लचर भूमिका में थी उसकी परिणति यही होनी थी। नवजोत सिंह सिद्धू के मंत्रिमंडल से हटाए जाने के बाद से ही ऐसा लग रहा था जैसे कांग्रेस के अंदर एक विपक्षी दल खड़ा हो गया है जो कैप्टन और सरकार की मिट्टी पलीद करने में लगा है। कैप्टन ने सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा सबसे संपर्क किया, दिल्ली , आग्रह किया कि सिद्धू को नियंत्रित करें ,उन्हें महत्त्व न दे लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। कैप्टन की इच्छा के विरुद्ध सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। चंडीगढ़ स्थित कांग्रेस भवन में जब सिद्धू अध्यक्ष पदभार ग्रहण कर रहे थे उस सभा में कैप्टन ने कहा कि मुझे सोनिया गांधी ने बता दिया था कि हम उन्हें अध्यक्ष बना रहे हैं और आपको साथ मिलकर काम करना होगा। उस पूरे घटनाक्रम पर नजर रखने वाले जानते हैं कि कैप्टन ने खून का घूंट पीकर सिद्धू को स्वीकार किया। जो व्यक्ति कह रहा हो कि राज्य में कानून का अंत हो गया है, पंजाब के हितों की दो परिवारों पर बलि चढ़ा दी गई है उसे कैप्टन  दिल से अपना अध्यक्ष स्वीकार करें यह संभव नहीं था। अध्यक्ष बनाना हटाना उनके हाथ में था नहीं, सोनिया गांधी सुनने के लिए तैयार नहीं थी, सिद्धू के उकसावे पर कुछ महीने के भीतर तीसरी बार कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाई जा रही है उसमें  कैप्टन के सामने पद त्याग के अलावा विकल्प था ही नहीं। सच कहा जाए तो  केंद्रीय नेतृत्व यानी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने उनके सामने अगर कोई एक मात्र विकल्प छोड़ा था तो वह त्यागपत्र ही है।

 जैसी जानकारी है जब कैप्टन ने सोनिया गांधी को फोन कर कहा कि मैं त्यागपत्र देने जा रहा हूं तो उन्होंने केवल इतना कहा, सॉरी अमरिंदर, आप त्यागपत्र दे सकते हैं। इससे कल्पना की जा सकती है कि कैप्टन की स्थिति क्या हो गई थी। मुख्यमंत्री को पता नहीं हो और विधायक दल की बैठक बुला ली जाए तो राजनीति में इसके क्या मायने हो सकते हैं?  कैप्टन के नजदीकी लोग मीडिया को बता रहे हैं कि उन्होंने सोनिया गांधी को कहा कि आपको मेरा काम पसंद नहीं है तो मुझे भी केंद्रीय नेतृत्व का काम सही नहीं लगता। इसके राजनीतिक मायने हम अपने अनुसार निकाल सकते हैं। ऐसी भाषा किसी पार्टी की सामान्य अवस्था का प्रमाण नहीं हो सकती। कैप्टन ने त्यागपत्र देने के बाद सार्वजनिक रूप से कुछ बातें कही हैं। एक, मैं स्वयं को  बेइज्जत किया गया महसूस कर रहा था। दो, बार-बार कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलापे का अर्थ है कि मेरे पर विश्वास नहीं है ,मेरी काबिलियत पर प्रश्न उठाया जा रहा है।  तीन,  अगला मुख्यमंत्री वो जिसे बनाएं लेकिन अगर सिद्धू सामने आते हैं ये उनको चुनाव में चेहरा बनाया जाएगि तो मैं खुला विरोध करूंगा। राजनीति की सामान्य समझ रखने वाले के लिए भी हैरत का विषय है कि आखिर कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व कैसी राजनीति को पार्टी के अंदर प्रोत्साहित कर रहा है। 

कैप्टन के तौर-तरीकों, काम करने का अंदाज आदि में कुछ दोष हो सकते हैं,  किसी  नेता के लिए सबको संतुष्ट करना संभव नहीं है, लेकिन पंजाब कांग्रेस के वे लंबे समय से स्तंभ हैं, उन्होंने 2017 में कांग्रेस को तब बहुमत दिलाई जब वह देश और राज्यों में बुरे दौर से गुजर रही थी, उनके व्यवहार में कहीं भी अपरिपक्वता या केंद्रीय नेतृत्व के विरुद्ध विद्रोह की झलक भी कभी नहीं मिली…..। उनको मुक्त रूप से काम करने देने की बजाय सिद्धू और इनके ऐसे साथियों को क्यों महत्व दिया गया जिनका अभी तक न जनाधार प्रमाणित है न राजनीतिक परिपक्वता का उन्होंने परिचय दिया है? सिद्धू के एक राजनीतिक सलाहकार ने कश्मीर के भारत के अंग होने से लेकर इंदिरा गांधी की कश्मीर नीति पर भी प्रश्न उठा दिया। एक सलाहकार ट्वीट कर रहे थे कि पंजाब में कांग्रेस जीती लेकिन कांग्रेसी मुख्यमंत्री नहीं मिला। विचित्र स्थिति है। सिद्धू को अध्यक्ष बनाए जाने को भी कैप्टन ने न चाहते हुए स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद क्या समस्या थी? अगर समस्या थी तो क्या विरोधियों और कैप्टन को साथ बिठाकर केंद्रीय नेतृत्व उसका हल निकालने की कोशिश नहीं कर सकता था?कैप्टन को हटाना भी था तो उसके दूसरे तरीके हो  सकते थे। वे इस तरह की बेईज्जती  के पात्र नहीं थे। वस्तुतः कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने अदूरदर्शी फैसलों व व्यवहार से पंजाब में पार्टी के कई खंड कर दिए हैं। भले औपचारिक रूप से पार्टी बंटी नहीं, लेकिन व्यवहार में बंट चुकी है। चरणजीत सिंह चेन्नई को मुख्यमंत्री बनाने से एकजुटता नहीं आ सकती। क्या कैप्टन इतने के बावजूद  चुनाव में कांग्रेस के लिए दिल से काम करेंगे? 

उन्होंने कहा है कि हम अगले विकल्प पर अपने लोगों से बातचीत करके फैसला करेंगे। फैसला पार्टी में रहते हुए विरोध करने का हो सकता है और पार्टी से बाहर भी जाकर हो सकता है। दोनों स्थिति कांग्रेस के लिए क्षतिकारक होगा।  संभव है आगे वे नई पार्टी बनाएं। भाजपा उनको साथ लेने के लिए तैयार है क्योंकि अकाली दल के छोटे साझेदार के रूप में रहने के कारण पंजाब में उसके अपने कद के अनुरूप अस्तित्व नहीं है। दूसरे, राष्ट्रीयता ,राष्ट्रीय सुरक्षा, पाकिस्तान, आतंकवाद, जम्मू कश्मीर, चीन आदि मामलों पर कैप्टन के विचार और भाजपा में अंतर नहीं है। कैप्टन इन मामलों पर वर्तमान कांग्रेस के घोषित स्टैंड से अलग रुख अपनाते रहे हैं। अगर वे पार्टी बनाते हैं तब भी इनके बीच गठबंधन हो सकता है। जो भी हो कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने सिद्धू और अन्य कैप्टन विरोधियों को महत्व देकर पंजाब में आम आदमी पार्टी के लिए राजनीतिक लाभ की स्थिति बना दी है। हां यह कितना होगा अभी कहना जरा कठिन है। दूसरे, इसका असर कांग्रेस की पंजाब इकाई तक सीमित नहीं रहेगा। राजस्थान, छत्तीसगढ़ से लेकर हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड, असम, कर्नाटक,  केरल सब जगह इसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ेगी जहां पार्टी के अंदर अंतर्कलह है। राजस्थान में सचिन पायलट और उनके समर्थकों को संदेश मिला है कि हमने भी सिद्धू की तरह मुख्यमंत्री का विरोध जारी रखा,अपने साथ विधायकों को मिलाया, दिल्ली गए, मीडिया में बयान दिया, अभियान चलाया तो अशोक गहलोत को जाना पड़ सकता है। यही सोच छत्तीसगढ़ में टीएस सिंह देव और उनके समर्थकों के अंदर पैदा होगी। पंजाब प्रकरण  का कांग्रेस के लिए देशव्यापी असर कितना नकारात्मक हो सकता है इसका केवल अनुमान लगा सकते हैं।

 लेकिन कैप्टन ने त्यागपत्र के बाद एक दूसरे पहलू की ओर इशारा किया है जो सामान्य पार्टी राजनीति से परे राष्ट्र के लिए ज्यादा गंभीर हैं। उन्होंने कहा है कि पंजाब सीमा पार पाकिस्तान और आईएसआई के षड्यंत्रों से परेशान है। ड्रोन से हथियार आते हैं, आतंकवादी को वहां ट्रेनिंग मिलती है, मादक द्रव्य आ रहे हैं और नवजोत सिंह सिद्धू इतने नाकाबिल  व गैर जिम्मेवार हैं कि इमरान खान और वहां के सेना प्रमुख बाजवा के साथ दोस्ती रखते हैं। कैप्टन ने यह नहीं कहा है कि सिद्धू उनके हाथों खेल रहे हैं। उनका कहना है कि  पंजाब में आतंकवाद के कारण 35 हजार से ज्यादा लोग मारे गए, 17 सौ से ज्यादा पुलिस के जवान शहीद हुए और पाकिस्तान फिर से वही स्थिति पैदा करना चाहता है जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति ज्यादा गंभीर, जानकार, सतर्क और अत्यंत ही जिम्मेवार व्यक्ति के हाथों प्रदेश का नेतृत्व होना चाहिए। उनके अनुसार केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियां मुख्यमंत्री से बातचीत करती है, उसके अनुसार यहां सुरक्षा कार्रवाई के फैसले होते हैं तथा केंद्र और राज्य के बीच समन्वय बिठाकर काम करना होता है। कैप्टन का कहना है कि उन्होंने सोनिया गांधी को ये सारी बातें बताईं, लेकिन उन्होंने फैसला किया तो वह जाने, लेकिन राष्ट्र के हित का ध्यान रखते हुए मैं सिद्धू का विरोध करूंगा। वास्तव में कांग्रेस या किसी पार्टी की राजनीति कमजोर या मजबूत हो , कोई पार्टी सत्ता में रहे या जाए यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता जितना राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता। कैप्टन जिस ओर इशारा कर  रहे हैं वह गंभीर है।  कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने सिद्धू जैसे व्यक्ति को कैप्टन से ज्यादा महत्व देकर राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मामलों की अनदेखी की है। इसमें पूरे देश के लिए संदेश है। कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व यानी सोनिया गांधी और उनके परिवार को  कैप्टन के इन बयानों पर स्पष्टीकरण अवश्य देना चाहिए।

 अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 98110 27208

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

भाजपा में मुख्यमंत्री बदलने के मायने

अवधेश कुमार 

गुजरात के मुख्यमंत्री पद से विजय रूपाणी का इस्तीफा तथा पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया जाना पूरे देश को चौंकाने वाली घटना बनी है। इसके पहले कभी नहीं देखा गया कि एक मुख्यमंत्री दोपहर में प्रधानमंत्री के साथ कार्यक्रम में रहता हो और शाम को पत्रकारों के सामने आकर यह कहे कि मैंने पद से इस्तीफा दे दिया है।  जिस समय वो इस्तीफे की घोषणा कर रहे थे उनके चेहरे पर किसी प्रकार का दुख, अवसाद या मलाल का भाव नहीं देखा जा रहा था। हालांकि किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद से हटना पड़े तो उसको अंदर से अच्छा नहीं लगेगा। किंतु रूपाणी ने कहा कि कार्यकर्ता के नाते उन्हें जिम्मेवारी मिली, 5 वर्ष की जिम्मेवारी छोटी नहीं होती, आगे पार्टी के कार्यकर्ता के नाते जो जिम्मेदारी देगी उसका मैं पालन करूंगा। विधायक दल की बैठक में उनके द्वारा ही मुख्यमंत्री के रूप में भूपेंद्र पटेल का नाम प्रस्तावित करना बताता है कि तैयारी पहले से थी। राष्ट्रीय संगठन मंत्री बीएल संतोष, भाजपा के वरिष्ठ नेता केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव का वहां पहले से पहुंचना इस बात का संकेत था कि नेतृत्व परिवर्तन की कवायद पहले से चल रही थी। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर  और प्रहलाद जोशी तथा भाजपा के राष्ट्रीय में महासचिव तरुण चुग का वहां होना भी यही साबित करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि केंद्रीय नेतृत्व यानी नरेंद्र मोदी ,अमित शाह और जेपी नड्डा ने आपसी विमर्श के बाद यह फैसला किया होगा तथा विजय रुपाणी को सूचित किया गया होगा। 

राजनीतिक विश्लेषक इसके कई कारण गिना सकते हैं। विरोधी पार्टियां भी अपने-अपने तरीके से इसका विश्लेषण कर रही है । यह भी नहीं कह सकते कि जो कुछ कहा जा रहा है वो सारी बातें गलत हैं। यह सही है कि 2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें 2012 के 115 से घटकर 99 तक सिमट गई तथा कांग्रेस की सीटें 61 से बढ़कर 77 हो गई। सच यही है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत पाने के लिए नाकों चने चबाने पर पड़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करीब तीन दर्जन सभाएं करनी पड़ी। अमित शाह चुनाव के काफी पहले से लेकर परिणाम आने तक वहीं डटे रहे। वास्तव में भाजपा  की पूरी शक्ति गुजरात में लगी हुई थी। तब किसी तरह बहुमत हासिल हो सका। अगर 2017 के विधानसभा चुनाव का विश्लेषण करें तो इनमें 16 सीटें ऐसी थी जिनमें भाजपा की विजय का अंतर 5000 या उससे कम थी। इसी तरह 32 सीटें ऐसी हैं जहां तीसरे नंबर पर रहने वाले उम्मीदवार को मिला हुआ वोट भाजपा और कांग्रेस के जीत हार के अंतर से ज्यादा था। ऐसी 18 सीटें भाजपा ने जीती थी। वस्तुतः गुजरात में पटेल या पाटीदार समुदाय के अंदर भाजपा के विरुद्ध असंतोष और विद्रोह कोई भी देख सकता था। अगर मोदी ने चुनावी सभाओं के अलावा भी दिन रात एक नहीं किया होता तो परिणाम पलट भी सकता था। तभी यह साफ हो गया था कि नरेंद्र मोदी का गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में होना और  उनकी पसंद के किसी का मुख्यमंत्री होना गुजरात की जनता के लिए समान मायने नहीं रखता। 

आनंदीबेन पटेल को मोदी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में सामने रखा लेकिन उनके विरुद्ध पार्टी में ही असंतोष पैदा हो गया। फिर पाटीदार आरक्षण आंदोलन को जिस ढंग से उन्होंने हैंडल किया उसके विरुद्ध भी प्रतिक्रिया हो रही थी। हालांकि आनंदीबेन पटेल की अपनी कोई गलती नहीं थी लेकिन प्रदेश की राजनीति का ध्यान रखते हुए उनको हटाने का फैसला करना पड़ा तथा उनकी जगह विजय रुपाणी आए। विजय रुपाणी लोकप्रिय नेता न  थे न हैं। इसमें 2022 के चुनाव में उनके चेहरे के साथ उतरना भाजपा के लिए जोखिम भरा होता। जाति कारक भी नकारा नहीं जा सकता।  पटेल समुदाय के व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने का नेता किसी को बताने की आवश्यकता भी नहीं। यद्यपि कांग्रेस 2017 के चुनाव में प्रभावी प्रदर्शन के बावजूद गुजरात में इस समय दुर्दशा का शिकार है लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी प्रकार का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। इसलिए चुनाव से करीब सवा वर्ष पूर्व यह फैसला किया गया। इसके अलावा जो भी बातें हैं वो केवल कयास हैं। 

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद  नरेंद्र मोदी ने यह नीति अपनाई थी कि जिसे भी मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी दी जाए उसे काम करने दिया जाए। प्रदेश में अनेक मुख्यमंत्रियों के खिलाफ असंतोष थे, इनकी सूचना प्रधानमंत्री तक पहुंची लेकिन उन्होंने किसी का इस्तीफा नहीं लिया। झारखंड में मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ जनता तो छोड़िए पार्टी के अंदर ही व्यापक विद्रोह था। रघुवर दास को नहीं बदला और चुनाव में पार्टी सत्ता से विपक्ष में चली गई। झारखंड में लगभग 25 सीटें भाजपा अपनी ही पार्टी के विद्रोहियों के कारण हारी। स्वयं रघुवर दास को पार्टी के ही वरिष्ठ नेता सरजू राय ने विद्रोही उम्मीदवार के तौर पर पराजित कर दिया। हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के विरुद्ध पार्टी के अंदर असंतोष था। चुनाव के पहले से उनको हटाए जाने की मांग थी। उन्हें नहीं हटाया गया और परिणाम भाजपा को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। निर्दलीय में पांच ऐसे विधायक  चुने गए जो भाजपा के विद्रोही थे तथा कई सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों को पार्टी के लोग ही हराने में भूमिका निभा रहे थे।इन दो घटनाओं से मोदी ने सबक लिया और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को जाना पड़ा।  वहां भाजपा के लिए बड़ी अजीबोगरीब स्थिति हो गई जब तीरथ सिंह रावत ने 10 मार्च को पदभार ग्रहण करने के बाद 2 जुलाई को ही इस्तीफा दे दिया क्योंकि वे लोकसभा सांसद थे और चूंकि चुनाव का एक वर्ष बाकी था इसलिए छः महीने में वे विधायक निर्वाचित नहीं हो सकते थे। आज वहां पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री हैं। इसी तरह भाजपा ने कर्नाटक में वहां के वरिष्ठ और सर्वाधिक लोकप्रिय नेता बीएस येदियुरप्पा से इस्तीफा दिला कर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया है। वैसे तो मोदी ने अघोषित रूप से भाजपा के अंदर मुख्यमंत्री मंत्री आदि पद के लिए 75 वर्ष की उम्र सीमा तय की। बावजूद अपवाद के रूप में येदियुरप्पा को इसलिए मुख्यमंत्री बनाया और अभी तक बनाए रखा क्योंकि उनके समानांतर उस समय सरकार को संभालने व उसे बनाए रखने वाला कोई दूसरा नेता नहीं दिख रहा था। एक तो लंबे समय तक उन्हें आगे जारी नहीं रखा जा सकता था और दूसरे ,पार्टी के अंदर से उनके विरोध आवाजें उठने लगी थी। कहने का तात्पर्य है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने मुख्यमंत्री को हर हाल में बनाए रखने की अपनी नीति को बदल दिया है। वह किसी व्यक्ति को बनाए रखने के लिए राजनीतिक जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है। यह भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों के लिए भी संकेत है। 

 इसकी चाहे आप आलोचना करिए या कुछ लेकिन इसमें विरोधी पार्टियों विशेषकर कांग्रेस के लिए  सीख भी है। विपक्ष के नाते वह भाजपा की आलोचना करे, उसके विरुद्ध अभियान चलाए, लेकिन  किस सामान्य तरीके से प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन करती है इसकी समीक्षा कर अपनी पार्टी के अंदर अपनाने की कोशिश करे। आप देख रहे हैं कि पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किस ढंग से भाजपा के मुख्यमंत्री के विरुद्ध वहां के प्रमुख नेताव  मंत्री विरोध कर रहे हैं, लंबे समय से अंतर्कलह सामने है, केंद्रीय नेतृत्व उसे संभालने की हर संभव कोशिश कर रहा है लेकिन स्थिति बदल नहीं रही। भाजपा ने कितनी आसानी से उत्तराखंड में दो-दो परिवर्तन किए, कर्नाटक और अब गुजरात में किए और कहीं से विद्रोह का स्वर सामने नहीं आया। पार्टी के अंदरूनी झगड़े या राजनीतिक चुनौतियों को किस ढंग से संभाला जा सकता है इसका यह एक उदाहरण है। कर्नाटक में येदियुरप्पा के पक्ष में तो लिंगायत समुदाय के साधु संत ही खड़े थे। वो विद्रोह कर सकते थे। बावजूद कितनी आसानी से उन्होंने आगामी मुख्यमंत्री के लिए रास्ता प्रशस्त किया यह देश के सामने है। आज के दौर में मुख्यमंत्री या बड़े पद पर कायम नेता से इस्तीफा दिलवाने के बावजूद सतह पर इतनी सहज और सामान स्थिति बनाए रखना आसान नहीं होता।  

हालांकि स्वयं भाजपा के भविष्य की दृष्टि से इसके नकारात्मक परिणाम भी आ सकते हैं। एक समय कांग्रेस मैं केंद्रीय नेतृत्व जब चाहे मुख्यमंत्री को बदल सकता था। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में रिकॉर्ड मुख्यमंत्री बदले गए, राजीव गांधी के कार्यकाल में भी यह कायम रहा। लेकिन बाद के कार्यकाल में यह आसान नहीं रहा। इस कारण अलग-अलग प्रदेशों में कांग्रेस टूटी कमजोर होती गई और आज उसकी दशा हमारे सामने है। इंदिरा गांधी के समय तो मुख्यमंत्रियों के बारे में राजनीतिक विश्लेषक मेड इन दिल्ली शब्द प्रयोग करने लगे थे। इसलिए भाजपा राजनीतिक जोखिम दूर करने के लिए मुख्यमंत्री को बदले लेकिन भविष्य में यह संभव नहीं कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह ही सक्षम प्रभावी नेतृत्व हमेशा रहे जो ऐसे विरोध और विद्रोह को इतनी सहजता से संभाल सके।

 अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092,मोबाइल- 98110 27208

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

अफवाहों पर न जाएं, भारत की अफगान नीति सही

अवधेश कुमार 

भारत की अफगानिस्तान और तालिबान संबंधी नीतियों को लेकर जिस तरह के दुष्प्रचार और अफवाह बार-बार सामने आ रहे हैं उनसे आम भारतीय के अंदर भी कई प्रकार की आशंकाएं पैदा हो रही है। सोशल मीडिया पर सबसे बड़ा प्रचार यह हुआ कि भारत ने तालिबान को मान्यता दे दिया। यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने गुपचुप तरीके से तालिबान से बातचीत की और उसके साथ काम करने को तैयार हो गया है। इसके पहले यह दावा किया जा रहा था कि सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता में ही तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से बाहर कर दिया गया और भारत ने उसका समर्थन किया। इस तरह की खबरें अगर बार-बार सामने आए तो फिर संभ्रम और संदेह पैदा होना बिल्कुल स्वाभाविक है। तो सच क्या है?

सबसे पहले सुरक्षा परिषद संबंधी प्रस्ताव और मान्यता देने की खबरों पर बात करें। 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर आधिपत्य के बाद अगले दिन भारत की अध्यक्षता में 16 अगस्त को सुरक्षा परिषद की बैठक हुई और जो कुछ भी उसमें हुआ उसे एक बयान के रूप में जारी किया गया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति के हस्ताक्षर से जो बयान जारी किया गया उसे देखिए -- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आंतकवाद से मुकाबला करने के महत्व का जिक्र किया है। ये सुनिश्चित किया जाए कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और न ही तालिबान और न ही किसी अन्य अफगान समूह या व्यक्ति को किसी अन्य देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए।’ दोबारा 27 अगस्त को काबुल हवाईअड्डे पर हुए बम विस्फोटों के एक दिन बाद फिर परिषद की ओर से एक बयान जारी किया गया। इसमें 16 अगस्त को लिखे गए पैराग्राफ को फिर से दोहराया गया। लेकिन इसमें एक बदलाव करते हुए तालिबान का नाम हटा दिया गया। इसमें लिखा था- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।’ तो इतना ही है। इसमें तालिबान को मान्यता देने या तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से निकालने की कोई बात नहीं है। यह अफवाह उड़ाने वालों का उद्देश्य क्या हो सकता है इसके बारे में आप अपना निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र है। 

भारत ने अपने एक महीने की अध्यक्षता में पहल करके पहले अफगानिस्तान पर बैठक बुलाई और तालिबान का नाम लिए बिना आतंकवाद के बढ़ते खतरे को लेकर दुनिया को आगाह किया और उसमें समर्थन भी मिला। सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 2593 अफगानिस्तान को लेकर भारत की मुख्य चिंताओं को संबोधित करता है। आतंकवाद संबंधी प्रस्ताव पर नजर डालिए  --'अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी और देश पर हमले, उसके दुश्मनों को शरण देने, आतंकियों को प्रशिक्षण देने या फिर आतंकवादियों का वित्तपोषण करने के लिए नहीं किया जाएगा। इस प्रस्ताव में खासतौर पर  जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का भी नाम लिया गया है। आज की परिस्थिति में भारत की दृष्टि से इससे अनुकूल प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता था।

अब आएं तालिबान के साथ बातचीत पर। 31 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर जानकारी दी कि भारत ने तालिबान से बातचीत की है। विदेश मंत्रालय ने बताया कि कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान के दोहा राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई से दोहा स्थित भारतीय दूतावास में मुलाकात हुई जिसके लिए तालिबान ने अनुरोध किया था। तालिबान ने इसका खंडन नहीं किया । चूँकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि तालिबान के अनुरोध पर बातचीत हुई यानी भारत ने बातचीत और संपर्क की पहल नहीं की तो इसे शत -प्रतिशत सच मानना ही होगा। बातचीत हुई तो किन विषयों पर? प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार भारतीय राजदूत ने अफगानिस्तान में फंसे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और उनकी भारत वापसी पर विस्तृत बातचीत की तथा कहा कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी भी तरह से भारत विरोधी गतिविधियों और आतंकवाद के लिए नहीं किया जाना चाहिए। इसके अनुसार शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई ने आश्वासन दिया कि इन मुद्दों को सकारात्मक नजरिए से संबोधित किया जाएगा। ऐसे समय जब चीन, रूस ,तुर्की ,कतर जैसे देश तालिबान के साथ सहयोगात्मक रवैया अपना चुके हैं अनेक देश उनके साथ काम करने के लिए आगे आ रहे हैं तथा एक बड़े समूह में दुविधा की स्थिति है। भारत ऐसी बातचीत के प्रस्ताव को ठुकरा कर भविष्य के लिए जोखिम नहीं उठा सकता था। वैसे भी अफगानिस्तान में जो भारतीय हैं उनकी सुरक्षा या उनको वहां से वापस लाने के लिए इस समय तालिबान से ही बात करनी होगी। भारत का राष्ट्रीय हित इसी में है कि किसी तरह आतंकवादी समूह और पाकिस्तान अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए न कर पाए । इसके लिए तालिबान से बातचीत करने में कोई समस्या नहीं है। बातचीत का कतई अर्थ नहीं है कि भारत ने तालिबान को आतंकवादी मानना छोड़ छोड़ दिया या उन्हें बिल्कुल मान्यता ही दे दिया । तालिबान के नेताओं ने कई बार कहा है कि भारत इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण देश है और हम भारत से अच्छे रिश्ते चाहते हैं। उनके प्रवक्ताओं ने भारत को अपनी परियोजनाओं पर काम जारी रखने को भी कहा है । उनका यह भी बयान आया है कि तालिबान किसी भी देश के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा ।  पर तालिबान की विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हम उनके आश्वासन पर एकाएक भरोसा नहीं कर सकते । एक ओर तालिबान का यह बयान है तो दूसरी ओर यह भी कि जम्मू-कश्मीर सहित दुनिया भर के मुसलमानों के लिए आवाज उठाने का उसे अधिकार है। अल कायदा ने तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के साथ यह भी ऐलान कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर को आजाद करने के लिए काम करेगा । तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का बयान है कि चीन उसका सबसे निकट का साझेदार होगा । उसके अनुसार अफगानिस्तान चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का अंग बनेगा । तालिबान ने चीन को अपने खनिज पदार्थों के दोहन का भी खुला निमंत्रण दे दिया है ।

 कहने का तात्पर्य कि भारत के लिए इसमें तत्काल आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है । यह ऐसा समय है जिसमें भारत के लिए निर्णय करना अत्यंत कठिन है । अगर राजनीतिक मतभेद को अलग कर एक देश के हित के नाते हम विचार करेंगे तो सबका निष्कर्ष यही आएगा। एक बड़े वर्ग का आरोप है कि तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर हमारी नीति अस्पष्ट है और यह उचित नहीं है। अगर थोड़ी गहराई से पिछले कुछ महीनों में तालिबान और अफगानिस्तान के संदर्भ में घट रही घटनाएं तथा तालिबान के आधिपत्य से अब तक भारतीय रवैया पर नजर डालें तो निष्कर्ष थोड़ा अलग आएगा। वास्तव में अस्पष्टता ही इस समय के लिए स्पष्ट नीति है। अस्पष्टता की बात कर आलोचना करने वाले का अपना मत हो सकता है लेकिन विचार तो सारी परिस्थितियों को एक साथ मिलाकर करना होगा।  अमेरिका ने भी तालिबान को मान्यता देने या राजनयिक संबंध बनाने की बात नहीं की है। राष्ट्रपति जो बिडेन नहीं कहा है कि तालिबान का चरित्र क्रूर रहा है पहले देखना होगा कि वे अपने को बदलते हैं या नहीं । जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का भी बयान इतना ही है कि हम तालिबान के साथ बातचीत करना चाहते हैं। इसी तरह का विचार कई देशों का है और ज्यादातर देश अभी इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं।  तालिबान के साथ तुरंत संबंध बनाने का सुझाव किसी दूरगामी विचार विमर्श से नहीं आया। यह कहना आसान है कि भारत की नीति गलत है और हम अफगानिस्तान से बाहर हो गए। यानी अफगानिस्तान में बने रहना है तो तालिबान को मान्यता दे देना चाहिए। यह बात अलग है कि मान्यता देने के अफवाह में भी इसके विरुद्ध तीखे स्वर ही हैं।

भारत के लिए यह तो जरूरी है कि किसी न किसी माध्यम से वह वहां संपर्क और संवाद में रहे। स्तनेकजई इसके लिए एक बेहतर व्यक्तित्व है । सैनिक जनरल का उनका प्रशिक्षण देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकादमी में हुआ। इस कारण भारत से उनके संबंध पुराने हैं। भारत के अनेक वर्तमान और पूर्व जनरलों से उनके व्यक्तिगत रिश्ते हैं । दोहा में भारतीय राजदूत से मुलाकात के पहले ही  एक वीडियो संदेश में कहा था कि भारत के साथ हम व्यापारिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को बहुत अहमियत देते हैं और इस संबंध को बनाए रखना चाहते हैं। स्तनेकजई ने भारत  द्वारा बनाए जा रहे चाबहार बंदरगाह को भी उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। हम जानते हैं कि चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़ी परियोजनाएं कारोबारी और रणनीतिक दृष्टि से कितने महत्वपूर्ण हैं। कोई तालिबान नेता इन सबके पक्ष में बयान दे रहा है और वह भारत से बातचीत का आग्रह करता है तो उसे हर दृष्टि से स्वीकार किया जाना चाहिए था। इस नाते भारत का यह बिल्कुल सही कदम था। 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत ने जब दूतावास खाली करना शरू किया था तब स्तनेकजई की तरफ से ही भारतीय अधिकारियों से संपर्क साधा गया था और कहा गया था कि भारत अपना दूतावास बंद नहीं करे। भारत इन परिस्थितियों में कोई जोखिम नहीं उठा सकता। हम चीन नहीं हैं जिसके लिए पाकिस्तान लगातार सक्रिय था और उसके माध्यम से चीन का तालिबानों के साथ तालमेल भी बन गया। भारत कतर और तुर्की भी नहीं है। अफगानिस्तान पर सर्वदलीय बैठक में सरकार की ओर से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कहा कि हम लगातार सक्रिय हैं,  हमारे लिए राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता है और इसके बाद हमारी व्यापारिक-रणनीतिक और अन्य आवश्यकताएं भी अफगानिस्तान से जुड़ी हैं। लेकिन आज की परिस्थितियों में तालिबान के नेतृत्व को लेकर हम जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहते। इसलिए वेट एंड वॉच यानी लगातार नजर रखना और समय की प्रतीक्षा करने की नीति पर चल रहे हैं। भारत के लिए इस समय यही सर्वाधिक सुसंगत और उपयुक्त नीति मानी जाएगी। लेकिन परिस्थिति बिल्कुल अलग है। हमारे लिए अफगानिस्तान में तालिबानों का आधिपत्य सबसे ज्यादा चुनौतियां का प्रश्न बन गया है। ऐसे समय अत्यंत ही सधे हुए और परिपक्व विचार एवं व्यवहार की आवश्यकता है। अफवाह उड़ाने ,अनावश्यक निंदा करने से देश को क्षति होगी। भारत की छवि कमजोर होती है। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर ,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -1100 92 ,मोबाइल- 98110 27208

गुरुवार, 2 सितंबर 2021

हवाई हमलों नेअमेरिका को और जटिल स्थिति में डाला

अवधेश कुमार

अमेरिका ने अफगानिस्तान से बोरिया-बिस्तर समेट लिया है। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में दो हवाई हमला किया जा चुका है। ये दोनों हमले भविष्य के लिए कई प्रश्न खड़े करते हैं। पहला हमला अफगानिस्तान के नंगहार प्रांत में किया गया था। अमेरिकी सेंट्रल कमान के प्रवक्ता ने दावा किया था कि हमने आईएसआईएस के खुरासान मॉडल यानी आईएसकेपी के ठिकाने पर मानव रहित हवाई हमला किया जिसमें काबुल हमले के साजिशकर्ता को मार दिया गया है। दूसरा हमला काबुल में ही किया गया और अमेरिकी सेंट्रल कमांड के प्रवक्ता बिल अर्बन ने कहा कि अमेरिकी सैन्यबलों ने आत्मरक्षा में काबुल में एक गाड़ी पर एयरस्ट्राइक की है, जिसमें आईएसआईएस का बड़ा आतंकवादी मारा गया है, जो हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के लिए खतरा था। आईएसकेपी ने काबुल हवाई अड्डे पर हमले की जिम्मेदारी ली थी। बाद में आईएस की आधिकारिक अमाक न्‍यूज एजेंसी के हवाले गार्जियन समाचार पत्र ने रिपोर्ट दिया कि आईएसकेपी ने आत्मघाती हमलावरों में से एक अब्दुल रहमान अल-लोगारी की तस्वीर जारी की है, जिसने काबुल हवाई अड्डे पर हमला किया था। आईएस ने कहा  है कि हमलावर अमेरिकी बलों से 5  मीटर की दूरी तक पहुंचने में सक्षम रहे। अगर आईएस का यह दावा सही है तो अमेरिका के लिए शर्म का विषय होना चाहिए कि काबुल हवाई अड्डा उसकी सुरक्षा निगरानी में था और हमलावर गोला बारूद के साथ उसके इतने पास पहुंच गया। 

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए विस्फोट में मारे गए 13 अमेरिकी सैनिकों का बदला ले लिया गया है। उन्होंने उसके बाद कहा था कि हम आतंकवादियों को ढूंढ कर मारेंगे । बिडेन प्रशासन की ओर से कहा गया कि हमने कहा था कि मारेंगे और मार दिया। संभव है अमेरिका आगे और भी ड्रोन से मानवरहित हवाई हमले करें। 

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की जोखिम भरी और बेतरतीब वापसी के कदम से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन दुनिया के साथ स्वयं अमेरिकियों के भी निशाने पर हैं। पूरे अमेरिका में उनका व्यापक विरोध हो रहा है। विश्व भर में सोशल मीडिया पर जो बिडेन को जेहादी आतंकवादी समूहों के समर्थक एवं विश्व समुदाय के खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। अमेरिका की थूथू हो रही है। अमेरिका में माहौल यह है कि जो बिडेन ने पूरे देश को शर्मसार किया है । कहा जा रहा है कि उन्होंने दुनिया के साथ साथ अमेरिका के लिए ही जोखिम बढ़ा दिया है। जो तालिबान उतार फेंके गए थे उन्हें इस तरह 20 वर्ष बाद पहले से ज्यादा मजबूत बना कर छोड़ा है कि वे कल अमेरिका के लिए भी सिरदर्द बनेंगे। विश्व भर के विश्लेषकों का यह आकलन भी सही है कि अमेरिका के इस रवैया से पूरी दुनिया भर के जिहादी आतंकवादियों को नई ऊर्जा मिली है। उनको लग रहा है कि हम चाहे जितना आतंकवाद फैलाएं अमेरिका और उनके सहयोगी देश हमारे विरुद्ध कार्रवाई करने नहीं आने वाले। अमेरिका में जो बिडेन को हटाने तक की मांग हो रही है । एक समूह पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन में फिर से अभियान चला रहा है। ट्रंप फिर से सामने आ गए हैं। रिपब्लिकन पार्टी पूरी तरह हमलावर है।रिपब्लिकन सीनेटर और पूर्व प्रवक्ता डेन क्रेनशॉ ऐसे ऐसे तथ्य लेकर सामने आ रहे हैं जिसका जवाब देना बिडेन प्रशासन और डेमोक्रेट के लिए मुश्किल हो गया है।

डेन क्रेनशाॅ ने अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में छोड़े गए युद्धक विमानो, हेलीकॉप्टरों, ड्रोनों,हथियार और गोला बारूद, बख्तरबंद गाड़ियों, आधुनिक उपकरणों की सूची प्रस्तुत करते हुए बताया कि ये हथियार उतने हैं जितने विश्व के 85 प्रतिशत देशों के पास नहीं है। उन्होंने बिडेन को लताड़ते हुए कहा कि मिस्टर प्रेसिडेंट बिडेन, अब मामले को संभालिए जिसे आपने खड़ा किया है। भागने की कोशिश मत कीजिए। आपके हाथ खून से रंगे हैं। हम युद्ध के मैदान में हैं। युद्ध का अंत समझने की गलती मत कीजिए। आपने दुश्मन को एक और फायदेमंद मौका दिया है। यह सच है कि जो बिडेन ने सेना तथा खुफिया एजेंसियों के सुझाव को दरकिनार करते हुए अमेरिकी सेना सहित सैन्य कांट्रैक्टरों एवं अन्य को वापस करने का निर्णय किया। सेना के अंदर भी जो बिडेन को लेकर आक्रोश का भाव है। अफगानिस्तान से लौटे जवान का वीडियो वायरल हुआ है जिसमें कह रहा है कि हमने सब कुछ गड़बड़ कर दिया। जो कुछ 20 सालों में पाया था उसे न केवल खोया बल्कि बुरी तरह पलट दिया। लगभग यही भाव संपूर्ण सैन्य महकमे में है। जो बिडेन से काबुल हवाई अड्डे आतंकवादी हमला के बाद पूछा गया कि क्या आप जिम्मेवारी लेते हैं? उन्होंने कहा कि जो कुछ हुआ उसकी जिम्मेवारी मैं लेता हूं लेकिन इसमें यह जोड़ा कि नहीं भूलिए  कि पूर्व राष्ट्रपति ने 31 मई तक ही अमेरिकी सेना की वापसी का फैसला कर लिया था। उसके बाद पूरे अमेरिका में यह प्रश्न उठाया जाने लगा कि क्या जो बिडेन डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों का अनुसरण करने के लिए राष्ट्रपति बने थे? इसमें उनके पास फिर से कुछ पराक्रम दिखाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। 

अमेरिकी नागरिकों की मृत्यु को आम अमेरिकी सहन नहीं कर पाते और उसमें भी अगर सेना के जवान मारे जाएं तो पूरे देश का माहौल ही अलग हो जाता है। इस तरह माना जा सकता है कि जो बिडेन ने तत्काल आम अमेरिकियों के आक्रोश को कम करने तथा अपनी कलंकित छवि को ठीक करने के लक्ष्य से ये हमले किए हैं। आईएएस खुरासान मॉडल तालिबान और अमेरिका दोनों का विरोधी है। लेकिन यहां भी कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या अमेरिका ने अपनी खुफिया सूचना के आधार पर ये हमले किए या फिर उनको तालिबान ने सूचना दी? अगर सूचना तालिबान ने दी तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अपनी लड़ाई अमेरिका के माध्यम से लड़ना चाहता है? आखिर उसके दुश्मन से अगर अमेरिका लड़ रहा है तो तालिबान के लिए इससे राहत पर प्रसन्नता की और कोई बात हो नहीं सकती। काबुल हवाई अड्डे पर हमले के एक हफ्ते पहले आईएसकेपी के प्रमोशनल वीडियो क्लिप में तालिबान पर अमेरिका की कठपुतली होने और सच्चे शरिया का प्रचार नहीं करने का आरोप लगाया था। उसी संदेश में आईएस ने अफगानिस्तान में जिहाद के नए चरण का वादा किया। तो आईएस उस घोषणा के अनुसार लड़ाई के नए दौर की शुरुआत कर चुका है। प्रश्न है कि क्या बिडेन के नेतृत्व वाला अमेरिका अपनी वापसी के बाद भी इस तरह के हमले करेगा? काबुल हवाई अड्डे हमले का मास्टरमाइंड इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत के प्रमुख मौलवी अब्दुल्ला उर्फ असलम फारूकी को माना जा रहा है।  फारूकी को पिछले साल अप्रैल में अफगान सुरक्षा बलों ने गिरफ्तार किया था। लेकिन, जब तालिबान ने 15 अगस्त को काबुल पर कब्जा कर लिया, तो उन्होंने बगराम जेल से सभी आतंकवादियों को रिहा कर दिया। अफगान सुरक्षा बलों की हिरासत में रहते हुए असलम फारूकी ने आईएसआई के साथ अपने संबंध स्वीकार किया था। पाकिस्तान ने उसके प्रत्यर्पण की मांग की थी जिसे तब अब्दुल गनी सरकार ने मना कर दिया था। तालिबान कहता है कि आईएसकेपी उसका कट्टर दुश्मन है, लेकिन उन्होंने उसे बगराम जेल से अन्य आतंकवादियों से साथ ही रिहा कर दिया। यह तालिबान के आम व्यवहार के विपरीत है। ध्यान रखने की बात यह भी है कि इस समय काबुल के सुरक्षा की जिम्मेवारी तालिबान ने हक्कानी समूह को दे दिया है और हक्कानी समूह का पूरा समर्थन आईएस केपी को रहा है। फारुकी पाकिस्तानी नागरिक है।  उसका मुख्य केंद्र अभी भी पाकिस्तान ही है। 

इन सारे सूत्रों को जोड़ने के बाद कोई एक निष्कर्ष निकालना कठिन होता है। तालिबान आईएसकेपी के लोगों को छोड़ते नहीं लेकिन उन्होंने फारुकी को आराम से छोड़ दिया। तालिबान हक्कानी समूह एक हैं तो फिर आईएसकेपी को हक्कानी का समर्थन क्यों है? जाहिर है ,जो बिडेन भले अपनी इज्जत बचाने की छटपटाहट में आईएसकेपी को निशाना बना रहे हों या भविष्य में निशाना बनाएंगे लेकिन साफ है कि इससे संबंधित सारे पहलुओं की विवेचना उनके प्रशासन ने नहीं की है। आशंका यह है कि तालिबान और अफगानिस्तान से जान छुड़ाकर भागने की हड़बड़ाहट में जो बिडेन ने कहीं एक नया मोर्चा तो नहीं खोल दिया। या तालिबान और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अमेरिका को फंसाने की चाल तो नहीं चली? सारे प्रश्न अमेरिका के हवाई हमले वाले नए तेवर से जुड़े हुए हैं। इतना जरूर स्वीकार करना होगा कि अमेरिका का हवाई हमला बताता है कि अफगानिस्तान से भागने की आतुरता के बावजूद जो बिडेन के लिए जान छुड़ा पाना  मुश्किल है। ऐसे हवाई हमलों से अमेरिकियों का गुस्सा शांत नहीं हो सकता और आईएएस से टकराव उन्हें पूरी तरह अफगानिस्तान से भागने नहीं देगा । भले धरती पर नहीं लेकिन आकाश के रास्ते अफगानिस्तान में अमेरिका बने रह सकता है। 

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर ,पांडव नगर कंपलेक्स ,दिल्ली -110092, मोबाइल- 98110 2708

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